Thursday 26 September 2019

संयुक्त राष्ट्रः भूमिकाओं के पुनर्निर्धारण का समय


डॉ.संजीव मिश्र
संयुक्त राष्ट्र संघ एक बार फिर चर्चा में है। अगले बरस, यानी 2020 में यह वैश्विक संस्था अपनी स्थापना के 75  वर्ष पूरे करेगी। इस समय पूरी दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष संयुक्त राष्ट्र के 74वें शिखर सम्मेलन के लिए अमेरिका में जुटे हैं। अक्टूबर माह में 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहे संयुक्त राष्ट्र के लिए भी यह वर्ष तमाम चुनौतियों व फैसलों वाला है। 24 अक्टूबर 1945 को दुनिया के 50 देशों के हस्ताक्षरों के साथ शुरू हुई संयुक्त राष्ट्र की यात्रा जब 193 सदस्य देशों के साथ 75वें वर्ष में प्रवेश करेगी, तो इस संस्था को अपनी अब तक की यात्रा की समीक्षा भी करनी होगी। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र के लिए भूमिकाओं के पुनर्निर्धारण का भी समय है, जिसकी प्रतीक्षा दुनिया की विकास यात्रा में समय के साथ कदमताल कर आगे बढ़े भारत सहित कई देश कर रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की शुरुआत 50 देशों के एक समूह के साथ हुई थी। भारत संयुक्त राष्ट्र की यात्रा में शुरुआत से ही सहगामी रहा है। भारत, संयुक्त राष्ट्र के उन प्रारंभिक सदस्यों में शामिल था, जिन्होंने 1 जनवरी 1942 को वाशिंगटन में संयुक्त राष्ट्र घोषणा पर हस्ताक्षर किये थे तथा 25 अप्रैल से 26 जून, 1945 तक सेन फ्रांसिस्को में ऐतिहासिक संयुक्त राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय संगठन सम्मेलन में भी भाग लिया था। इतना पुराना साथी होने के बावजूद संयुक्त राष्ट्र में भारत को अपना उपयुक्त स्थान नहीं मिल सका है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी समस्यता की भारत की मांग को दुनिया भर से समर्थन के बावजूद इस पर अमल नहीं हो सका है।भारत ही नहीं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए जापान और जर्मनी जैसे देश भी जोरदार दावेदार हैं। दरअसल संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय दुनिया की महाशक्ति के रूप में उभरे पांच देश ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, रूस और अमेरिका संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनाए गए थे। परिषद के दस अस्थायी सदस्यों का चुनाव दुनिया के अलग-अलग अंचलों से दो वर्ष के लिए होता है। दरअसल स्थायी सदस्यों द्वारा अपने अधिकारों के प्रयोग को लेकर दुनिया भर से सवाल भी उठते रहे हैं। इन्हें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के किसी भी फैसले पर अपने विशेष अधिकार (वीटो) प्रयोग का अवसर मिलता है। यह अधिकार प्राप्त सभी देश अपनी सुविधा व रणनीति के हिसाब से इस अधिकार