डॉ.संजीव
मिश्र
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी को देश ने दूसरी बार अपना नेतृत्व सौंपा है। इस बार प्रधानमंत्री ने
अपने नारे को भी विस्तार दिया है। वे सबका साथ, सबका विकास को आगे बढ़ाकर सबका
विश्वास तक लाए हैं। इस नारे को महज अल्पसंख्यकों के चश्मे से ही देखा जा रहा है।
इस समय देश के लिए इसे विस्तार देना भी जरूरी है। देश में तमाम बीमारियां ऐसी हैं,
जिनके बारे में पता होने के बावजूद उनके सही इलाज और उपयुक्त जांच-पड़ताल के अवसर
ही मुहैया नहीं कराए जाते हैं। लगातार बढ़ते प्रदूषण, तमाम चेतावनियों के बावजूद
बढ़ते धूम्रपान व तंबाकू प्रयोग के चलते अस्थमा व सीओपीडी जैसी बीमारियां रुक नहीं
रही हैं। इस समय देश के हर पचासवें मरीज को इन बीमारियों से मुक्ति की जरूरत है।
सरकार इन्हें इलाज दे दे, विश्वास स्वयं होने लगेगा। यह संयोग ही है कि 30 मई को
नयी सरकार के काम संभालने के 31 मई को विश्व तंबाकू निषेध दिवस है और यदि सरकार की ओर से इस
दिशा में सकारात्मक कदम उठाए जाएं तो स्थितियां बदल सकती हैं।
भारत
श्वांस व अन्य संबंधित रोगों के मामले में दुनिया का नेतृत्व कर रहा है।
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के एक सर्वे के अनुसार महानगरों में लगभग दो
प्रतिशत लोग दमा या सीओपीडी से जुड़ी समस्याओं से ग्रस्त हैं। इनमें भी सर्वाधिक
रोगी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले हैं। सरकारी अस्पतालों में इलाज की व्यवस्था
होने के बावजूद रोजी-रोटी की मशक्कत उन्हें इलाज से दूर रखती है। दमा या अस्थमा के
साथ डिप्रेशन जैसी समस्याएं आम हैं, किन्तु अस्पतालों तक पहुंचने पर भी उनका इलाज
नहीं हो पाता है। बच्चों में अस्थमा व सीओपीडी की समस्या बहुतायत में सामने आती
है। स्कूलों में जागरूकता के अभाव में लोग दमा और टीबी में अंतर भी नहीं कर पाते
हैं। इस कारण दमा के मरीजों को छुआछूत का सामना भी करना पड़ता है। इक्कीसवीं सदी
में इलाज की तमाम सुविधाएं होने के बावजूद यह उदासीनता दुर्भाग्यपुर्ण है। कानपुर
जैसे महानगर घनी आबादी का और अत्यधिक प्रदूषण का शिकार होने के कारण इससे कुछ अधिक
पीड़ित हैं। सूबे के महानगरों में
तमाम बस्तियां ऐसी हैं जहां एक ही घर में दमा के एक से अधिक मरीज रहते हैं। उनके
बीच जागरूकता के अभाव में उन्हें वर्षों बीमारी का दंश झेलना पड़ता है।
पूरे देश
में श्वांस रोगों के प्रति प्रशासनिक गंभीरता का अभाव बड़ी समस्या के रूप में
सामने आया है। इनमें क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मनरी डिसीज (सीओपीडी) के मामले में
हम पूरी दुनिया का नेतृत्व करते हैं। आंकड़ों की मानें तो भारत की जनसंख्या दुनिया
ती कुल जनसंख्या की 18 प्रतिशत है, किन्तु सीओपीडी मरीजों के मामले में हमारी
हिस्सेदारी 32 प्रतिशत है। पुणे स्थित चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन ने इस दिशा में
दुनिया के दिग्गजों के साथ खूब काम किया है। इस फाउंडेशन के निदेशक डॉ.संदीप
साल्वी का मानना है कि प्रदूषण व धूम्रपान सीओपीडी के बड़े कारण हैं। सीओपीडी के
सभी मरीजों में से 34 प्रतिशत प्रदूषण व 21 फीसद धूम्रपान के कारण इसकी चपेट में
आते हैं। उनके मुताबिक जिस तरह सरकारों ने एचआईवी व टीबी को लेकर जागरूकता अभियान
चलाए, अब सीओपीडी पर गंभीर रुख अख्तियार किये जाने की जरूरत है। साथ ही वायु
प्रदूषण व धूम्रपान पर प्रभावी नियंत्रण की जरूरत है। प्रदूषण से पूरी दुनिया में
होने वाली मौतों के मामले में भी भारत सबसे आगे है। सिर्फ वायु प्रदूषण के कारण हर
साल दुनिया में औसतन 65 लाख लोगों की मौत होती है, इनमें से सर्वाधिक 25 लाख से
अधिक मृतक भारतीय होते हैं।
वायु प्रदूषण के अलावा धूम्रपान
की बात करें तो देश में 19 प्रतिशत पुरुष व दो प्रतिशत महिलाओं सहित लगभग 11
प्रतिशत लोग धूम्रपान करते हैं। इनके साथ ही देश में लगभग 29 प्रतिशत लोग तंबाकू
सेवन कर रहे हैं। देश में धूम्रपान करने वाले लोग प्रतिमाह औसतन 1200 रुपये खर्च
करते हैं। इतनी राशि खर्च कर बीमारियों को न्योता देना दुर्भाग्यपूर्ण है और सरकार
को इस ओर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में
बनी केंद्र की सरकार स्वास्थ्य के प्रति गंभीर होने का दावा करती है। भारतीय जनता पार्टी
के घोषणा पत्र में भी टीबी से मुक्ति की बात शामिल थी। इस समय जरूरत है कि टीबी से
आगे जाकर प्रदूषण व धूम्रपान जनित बीमारियों पर फोकस किया जाए। इसके लिए जागरूकता
के साथ अस्पतालों में विशेषज्ञों की उपलब्धता भी जरूरी है। दरअसल तमाम चिकित्सक ही
दमा व सीओपीडी का अंतर नहीं जानते। इसके लिए आने वाले विशेष जांच उपकरण या तो
अस्पतालों में हैं ही नहीं और यदि कहीं हैं भी तो उनका इस्तेमाल करने वाले
तकनीशियन नहीं उपलब्ध होते। इसके अलावा स्कूल कालेजों के आसपास धूम्रपान की
सामग्री न बेचने का फैसला भी प्रभावी नहीं हो पा रहा है। इस दिशा में सकारात्मक
पहल की जरूरत है।