Friday 31 May 2019

इन्हें इलाज दे दो, विश्वास होने लगेगा


डॉ.संजीव मिश्र
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश ने दूसरी बार अपना नेतृत्व सौंपा है। इस बार प्रधानमंत्री ने अपने नारे को भी विस्तार दिया है। वे सबका साथ, सबका विकास को आगे बढ़ाकर सबका विश्वास तक लाए हैं। इस नारे को महज अल्पसंख्यकों के चश्मे से ही देखा जा रहा है। इस समय देश के लिए इसे विस्तार देना भी जरूरी है। देश में तमाम बीमारियां ऐसी हैं, जिनके बारे में पता होने के बावजूद उनके सही इलाज और उपयुक्त जांच-पड़ताल के अवसर ही मुहैया नहीं कराए जाते हैं। लगातार बढ़ते प्रदूषण, तमाम चेतावनियों के बावजूद बढ़ते धूम्रपान व तंबाकू प्रयोग के चलते अस्थमा व सीओपीडी जैसी बीमारियां रुक नहीं रही हैं। इस समय देश के हर पचासवें मरीज को इन बीमारियों से मुक्ति की जरूरत है। सरकार इन्हें इलाज दे दे, विश्वास स्वयं होने लगेगा। यह संयोग ही है कि 30 मई को नयी सरकार के काम संभालने के 31 मई को विश्व तंबाकू निषेध दिवस है और यदि सरकार की ओर से इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाए जाएं तो स्थितियां बदल सकती हैं।
भारत श्वांस व अन्य संबंधित रोगों के मामले में दुनिया का नेतृत्व कर रहा है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के एक सर्वे के अनुसार महानगरों में लगभग दो प्रतिशत लोग दमा या सीओपीडी से जुड़ी समस्याओं से ग्रस्त हैं। इनमें भी सर्वाधिक रोगी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले हैं। सरकारी अस्पतालों में इलाज की व्यवस्था होने के बावजूद रोजी-रोटी की मशक्कत उन्हें इलाज से दूर रखती है। दमा या अस्थमा के साथ डिप्रेशन जैसी समस्याएं आम हैं, किन्तु अस्पतालों तक पहुंचने पर भी उनका इलाज नहीं हो पाता है। बच्चों में अस्थमा व सीओपीडी की समस्या बहुतायत में सामने आती है। स्कूलों में जागरूकता के अभाव में लोग दमा और टीबी में अंतर भी नहीं कर पाते हैं। इस कारण दमा के मरीजों को छुआछूत का सामना भी करना पड़ता है। इक्कीसवीं सदी में इलाज की तमाम सुविधाएं होने के बावजूद यह उदासीनता दुर्भाग्यपुर्ण है। कानपुर जैसे महानगर घनी आबादी का और अत्यधिक प्रदूषण का शिकार होने के कारण इससे कुछ अधिक पीड़ित हैं। सूबे के महानगरों में तमाम बस्तियां ऐसी हैं जहां एक ही घर में दमा के एक से अधिक मरीज रहते हैं। उनके बीच जागरूकता के अभाव में उन्हें वर्षों बीमारी का दंश झेलना पड़ता है।
पूरे देश में श्वांस रोगों के प्रति प्रशासनिक गंभीरता का अभाव बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है। इनमें क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मनरी डिसीज (सीओपीडी) के मामले में हम पूरी दुनिया का नेतृत्व करते हैं। आंकड़ों की मानें तो भारत की जनसंख्या दुनिया ती कुल जनसंख्या की 18 प्रतिशत है, किन्तु सीओपीडी मरीजों के मामले में हमारी हिस्सेदारी 32 प्रतिशत है। पुणे स्थित चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन ने इस दिशा में दुनिया के दिग्गजों के साथ खूब काम किया है। इस फाउंडेशन के निदेशक डॉ.संदीप साल्वी का मानना है कि प्रदूषण व धूम्रपान सीओपीडी के बड़े कारण हैं। सीओपीडी के सभी मरीजों में से 34 प्रतिशत प्रदूषण व 21 फीसद धूम्रपान के कारण इसकी चपेट में आते हैं। उनके मुताबिक जिस तरह सरकारों ने एचआईवी व टीबी को लेकर जागरूकता अभियान चलाए, अब सीओपीडी पर गंभीर रुख अख्तियार किये जाने की जरूरत है। साथ ही वायु प्रदूषण व धूम्रपान पर प्रभावी नियंत्रण की जरूरत है। प्रदूषण से पूरी दुनिया में होने वाली मौतों के मामले में भी भारत सबसे आगे है। सिर्फ वायु प्रदूषण के कारण हर साल दुनिया में औसतन 65 लाख लोगों की मौत होती है, इनमें से सर्वाधिक 25 लाख से अधिक मृतक भारतीय होते हैं।
वायु प्रदूषण के अलावा धूम्रपान की बात करें तो देश में 19 प्रतिशत पुरुष व दो प्रतिशत महिलाओं सहित लगभग 11 प्रतिशत लोग धूम्रपान करते हैं। इनके साथ ही देश में लगभग 29 प्रतिशत लोग तंबाकू सेवन कर रहे हैं। देश में धूम्रपान करने वाले लोग प्रतिमाह औसतन 1200 रुपये खर्च करते हैं। इतनी राशि खर्च कर बीमारियों को न्योता देना दुर्भाग्यपूर्ण है और सरकार को इस ओर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी केंद्र की सरकार स्वास्थ्य के प्रति गंभीर होने का दावा करती है। भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र में भी टीबी से मुक्ति की बात शामिल थी। इस समय जरूरत है कि टीबी से आगे जाकर प्रदूषण व धूम्रपान जनित बीमारियों पर फोकस किया जाए। इसके लिए जागरूकता के साथ अस्पतालों में विशेषज्ञों की उपलब्धता भी जरूरी है। दरअसल तमाम चिकित्सक ही दमा व सीओपीडी का अंतर नहीं जानते। इसके लिए आने वाले विशेष जांच उपकरण या तो अस्पतालों में हैं ही नहीं और यदि कहीं हैं भी तो उनका इस्तेमाल करने वाले तकनीशियन नहीं उपलब्ध होते। इसके अलावा स्कूल कालेजों के आसपास धूम्रपान की सामग्री न बेचने का फैसला भी प्रभावी नहीं हो पा रहा है। इस दिशा में सकारात्मक पहल की जरूरत है।