का प्रयोग करते हैं। अकेले रूस ही अब तक 22 बार व अमेरिका 16 बार इसका प्रयोग कर चुका है। दरअसल पांच देशों तक सिमटे अधिकारों के कारण सुरक्षा परिषद वैश्विक शांति स्थापना में अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन नहीं कर पा रही है। सीरिया के विवाद में रूस व अमेरिका आमने सामने आ जाते हैं, तो पाकिस्तान के मामले में कई बार चीन खुलकर पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखता है। उत्तर कोरिया के साथ चीन की जुगलबंदी भी वैश्विक शांति के मामले में दुनिया को दो हिस्सो में बांटती नजर आती है। इन स्थितियों में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विस्तार व पुनर्गठन का यह उपयुक्त समय है। भारत जैसे देश पूरी दुनिया के साथ कदम मिलाकर चल रहे हैं, तो उन्हें उनका वांछित अधिकार मिलना ही चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र ने अपने 75वें वर्ष में प्रवेश के साथ ही वर्ष 2030 के लिए कुछ अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित कर उन पर काम करना भी शुरू किया है। पर्यावरण को लेकर चिंता उनमें से एक प्रमुख बिन्दु है। इस बिन्दु पर विकसित व विकासशील देशों को एक मंच पर लाना व कुछ देशों की मानसिक अराजकता से मुक्ति पाना भी संयुक्त राष्ट्र के सामने एक बड़ी चुनौती है। दुनिया के कुछ देशों की आर्थिक दादागिरी संयुक्त राष्ट्र के फैसलों पर भी कई बार दिखाई पड़ जाती है। निरपेक्ष बने रहने के दावों के साथ उस पर अमल भी सुनिश्चित किये जाने के लिए संयुक्त राष्ट्र को अपनी पूरी वैचारिक प्रक्रिया में बदलाव लाना होगा। यह समय इस दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र को हर स्तर पर आंतरिक लोकतंत्र भी मजबूत करना होगा। यह इस हद तक मजबूत होना चाहिए दुनिया को न्याय दिखे भी। संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में भी दुनिया में उनकी लोकप्रियता को आधार बनाए जाने की जरूरत है। अभी संयुक्त राष्ट्र ने छह भाषाओं अंग्रेजी, अरबी, चीनी, फ्रांसीसी, रूसी व स्पेनी को अधिकृत भाषाओं के रूप में मान्यता दी है। दुनिया में बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे स्थान पर आने वाली हिन्दी भी संयुक्त राष्ट्र की अधिकृत भाषा बनने की लड़ाई लड़ रही है। 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में भाषण देकर इस मुहिम की औपचारिक शुरुआत की थी, जो अब तक जारी है। संयुक्त राष्ट्र को इस दिशा में बदलाव कर वैश्विक आकांक्षाओं व अपेक्षाओं की पूर्ति करनी चाहिए। भूमिकाओं के पुनर्निर्धारण से सुयंक्त राष्ट्र भी दुनिया में अपनी उपयुक्त भूमिका का निर्वहन कर सकेगा। इससे न सिर्फ इस अंतर्राष्ट्रीय संस्था की छवि मजबूत होगी, बल्कि पूरा विश्व मजबूत हो सकेगा।

