Sunday 20 March 2022

हिजाब के हिसाब-किताब में उतरा राजनीति का चश्मा

डॉ.संजीव मिश्र

शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहन कर जाने को लेकर कर्नाटक की उठापटक पर उच्च न्यायालय के फैसले के बाद इस मसले पर उलझे लोग भले ही अलग-अलग राय दे रहे हों, किन्तु हिजाब के अब तक के हिसाब-किताब ने तमाम लोगों की राजनीति का चश्मा उतार दिया है। दरअसल हिजाब को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने की भरपूर कोशिशें हुई हैं। इसे संयोग ही कहेंगे, ऐसी हर कोशिश तर्कों के साथ विफल साबित हुई और अब उच्च न्यायालय के फैसले के बाद धार्मिक मान्यताओं और शैक्षिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन पर एक सर्वस्वीकार्य हल निकलता भी दिख रहा है।

कर्नाटक में हिजाब पहनने को लेकर जो खींचतान जनवरी के अंत होते-होते शुरू हुई थी, वह फरवरी की शुरुआत तक विस्तार ले चुकी थी। यह संयोग ही कहा जाएगा कि उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव अभियान भी इसी दौरान गति पकड़ रहा था। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए दस फरवरी को पहले चरण का मतदान होना था और फरवरी के पहले सप्ताह में ही कर्नाटक में कहीं समर्थन तो कहीं विरोध में प्रदर्शन होने शुरू हो गए थे। कुछ छात्राएं जिद कर हिजाब पहनकर शिक्षण संस्थानों में पहुंच रही थीं और इसकी अनुमति न मिलने पर विरोध स्वरूप पढ़ाई और परीक्षाओं तक का बहिष्कार कर रही थीं। हिजाब समर्थक छात्राओं के इस फैसले के विरोध में कई संस्थानों में छात्र-छात्राओं ने भगवा दुपट्टे और शॉल ओढ़ कर आना शुरू कर दिया। इस मसले पर साम्प्रदायिक सौहार्द्र तक बिगड़ना शुरू हो गया था और कर्नाटक में कई जगहों से हिंसा होने की भी खबरें सामने आई थीं। इस कारण वहां नौ फरवरी से शिक्षण संस्थानों को बंद करना पड़ गया था।

यही वह समय था जब हिजाब का मसला कर्नाटक से बाहर निकला और सबसे पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अभियान का हिस्सा बन गया। दरअसल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले दो चरणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिन क्षेत्रों में चुनाव होने थे, वहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक है। इस दौरान 50 फीसद मुस्लिम आबादी वाले रामपुर सहित 30 से 47 प्रतिशत  मुस्लिम मतदाताओं वाले मुरादाबाद, संभल, बिजनौर, अमरोहा, सहारनपुर, बरेली और शाहजहांपुर जैसे जिलों में भी चुनाव होना था। यही कारण है कि यहां ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इस मसले को तेजी से उठाया था। मामला इतना बढ़ा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का चुनाव अभियान संभाल रही प्रियंका गांधी भी इस मसले पर बोलने का मोह संवरण न कर सकीं। पहले चरण के मतदान से ठीक एक दिन पहले 9 फरवरी को प्रियंका ने ट्वीट किया था, बिकिनी, घूंघट, जींस या हिजाब, यह महिला का अधिकार है वह क्या पहनना चाहती है। भारत के संविधान ने उन्हें यह अधिकार दिया है। प्रियंका के इस बयान और ओवैसी की इस मसले को मुस्लिम धार्मिक अस्मिता की कोशिशों से जोड़ने के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहां मौन रहने वाले थे? उन्होंने दूसरे चरण के मतदान से ठीक पहले ट्वीट किया, गजवा-ए-हिन्द का सपना देखने वाले मजहबी उन्मादी यह बात गांठ बांध लें, वह रहें या न रहें, भारत शरीयत के हिसाब से नहीं, संविधान के हिसाब से चलेगा।