Wednesday 29 May 2019

कठिन चुनौती है ‘सबका विश्वास’



डॉ. संजीव मिश्र
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ता में वापसी तय हो चुकी है। देश के सत्ता शीर्ष पर बैठने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक को देश से जनादेश प्राप्त हो चुका है। ऐसे में मोदी की कही हर बात के बड़े मायने निकाले जा रहे हैं। नवनिर्वाचित सांसदों की पहली बैठक में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दिग्गजों की उपस्थिति में संघ के स्वयंसेवक प्रधानमंत्री ने इस बार अपने ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे को विस्तार दिया है। अब ‘सबका विश्वास’ हासिल करने पर जोर है। इस विश्वास में देश के अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के भरोसे की बात भी शामिल है। छवि और छलावे के वातावरण में प्रधानमंत्री के सामने ‘सबका विश्वास’ हासिल करना एक बड़ी व कठिन चुनौती है। अगले कुछ दिनों में इसका फ्रेमवर्क भी सामने आ जाएगा कि वे अपने इस संकल्प पर खरे उतरने के लिए क्या रुख अख्तियार करते हैं और उनकी पार्टी व समर्थक किस तरह उन्हें ऐसा करने देते हैं।
भारतीय जनता पार्टी के लिए मुसलमानों में अपने प्रति विश्वास पैदा करना भी बड़ी चुनौती है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब भाजपा की सरकार बनी थी, तब भी भाजपा के प्रति मुसलमानों का रुख बहुत सकारात्मक नहीं था। इतना जरूर था कि अटल बिहारी वाजपेयी के उदारमना व्यक्तित्व के कारण मुसलमानों में उनकी स्वीकार्यता थी। इसके विपरीत भाजपा का मौजूदा नेतृत्व मुसलमानों को खलनायक ही लगता है। उन्हें बार-बार गुजरात याद आता है, जहां मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री के रूप में लंबे अरसे तक काम कर चुके हैं और गृह मंत्री के रूप में मौजूदा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की भूमिका पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। ऐसे में ‘सबका विश्वास’ हासिल करने की प्रधानमंत्री की पहल संगठन से लेकर भाजपा समर्थकों के स्तर तक कितनी प्रभावी होगी, यह बेहद दुरूह प्रश्न बन गया है। संगठन के स्तर पर भाजपा को सिर्फ दिखावे के मुसलमानों से मुक्ति पाकर मुसलमानों के बीच सच्ची पैठ बनानी होगी। भाजपा नेताओं के बड़बोलेपन पर भी प्रभावी नियंत्रण लगाना चुनौती भरा ही होगा।
यह तो तय है कि मौजूदा परिस्थितियों में मुसलमान भाजपा को अपना सबसे बड़ा दुश्मन जैसा ही मानते हैं। जो नहीं भी मानते हैं तो अन्य राजनीतिक दल उनका वोट पाने के लिए ऐसा वातावरण बना देते हैं। यही कारण है कि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में छह मुसलमान प्रत्याशी जीते हैं और वे वहीं जीते हैं, जहां मुस्लिम आबादी भरपूर है। यह स्थितियां ध्रुवीकरण को बढ़ावा देती हैं और परिणाम 2014 लोकसभा चुनाव जैसे हो जाते हैं, जब उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से एक भी मुसलमान सांसद लोकसभा तक नहीं पहुंच सका था। इसमें भाजपा को अपने हिस्से की चिंता ज्यादा करनी होगी। 2014 व 2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 में से एक भी सीट पर भाजपा ने मुसलमान प्रत्याशी नहीं उतारा था। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी यही स्थिति रही थी। राष्ट्रीय स्तर पर हालिया लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सात मुसलमानों को टिकट दिया, जिसमें से बस एक ही जीत सका। इन स्थितियों में ‘विश्वास’ की डोर मजबूत करने की पहल दोनों ओर से करनी पड़ेगी। ऐसा न होने पर मुसलमान सिर्फ डरने-डराने की ‘सामग्री’ बन कर रह जाएंगे।
भाजपा और मुसलमानों के रिश्ते की चर्चा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा के बिना अधूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुसलमानों के बारे में बात करते समय लोग हमेशा संघ के द्वितीय सर संघ चालक एमएस गोलवलकर की किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ का जिक्र कर उनके मुसलमान विरोधी होने का दावा करते हैं। जिस तरह देश आगे बढ़ रहा है, हमें मौजूदा संदर्भों के प्रति समावेशी होना पड़ेगा। समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं। संघ प्रमुख के पचास साल पुराने बयान तो हमें याद दिलाए जा रहे हैं, पर उसी संघ ने मुस्लिम जागरण मंच नामक संगठन बनाकर मुसलमानों के बीच पांव पसारने की पहल की है, हमें यह भी याद रखना होगा। जिस तरह भारतीय जनता पार्टी संघ परिवार का हिस्सा है, उसी तरह मुस्लिम जागरण मंच भी संघ परिवार का हिस्सा है और संघ के प्रचारक इस संगठन के माध्यम से मुसलमानों के बीच अपनी बात रखने की कोशिश कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी यदि सही अर्थों में ‘सबका विश्वास’ की अवधारणा पर अमल करना चाहते हैं, तो उन्हें वैचारिक स्तर पर भी बदलाव की कोशिशें करनी होंगी। भाजपा को यह सोचना बंद करना होगा कि उन्हें मुसलमानों के वोट नहीं मिल सकते और मुसलमानों को उनसे परहेज की राह से वापस लौटना होगा।
सरकार में रहकर ‘सबका विश्वास’ पाने के कुछ और रास्ते भी हो सकते हैं। आजादी के बाद अल्पसंख्यकों के उन्नयन के लिए अलग मंत्रालय से लेकर उनके आर्थिक विकास के लिए अलग निगम तक बनाए गए। तमाम बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुईं, किन्तु उन पर अमल नहीं हुआ। भाजपा का दावा है कि पिछले पांच साल में मदरसों के आधुनिकीकरण से लेकर मुसलमान बच्चों की शिक्षा व्यवस्था मजबूत करने तक तमाम कोशिशें की गयी हैं। अगले पांच साल के कार्यकाल में इस ओर विशेष ध्यान देना होगा। जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावी जीत के बाद के अपने भाषण में जाति प्रथा उन्मूलन के साथ गरीबी को सबसे बड़ी जाति के रूप में परिभाषित किया है, उससे भी उम्मीदें बढ़ी हैं। यदि गरीबी उन्मूलन की सकारात्मक योजनाएं मुसलमानों तक पहुंचीं, तो ‘सबका विश्वास’ पाना कठिन नहीं होगा। भरोसे की यह डोर मजबूत हुई तो पूरा देश लाभान्वित होगा, जिसमें भाजपा व मुसलमान सभी शामिल होंगे।