Thursday 19 September 2019

पैसा कम, बातें ज्यादा... अति सर्वत्र वर्जयेत्


डॉ.संजीव मिश्र
अति दानात बलिर्वधो ह्यति मानात सुयोधन
अति लौल्यात रावणो हन्त: अति सर्वत्र वर्जयेत्
संस्कृत के इस सुभाषित का अर्थ मौजूदा दौर में भी समीचीन है। इन दो पंक्तियों में कहा गया है कि अत्यधिक दानशील होने के कारण राजा बलि ने स्वयं को बंदी बनने दिया, अत्यधिक अभिमानी होने के कारण सम्राट दुर्योधन व अस्थिर मन व गर्व के कारण महाबली रावण का नाश हो गया, अतः किसी भी प्रवृत्ति या परिस्थिति में अति से बचना चाहिए। यह सुभाषित किसी भी प्रकार के आधिक्य पर नियंत्रण की सीख देता है। मौजूदा राजनीतिक परिवेश में जिस तरह आर्थिक मंदी के दौर में राजनीतिक विमर्श सिर्फ वाद-विवाद पर केंद्रित हो गया है, वहां ज्यादा बातें संकट पैदा कर रही हैं। एक ओर पूरा देश आर्थिक मंदीका शिकार है, सरकार बार-बार सामने आकर मंदी से निपटने के जतन कर रही है, वहीं बेसिरपैर की बातें जनता का मनोबल गिरा रही हैं। इस पर तुरंत नियंत्रण स्थापित करना जरूरी है।
पिछले कुछ महीने भारत के सामने आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियों भरे रहे हैं। जिस तेजी से बेरोजगारी दर ने पिछले कुछ दशकों का आंकड़ा पार किया है, उससे निपटने की सरकारी कोशिशों के बीच ही आर्थिक मंदी की तेज दस्तक ने पूरे तंत्र को झकझोर दिया है। इस वर्ष भारत में बेरोजगारी दर 6.1 प्रतिशत सामने आई है, जो पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक है। आबादी बढ़ने के साथ बेरोजगारी बढ़ने के तर्क को स्वीकार भी कर लिया जाता, किन्तु इस बार समस्या पुराने रोजगारों के जाने की भी है। जिस तेजी से बाजार में मंदी आयी है, तमाम ऐसे लोग भी बेरोजगार हो गए, जो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे। मंदी की चपेट में आई कंपनियों ने देश में करोड़ों ऐसे बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी है, जिनकी गिनती रोजगार पाए हुए लोगों में होती थी। इससे न सिर्फ आंकड़ों का गणित उलझा, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था का पैमाना ही उलझ कर रह गया है। हालात ये हैं कि देश का ऑटो सेक्टर रिवर्स गियर में चल रहा है, टेक्सटाइल सेक्टर में लगभग 35 प्रतिशत गिरावट आई है और रियल इस्टेट सेक्टर भरभरा कर गिर रहा है। हालात ये हैं कि देश के तीस बड़े शहरों में तेरह लाख के आसपास मकान बनकर तैयार खड़े हैं, किन्तु उन्हें खरीदार नहीं मिल रहे हैं।
