Saturday 28 November 2020

अपना-अपना ‘लव’, अपना-अपना ‘जिहाद’

 डॉ.संजीव मिश्र

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गैरकानूनी धर्म परिवर्तन अध्यादेश लाए जाने के साथ ही ‘लव जिहाद’ को लेकर चर्चा और तेज हो गयी है। सामान्य रूप से हिन्दू संगठन पहले भी ‘लव जिहाद’ को लेकर तमाम सवाल उठाते रहते थे, किन्तु पिछले कुछ महीनों में कई राज्यों की सरकारों के बीच ‘लव जिहाद’ को लेकर कानून बनाने की होड़ सी लगी थी। कई राज्यों ने इस संबंध में घोषणाएं भी कीं और इसी बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने इस दिशा में अध्यादेश लाकर पहल भी कर दी। दरअसल ‘लव जिहाद’ का मौजूदा रूप अलग-अलग ढंग से परिभाषित हो रहा है। ‘लव जिहाद’ को सच मानने वाले हों या इसे कपोल कल्पना करार देने वाले हों, सभी का एजेंडा विचारधारा केंद्रित है। कहा जाए तो हर किसी का अपना-अपना ‘लव’ है, और विचारधारा जनित प्यार में हर कोई अपना-अपना ‘जिहाद’ यानी विचारधारा जनित युद्ध कर रहा है। इस इश्क और संघर्ष के परिणाम कुछ भी हों, पर यह पूरी प्रक्रिया भारतीय समाज में विभाजन की रेखाएं गहरी करने वाली है।

 ‘लव जिहाद’ की परिकल्पना के साथ ही हमें इस शब्द को समझना होगा। ‘लव’ एक अंग्रेजी शब्द है, जिसका सीधा अर्थ प्यार सबको समझ में आता है, वहीं ‘जिहाद’ एक अरबी शब्द है, जिसे अलग-अलग रूप में परिभाषित किया गया है। ‘जिहाद’ का अर्थ है अल्लाह के लिए स्वार्थ व अहंकार जैसी बुराइयों से संघर्ष है। इसके आशय धार्मिक युद्ध कतई नहीं है। इसके बावजूद लगातार ‘लव जिहाद’ को प्यार की राह पर चलकर धर्मयुद्ध के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है। ‘लव जिहाद’ को खारिज करने वाले प्यार को धर्म से जोड़ने का विरोध करते हैं। वे पूरी तरह गलत भी नहीं कहे जा सकते। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देश के हर नागरिक को प्रदान किया गया है। यह अधिकार अंतर्धार्मिक विवाहों का पथ भी प्रशस्त करता है। ऐसे में ‘लव जिहाद’ को गलत ढंग से परिभाषित करना समस्या की जड़ में है। वैसे भी भारत में अंतर्धार्मिक विवाहों की संख्या बहुत कम है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक भारत में अंतर्धार्मिक विवाह महज दो फीसद हैं। इन्हें सभी हिन्दू-मुस्लिम हों, ऐसा नहीं है और जो हिन्दू-मुस्लिम अंतर्धार्मिक विवाह हों, उनमें भी सभी लड़के मुस्लिम व लड़कियां हिन्दू हों ऐसा नहीं है।

भारत में केरल से ‘लव जिहाद’ की स्वीकार्यता की शुरुआत हुई, जो बाद में कर्नाटक के रास्ते देश के अन्य हिस्सों में विस्तार पाई। ‘लव जिहाद’ को लेकर इसके विरोधियों की सभी आशंकाएं निर्मूल हों, ऐसा पूरे तौर पर नहीं कहा जा सकता। उत्तर प्रदेश में कानून बनाने की यात्रा में हाल ही में कानपुर के कुछ मामले बड़ा कारण बने हैं। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि एक ही मोहल्ले की आधा दर्जन लड़िकयों को पास के एक ही मोहल्ले के दूसरे धर्म के आधा दर्जन लड़कों से प्यार हो जाए। यदि ऐसा हुआ भी हो, तो सामाजिक विद्वेष के इस दौर में इसे स्वीकार करना कठिन होता है। कानपुर में ऐसा हुआ है, कुछ माह के भीतर हुए 14 अंतर्धार्मिक विवाहों में लड़कियां हिन्दू धर्म की थीं। यह मामला सामने आने के बाद गठित विशेष जांच टीम ने पाया कि तीन लड़कों ने नाम बदलकर हिन्दू लड़कियों से संबंध बनाए। ऐसी स्थितियां शक पैदा करती हैं और इसके लिए सामाजिक रूप से मिलकर समस्याओं के समाधान की जरूरत है। इनमें आठ लड़कियां नाबालिग भी थीं, जिनके साथ संबंध बनाना पहले से ही अपराध की श्रेणी में आता है। ये स्थितियां ही कानून बनाने का आधार बनती हैं।

