Wednesday 30 October 2019

बगदादी का जाना और यूरोपीय सांसदों का आना


डॉ. संजीव मिश्र
दीवाली के साथ ही देश-दुनिया में दो खबरें एक साथ आयीं। दुनिया में आतंक का पर्याय बना आईएसआईएस सरगना अबू बक्र अल बगदादी को अमेरिकी फौज ने मार गिराया और यूरोपीय़ यूनियन के सांसदों का एक दल कश्मीर जाकर वहां के हालातों का जायजा लेगा। सामान्य रूप से ये दोनों खबरें अलग-अलग लगती हैं, किन्तु इन दोनों की जड़ में आतंकवाद है। जिस तरह बगदादी आतंकी सरगना के रूप में दुनिया की मुसीबत बना था, उसी तरह कश्मीर को आतंक की सैरगाह बनने से बचाना इस समय भारत की चुनौती है। ऐसे में जब बगदादी की मौत से आतंक के खिलाफ वैश्विक दबाव बना है, वहीं ऐसे ही किसी वैश्विक दबाव से बचने की एक रणनीतिक कोशिश के रूप में यूरोपीय यूनियन के सांसद कश्मीर जा रहे है। बगदादी के बाद भारत की चुनौती अमेरिकी तर्ज पर देश के दुश्मन आतंकियों को उनकी पनाहगाहों से खोज कर निकालना बन गया है, वहीं कश्मीर में अमनचैन सुनिश्चित करने की चुनौती भी सरकार के सामने है।
बगदादी की मौत के बाद भारत में सीधे तौर पर इसे लेकर तमाम चर्चाएं हो रही हैं। इसके दो कारण स्पष्ट हैं। पहला यह कि भारत भी बगदादी या आईएसआईएस मॉड्यूल के आतंकवाद से पीड़ित देश है और यहां से तमाम युवाओं के आईएसआईएस से जुड़ने की जानकारियां लगातार आ रही थीं। दूसरा यह कि सरकार पर अब बगदादी की तरह ही पाकिस्तान में छिपे हाफिज सईद व मौलाना मसूद अजहर जैसे देश के दुश्मनों पर अमेरिकी फौज जैसा अभियान चलाकर उनके खात्मे का दबाव बन रहा है। भारत में महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर जैसे कई राज्यों के युवाओं के आईएसआईएस से जुड़ने की जानकारियां लगातार सामने आ रही थीं। आईएसआईएस को भारत के कट्टरपंथी लोगों को आतंक से जोड़ना भी आसान लग रहा था। ऐसे में बगदादी की मौत के बाद इस सिलसिले में कमी आएगी, यह माना जा रहा है। आईएसआईएस जिस तेजी से भारत में पांव पसारना चाह रहा था, उस पर अब निश्चित रूप से अंकुश लगेगा, क्योंकि आईएसआईएस नेतृत्व की प्राथमिकताएं अब बदलेगीं। जिस तरह अमेरिका ने बगदादी को सुरंग में दौड़ा-दौड़ा कर मौत चुनने के लिए मजबूर कर दिया, उसके बाद भारतीय नेतृत्व व भारतीय सेना पर भी अलग सा दबाव बना है। पहले दाउद इब्राहिम वर्षों से भारत को चुनौती देकर पाकिस्तान में जमा बैठा था, अब हाफिज सईद व मौलाना मसूद अजहर भी पाकिस्तान में डेरा डालकर खुलेआम भारत के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। पाकपरस्त