Wednesday 22 May 2019

...इस चुनाव ने किसी को न छोड़ा


डॉ.संजीव मिश्र
देश में नयी लोकसभा के गठन के लिए मतदान प्रक्रिया समाप्त हो चुकी है। चुनाव परिणामों के साथ ही अगले दो-तीन दिनों में सरकार का पथ प्रशस्त हो जाएगा। इसके बावजूद यह चुनाव अपने वैशिष्ट्य के लिए याद किया जाएगा। दरअसल इस चुनाव ने किसी को भी नहीं छोड़ा है। हर ओर लड़ाई-झगड़े, सच-झूठ के साथ विभेद-मतभेद के लिए जाना जाएगा 2019 का लोकसभा चुनाव। इस बार के चुनाव में नीति-नियंताओं ने सुरक्षा बलों तक को नहीं छोड़ा और उन्हें आपस में लड़ा दिया। यह अलग बात है कि जिन सुरक्षा बलों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप के दौर चले, किसी को उनकी परवाह नहीं है। 
हाल ही में सोशल मीडिया पर वायरल एक फोटो इसकी गवाही दे रही है, जिसमें चुनावी थकान उतारने के लिए सुरक्षाकर्मी एक-दूसरे के ऊपर लेटने को विवश हैं। खाकी वर्दी पहने सैकड़ों सुरक्षाकर्मियों की एक ही कमरे में बंद होकर लेटने की विवशता एक प्रतीक मात्र है। पूरे देश में चुनाव प्रक्रिया में जुटे लोग सत्ता प्रतिष्ठानों के लिए महज संसाधन बन कर रह गए हैं। पश्चिम बंगाल में जिस तरह भाजपा व तृणमूल कांग्रेस ने राज्य पुलिस व केंद्रीय सुरक्षा बलों पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए हैं, उससे इन सुरक्षा बलों के मनोबल पर निश्चित रूप से प्रतिकूल असर पड़ा होगा। सुरक्षा बलों को मिलने वाली सुविधाएं, पुलिस का तनाव कम करने के जतन भले ही किसी राजनीतिक दल के चुनावी एजेंडे का हिस्सा नहीं थे, किन्तु उन पर दबाव बढ़ाने व हमला करने जैसी घटनाएं पूरे चुनाव की गवाह बनीं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि कश्मीर में चुनाव के दौरान आतंकी हिंसा से अधिक हिंसा की घटनाएं पश्चिम बंगाल में हुईं और इसके लिए राजनीतिक दलों ने एक दूसरे पर ही प्रहार किये।
यह चुनाव छवियों के धरातल पर जाने वाला भी रहा है। जिस तरह निष्पक्ष चुनाव की जिम्मेदारी संभालने वाले चुनाव आयोग की छवि पर बट्टा लगा, वह भी हमेशा याद किया जाएगा। चुनाव के बीच सजा देने में भेदभाव के आरोप तो लगे ही, चुनाव आयुक्तों के बीच मतभेद भी मुखर होकर सामने आए। ऊटपटांग बयानों, मनगढ़ंत किस्सों व अराजक टिप्पणियों के सामने चुनाव आयोग जिस तरह बेबस नजर आया, उससे एक बार फिर लोगों को टीएन शेषन की याद आई। यह चुनाव जहां बौद्धिक स्तर पर राजनीतिक पतन के लिए जाना जाएगा, वहीं उस पर नियंत्रण न लगा पाने चुनाव आयोग के लिए भी जाना जाएगा। एक तरह से देखा जाए तो चुनाव ने आयोग की विश्वसनीयता से लेकर उसकी उपादेयता तक पर प्रश्नचिन्ह लगाए हैं। किसी भी स्तर पर चुनाव आयोग उस पर लगे सवालों के जवाब भी नहीं दे सका है।