वैसे ‘लव जिहाद’ के विरोधियों को समता भाव भी स्थापित करना चाहिए। उत्तर प्रदेश की सरकार इसके खिलाफ अध्यादेश ले ही आयी है और मध्य प्रदेश, हरियाणा जैसे कुछ राज्यों की सरकारें इस दिशा में तैयारी कर रही हैं। संयोग है कि इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और भाजपा के शीर्ष दो मुस्लिम नेताओं ने हिन्दू बेटियों से ब्याह किया है। अब वे इसे ‘लव जिहाद’ के रूप में स्वीकार करते हैं या नहीं, यह भी देखना होगा। भाजपा में ही इश्क और विवाह के लिए धर्म परिवर्तन के बड़े उदाहरण के रूप में धर्मेंद्र व हेमामालिनी की जोड़ी है। धर्मेंद्र पहले से विवाहित थे और हिन्दू धर्मावलंबी होने के कारण पहली पत्नी होते हुए दूसरी शादी नहीं कर सकते थे। ऐसे में हेमामालिनी से विवाह के लिए उन्होंने धर्मांतरण कर निकाह किया था। कानून के मुताबिक यह धर्मांतरण तो पूरी तरह महज विवाह के लिए ही था। ऐसी स्थितियां निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण हैं और इन पर अंकुश लगना ही चाहिए। वैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय सहित कई अदालतें विवाह के लिए धर्म परिवर्तन को गलत ठहरा चुकी हैं। इस पर अंकुश लगाने व न्यायालय के फैसलों के अनुपालन में कोई दोष नहीं निकाला जा सकता। इन सबके बीच ‘लव जिहाद’ जैसे मसलों से सामाजिक मनभेद उत्पन्न करने वालों को भी चिह्नित किया जाना चाहिए। प्यार और धर्म के नाम पर किसी को भी अपना राजनीतिक एजेंडा लागू करने का मौका भी नहीं मिलना चाहिए। इससे समाज विभाजित होता है और देश की एकता-अखंडता पर संकट के बादल छाते हैं। इसे रोकना ही होगा।

Thursday 19 November 2020

ठेंगे पर सरकार, मनमानी हो रही जानलेवा

डॉ. संजीव मिश्र

उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहीं प्रयागराज की सांसद रीता बहुगुणा जोशी के लिए यह दीवाली अंधियारों की सौगात लाई है। उनकी इकलौती पौत्री को रोक के बावजूद चले पटाखों का शिकार होना पड़ा। छह साल की बच्ची की जान पटाखों के कारण चली गयी। कोरोना के इस दौर में प्रदूषण की भयावहता को देखते हुए दिल्ली सहित देश के कई प्रमुख शहरों में पटाखों पर पाबंदी लगी थी। सरकारी पाबंदी के अलावा कोरोना के दौर में श्वसन संबंधी समस्याओं के मद्देनजर डॉक्टर भी पटाखे न चलाने की अपील लगातार कर रहे थे। इसके बावजूद दीवाली पर धड़ल्ले से पटाखे चलाए गए। इससे हजारों लोग अत्यधिक बीमार हुए, वहीं रीता बहुगुणा जोशी की पौत्री की मौत जैसी तमाम घटनाओं ने भी हिला कर रख दिया। दरअसल यह स्थितियां जनता के अराजक मनोभावों के कारण उत्पन्न हुई हैं। लोगों ने सरकार को ठेंगे पर रखकर मनमानी करने की ठान रखी है, जिससे संकट लगातार बढ़ रहा है और जनमानस की मनमानी जानलेवा साबित हो रही है।