इस हिजाबी खींचतान के बावजूद उत्तर प्रदेश की जनता मानो इस मसले से दूर रहने का ही मन बना चुकी थी। जिन असदुद्दीन ओवैसी ने सबसे पहले यह मसला उठाया, उनकी पार्टी एआईएमआईएम को उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का नगण्य समर्थन ही मिल सका। उन्हें महज 0.49 प्रतिशत मतों से संतोष करना पड़ा और विधानसभा में शून्य के आंकड़े पर सिमटी उनकी पार्टी के 99 फीसद प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी। यही हाल प्रियंका गांधी की पार्टी कांग्रेस का भी रहा। कांग्रेस को महज दो विधायकों से संतोष करना पड़ा और उत्तर प्रदेश में भी महज 2.33 प्रतिशत वोट ही मिल सके। समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने पूरे चुनाव अभियान के दौरान हिजाब विवाद पर चुप्पी साधे रखी। उन्होंने न तो हिजाब के समर्थन में, न विरोध में कोई बयान दिया। इसके बावजूद मुस्लिम बहुल इलाकों में समाजवादी पार्टी को जमकर वोट मिले और एकतरफा वोट मिले। यही नहीं विधानसभा में पहुंचे सभी 34 विधायक समाजवादी पार्टी गठबंधन से जीते हैं। इन परिणामों से यह तो स्पष्ट है कि हिजाब के हिसाब-किताब में राजनीतिक चश्मा लगाने वालों को यह चश्मा मतदाताओं ने सीधे तौर पर उतार दिया है। जिन लोगों ने हिजाब को लेकर खुलकर बातें कीं, उन्हें वोट नहीं मिले और इस मसले पर मौन रहने वाले अखिलेश वोट पा गए। इससे यह बात भी तय होती है कि हिजाब कोई मुद्दा था ही नहीं। कुछ राजनीतिक दलों ने इसे जबरन मुद्दा बनाने की कोशिश की थी, जिसे मतदाताओं ने खारिज कर दिया।

Tuesday 15 February 2022

हाथी की सुस्त चाल और दलित आंदोलन

डॉ.संजीव मिश्र

इस समय उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव अभियान चरम पर है। इस अभियान में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के अलावा बहुजन समाज पार्टी ही एकमात्र ऐसा राजनीतिक दल है जो एकाधिक राज्य में पूरी तन्मयता से चुनाव मैदान में है। पूरी तन्मयता के बावजूद बहुजन समाज पार्टी का हाथी उस राज्य में बेहद सुस्त चाल से चल रहा है, जहां वह चार बार सत्ता में रह चुकी है। जी हां, उत्तर प्रदेश में चार बार सत्ता में रहने के बावजूद बहुजन समाज पार्टी की सक्रियता को लेकर तमाम सवाल उठ रहे हैं। इसे लेकर दलित आंदोलन के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए जाने लगे हैं।

उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता मायवती की भूमिका को लेकर इस समय खासी चर्चा हो रही है। दरअसल पंजाब में बहुजन समाज पार्टी अकाली दल के साथ गठबंधन कर वहां की कई सीटों पर मुकाबले में नजर आ रही है। उत्तराखंड में यूं तो कांग्रेस और भाजपा में ही मुकाबला दिख रहा है किन्तु इस बार आम आदमी पार्टी ने पूरे मन से उत्तराखंड चुनाव मैदान में दांव लगाया है। इनके अलावा बहुजन समाज पार्टी ही ऐसी पार्टी है, जो उत्तराखंड में भी चौंकाने वाले परिणाम देने का दावा कर रही है। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश को लेकर बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का मौन लोगों को परेशान कर रहा है। मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं, किन्तु उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव अभियान में मायावती सबसे विलंब से और कहा जाए तो धीमी रफ्तार से उतरी हैं। माया के मौन के इस मायाजाल का जवाब खुल कर तो दस मार्च को सामने आएगा, किन्तु राजनीतिक विश्लेषण माया के मौन को लेकर हैरान तो हैं ही। वैसे मायावती और बसपा की जमीनी हकीकत खयाली विश्लेषणों से थोड़ा अलग है। मायावती के साथ उनका कैडर आज भी पूरे मन से जुड़ा है। इसका अंदाजा उस समय लगा, जब चुनाव अभियान की शुरुआत में लगभग मौन रहीं मायावती बीते दिनों आगरा में पहली बार सभा करने पहुंचीं तो वहां अनुमति से दस गुना लोग पहुंच चुके थे। यह बसपा कार्यकर्ताओं का अपनी बहनजी के प्रति स्नेह ही था। अब बहनजी भी उत्साहित हुए बिना न रह सकीं। उन्होने कार्यकर्ताओं से कहा, बहनजी कहां हैं, यह पूछने वालों को बता दीजिएगा कि बहनजी पार्टी मजबूत करने में लगी थीं। कार्यकर्ता भी इस जवाब से खासे उत्साहित नजर आए।

