डॉ.संजीव
मिश्र
संयुक्त
राष्ट्र संघ एक बार फिर चर्चा में है। अगले बरस, यानी 2020 में यह वैश्विक संस्था
अपनी स्थापना के 75 वर्ष पूरे करेगी। इस
समय पूरी दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष संयुक्त राष्ट्र के 74वें शिखर सम्मेलन के लिए
अमेरिका में जुटे हैं। अक्टूबर माह में 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहे संयुक्त
राष्ट्र के लिए भी यह वर्ष तमाम चुनौतियों व फैसलों वाला है। 24 अक्टूबर 1945 को
दुनिया के 50 देशों के हस्ताक्षरों के साथ शुरू हुई संयुक्त राष्ट्र की यात्रा जब
193 सदस्य देशों के साथ 75वें वर्ष में प्रवेश करेगी, तो इस संस्था को अपनी अब तक
की यात्रा की समीक्षा भी करनी होगी। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र के लिए भूमिकाओं के
पुनर्निर्धारण का भी समय है, जिसकी प्रतीक्षा दुनिया की विकास यात्रा में समय के
साथ कदमताल कर आगे बढ़े भारत सहित कई देश कर रहे हैं।
संयुक्त
राष्ट्र संघ की शुरुआत 50 देशों के एक समूह के साथ हुई थी। भारत संयुक्त राष्ट्र
की यात्रा में शुरुआत से ही सहगामी रहा है। भारत, संयुक्त राष्ट्र के उन प्रारंभिक
सदस्यों में शामिल था, जिन्होंने 1 जनवरी 1942 को वाशिंगटन में संयुक्त राष्ट्र
घोषणा पर हस्ताक्षर किये थे तथा 25 अप्रैल से 26 जून, 1945 तक सेन फ्रांसिस्को में
ऐतिहासिक संयुक्त राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय संगठन सम्मेलन में भी भाग लिया था।
इतना पुराना साथी होने के बावजूद संयुक्त राष्ट्र में भारत को अपना उपयुक्त स्थान
नहीं मिल सका है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी समस्यता की भारत की मांग
को दुनिया भर से समर्थन के बावजूद इस पर अमल नहीं हो सका है।भारत ही नहीं संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए जापान और जर्मनी जैसे देश भी
जोरदार दावेदार हैं। दरअसल संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय दुनिया की
महाशक्ति के रूप में उभरे पांच देश ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, रूस और अमेरिका संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनाए गए थे। परिषद के दस अस्थायी सदस्यों
का चुनाव दुनिया के अलग-अलग अंचलों से दो वर्ष के लिए होता है। दरअसल स्थायी
सदस्यों द्वारा अपने अधिकारों के प्रयोग को लेकर दुनिया भर से सवाल भी उठते रहे
हैं। इन्हें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के किसी भी फैसले पर अपने विशेष अधिकार
(वीटो) प्रयोग का अवसर मिलता है। यह अधिकार प्राप्त सभी देश अपनी सुविधा व रणनीति
के हिसाब से इस अधिकार का प्रयोग करते हैं। अकेले रूस ही अब तक 22 बार व अमेरिका
16 बार इसका प्रयोग कर चुका है। दरअसल पांच देशों तक सिमटे अधिकारों के कारण
सुरक्षा परिषद वैश्विक शांति स्थापना में अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन नहीं
कर पा रही है। सीरिया के विवाद में रूस व अमेरिका आमने सामने आ जाते हैं, तो
पाकिस्तान के मामले में कई बार चीन खुलकर पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखता है। उत्तर
कोरिया के साथ चीन की जुगलबंदी भी वैश्विक शांति के मामले में दुनिया को दो हिस्सो
में बांटती नजर आती है। इन स्थितियों में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के
विस्तार व पुनर्गठन का यह उपयुक्त समय है। भारत जैसे देश पूरी दुनिया के साथ कदम
मिलाकर चल रहे हैं, तो उन्हें उनका वांछित अधिकार मिलना ही चाहिए।
संयुक्त
राष्ट्र ने अपने 75वें वर्ष में प्रवेश के साथ ही वर्ष 2030 के लिए कुछ
अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित कर उन पर काम करना भी शुरू किया है। पर्यावरण को
लेकर चिंता उनमें से एक प्रमुख बिन्दु है। इस बिन्दु पर विकसित व विकासशील देशों
को एक मंच पर लाना व कुछ देशों की मानसिक अराजकता से मुक्ति पाना भी संयुक्त
राष्ट्र के सामने एक बड़ी चुनौती है। दुनिया के कुछ देशों की आर्थिक दादागिरी
संयुक्त राष्ट्र के फैसलों पर भी कई बार दिखाई पड़ जाती है। निरपेक्ष बने रहने के
दावों के साथ उस पर अमल भी सुनिश्चित किये जाने के लिए संयुक्त राष्ट्र को अपनी
पूरी वैचारिक प्रक्रिया में बदलाव लाना होगा। यह समय इस दृष्टि से भी बेहद
महत्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र को हर स्तर पर आंतरिक लोकतंत्र भी मजबूत करना
होगा। यह इस हद तक मजबूत होना चाहिए दुनिया को न्याय दिखे भी। संयुक्त राष्ट्र की
आधिकारिक भाषा के रूप में भी दुनिया में उनकी लोकप्रियता को आधार बनाए जाने की
जरूरत है। अभी संयुक्त राष्ट्र ने छह भाषाओं अंग्रेजी, अरबी, चीनी, फ्रांसीसी,
रूसी व स्पेनी को अधिकृत भाषाओं के रूप में मान्यता दी है। दुनिया में बोली जाने
वाली भाषाओं में दूसरे स्थान पर आने वाली हिन्दी भी संयुक्त राष्ट्र की अधिकृत
भाषा बनने की लड़ाई लड़ रही है। 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी
वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में भाषण देकर इस मुहिम की औपचारिक शुरुआत
की थी, जो अब तक जारी है। संयुक्त राष्ट्र को इस दिशा में बदलाव कर वैश्विक
आकांक्षाओं व अपेक्षाओं की पूर्ति करनी चाहिए। भूमिकाओं के पुनर्निर्धारण से
सुयंक्त राष्ट्र भी दुनिया में अपनी उपयुक्त भूमिका का निर्वहन कर सकेगा। इससे न
सिर्फ इस अंतर्राष्ट्रीय संस्था की छवि मजबूत होगी, बल्कि पूरा विश्व मजबूत हो
सकेगा।