जिस तरह देश में कोरोना पर नियंत्रण कठिन हो रहा है, भारी संख्या में लोगों की जान जा रही है, उसके लिए सिर्फ सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। सरकार लॉकडाउन की बात करती है, तो आर्थिक संकट मुंह बाए खड़ा हो जाता है। लॉकडाउन खत्म होता है तो लोग सड़कों पर इस तरह निकलते हैं, मानो बीमारी ही खत्म हो गयी हो। मास्क लगाने से लेकर दो गज दूरी बनाने तक की तमाम घोषणाओं को दरकिनार कर लोग अराजक ढंग से सड़क पर जगह-जगह भीड़ लगाए दिख जाएंगे। सरकारी रोक उसी तरह निष्प्रभावी है, जिस तरह देश के ज्यादातर हिस्सों में यातायात नियम निष्प्रभावी रहते हैं। सरकारी नियमों के अलावा समाजिक वर्जनाएं भी टूटने से समस्या हो रही है। दीवाली पर कोरोना के बावजूद जिस तरह से मनमाने ढंग से पटाखे चले और आतिशबाजी हुई, वह भारतीय संस्कृति के आचरण के अनुरूप तो कतई नहीं कही जा सकती। कुछ दशक पहले तक यदि गांव या मोहल्ले में किसी की मृत्यु हो जाती थी, तो उस गांव या मोहल्ले में दीपक प्रज्ज्वलित कर दीपावली मनाने का शगुन भर कर लिया जाता था, और पूरा मोहल्ला शोकग्रस्त वातावरण में पटाखे नहीं चलाता था। पिछले आठ महीनों से अधिक समय से देश कोरोना का दंश झेल रहा है। दिल्ली हो या देश के तमाम अन्य बड़े शहर, शायद ही कोई मोहल्ला होगा, जहां कोरोना या ऐसी ही किसी बीमारी के कारण मौतें न हुई हों। किन्तु अब लोगों को दूसरों के दुख की परवाह ही नहीं है और अपनी खुशियों के नाम पर पड़ोसी की मौत की परवाह किये बिना आतिशबाजी करने में पीछे नहीं रहते। यदि भारतीय सांस्कृतिक विरासत ही संजोई गयी होती, तो सरकारी रोक जैसी जरूरतें नहीं पड़तीं और पटाखों के कारण उत्पन्न संकट से बचा जा सकता था।

वैसे जनता सरकार की रोक भी नहीं मानना चाहती है। यही कारण है कि पटाखों पर रोक के बावजूद दिल्ली से लखनऊ तक हर जगह मनमाने ढंग से पटाखे चलाए गए। इसके परिणाम स्वरूप प्रदूषण में अनपेक्षित वृद्धि दर्ज की गयी।दीवाली की रात वायु गुणवत्ता सूचकांक सरकारी रोक संबंधी आदेशों को चिढ़ाता नजर आ रहा था। सामान्य स्थितियों में मानक के अनुरूप वायु गुणवत्ता सूचकांक पचास के आंकड़े को पार नहीं करना चाहिए। सौ के ऊपर वायु गुणवत्ता सूचकांक खतरनाक माना जाता है। इसके बावजूद जींद में दीवाली की रात वायु गुणवत्ता सूचकांक 457 पहुंच गया था। दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हालत भी बहुत खराब रही। गाजियाबाद में वायु गुणवत्ता सूचकांक 448 तो नोएडा में 441 दर्ज किया गया। देश की राजधानी दिल्ली वाले सरकारी आदेश न मानने के लिए कितने बेताब हैं, यह बात भी दीवाली की रात साबित हुई। दिल्ली का वायु गुणवत्ता सूचकांक 435 दर्ज किया गया। यह आंकड़ा दिल्ली का औसत आंकड़ा था। दिल्ली के अंदर कुछ स्थानों पर तो वायु गुणवत्ता सूचकांक 500 तक पहुंच गया था। गुरुग्राम व फरीदाबाद भी इस मामले में पीछे नहीं रहे और दीवाली की रात हुई जमकर आतिशबाजी के चलते वहां वायु गुणवत्ता सूचकांक 425 व 414 तक पहुंच गया। यह स्थिति प्रदूषण को जानलेवा बना रही है। दिल्ली व आसपास जिस तेजी से तीसरी बार कोरोना पांव पसार रहा है, उस दृष्टि से यह प्रदूषण बेहत खतरनाक साबित होने वाला है।