दरअसल यह मायावती का ओवरकांफीडेंस नहीं, आंकड़ों वाला कांफीडेंस है। 1984 में बहुजन समाज पार्टी के गठन के बाद 1993 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी न सिर्फ दस फीसदी से ज्यादा यानी 11.2 फीसद वोट पाए, बल्कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में 67 सीटें जीतकर तहलका मचा दिया था। यह चुनाव बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था, किन्तु डेढ़ साल बाद ही दोनों दलों में विवाद हुआ और बहुजन समाज पार्टी ने सरकार गिरा दी। 1996 में फिर चुनाव हुए। इस बार मायावती ने समाजवादी पार्टी के भ्रम को तोड़ा। जिन्हें लग रहा था कि समाजवादी पार्टी के साथ समझौते की बदौलत बहुजन समाज पार्टी 67 सीटें जीत सकी थी, वे गलत साबित हुए। मायावती ने न सिर्फ अपना वोट बैंक बढ़ा कर 19.6 प्रतिशत तक पहुंचाया, बल्कि एक बार फिर 67 सीटें जीतीं। इसके बाद से मायावती ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 2002 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने 23.06 प्रतिशत वोट पाकर 98 सीटें जीतीं और वे भारतीय जनता पार्टी व राष्ट्रीय लोक दल की मदद से मुख्यमंत्री भी बनीं। विवादों के चलते मायावती पांच साल मुख्यमंत्री तो नहीं रह पायीं किन्तु उनके समर्थकों को बहुमत न दिला पाने की टीस बनी रही। 2007 में मायावती ने अनूठी सोशल इंजीनियरिंग के साथ टिकट बांटे और दलित, मुस्लिम, अतिपिछड़ों के साथ ब्राह्मणों तक के वोट बहुजन समाज पार्टी को मिले। इस बार बहुजन समाज पार्टी ने 30.43 प्रतिशत वोट पाकर 206 सीटें जीतीं और अपने बलबूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। सत्ता के पांच साल बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति के समीकरण बदले और इसका खामियाजा मायावती को भी उठाना पड़ा। परिणामस्वरूप 2012 में बहुजन समाज पार्टी के वोट कम हुए। इस चुनाव में 25.91 प्रतिशत वोटों के साथ बहुजन समाज पार्टी ने 80 सीटें जीतीं। इसके बाद 2017 के चुनाव में भी बहुजन समाज पार्टी न सिर्फ सत्ता से बाहर रही, बल्कि भारतीय जनता पार्टी की लहर में बस 19 सीटों पर सिमट गयी। हां, बहनजी के वोटर बस कुछ ही कम हुए। इस चुनाव में भी उन्हें 22.23 फीसद वोट मिले।