सरकारी आंकड़े भी खराब अर्थ व्यवस्था की पुष्टि करते हैं। केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन के मुताबिक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के मामले में स्थिति चिंताजनक है। वित्तीय वर्ष 2018-19 में देश की जीडीपी दर 6.8 प्रतिशत रही, जो पिछले पांच वर्षों में सबसे कम है। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी मंदी की आहट भांपते हुए वित्तीय वर्ष 2019-20 के लिए अनुमानित विकास दर 6.9 प्रतिशत पर सीमित कर दी है। हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी आंकड़े बैंकों द्वारा उद्योगों को दिये जाने वाले कर्ज में गिरावट की गवाही भी देते हैं। इसके अनुसार पेट्रोलियम, टेलीकॉम, खनन, फर्टिलाइजर व टेक्सटाइल जैसे उद्योगों ने बैंकों से कर्ज लेना कम कर दिया है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में आए बदलावों के साथ डॉलर के मुकाबले रुपये की घटती कीमतें भी समस्या बढ़ा रही हैं। इसका असर आयात-निर्यात, दोनों पर पड़ रहा है। अगस्त महीने को ही लिया जाए तो भारत के आयात व निर्यात, दोनों में कमी दर्ज की गयी है। अगस्त में जहां आयात में 13.45 प्रतिशत, वहीं निर्यात में 6.05 प्रतिशत कमी आई है।
आर्थिक मंदी की लगभग पुष्टिकारक स्थितियों के बाद केंद्र सरकार भी आगे आई है। वित्त मंत्री ने कई उपायों की घोषणा भी की है। इन कोशिशों को सरकार से जुड़े कुछ राजनीतिज्ञों के बयान नकारात्मक रूप से प्रभावित भी कर रहे हैं। जिस तरह पहले ऑटो सेक्टर में आई गिरावट के लिए ओला-उबर जैसी कंपनियों के प्रसार को कारण बताया गया, तो कभी अर्थव्यवस्था के आंकड़ों की चर्चा करते हुए आइंस्टीन से गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का प्रतिपादन करा दिया गया। एक राज्य के मंत्री ने सावन भादों को मंदी का कारण बताया, वहीं बेरोजगारी के लिए उत्तर भारतीयों की अकर्मण्यता को कारण बता कर सरकार के प्रतिनिधि एक तरह से लोगों को चिढ़ा रहे हैं। इससे जिन लोगों की नौकरियां जा रही हैं, उनका न सिर्फ मनोबल गिरता है, बल्कि सरकार को लेकर उनके मन में नकारात्मक छवि भी बन रही है। सरकार को इन बयानवीरों पर नियंत्रण करना होगा। इन बयानों के बाद अल-अलग तरह की सफाई तो आ जाती है किन्तु तब तक जो नुकसान होना होता है, वह हो चुका होता है। ऐसे में ये पंक्तियां याद कर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और रोजगार के अवसर सृजित करने पर जोर दिया जाना चाहिए...
चुप रहना ही बेहतर है, जमाने के हिसाब से,      
धोखा खा जाते है, अक्सर ज्यादा बोलने वाले !!