चुनाव के बाद सरकार किसी की भी बने, किन्तु पूरा चुनाव अभियान नए-पुराने समीकरणों व विशिष्ट गुणा-गणित के लिए भी जाना जाएगा। उत्तर प्रदेश में धुर विरोधी समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने अपने गिले-शिकवे मिटाकर झंडों के रंग मिलाने की भरपूर कोशिश की। उत्तर प्रदेश का यह गठबंधन धरातल पर उतरने की उम्मीद किसी को नहीं थी, किन्तु दो कदम तुम आगे बढ़ो-दो कदम हम पीछे चलें का भाव लाकर अखिलेश यादव व मायावती ने इसे संभव किया। कांग्रेस ने इस गठबंधन से जुड़ने की भरपूर कोशिश की किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। दिल्ली-पंजाब में कांग्रेस व आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन की आतुरता भी इस चुनाव को याद रखेगी। जिस तरह दिल्ली जैसे राज्य में कांग्रेस जैसी पार्टी को विधानसभा में शून्य तक पहुंचाने वाली आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से ही गठबंधन के लिए पलक-पांवड़े बिछाए, लोग उसे भी नहीं भूलेंगे। चुनाव खत्म होते-होते नए तरीके से गठबंधन के विस्तार की कोशिशों के लिए भी यह चुनाव खूब याद किया जाएगा।
इस लोकसभा चुनाव में नारी सशक्तीकरण की बड़ी-बड़ी बातों के बीच जिस तरह नारी शक्ति का घोषित अपमान हुआ है, वह भी नहीं भुलाया जा सकेगा। राजनीतिक दिवालियापन इस हद तक बढ़ा कि महिलाओ के अंतःवस्त्रों के रंग तक नेताओं ने बता दिये। किसी ने दिवंगत नेताओं पर हमले किये, तो किसी को पत्नी की चिंता न करना याद आया। इस चुनाव ने गांधी से लेकर गोडसे तक की याद दिलाई और प्रायश्चित के बड़े-बड़े यत्न करने के दावे भी सामने आए। राष्ट्रभक्ति की अनूठी परिभाषाओं के लिए भी यह चुनाव जाना जाएगा। कई बार तो लगा कि समूची राष्ट्रभक्ति सिर्फ एक विचारधारा में ही समाहित हो गयी है, वहीं कई बार बहुमत की विचारधारा देशद्रोही बताई जाने लगी। पूरे चुनाव में मुद्दे लगभग गायब रहे। पुराने घोषणापत्रों पर अमल का रिपोर्ट कार्ड सामने नहीं आया, तो नए वादों का फ्रेमवर्क सामने रखने की जरूरत नहीं समझी गयी। अब जब कुछ दिनों में एक बार फिर देश की नयी लोकसभा सजेगी, नयी सरकार सामने होगी, तो देखना होगा कि भारतीय सामाजिक सरोकारों को लेकर कितनी चिंता सामने आती है। जनता की समस्याओं का समाधान कैसे मूर्त रूप लेगा और कैसे हर  वर्ग को उसकी अपनी सरकार होने का एहसास होगा।