अब 2022 के विधानसभा चुनाव में बहनजी के मौन और देर से चुनाव प्रचार अभियान शुरू करने पर सवाल उठ रहे हैं। बहुजन के कार्यकर्ताओं का मानना है कि परिणाम चौकाने वाले होंगे। पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर मैदान में थे। इसके बावजूद बहनजी को 22.23 प्रतिशत वोट मिल गए थे। इस चुनाव में वे दोनों अलग-अलग हैं। बहुजन समाज पार्टी ने टिकट वितरण में 2007 का फार्मूला ही अपनाया है। ऐसे में बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता बहनजी के मौन के पीछे छिपे मर्म को पहचान रहे हैं। उन्हें अब भी उम्मीद है कि बहनजी को पिछली बार से ज्यादा वोट मिलेगा और यदि दो-तीन फीसद वोट भी बढ़ गया तो यूपी की सत्ता की चाभी बहनजी के हाथ में होगी। बहनजी का चुनाव चिन्ह हाथी है। वह अपनी चाल ही चलेगा, पर हाथी तो हाथी ही रहेगा। वह अपनी जगह बनाकर जम ही जाएगा। हाथी भले ही जगह बना ले, किन्तु इस समय पूरे देश में दलित आंदोलन को लेकर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। चंद्रशेखर आजाद जैसे नए उभरे नेताओं से लेकर रिपब्लिकन पार्टी के राम दास अठावले जैसे कई नेता मायावती की जगह लेना चाहते हैं। अब वे यह जगह ले पाएंगे या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है किन्तु मायावती का भविष्य इस बार के विधानसभा चुनाव ही तय करेंगे। इसके साथ ही तय होगा देश के दलित आंदोलन का भविष्य।

Monday 7 February 2022

...ये सपनों का ‘एक्सटेंशन’ है

डॉ. संजीव मिश्र

हम आजादी के बाद 75वें वर्ष की यात्रा पर हैं। आजादी की 75वीं सालगिरह मनाने में अब 200 दिन भी नहीं बचे हैं। हमने पिछले कुछ वर्षों में इस वर्ष यानी 2022 के लिए तमाम सपने देखे थे। ये सपने देखते समय हमें 75 वर्ष के भारत की संकल्पना से जोड़ा गया था। 22 साल पहले जब हम 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर रहे थे, तब हमें बीस साल बाद यानी 2020 के सपने दिखाए गए थे। 2020 पहुंचते-पहुंचते हमने पाया कि हम बीस साल पहले देखे गए सपनों से दूर हैं। ऐसे में हमें 2022 के रूप में आजादी की 75वीं साल का मील का पत्थर मिला और हमने अपने सपनों को 2022 तक का एक्सटेंशन यानी विस्तार दे दिया। 2022 आते-आते हम जान गए कि सपने तो अब भी बस सपने ही हैं, तो इस बार बजट में सरकार ने हमें अगले 25 साल के सपनों से जोड़ा है। अब आजादी के सौ वर्ष पूरे होने यानी 2047 तक हमारे सपनों का एक्सटेंशन हो गया है।

आइये अब दो साल पहले चलते हैं। वर्ष 2020 की शुरुआत के साथ हम इक्कीसवीं शताब्दी के बीसवें वर्ष की यात्रा शुरू कर दी थी। दरअसल भारत में बीसवीं शताब्दी की समाप्ति से पहले ही जब इक्कीसवीं शताब्दी के स्वागत की तैयारी चल रही थीतभी वर्ष 2020 बेहद चर्चा में था। दरअसल भारत रत्न डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम ने बदलते भारत के लिए वर्ष 2020 तक व्यापक बदलाव का सपना देखा था। इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बाद भी उन सपनों को विस्तार दिया गया। ऐसे में 2020 के स्वागत के साथ हमने कलाम के सपने का स्मरण किया। तब हमें लग रहा था कि अर्थव्यवस्था की चुनौतियोंदेश के सर्वधर्म सद्भाव के बिखरते ताने-बाने की चिंताओं और देश की मूल समस्याओं से भटकती राजनीति के बीच कलाम का सपना ही हमें विकसित भारत के साथ पुनः विश्वगुरु बनने की ओर आगे बढ़ा सकता है।