ये स्थितियां बताती हैं कि आम जनमानस में सरकारों की बातें मानने की जिजीविषा ही समाप्त हो चुकी है। लोग मनमाने ढंग से हर पाबंदी को परिभाषित करते हैं। कई बार तो धार्मिक आधार पर भी पाबंदियों का समर्थन या विरोध शुरू हो जाता है। इसका कष्ट वही समझ पाता है, जिसके घर के किसी व्यक्ति की जान जाती है। अराजकता व मनमानी का परिणाम जाति, धर्म, सामाजिक ओहदा या स्थिति देखकर सामने नहीं आता। पटाखे हों या अन्य पाबंदियां, इन पर अमल जनता को ही सुनिश्चित करना होगा। ऐसा न होने पर पूरे समाज को बड़े कष्ट व संकटों के लिए तैयार रहना होगा। जिस तरह पर्यावरण की चिंता न कर हमने पूरे मौसम चक्र व वातावरण को खतरे में डाल दिया है, अब अन्य स्तरों पर अराजकता सामाजिक संकट का कारण बन रही है। इससे मुक्ति का पथ भी जनता को ही खोजना होगा।

Tuesday 17 November 2020

...यह जनादेश वाला दल-बदल है

डॉ. संजीव मिश्र

अच्छा हुआ बिहार में मतदाताओं ने एक गठबंधन को सपष्ट बहुमत दे दिया है। ऐसा न होता तो आज सरकार बनाने से ज्यादा विधायकों को अपने पाले में करने की खींचतान चल रही होती। बिहार विधानसभा चुनाव के साथ ही मध्यप्रदेश सहित देश के कई राज्यों में उपचुनाव भी हुए हैं। इनमें मध्यप्रदेश के उपचुनावों के माध्यम से जनादेश वाले दल-बदल को मूर्त रूप मिला है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से दल-बदल कानून को ठेंगा दिखाते हुए राजनीतिक दलों ने जनादेश के साथ दल बदलने का रास्ता निकाल लिया है, यह समूचे लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। देश में जिस तरह विधायकों की सुगम आवाजाही कर सरकारें बदली गयीं, उससे 35 साल पुराना दल-बदल विरोधी कानून अप्रासंगिक हो गया है। अब नए सिरे से इसमें बदलाव की जरूरत भी है।