Friday 13 September 2019

हिन्दी हैं हम... सोच बदल कर तो देखें


डॉ.संजीव मिश्र

हर वर्ष 14 सितंबर को हम हिन्दी दिवस के रूप में मनाते हैं। हिन्दी की उत्सवधर्मिता तो पहले से ही प्रारंभ हो जाती है। इस समय पूरे देश में हिन्दी पखवाड़े से लेकर हिन्दीसेवियों के सम्मान की होड़ सी लगी हुई है। ऐसे में हिन्दी पर सोच बदलने का दबाव भी साफ दिख रहा है। हिन्दी पखवाड़े पर चिंतन की चिंता हिन्दी भाषियों के साथ उन लोगों में भी दिखाई देती है, जिनके चिंतन का माध्यम हिन्दी नहीं है। वे अंग्रेजी में सोचते हैं, अंग्रेजी में सोचने वालों को श्रेष्ठ मानते हैं और परिणाम स्वरूप हिन्दी दिवस को ‘हिन्दी डे’ में बदलकर अपना वैशिष्ट्य साबित करना चाहते हैं। पूरी दुनिया में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हिन्दी के लिए इससे अधिक चिंतित करने वाली परिस्थितियां और कुछ नहीं होंगी। अब हमें सोच बदल कर आगे बढ़ना होगा। यह संपूर्ण देश व समाज के लिए भी श्रेयस्कर साबित होगा।
हिन्दी दुनिया में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। दुनिया के प्रमुख विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग की जरूरत महसूस की जा रही है। भारत आर्थिक दृष्टि से दुनिया की महाशक्ति बनने की तैयारी में है। हम अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत करने का लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ रहे हैं। इसकी प्राप्ति के लिए भी अंग्रेजी को माध्यम बनाने के स्थान पर हिन्दी को ही माध्यम बनाने की पहल करनी होगी। यह पहल अंग्रेजी से शत्रुता करके नहीं की जा सकती। इसके लिए हिन्दी को भारतीय भाषाओं के साथ मिलकर पहल करनी होगी। भारतीय भाषाओं की समृद्धि के साथ हिन्दी के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समृद्धि का पथ प्रशस्त होगा। वैसे भी ‘एक राष्ट्र’ के जिस चिंतन पर इस समय जोर दिया जा रहा है, उसमें हिन्दी को अपनी भगिनी भारतीय भाषाओं के साथ आगे बढ़ना होगा। भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी का यह भाव निश्चित रूप से देश के कुछ हिस्सों में बीच-बीच में होने वाले हिन्दी विरोध की समाप्ति की राह खोलेगा।
हिन्दी के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती भाषाई सौंदर्य के साथ अपने मूल अस्तित्व को बचाए रखने की है। हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता के बीच देश के अंदर जिस तरह अंग्रेजी को लेकर दबाव का वातावरण बन रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। एक भाषा के रूप में अंग्रेजी सहित किसी भी भारतीय भाषा को सीखना अनुपयोगी नहीं कहा जा सकता, किन्तु हिन्दी या भारतीय भाषाओं के अलावा विदेशी भाषा, विशेषकर अंग्रेजी न जानने वालों को जिस तरह समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। कुछ वर्ष पूर्व देश में सभी प्रमुख परीक्षाओं में हिन्दी माध्यम वाले विद्यार्थियों का बोलबाला रहता था। अब स्थितियां बदली हैं। अब तो देश के चर्चित हिन्दी माध्यम के विद्यालय भी स्वयं को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में परिवर्तित कर रहे हैं। अंग्रेजी के इस दबाव से अध्यापन के स्तर पर भी मुक्ति जरूरी है। हिन्दी के प्रति अनुराग की वृद्धि के बिना यह संभव नहीं है। हिन्दी के अस्तित्व संरक्षण के लिए प्राथमिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी या भारतीय भाषाओं को बनाया जाना अनिवार्य किया जाना चाहिए।
दुनिया में आधुनिकीकरण के दौर में हिन्दी सर्वाधिक उपयुक्त भाषा मानी जा रही है। कम्प्यूटर के लिए संस्कृत को सबसे निकटस्थ भाषा बताए जाने की पुष्टि तो तमाम बार हो चुकी है, ऐसे में संस्कृत परिवार की भाषा हिन्दी को आगे कर पूरी दुनिया में श्रेष्ठतम भाषागत सौंदर्य का सृजन किया जा सकता है। इसके लिए सरकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। भारत में हिन्दी स्वतंत्रता के बाद से लगातार सरकारी उपेक्षा का शिकार रही है। हिन्दी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया, किन्तु इसकी सर्वस्वीकार्यता के लिए सतत व गंभीर प्रयास कभी नहीं किये गए। सरकारी कार्यालयों में महज वर्ष में एक बार हिन्दी दिवस मनाने व पंद्रह दिन का राजभाषा सप्ताह मनाने भर से इस लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति भी जरूरी है। लोगों के हिन्दी से आत्मसंवाद की प्रक्रिया शुरू करनी होगी। साथ ही सरकार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की स्थापना के गंभीर प्रयास करने होंगे। जिस तरह योग की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता के लिए 177 देशों का समर्थन जुटाने में भारत ने सफलता पायी, उसी तरह संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत भाषा बनने के लिए भी पहल की जानी चाहिए। हिन्दी के तमाम शब्द अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किये जा चुके हैं। हिन्दी भी नए रूप में दुनिया की अन्य भाषाओं के शब्दों को स्वीकार कर रही है। यह पारस्परिक स्वीकार्यता निश्चित रूप से हिन्दी को मजबूती प्रदान करेगी। हिन्दी के लिए सभी को सोच बदलनी होगी। साथ ही निर्णायक स्थितियों में बैठे लोगों की विचार प्रक्रिया में भी शोधन करना होगा। दरअसल निर्णायक स्थितियों में बैठे लोग आज भी भारतीय भाषाओं में सोचने की शैली नहीं विकसित कर पाए हैं। इसमें बदलाव लाकर ही हिन्दी को श्रेष्ठ स्थान दिलाया जा सकता है।