उस समय पूरी दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बनने का स्वप्न लेकर चल रहा भारत अर्थव्यवस्था की कमजोरी से जुड़े संकटों का सामना कर रहा है। बेरोजगारी ने तो लगातार कई नये पैमाने गढ़े हैं। रोजगार के अवसर कम हुए और तमाम ऐसे लोग बेरोजगार होने को विवश हुएजो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे। इन चुनौतियों के स्थायी समाधान पर चर्चा व विमर्श तो दूर की बात है पूरे देश में धार्मिक सद्भाव के ताने-बाने में बिखराव के दृश्य आम हो गए हैं। हमारी चर्चाएं हिन्दू-मुस्लिम केंद्रित हो गयीं। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक नेताओं को गमछे का भगवा और टोपी का लाल रंग तो याद रहाबेरोजगारी जैसी देश की मूलभूत समस्याओं व स्थापित भारतीय परंपराओं के साथ संविधान के मूल तत्वों के धूमिल होते रंग भुला दिये गए। इन स्थितियों में डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम के स्वर्णिम 2020 के स्वप्न टूटने की ओर भी किसी का ध्यान नहीं गया।

डॉ.कलाम ने वर्ष 2020 तक भारत की जिस यात्रा का स्वप्न देखा थादो साल बाद भी हम उसमें काफी पीछे छूटे हुए हैं। कलाम ने इक्कीसवीं सदी के शुरुआती बीस वर्षों में ऐसे भारत की कल्पना की थीजिसमें गांव व शहरों के बीच की दूरियां खत्म हो जाएं। इसके विपरीत ग्रामीण भारत व शहरी भारत की सुविधाओं में तो बराबरी के प्रयास नहीं किये गए, बल्कि गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ाया। खेती पर फोकस न होने से कृषि क्षेत्र से पलायन बढ़ाजिससे गांव खाली से होने लगे। कलाम ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थीजहां कृषिउद्योग व सेवा क्षेत्र एक साथ मिलकर काम करें। वे चाहते थे कि भारत ऐसा राष्ट्र बनेजहां सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों के कारण किसी की पढ़ाई न रुके। 2020 तो दूर 2022 तक भी हम इस परिकल्पना के आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैंऐसे में चुनौतियां बढ़ गयी हैं। किसान से लेकर विद्यार्थी तक परेशान हैं और उनकी समस्याओं के समाधान का रोडमैप तक ठीक से सामने नहीं आ पाया है।