दरअसल 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आए दिन दल-बदल व जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त रोकने के लिए 52वें संविधान संशोधन के रूप में दल-बदल विरोधी कानून की पहल की थी। तब देश के अधिकांश राजनीतिक दलों ने दल-बदल विरोधी कानून का समर्थन किया तो लगा कि देश में क्रांतिकारी बदलाव आएगा। अब सत्ता की शुचिता बरकरार रहेगी। दल-बदल बिल्कुल रुक जाएंगे। 35 साल पहले दल बदल कानून लागू होने पर कुछ ऐसा संदेश दिया गया था कि पूरी-पूरी पार्टी या उसकी बड़ी संख्या को तोड़ना थोड़ा कठिन होगा। इसीलिए उस समय अन्य राजनीतिक दलों व नेताओं ने इस कानून का समर्थन भी किया था। जिस तरह से विधायक व सांसद चुनाव बाद अपनी निष्ठाएं बदल देते थे, उससे सर्वाधिक कुठाराघात जनता की भावनाओं के साथ ही होता था। दल-बदल कानून लागू होने के बाद उम्मीद थी कि यह मनमानी रुकेगी। कुछ वर्षों तक ऐसा हुआ भी, किन्तु राजनीतिक दलों ने फिर से राह निकाल ली। अब थोक में दल-बदल के साथ इस्तीफे व दोबारा चुनाव के साथ पूरी-पूरी पार्टी के ही वैचारिक परिवर्तन जैसे रास्ते निकाल लिये गए हैं। हालांकि 1985 में ही प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने इस कानून को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की थीं। उन्होंने उसी समय चेताया था कि इस कानून से दल-बदल नहीं रुकेगा। उनका कहना था कि यह कानून छोटे-छोटे यानी फुटकर दल-बदल को तो रोकता है किन्तु थोक में हुए दल-बदल को वैधता प्रदान करता है। अब लग रहा है कि मधु लिमये की आशंकाएं गलत नहीं थीं। कहा जाए कि उनकी चिंता सही साबित हुई है तो गलत नहीं होगा। दल-बदल कानून बनने के कुछ सालों के भीतर ही स्पष्ट होने लगा था कि यह कानून अपने मकसद को पाने में नाकाम साबित हो रहा है। अब तो लगने लगा है कि इस कानून ने भारत के संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को भी हवा दी है।

जिस तरह पिछले कुछ वर्षों में दल-बदल का स्वरूप बदला है, उससे इन विकृतियों को लेकर सामाजिक चिंताएं भी बढ़ी हैं। मध्यप्रदेश का समूचा घटनाक्रम इसका गवाह है। जिस तरह भाजपा का विरोध कर सत्ता में आए कांग्रेस के 22 विधायकों ने इस्तीफा देकर कमलनाथ की सरकार गिराई और फिर अब उपचुनावों में उनमें से अधिकांश भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर जीत कर फिर सत्ता का हिस्सा बन गए, इससे स्पष्ट है कि दल-बदल कानून बेमतलब साबित हो चुका है। इससे पहले थोक में दल बदल का एक और स्वरूप कर्नाटक में भी सामने आया था। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनवाने के लिए कांग्रेस व जनता दल (एस) के 17 विधायकों ने अपनी पार्टियों की बात नहीं मानी और विधानसभा से गैरहाजिर होकर अपनी पार्टियों के साथ विश्वासघात किया। बाद में वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गयी है और इन 17 विधायकों की सीटों पर उपचुनाव कराना पड़ा। कर्नाटक हो या मध्य प्रदेश, इन विधायकों के दल-बदल के कारण हुए चुनावों का खर्च सरकारों को उठाना पड़ा है, जो जनता की जेब से ही करों के रूप में वसूला हुआ है। इसके अलावा बिना विधानसभा चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बनने वालों के लिए सीट छोड़ने की परंपरा भी खासी प्रचलित है। इस कारण होने वाले उपचुनाव का खर्च भी जनता की जेब से ही जाता है।

इससे पूर्व महाराष्ट्र भी दल-बदल की अराजक स्थितियों का गवाह बना था। शिव सेना ने जिस भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनाव लड़ा, चुनाव के तुरंत बाद भाजपा से मतभिन्नता और फिर अलगाव जैसी स्थितियां उत्पन्न हो गयीं। इसी तरह कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उस शिवसेना के साथ सरकार बना ली, जिसकी आलोचना करते हुए पूरा चुनाव लड़ा। ऐसे में जनता के साथ तो यह भी विश्वासघात माना जाएगा। जनता ने शिवसेना को इसलिए वोट दिया था क्योंकि वह वैचारिक रूप से भाजपा के साथ खड़ी थी। भाजपा से अलग होकर शिवसेना ने उस जनादेश को चुनौती दी। इसी तरह भाजपा ने शिवसेना के साथ चुनाव लड़ते समय चुनाव बाद भी साथ रहने का वादा किया था, जिसे नहीं निभाया गया। निश्चित रूप से अब नए सिरे से ऐसी वादाखिलाफी पर भी अंकुश लगाए जाने की जरूरत है। यह समय एक बार फिर दल-बदल कानून पर पुनर्विचार का है। चुनाव पूर्व गठबंधनों की स्थिति में चुनाव बाद बदलाव की अनुमति न देने सहित दोबारा चुनाव की नौबत आने पर इसका खर्च इसके जिम्मेदार विधायकों से वसूलने जैसे प्रस्तावों पर भी विचार होना चाहिए। साथ ही ऐसी नौबत पैदा करने वालों के चुनाव लड़ने पर रोक जैसे प्रावधान भी लागू किये जाने चाहिए। देश की राजनीतिक व चुनावी शुचिता के लिए यह जरूरी भी है। ऐसा न होने पर राजनीतिक क्षेत्र से नए व अच्छे लोगों का जुड़ाव भी कठिन हो जाएगा। 