Wednesday 15 May 2019

गालियों के शोर में नारे हुए बेचारे


डॉ. संजीव मिश्र
सोइ सयान जो परधन हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना।
कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥
गोस्वामी तुलसीदास ने इन पंक्तियों के माध्यम से कलियुग के नेतृत्व को परिभाषित किया था। वे कहते हैं, जो (जिस किसी प्रकार से भी) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचरणवान है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है। मौजूदा लोकसभा चुनाव तुलसी की इन पंक्तियों की भरपूर गवाही दे रहा है। भष्टाचार, अराजता, बड़बोलेपन जैसी स्थितियां योजनाओं व विचारों की अभिव्यक्ति पर भारी पड़ रही हैं। कुछ साल पहले तक चुनाव के दौरान नए-नवेले नारे उछाले जाते थे, किन्तु इस बार गालियों के शोर में नारे गुम हैं और अपनी बेचारगी पर आंसू बहा रहे हैं।
लोकसभा चुनाव अभियान अब समापन की ओर है। बस अंतिम चरण का मतदान बाकी है और सभी राजनीतिक दल इसे अपने पक्ष में करने के लिए प्राणपण से जुटे हैं। इस बार का पूरा चुनाव अभियान जबर्दस्त वैविध्य लिए हुए नजर आया है। भारतीय लोकतंत्र की शुचिता को समर्पित दावे करने वाले राजनीतिक दल इस पूरे चुनाव अभियान में बार-बार शुचिता को तार-तार करते नजर आए। छल-दंभ-द्वेष-पाखंड-झूठ से दूर रहने की प्रार्थना करने वाला यह देश हर कदम पर दंभी राजनीतिज्ञों के आपसी द्वेष व पाखंड जनित झूठ के छल का शिकार नजर आया। महिलाओं के अंतःवस्त्रों के रंग से लेकर मृत्यु के बाद राजनेताओं को घसीटे जाने और उन पर किये एहसानों की फेहरिश्त सामने लाने जैसे बयान भी इस चुनाव ने देखे-सुने। एक-दूसरे पर कटाक्ष तो सामान्य बात है, व्यक्तिगत प्रहार भी खुलकर सामने आए। जातियों का असली-नकली स्वरूप देश ने जाना तो देश को आगे रखने के स्थान पर स्वयं को पीछे रखने या कहें तो पिछड़ा बताने की होड़ भी दिखी। जनता असली-नकली के छलावे में फंसती दिखी। कहीं महिलाओं के खिलाफ अश्लील पर्चे बंटे तो कहीं एसी कार में बैठे सितारे डुप्लीकेट से काम चलाते दिखे। भाषणों में थप्पड़ों के प्रहार तो हुए ही, हिंसा में राजनीतिक दलों की संलिप्तता भी स्पष्ट रूप में सामने आयी।
इस चुनाव की ये कहानियां हमेशा याद की जाएंगी। इसके अलावा जिस तरह इस चुनाव में मुद्दे व मुद्दों पर आधारित नारे गायब रहे, इसकी चर्चाएं भी भविष्य में खूब होंगी। अभी हम पुराने चुनावों की चर्चा करते हैं तो तमाम नारों के साथ मुद्दे याद आते हैं। देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 में ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था, जो उनकी मृत्यु के बाद 1967 में हुए लोकसभा चुनावों में भी छाया रहा। पिछली सदी का सातवां दशक और उस दौरान हुए चुनाव मुद्दा आधारित नारों के लिए खूब याद किये जाते हैं। कांग्रेस के मुकाबले उस दौरान समाजवादी आंदोलन मुखर हो रहा था, वहीं दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा जनसंघ के रूप में पुष्पित-पल्लवित हो रही थी। समाजवादियों के लिए डॉ.राममनोहर लोहिया ने ‘सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ नारा देकर अपनी विचारधारा प्रस्तुत की, जिसे लोगों ने सहेजा भी। राजनीतिक दलों के बीच आपसी हमले तब भी होते थे, किन्तु तब उनका तरीका सौम्य था और माध्यम नारे बनते थे। उस समय कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी था, वहीं जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था। ऐसे में जनसंघ ने ‘जली झोपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल’ नारा देकर कांग्रेस पर हमला किया, जिसके जवाब में कांग्रेस ने ‘इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं’ नारे से जनसंघ को चुनौती दी थी। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ नारे के साथ जीत पाई, तो 1977 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नारे ‘इंदिरा हटाओ देश बचाओ’ ने कांग्रेस का पत्ता साफ करने की मुहिम को सफलता दिलाई थी।
राजनीति के मौजूदा कलुषित वातावरण में एक दूसरे के खिलाफ कुछ भी बोल देने की जिद भी साफ नजर आ रही है। ऐसा नहीं है कि पहले सीधे हमले नहीं होते थे। आपातकाल में जबरन नसबंदी जैसे तमाम मुद्दे खुल कर नारों की शक्ल में जनता तक पहुंचाए गए। उस दौरान ‘जमीन गई चकंबंदी में, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मेरा मर्द गया नसबंदी में’ जैसा नारा पूरी व्यवस्था पर हमला कर रहा था, तो इंदिरा गांधी पर हमले के लिए ‘जगजीवन राम की आई आंधी, उड़ जाएंगी इंदिरा गांधी’ और ‘आकाश से नेहरू कहें पुकार, मत कर बेटी अत्याचार’ जैसे नारे लगाए गए। पिछले कुछ चुनावों में लोकतंत्र पर धनबल का प्रहार तेज हुआ है। राजनेता जनता से सीधे संवाद के स्थान पर धन खर्च कर जनता से जुड़ने की कोशिश करते हैं। धर्म, जाति व व्यक्ति विशेष पर हमले कर वातावरण बनाया जाता है। राजनीतिक दलों का पूरा फोकस जनता की भावनाओं से खेलने पर है। ऐसा करने से उन्हें विकास से जुड़ी बातों की परवाह नहीं करनी पड़ती। सत्ताधारी दल को अपने वादे याद नहीं रखने पड़ते और विपक्ष बड़े वादों से बच जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पूरे चुनावी अभियान में जनता से जुड़े मुद्दे उठ ही नहीं पाए। सत्तापक्ष व विपक्ष, दोनों ने ही महज आरोप-प्रत्यारोप में पूरा अभियान निकाल दिया है। देखना है कि जनता इसका कैसे जवाब देती है, क्योंकि यह पब्लिक है यह सब जानती है।