Wednesday 4 September 2019

ये बच्चे हैं... सब जानते हैं!


डॉ.संजीव मिश्र
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जनपद के फाफामऊ स्थित एक इंटर कालेज की 17 वर्षीय छात्रा एक दिन स्कूल में बेहद परेशान नजर आ रही थी। दरअसल सीआरपीएफ का एक जवान अचानक रास्ता रोककर उसे परेशान कर रहा था। एक दिन उसने उसे बीस रुपये दिये... फिर दूसरे दिन पांच सौ रुपये। परेशान छात्रा ने अपनी अध्यापिका को पूरी कहानी सुनाई तो अध्यापिका ने उसकी काउंसिलिंग की। अगले दिन वह सीआरपीएफ जवान फिर रास्ते में खड़ा था, तो छात्रा ने मुंह पर पांच सौ रुपये फेंके और उसे पुलिस के हवाले किया। ऐसा सिर्फ उक्त छात्रा के साथ नहीं हुआ, बल्कि यूपी ही नहीं पूरे देश के लिए ऐसे किस्से आम हैं। बच्चे सब जानते हैं और वे खुल भी रहे हैं। जिस तरह बच्चा चोरी की घटनाओं और अफवाहों पर लिंचिंग की घटनाएं हो रही हैं, वे भी इसी अविश्वास का परिणाम हैं।
बच्चों के साथ हो रही घटनाएं तेजी से चर्चा का विषय हैं। इसमें भी सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि बच्चे इस ओर जागरूक भी नहीं हैं। यूनिसेफ द्वारा हाल ही में कराए गए एक सर्वे में बच्चों की जागरूकता को लेकर अनूठे तथ्य सामने आए हैं। पता चला कि प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले 37 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी तरह की शारीरिक अभद्रता के प्रति जागरूक थे, वहीं अन्य स्कूलों के बच्चों में यह आंकड़ा 52 प्रतिशत था। प्राइमरी स्कूलों के 34 फीसद बच्चे ही गलत स्पर्श को समझते थे, जबकि अन्य स्कूली बच्चों में गलत स्पर्श के प्रति जागरूक बच्चों की संख्या 52 प्रतिशत मिली। बच्चों ने बताया कि तमाम बार लोग उन्हें गलत तरीके से स्पर्श करने के साथ बड़ों को न बताने की नसीहत भी देते हैं। सरकारों ने बच्चों की मदद के लिए 1090 पर डायल करने सहित कई हेल्पलाइन भी बना रखी हैं किन्तु अधिकांश बच्चों को उसके बारे में पता ही नहीं था। सिर्फ सात प्रतिशत बच्चे महिला हेल्पलाइन के बारे में जानते थे। देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। उत्तर प्रदेश के बाल विकास विभाग की पहल पर स्कूल-स्कूल जाकर चले जागरूकता अभियान में बचपन की ऐसी तमाम हकीकतें सामने आयीं। बच्चे खुलकर बोल रहे हैं। इस दौरान बच्चों ने घर से बाहर तक असुरक्षा की कई कहानियां सुनाईं। विभाग की प्रमुख सचिव मोनिका एस गर्ग के मुताबिक इस दौरान बच्चों से लेकर शिक्षकों तक जागरूकता की मुहिम चली तो स्थितियां बदली सी नजर आयीं। न सिर्फ बच्चे खुले, बल्कि उनकी जागरूकता का स्तर भी सुधरा। यूनिसेफ की उसी टीम ने दोबारा सर्वे किया तो आंकड़े बदले। अब बच्चों की जागरूकता का स्तर कुछ मामलों में 75 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। अब बच्चों को कुपोषण से बचाने की पहल भी हुई है। इसमें बच्चों तक संवाद के साथ उन्हें पोषणयुक्त भोजन पहुंचाना सुनिश्चित किया जा रहा है। हाल ही में स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस दिशा में आगे आए हैं।
दरअसल उत्तर प्रदेश की यह पहल पूरे देश के लिए प्रेरणास्पद भी है और चुनौती भरी भी। पूरे देश में बच्चे व उनके माता-पिता डरे हुए हैं। जगह-जगह बच्चा चोरी की अफवाह में मॉब लिचिंग की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। हालात ये हैं कि पूरे देश में अफवाहों से बचाने की पहल करनी पड़ रही है। पहले से डरे माता-पिता जान ही नहीं पा रहे हैं कि कब उनके बच्चे सुरक्षित होते हैं और कब अफवाहें उनका पीछा कर रही होती हैं। तमाम बार बच्चों को लेकर उनकी आशंकाएं सच भी साबित होती हैं। हाल ही में पुलिस तक जाकर भी शिकायतें दर्ज न होने के कई मामले भी सामने आए हैं। इससे निपटने के लिए भी सकारात्मक पहल की जरूरत है। सरकारों को अपनी प्राथमिकताएं बदलनी होंगी। यह असुरक्षा का भाव ही है कि कहीं बच्चा चोरी के शक में मूक-बधिर महिला की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है, तो कहीं भिखारी मार डाले जाते हैं। इसमें सोशल मीडिया का दुरुपयोग भी जमकर हो रहा है। जिस तरह से डरावने वीडियो वायरल हो रहे हैं, उससे माता-पिता भी नहीं जान पा रहे हैं कि वे बच्चों को कैसे समझाएं। इन स्थितियों में माता-पिता के साथ बच्चों के बीच संबल होना भी जरूरी है। हाल ही में महाराष्ट्र पुलिस की जांच में पता चला कि वहां वायरल हुआ एक वीडियो पाकिस्तान में बच्चा चोरी के प्रति जागरूकता के लिए बनाए वीडियो को काट-छांट कर वायरल कर दिया गया। ऐसे शरारती तत्वों की पहचान कर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए। इन सबके बीच बच्चों की आवाज की अनसुनी बहुत महंगी पड़ सकती है। वे वोटर नहीं हैं किन्तु भविष्य उनके ही हाथ में है। हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे बच्चे हैं... वे सब जानते हैं!