आतंकियों के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मजबूत कदम उठा चुकी भारतीय सेना से अब पाकिस्तान में घुसकर हाफिज व मसूद जैसों को उड़ाने की उम्मीद की जा रही है। हर कोई भारतीय सेना की शौर्य गाथा से जुड़ा हुआ है, ऐसे में अब पाकिस्तान में छिपे इन आतंकियों के खिलाफ वैसी ही कार्रवाई की जरूरत महसूस हो रही है, जिस तरह पहले लादेन, फिर बगदादी के मामले में अमेरिकी सेना द्वारा की गयी है।
दरअसल ये आतंकी भारत के लिए लगातार मुसीबत बने हुए हैं। कश्मीर को आतंकवाद की पनाहगाह बनाने में ये आतंकी पाकिस्तान का मुखौटा बनकर सामने आ रहे हैं। यही कारण है कि कश्मीर से धारा 370 हटाने जैसे बेहद आंतरिक मसले को भी पाकिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय मसला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। संयुक्त राष्ट्र में तो पाकिस्तान ने यह मामाला उठाया ही, यूरोपीय यूनियन की संसद में भी कश्मीर पर चर्चा हुई। अब बगदादी की मौत की खबर के साथ ही यूरोपीय यूनियन के सांसदों का भारत आना भी महज एक संयोग ही है। यूरोपीय यूनियन के सांसदों की टीम कश्मीर जाकर वहां के हालात जानेगी। इसके बाद वैश्विक स्तर पर भारत के प्रति निश्चित रूप से स्थितियों में सकारात्मक सुधार होगा। इसके साथ ही इस दौरे पर भारत में भी थोड़े-बहुत सवाल उठ रहे हैं, जिनका जवाब सरकार को देना होगा। दरअसल कश्मीर पर कठोर फैसलों के बाद जिस तरह भारतीय विपक्षी दलों ने कश्मीर जाने की कोशिश की और जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने विपक्ष को कश्मीर का दौरा करने की अनुमति नहीं दी, उससे तो सवाल उठ ही रहे थे, अब विदेशी टीम को कश्मीर जाने की अनुमति ने ये सवाल दोबारा खड़े कर दिये हैं। विपक्षी दलों को कश्मीर दौरे पर जाने की अनुमति के लिए सुप्रीम कोर्ट तक से गुहार करनी पड़ी थी। ऐसे में अब विपक्ष द्वारा  यूरोपीय यूनियन के सांसदों को कश्मीर दौरे की अनुमति पर सवाल उठाया जाना अवश्यंभावी है। ऐसी स्थितियां सरकारों की जवाबदेही बढ़ा देती हैं। 31 अक्टूबर से कश्मीर का पूरा स्वरूप बदलने वाला है। 31 अक्टूबर से जम्मू-कश्मीर व लद्दाख अलग-अलग केंद्र शासित राज्य बन जाएंगे। ऐसे में केंद्र की जिम्मेदारी और बढ़ने वाली है। आतंक से लड़ाई के इस दौर में कश्मीर का इकबाल तभी बुलंद होगा, जब हम कश्मीर के दुश्मन आतंकी सरगनाओं को उनके आकाओं के घर में घुस कर मारेंगे। उम्मीद है हम ऐसा कर पाएंगे।