Thursday 9 May 2019

...क्योंकि ये वोटर नहीं है!


डॉ.संजीव मिश्र
लोकसभा चुनाव अभियान अपने अंतिम दौर में पहुंच रहा है। इस चुनाव में जीत के लिए सभी राजनीतिक दलों ने पूरी ताकत झोंक रखी है। उनका पूरा प्रचार अभियान विकास व जनमानस से जुड़े मुद्दों के स्थान पर जाति-धर्म और व्यक्तिविशेष की कटु-कुटिल आलोचनाओं तक केंद्रित हो चुका है। देश के 90 करोड़ के आसपास मतदाता सरकार चुनने की प्रक्रिया में इन सभी परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। इन सबके बीच देश के 45 करोड़ बच्चों-किशोरों की परवाह किसी को नहीं है। किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में ये बच्चे नहीं हैं। कहीं से उनकी चिंता के स्वर उठते नहीं दिखाई देते। ऐसे में यह सवाल उठना भी अवश्यंभावी है कि कहीं बच्चे व किशोर इसलिए तो उपेक्षित नहीं हैं, क्योंकि वे वोटर नहीं हैं?
भारत को दुनिया का सबसे युवा देश कहा जाता है। जिल संसद के एक सदन लोकसभा के लिए इस समय चुनाव चल रहे हैं, उसी संसद में प्रस्तुत आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट का दावा है कि अगले वर्ष (2020) तक भारत दुनिया का सबसे युवा देश होगा। दरअसल कहानी उसके बाद भी वैसी ही रहेगी। इस समय देश में 18 वर्ष से कम आयु वालों की आबादी भी 35 प्रतिशत के आसपास है। ये लोग अभी वोटर नहीं बन सके हैं किन्तु भविष्य के वोटर तो हैं ही। इसके बावजूद ये आबादी राजनीतिक दलों के एजेंडे में नहीं है। देश के दोनों प्रमुख दलों, भाजपा व कांग्रेस ने जनता के बीच जाकर अपना चुनावी एजेंडा तय करने का दावा किया था किन्तु किसी ने यह नहीं बताया कि वे कितने बच्चों के पास गए। दोनों दलों के घोषणा व संकल्प पत्रों में बच्चे कहीं दिखाई नहीं देते। दरअसल बच्चे व किशोर भारतीय राजनीति की वरीयता में हैं ही नहीं। वे तात्कालिक मतदाता होते नहीं हैं, इसलिए राजनेता उनकी परवाह करते नहीं हैं। सामान्य रूप से शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे मामले समग्रता में घोषणा पत्रों व वायदों का हिस्सा होते हैं किन्तु बच्चों व किशोरों के लिए विशेष रूप से कोई योजना सामने नहीं लाई जाती। इस चुनाव में भी कमोवेश ऐसा ही हुआ है। किसी भी राजनीतिक दल ने बच्चों की जरूरतों व अपेक्षाओं की पड़ताल नहीं की है। पूरे चुनाव अभियान में देश-दुनिया की तमाम बातें तो हो रही हैं किन्तु किसी राजनीतिक दल ने बच्चों के लिए अपनी योजनाओं का खुलासा नहीं किया है। दरअसल बच्चे भारतीय राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन ही नहीं पा रहे हैं।