Monday 9 November 2020

टुकड़ा-टुकड़ा आजादी का शिकार मीडिया

डॉ. संजीव मिश्र

भारतीय मीडिया इस समय आजादी की अलग ही लड़ाई लड़ रहा है। यह लड़ाई टुकड़ों में बंटे मीडिया समूहों की आजादी की है। यह लड़ाई पालों में बंटी मीडिया की खेमेबंदी से आजादी की है। यह लड़ाई सत्ता की कठपुतली की डोर से आजाद होने की कसमसाहट की है। यह लड़ाई अलग-अलग मुद्दों पर अलग-अलग स्टैंड से जूझकर बाहर निकलने की है। टुकड़ों में बंटा भारतीय मीडिया इस समय टुकड़ा-टुकड़ा आजादी का शिकार बन गया है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की इस निरीह स्थिति का लाभ अन्य स्तंभ पूरे मन से उठा रहे हैं। स्वयं आजादी की लड़ाई लड़ रहे मीडिया ने राजनीति व अफसरशाही को अपने इस बंटवारे का पूरा लाभ उठाने की आजादी दे भी दी है।

मुंबई में बुधवार की सुबह भारतीय मीडिया के एक चर्चित चेहरे अर्नब गोस्वामी को लाद कर ले जाती मुंबई पुलिस दरअसल एक अर्नब को नहीं ले जा रही थी, वह विभाजित भारतीय मीडिया को ढो रही थी। मुंबई पुलिस को पता था कि कुछ ही पलों बाद मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अर्नब के कर्मों का आंकलन कर तदनुरूप इस कार्रवाई में सीधे या परोक्ष रूप में उसके साथ खड़ा होगा, वहीं दूसरा हिस्सा उसका विरोध कर रहा होगा। हुआ भी ऐसा ही। जैसे-जैसे सूरज चढ़ रहा था, भारतीय मीडिया व पत्रकारों का यह रूप सामने आता जा रहा था। जिस तरह से देश में राजनीतिक दल इस मसले पर बंटे नजर आ रहे थे, वैसे ही मीडिया भी अपने वैचारिक राजनीतिक अधिष्ठानों के साथ सुर-ताल मिलाकर टुकड़े-टुकड़े नजर आ रहा था। इन सबके बीच कुछ नाम थे, जो कल तक अर्नब की पूरी पत्रकारिता को खारिज करते थे, उऩ्होंने पुलिस के तरीके पर आपत्ति जरूर जताई थी।

