Wednesday 6 January 2016

बढ़े दो डग, टूटे बाधाओं के बंधन


डॉ.संजीव, लखनऊ
जनसंख्या वृद्धि के साथ उसका नियोजन चुनौती है तो गांव-गांव तक आशा व एएनएम इस चुनौती से जूझ रही हैं। आशा व एएनएम ग्र्रामीण इलाकों में सरकार की पहली संदेश वाहक हैं। उन्हें तमाम समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है किंतु उनके बढ़ते कदम बाधाओं के बंधन तोड़ रहे हैं।
बहराइच के मिहिपुरवा ब्लॉक का फकीरपुरी गांव सीमा पर भारत का अंतिम गांव है। यहां पहुंचने के लिए 43 किलोमीटर का घना जंगल पार करना पड़ता है। थारू जनजाति की आबादी वाले इस गांव में जनसंख्या नियोजन की अलख जगाना बेहद मुश्किल था किन्तु इसे वहां आशा के रूप में तैनात हुई प्रेम कुमारी ने कर दिखाया है। प्रेम कुमारी 17 साल की उमर में ब्याह कर ससुराल आयीं तो कुछ दिन बाद ही आशा के रूप में गांव की सभी महिलाओं की जिम्मेदारी मिल गयी। महिलाओं व उनके बच्चों के नियोजन की पहल में कदम बढ़ाए तो परम्पराओं व मान्यताओं की बेडिय़ां आड़े आने लगीं। आशा के रूप में हमें लोगों को जागरूक करने, जनसंख्या नियोजन को स्वीकारने के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। महिलाएं तैयार ही नहीं होती थीं। कई बार उनके पति ही उन्हें भड़का देते थे। पांच साल पहले जब दूसरे बच्चे की मां बनी, तो गांव वालों ने कहना शुरू किया दूसरों को तो कहती हो, खुद क्यों नहीं ऑपरेशन कराती। प्रेम कुमारी ने ऑपरेशन कराया। खुद ऑपरेशन के बाद उन्होंने ज्यादा बच्चे न होने का संदेश दिया और लोग बदलने लगे। अब महिलाएं उनके साथ खड़ी रहती हैं और असर भी दिख रहा है। बच्चे स्वस्थ हैं और उनके टीकाकरण से लेकर इलाज तक की पूरी चिंता होती है।
महिपुरवा ब्लॉक की ही एएनएम सुमित्रा राय का काम भी चुनौती भरा रहा है। उनके जिम्मे अम्बावर्दिया व चहलवां गांव हैं। वहां तक पहुंचने में इन्हें आठ किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता था। वे गांवों जातीं तो विरोध शुरू हो जाता। जंगल से भरे इलाके में बमुश्किल पहुंचने के बाद भी विरोध का सामना करने के लिए उन्हें चूल्हे तक संपर्क की रणनीति अपनाई। वे घर-घर संवाद करने लगीं। वे बीमारियों के बारे में बतातीं और लोग दरवाजे बंद करते तो कई बार बाहर से ही चिल्लाते हुए जानकारी देने लगतीं। धीरे-धीरे अस्वीकार्यता का कोहरा छंटा और लोग उनसे जुडऩे लगे। टीकाकरण के साथ अस्पताल में प्रसव के फायदे बताए तो लोग उसका हिस्सा बनने लगे। अब तो वे खुद पूरी तरह अपडेट रहती ही हैं, दोनों गांवों के लोगों को भी अपडेट रखती हैं। कभी बेगानेपन से शुरू हुआ गांव वासियों से उनका रिश्ता अब अपनेपन के साथ पारिवारिक रूप ले चुका है। पिछले दिनों प्रमोशन कर जब उन्हें हेल्थ विजिटर बना दिया गया, फिर भी वे एएनएम का काम कर रही हैं। आठ किलोमीटर पैदल जाने से बचने का रास्ता भी हाल ही में दुपहिया वाहन खरीदने के कारण बंद हुआ किंतु वे आज भी गांव के एक कोने में गाड़ी खड़ी कर दोनों गांवों के लोगों से सीधे जुड़ी रहती हैं।
हम गरीब हैं, बच्चा तो न गरीब हो
प्रेमकुमारी कहती हैं कि बच्चों को लेकर जिम्मेदारी का भाव हर मां में होता है। नियोजन के अपने अभियान में उन्होंने इसी को आधार बनाया। हर मां से कहा, हम गरीब हैं तो क्या हुआ, कम से कम कुछ ऐसा करें कि बच्चा हमसे गरीब न हो। असर भी हो रहा है और लोग कदम दर कदम साथ दे रहे हैं। कई बार पति और परिवार के अन्य सदस्य विरोध भी करते हैं तो महिलाएं आगे आ जाती हैं। वे बच्चों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती हैं।
पुरुषों को समझाकर महिलाओं तक पैठ
26 साल से एएनएम के रूप में काम कर रही सुमित्रा राय का कहना है कि लोगों को तैयार करने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। अब तो फिर भी लोग बात सुनते हैं, पहले तो लोग देखकर भागते थे। महिलाएं दरवाजे बंद कर लेती थीं और पुरुष मिलने नहीं देते थे। घर के पुरुष सदस्यों को समझाकर शुरुआत की गयी और धीरे-धीरे लोग समझने लगे। अब तो कई बार लोग इंतजार करते हैं और घरों के उन आयोजनों का भी न्योता आता है, जिनमें सिर्फ परिवार के लोग ही बुलाए जाते हैं।

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