बच्चों व किशोरों की इस समस्या को लेकर एक गैरसरकारी संगठन यूथ एलायंस ने एक बाल घोषणा पत्र निकालने की पहल की थी। इसके अंतर्गत वे स्कूल-स्कूल जाकर बच्चों से मिले और उनकी समस्याएं जानने की कोशिश की। इस दौरान बच्चों की तमाम ऐसी जरूरतें व मांगें सामने आयीं जो निश्चित रूप से राजनीतिक दलों व नेताओं की वरीयता सूची में ऊपर होनी चाहिए थीं, पर ऐसा नहीं हुआ। बच्चे अपने लिए कुछ बड़ा मांग भी नहीं रहे हैं। वे बस सुरक्षा, पर्यावरण, सांस्कृतिक विरासत, शिक्षा व आधारभूत ढांचागत क्षेत्र में सुधार की मांग ही कर रहे हैं। तमाम छात्राओं ने घर से बाहर तक अपने लिए सुरक्षित वातावरण व गैरबराबरी समाप्त करने की मांग की। यह बातें पहले भी उठती रही हैं किन्तु वरीयताओं में शामिल नहीं होती हैं और इस बार भी कहीं नहीं दिख रहीं। इसी तरह बच्चे चाहते हैं कि स्कूल उनके लिए और अच्छा स्थान बने। उनके बस्तों का बोझ कम हो, वहीं वे सामाजिक हिस्सेदारी की बात भी करते नजर आ रहे हैं। बच्चे चाहते हैं कि स्कूल में कोई उनकी पिटाई न करे। ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित हो, जिसमें सभी समान हों और किसी के साथ भेदभाव न किया जाए। एक बच्चे ने कहा कि वह सप्ताह में एक दिन यातायात सुधार को देना चाहता है। ऐसी पहल हो तो बच्चे उससे जुड़ेंगे। शहर के जाम व यातायात दुरावस्था से स्कूल पहुंचने में होने वाली देरी बच्चों का बड़ा मुद्दा है, किन्तु किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में शहरों को जाम से मुक्त कराना नहीं दिखता। बच्चे धूम्रपान व शराबमुक्त वातावरण चाहते हैं किन्तु सरकारें ऐसा नहीं चाहतीं। नशाबंदी किसी भी दल के एजेंडे में नहीं दिखती और भारी भरकम राजस्व इसका बड़ा कारण बताया जाता है। बच्चे सड़क पर सुरक्षित रहना चाहते हैं। उन्हें अपनी व अपनों की सुरक्षा की गारंटी चाहिए, जिस पर कोई ध्यान देने वाला नहीं है। ढांचागत सुधार के तहत बच्चों ने पार्क, स्वीमिंग पूल, खेल के मैदान और सकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा मांगी है। बच्चों को पर्यावरण की चिंता भी है और वे साफ सुधरा भारत चाहते हैं।
ऐसी ही तमाम छोटी-छोटी मांगों के साथ बच्चे उम्मीद लगाए बैठे हैं कि सरकारें उनकी परवाह करेंगी। इसके बावजूद पूरे चुनाव अभियान में बच्चों की इच्छाएं कहीं दिखाई नहीं पड़ रही हैं। बच्चों का इस्तेमाल नारे लगाने के लिए तो कर लिया जाता है किन्तु किसी रैली में कोई भी नेता बच्चों के स्कूलों में शैक्षिक समानता की बात करता नहीं दिखता। कोई नहीं कहता कि बच्चों की समस्याओं को सुनने के लिए पुलिस का रवैया बदलेगा। कोई उनके बस्तों के बढ़ते बोझ का मुद्दा नहीं उठाता। किसी को उनके गुम होते खेल के मैदानों और बिना पार्कों के बस रहे नए-नए मोहल्लों के नियमन की चिंता नहीं है। यह सब इसलिए भी है क्योंकि नेताओं को उनसे सीधे वोट नहीं मिलने हैं। ऐसा करते समय नेता यह भूल जा रहे हैं कि यही बच्चे कुछ वर्षों बाद उनके मतदाता होंगे और तब लोकतंत्र के प्रति उनका जुड़ाव स्थापित न हो पाने कारण आज की यही उपेक्षा ही बनेगी।