मुंबई पुलिस ने अर्नब के साथ जो किया, उसके बाद मीडिया की आजादी को लेकर भी चर्चा शुरू हो गयी है। यह चर्चा उस समय शुरू हुई, जब आत्महत्या उत्प्रेरण के एक मामले में अर्नब को उठाया गया। सवाल ये है कि सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या मामले की गहन पड़ताल का मसला भी तो अर्नब ने पूरे मन से उठाया था। यदि सुशांत की आत्महत्या के जिम्मेदार लोगों को सजा मिलनी चाहिए, तो अर्नब को सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिए जिनके खिलाफ सुसाइड नोट मिला था। जब सत्ता के साथ समीकरण अच्छे थे, तब अर्नब को इस मामले में क्लीनचिट मिल चुकी थी। यही संकट भारतीय पत्रकारिता का मूल संकट है। सत्ता के साथ समीकरण साध कर निहित स्वार्थों की पूर्ति करने वाली पत्रकारिता ने पत्रकारों को राजनीति व अधिकारियों की कठपुतली सा बना दिया है। सत्ता, राजनीति या प्रशासन के मजबूत लोग पत्रकारों के छोटे हित साधऩे के बाद उन्हें अपने बड़े हित में प्रयोग करते हैं। मीडिया के भीतर आगे बढ़ने की आपसी होड़ का लाभ भी नौकरशाही व राजनेता उठाते हैं।

टुकड़ों में हुए इस बंटवारे के कारण ही मीडिया के भीतर सच कहने का साहस समाप्त सा हो गया है। अर्नब के साथ सही-गलत की बात तो अलग है किन्तु अर्नब से पहले पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह देश भर में पत्रकारों पर हुकूमत ने जुल्म ढाए हैं, उन पर मिलकर आवाजें उठी ही नहीं हैं। सरकारों को सही या गलत ठहराने के लिए पत्रकार जिस तरह स्वयं को एक पक्ष का हिस्सा बना लेते हैं, उसका परिणाम है कि उनसे उनकी आजादी व सवाल पूछने की ताकत तक छिन जाती है। कुछ वर्ष पहले तक नेता परेशान रहते थे कि पत्रकार उनका साक्षात्कार करें, अब स्थितियां उल्टी हो चुकी हैं। आए दिन नेताओँ, अभिनेताओं आदि के साक्षात्कार लेने के बाद स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते पत्रकार सोशल मीडिया पर अपडेट करते दिख जाएंगे। अमेरिका जैसे देश में राष्ट्रपति ट्रंप के झूठ ट्रैक किये जाते हैं, पत्रकार खुल कर उनसे सवाल पूछने का साहस करते हैं कि कितना झूठ और बोलोगे। इसके विपरीत भारत में ऐसा साहस करने वाले पत्रकार कितने हैं। अब तो राजनीतिक शिखर पुरुष प्रेस कांफ्रेंस ही नहीं करते और जब अपनी जरूरत के अनुरूप साक्षात्कार देते हैं, तो पत्रकार व उनके मीडिया समूह गौरवान्वित हो उस साक्षात्कार की मार्केटिंग करने में व्यस्त हो जाते हैं।

इन्हीं स्थितियों ने भारत में मीडिया की आजादी के मापदंड को बहुत नीचे गिरा दिया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी मीडिया की स्वतंत्रता के सूचकांक (प्रेस फ्रीडम इनडेक्स) में भारत 180 देशों की सूची में 142वें स्थान पर है। प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में हम अपने पड़ोसियों से भी पीछए हैं। भूटान जैसा देश इस सूची में 67वें स्थान पर है, तो नेपाल 112लें स्थान पर है। श्रीलंका 127वें स्थान पर रहकर हमसे अच्छी स्थिति में है ही, वहीं युद्धग्रस्त अफगानिस्तान के पत्रकार भी भारतीय पत्रकारों से अधिक आजाद हैं। इस सूची में अफगानिस्तान 122वें स्थान पर है। भारतीय मीडिया की यह छीछालेदर अभी ऐसे ही जारी रहेगी। जबतक हम अपराधी पत्रकारों के साथ खड़े होने में हिचकेंगे नहीं और पत्रकारिता करते हुए सताए गए पत्रकारों के लिए सत्ता के डर से बोलने में हिचकेंगे। यह स्थिति समाप्त होनी चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष व स्वतंत्र पत्रकारिता सर्वाधिक आवश्यक अवयव है। ऐसा न हुआ तो लोकतंत्र खतरे में पड़ेगा और तानाशाही बढ़ेगी। फिर सिर्फ मीडिया की आजादी ही नहीं देश की आजादी खतरे में आ जाएगी। सावधानी जरूरी है।