Thursday 24 October 2019

कट्टरवाद को प्रश्रय का प्रतिफल है यह हत्या


डॉ.संजीव मिश्र
हम वसुधैव कुटुम्बकम् यानी पूरे विश्व को परिवार मानने वाले देश में रहते हैं। हम गंगा-जमुनी तहजीब वाले देश में रहते हैं। हम सर्व धर्म सद्भाव ही नहीं समभाव के सूत्र पर जीने वाले देश में रहते हैं। ...और उसी देश में एक दिन अचानक दो युवा 1300 किलोमीटर दूर से आते हैं, एक व्यक्ति की हत्या करते हैं और लौट जाते हैं। हत्या भी इसलिए क्योंकि जिस व्यक्ति को मारा जाता है, उसने चार साल पहले एक बयान दिया था। यह हत्या देश की बदलती रंगत को बताती है। यह हत्या देश में कट्टरवाद को सतत प्रश्रय का प्रतिफल है। यह प्रश्रय किसी एक ओर से नहीं मिल रहा, यहां हर ओर से कट्टरवाद को येन-केन प्रकारेण प्रश्रय मिल रहा है, जिसके जवाब में कभी गौरी लंकेश तो कभी कमलेश तिवारी को जान गंवानी पड़ती है।
लखनऊ में हिन्दूवादी नेता के तौर पर पहचान बनाए कमलेश तिवारी की हत्या महज एक हत्या नहीं है। यह देश के समक्ष तमाम सवाल खड़े कर रही है। जिस तरह देश की तहजीब का ताना-बाना उधेड़ा जा रहा है, कमलेश तिवारी की हत्या जैसे घटनाक्रम बढ़ने से रोकना उतना ही कठिन हो जाएगा। दरअसल, पिछले कुछ वर्षों से देश में कट्टरवाद को विविध रूप में परिभाषित कर उसे प्रश्रय दिया गया। कमलेश तिवारी ने चार साल पहले जिस धर्म विशेष के एक महापुरुष को लेकर आपत्तिजनक बयान दिया था, उस धर्म के कुछ झंडाबरदारों ने कमलेश की हत्या पर ईनाम का एलान कर दिया था। कमलेश को तो गिरफ्तार कर रासुका लगा दी गयी, किन्तु एक हत्या की तैयारी रोकने के पुख्ता बंदोबस्त नहीं हुए। जिन लोगों ने कमलेश की हत्या पर ईनाम का एलान किया था, उन्हें चार साल बाद हुई हत्या के बाद पुलिस पकड़ रही है। दूसरे, जिस तरह धार्मिक वैमनस्य के परिणाम स्वरूप कुछ युवा अपने जीवन व करियर की परवाह किये बिना एक ऐसे व्यक्ति की हत्या को तैयार हो गए, जिसे वे जानते तक नहीं थे, यह भाव भी देश के लिए हताशापूर्ण भविष्य का द्योतक है।
धार्मिक कट्टरता का यह प्रतिफल पहली बार सामने आया हो, ऐसा भी नहीं है। दूर देश में धार्मिक ग्रन्थ जलाए जाने के खिलाफ हुए प्रदर्शनों के दौरान उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक अपर जिलाधिकारी (एडीएम) को गोली मारकर उनकी जान ले ली गयी थी। इस मामले में पुलिस अपने अफसर के हत्यारे को भी सजा नहीं दिला पाई और जिस व्यक्ति पर आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया, वह बरी हो गया। ऐसा नहीं है कि धार्मिक कट्टरता ये मामले एकपक्षीय ही हैं। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसरे, एमएम कुलबर्गी और गौरी लंकेश की हत्याएं भी धार्मिक कट्टरता का परिणाम ही हैं। जिस तरह से देश में धार्मिक कट्टरता को प्रश्रय दिया जा रहा है, उसमें ऐसी घटनाएं होना सामान्य सी बात हो गयी है। हाल ही में जिस तरह मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ी हैं, उससे इस कट्टरवाद को और बल मिला है। मॉब लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा घेर कर मार डालना भारतीय जीवन दर्शन का हिस्सा कभी नहीं रहा। पिछले कुछ वर्षों से अचानक ऐसी घटनाएं भारत का हिस्सा भी बन गयी हैं। तमाम सरकारी कोशिशों व दावों के बावजूद इन पर नियंत्रण नहीं लग पा रहा है।
भारत कट्टरता के खिलाफ संघर्ष करते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे नेताओं की शहादत का गवाह बन चुका है। 1931 के कानपुर दंगों में गणेश शंकर विद्यार्थी पूरे भरोसे के साथ दंगा रोकने की उम्मीद लेकर घुसे थे, किन्तु कुछ कट्टरवादियों ने उनकी हत्या कर दी थी। इस घटना के बाद कट्टरवादियों के खिलाफ सब एकजुट थे। इसके विपरीत इस समय चल रही घटनाओं का विश्लेषण करें तो तेरी कट्टरता, मेरी कट्टरता का भाव भी सामने आता है। गौरी लंकेश की हत्या के बाद जिस तरह देश का एक वर्ग खुलकर सामने आया था और सरकार द्वारा दिये गए सम्मान वापस करने (एवार्ड वापसी) की होड़ सी लगी थी, उससे लगा था कि देश में कट्टरवाद के खिलाफ एक मानस बन रहा है। अब कमलेश तिवारी की हत्य़ा के बाद दूसरा खेमा उन लोगों से ऐसी ही अपेक्षा कर रहा है। यहां यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि जिन लोगों ने सामूहिक रूप से गौरी लंकेश, दाभोलकर या कुलबर्गी की हत्या के खिलाफ आवाज उठाई थी, कमलेश तिवारी के हत्यारों के मामले में वे उतने मुखर नहीं दिख रहे हैं। इससे कट्टरवाद के खिलाफ खेमेबंदी भी साफ दिख रही है। इस समय देश के भीतर इस तरह की खेमेबंदी को पूरी तरह समाप्त कर हर तरह के कट्टरवाद के खिलाफ आवाज उठाए जाने की जरूरत है। ऐसा न हुआ तो हम येन-केन प्रकारेण कट्टरवाद को प्रश्रय ही देते रहेंगे और कब हत्यारे हमारे घर भीतर घुस आएंगे, हम जान भी न पाएंगे।