Thursday 2 May 2019

कार्यकर्ता पर भारी स्टार-परिवार


डॉ.संजीव मिश्र
बात 1984 की है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की जन्मभूमि और दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को लोकसभा पहुंचाने वाली इलाहाबाद (अब प्रयागराज) लोकसभा सीट के लिए कांग्रेस ने सुपर स्टार अमिताभ बच्चन को चुनाव मैदान में उतार दिया था। सामने थे, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा। एक राजनीतिक सितारे और फिल्मी सितारे के बीच हुए इस स्टार वार में बाजी मारी फिल्मी सितारे अमिताभ बच्चन ने। इसके बाद देश की राजनीति में यह सिलसिला तेज हो चला। फिल्मी सितारों के साथ राजनेताओं के परिवार भी तेजी से राजनीति में जगह बनाने लगे। 2019 का लोकसभा चुनाव तो इसकी बड़ी बानगी बन गया है। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं पर स्टार और परिवार भारी पड़ रहा है और कार्यकर्ता बेचारा बनकर दरी बिछा रहा है।
 इस समय पूरे देश में लोकसभा चुनाव अपने चरम पर है। मतदान के चार चरण पूरे हो चुके हैं और सरकार बनने की गणित पर चर्चाएं तेज हो गयी हैं। इस बीच प्रत्याशियों की घोषणा ने राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं को सर्वाधिक निराश किया है। देश के हर जिले में औसतन एक या दो लोकसभा क्षेत्र होते हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के लिए लोकसभा की टिकट पाना सपने जैसा होता है। वे राजनीतिक सक्रियता की सबसे छोटी इकाई बूथ या वार्ड से राजनीति की शुरुआत करते हैं और वर्षों बीत जाने पर जिले की इकाई तक पहुंच पाते हैं। इसके बाद जब वे लोकसभा या विधानसभा का टिकट चाहते हैं तो उन्हें कार्यकर्ताओं के बीच अपनी सक्रियता के मापदंड पर नहीं, बल्कि बाहर से किसी के आ जाने की मजबूरी पर अपनी दावेदारी छोड़नी पड़ जाती है। वे खुल कर कहते भी हैं कि कार्यकर्ताओं के बीच उनकी सक्रियता मापदंड बने और उनसे ज्यादा योग्य व सक्रिय कार्यकर्ता को टिकट दिया जाए, तो शायद कम खराब लगे। वास्तव में होता इसका उलटा है। कभी किसी बड़े नेता के पुत्र, पत्नी, भाई या साले सहित किसी परिजन को टिकट देकर कार्यकर्ताओं को उसे लड़ाने का संदेश दे दिया जाता है, तो कभी कोई फिल्मी या टेलीविजन सितारा आकर उनकी टिकट बांट लेता है। अब तो खेलों के सितारे भी लोकसभा पहुंचने के दावेदार होने लगे हैं।
 वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में कार्यकर्ताओं पर परिवार व सितारों का जोर कुछ ज्यादा ही चल रहा है। हर राजनीतिक दल ने खुलकर कार्यकर्ताओं पर नेताओं के परिजनों व सितारों को जमकर तरजीह दी है। कांग्रेस में सोनिया गांधी, राहुल गांधी व अब प्रियंका गांधी को लेकर परिवारवाद के आरोप लगते रहे हैं, किन्तु इस चुनाव में कोई दल पीछे नहीं नजर आ रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पूत्र राजवीर व हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पुत्र अनुराग ठाकुर को टिकट दिया है, तो कांग्रेस ने राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पुत्र वैभव व मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के पुत्र नकुल को चुनाव मैदान में उतारा है। परिवारों की राजनीति का शिकार पूरे देश व सभी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं। पंजाब में बादल परिवार हो या हरियाणा का हुड्डा व  चौटाला परिवार और बिहार में रामविलास पासवान का कुनबा, परिवार का टिकट ही इन दलों को जीत की गारंटी लगता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति देखें तो यहां पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी बस उन्हीं पांच सीटों पर जीत सकी थी, जहां से मुलायम सिंह यादव के परिजन चुनाव लड़े थे, और कांग्रेस भी वही दो सीटें जीत पाई, जहां से गांधी परिवार के सोनिया व राहुल चुनाव मैदान में थे। इस बार भी सभी दलों ने कार्यकर्ताओं पर परिजनों को तवज्जो दी है और कार्यकर्ता बेचारा बनकर उनकी जिंदाबाद के नारे लगाने को विवश है।
 यह चुनाव तो परिवार से आगे सितारों की भीड़ तक पहुंच गया है। देश की राजधानी दिल्ली को लें, तो भाजपा ने पिछले चुनाव में तमाम कार्यकर्ताओं को पीछे छोड़कर पूर्वांचल के वोटों के मद्देनजर मनोज तिवारी को टिकट दिया और फिर दिल्ली भाजपा की कमान भी सौंप दी। इस बार इसमें विस्तार हुआ और हंस राज हंस के रूप में एक गायक और गौतम गंभीर के रूप में एक क्रिकेट का सितारा मिल गया। इस तरह भाजपा ने दिल्ली की सात सीटों में से तीन सीटों पर फिल्म व क्रिकेट के सितारे मैदान में उतारे तो एक सीट पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश को दी है। कांग्रेस ने भी यहां एक खेल सितारे, बॉक्सर विजेंद्र सिंह को मैदान में उतारा है। परिवार व स्टाऱडम का मिश्रण भी इस चुनाव में देखने को मिल रहा है। फिल्म स्टार शत्रुघ्न सिन्हा कांग्रेस की टिकट पर बिहार में पटना से तो उनकी पत्नी पूनम उत्तर प्रदेश में लखनऊ से समाजवादी पार्टी की टिकट पर मैदान में हैं। पश्चिम बंगाल में आम आदमी के सरोकारों पर फोकस करने वाली ममता बनर्जी ने भी भाजपाई सितारे बाबुल सुप्रियो के मुकाबले अभिनेत्री मुनमुन को मैदान में उतारा है। अब सिर्फ बॉलीवुड के सितारे ही राजनीतिक दलों के प्रिय नहीं हो रहे हैं, बल्कि क्षेत्रीय सिनेमा व छोटे पर्दे के सितारे भी टिकट पा रहे हैं। निरहुआ से लेकर रविकिशन तक इसके उदाहरण हैं। ये सब अचानक चुनाव लड़ने पहुंच जाते हैं और कार्यकर्ता फिर बेचारा बनकर रह जाता है।