Wednesday 16 October 2019

हरियाणा-महाराष्ट्र में योगी के ढाई साल की दस्तक

डॉ.संजीव मिश्र
हरियाणा महाराष्ट्र का चुनावी संग्राम इस समय पूरे उभार पर है। सेनाएं मैदान में उतर चुकी हैं और हर कोई जीत के दावों के साथ सकारात्मक परिणामों की उम्मीद लगाए बैठा है। भारतीय जनता पार्टी शासित इन दोनों राज्यों में प्रदेश सरकार के पांच साल के कामकाज का आंकलन तो हो ही रहा है, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार के ढाई साल भी बीच-बीच में दस्तक दे रहे हैं। इन राज्यों में भाजपा के प्रत्याशी योगी आदित्यनाथ की सभाएं चाहते हैं और वे हर रोज औसतन चार सभाओं को संबोधित भी कर रहे हैं।
हरियाणा विधानसभा चुनाव की शुरुआत से ही वहां योगी आदित्यनाथ की मांग होने लगी थी। मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर जब करनाल विधानसभा क्षेत्र से नामांकन दाखिल करने पहुंचे तो योगी आदित्यनाथ उनके साथ थे। योगी आदित्यनाथ की भाजपा के राष्ट्रीय क्षितिज पर सक्रियता का मसला बीच-बीच में उठता ही रहता है और देश भर के चुनाव अभियान में वे भाजपा के स्टार प्रचारक भी रहते हैं किन्तु हरियाणा के साथ नाथ संप्रदाय का विशिष्ट रिश्ता उन्हें वहां से विशेष रूप से जोड़ता है। हरियाणा के हिसार में स्थित नाथ संप्रदाय की श्री सिद्धपीठ होने के कारण उनका वहां से जुड़ाव तो है ही, लोग भी उनसे सीधे जुड़ते हैं। यही कारण है कि मनोहर लाल खट्टर के नामांकन से लेकर चुनाव प्रचार के आखिरी दिन यानी 19 अक्टूबर तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हरियाणा के लोगों से नियमित संवाद करना पड़ रहा है। इस चुनाव में खट्टर के कार्यकाल की तो चर्चा होती ही है, योगी आदित्यनाथ के ढाई साल के मुख्यमंत्रित्वकाल में उत्तर प्रदेश में हुए बदलाव भी चर्चा का केंद्र बनते हैं। हर प्रत्याशी योगी आदित्यनाथ की सभाएं कराना चाहता है और भाजपा को भी बमुश्किल संयोजन करना पड़ रहा है। इसके अलावा गुड़गांव सहित हरियाणा के विभिन्न हिस्सों में उत्तर प्रदेश के मूल निवासियों की ठीक-ठाक आबादी है, जिस पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का प्रभाव उनकी मांग और बढ़ा रहा है। जनसभाओं के दौरान वे हरियाणा के साथ अपने रिश्तों की बात भी कर रहे हैं।
हरियाणा के अलावा महाराष्ट्र में भी नयी विधानसभा के गठन के लिए 21 अक्टूबर को मतदान होना है। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस के पांच साल के कार्यकाल की उपलब्धियों के साथ भाजपा हिन्दुत्व के एंबेसडर के रूप में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को प्रस्तुत कर रही है। मुंबई सहित पूरे महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की प्रचुर आबादी होने के कारण वहां भी योगी आदित्यनाथ की सभाओं की मांग भाजपा प्रत्याशी लगातार कर रहे हैं। योगी आदित्यनाथ महाराष्ट्र में हिन्दुत्व के साथ विकास के एजेंडे पर भी चर्चा कर रहे हैं। ऐसे में महाराष्ट्र में योगी की हर सभा देवेंद्र फड़नवीस के पांच साल के शासन के साथ उत्तर प्रदेश के ढाई साल के योगी शासन की गवाह भी बनती है। उत्तर प्रदेश में हुए बदलाव वहां रहने वाले उत्तर भारतीयों को प्रेरित कर रहे हैं और योगी सहित भाजपा के नेता उत्तर भारतीयों के बीच जाकर चर्चा भी इसी विषय के इर्दगिर्द कर रहे हैं। दरअसल महाराष्ट्र में समग्र रूप से उत्तर भारतीयों की संख्या तो पर्याप्त है ही, उनमें भी पूर्वी उत्तर प्रदेश उससे जुड़े बिहार के लोग सर्वाधिक रहते हैं। इन लोगों के बीच योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता जबर्दस्त है। साथ ही ये लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश से जुड़े होने के कारण मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से सीधा जुड़ाव महसूस करते हैं और योगी सरकार के पिछले ढाई साल के कार्यकाल से भी जुड़ते हैं।
हरियाणा महाराष्ट्र के साथ उत्तर प्रदेश की 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव भी 21 अक्टूबर को ही प्रस्तावित है। उत्तर प्रदेश का उपचुनाव भी भाजपा के लिए चुनौती भरा है। हाल ही में हमीरपुर सदर विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जीत हासिल कर भाजपा के हौसले बुलंद हैं। ऐसे में भाजपा सभी सीटें जीतने की रणनीति बनाकर मैदान में है। यहां भी सभी सीटों पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मांग भाजपा के प्रत्याशी कर रहे हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश के साथ हरियाणा महाराष्ट्र में योगी आदित्यनाथ का प्रवास चुनौती भरा तो है किन्तु इसे अमल में लाया जा रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इन राज्यों में 10 अक्टूबर से 19 अक्टूबर तक रोज औसतन चार जनसभाएं नियोजित की गयी हैं। इनका प्रभाव तो चुनाव परिणामों के बाद सामने आएगा, किन्तु इतना तय है कि उत्तर प्रदेश सरकार के बीते ढाई साल निश्चित रूप से हरियाणा महाराष्ट्र सरकारों के पांच साल के साथ युति के रूप में काम करेंगे। भाजपा की कोशिश इस युति को प्रभावी बनाने की है और संभवतः यही कारण है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के साथ हरियाणा महाराष्ट्र में भी पसीना बहा रहे हैं।