कलाम के सपनों का भारत 2020 तक ऐसा बन जाना थाजिसमें दुनिया का हर व्यक्ति रहना चाहता हो। उन्होंने ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थीजो विद्वानोंवैज्ञानिकों व अविष्कारकों की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ निवास स्थान बने। इसके लिए वे चाहते थे कि देश की शासन व्यवस्था जवाबदेहपारदर्शी व भ्रष्टाचारमुक्त बने और सभी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य सुविधाएं समान रूप से उपलब्ध हों। ये सारी स्थितियां अभी तो दूरगामी ही लगती हैं। देश आपसी खींचतान से गुजर रहा है। यहां स्वास्थ्य सेवाएं आज भी अमीरों-गरीबों में बंटी हुई हैं। नेता हों या अफसरन तो सरकारी अस्पतालों में इलाज कराना चाहते हैंन ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई पहले अधिक चौड़ी हो गयी है। यह स्थिति तब है कि वर्ष 2020 के लिए अपने सपनों को साझा करते हुए उन्होंने देश को गरीबी से पूरी तरह मुक्त करने का विजन सामने रखा था। वे कहते थे कि देश के 26 करोड़ लोगों को गरीबी से मुक्त करानाहर चेहरे पर मुस्कान लाना और देश को पूरी तरह विकसित राष्ट्र बनाना ही हम सबका लक्ष्य होना चाहिए। वे इसे सबसे बड़ी चुनौती भी मानते थे। उनका कहना था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें साधारण मसलों को भूलकरएक देश के रूप में सामने आकर हाथ मिलाना होगा। कलाम ने ऐसे भारत का स्वप्न देखा थाजिसके नागरिकों पर निरक्षर होने का कलंक न लगे। वे एक ऐसा राष्ट्र चाहते थे जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से पूरी तरह मुक्त हो और समाज का कोई भी व्यक्ति खुद को अलग-थलग महसूस न करे। कलाम के विजन 2020 का यह वह हिस्सा हैजो पिछले कुछ वर्षों में सर्वाधिक आहत हुआ है। साक्षरता के नाम पर हम शिक्षा के मूल तत्व से दूर हो चुके हैं। महिलाएं व बच्चे असुरक्षित हैं और यह बार-बार साबित हो रहा है। समाज में जुड़ाव के धागे कमजोर पड़ चुके हैं और न सिर्फ कुछ व्यक्तिबल्कि पूरा समाज ही अलगाव के रास्ते पर है। ऐसे में आजादी के 75वें वर्ष में हमें यह विचार भी करना होगा कि हम कलाम के दिखाए सपने और उस लक्ष्य से कितना पीछे रह चुके हैं। अब जबकि हम अपने सपनों को एक साथ 25 साल का एक्सटेंशन दे चुके हैं, तो उन सपनों को पूरा करने की ठोस कार्ययोजना भी बनानी होगी। इस कार्ययोजना में हमें महज सपनों के बारे में विमर्श तक सीमित न रहकर उन्हें पूरे करने की रणनीति भी बनानी होगी। सबको साथ जोड़ना पड़ेगा और सपने साझा करने होंगे।

बापू के सपनों से छल! कब तक?

 


Monday 24 January 2022

पिक्चर अभी बाकी है भक्तजनों!

 डॉ.संजीव मिश्र

उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। दल-बदल से लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चुका है। चुनाव आयोग की सख्ती से बड़ी जनसभाओं और गली-गली लाउडस्पीकर का शोर तो नहीं सुनाई दे रहा है, किन्तु सोशल मीडिया के मैदान में नए-नए अस्त्र-शस्त्र दागे जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश से गोवा, बड़े से छोटे राज्य तक सर्वाधिक उथल पुथल प्रत्याशिता को लेकर मची हुई है। यह सब यूं ही नहीं हो रहा है। सब सत्ता की बाजीगरी है। चुनाव तो हर साल होते हैं किन्तु 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले के ये चुनाव बेहद मायने रखते हैं। यह सत्ता का सेमीफाइनल है। इसे जीतने के लिए कुछ भी किया जाएगा। यही कारण है कि इस चुनाव में दलबदल भी अनूठे किस्म वाला हो रहा है। वैसे अभी शुरुआत ही हुई है, अगले कुछ दिन-महीने देश में कुछ भी देखने-सुनने के लिए तैयार रहिए।

शुरुआत एक छोटे से राज्य गोवा से करते हैं। वहां जिन मनोहर पर्रिकर को भारतीय जनता पार्टी ने हमेशा अपनी ईमानदारी का पोस्टर ब्वाय बनाया, उन्हीं पर्रिकर का बेटा टिकट न पा सका। टिकट तो अन्य बहुतों को भी नहीं मिलता है किन्तु चूंकि उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के बेटे से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पोते तक टिकट पा चुके हैं, इसलिए पर्रिकर का बेटा भी टिकट चाह रहा था। अब टिकट नहीं मिला तो पर्रिकर का बेटा पार्टी छोड़ने ही नहीं, निर्दलीय चुनाव लड़ने तक को तैयार हो गया। यह चुनाव जीतने की मशक्कत ही है कि नेता पुत्रों को खूब टिकट देने वाली भाजपा गोवा में पर्रिकर के बेटे को टिकट देने ले इनकार कर देती है। खास बात ये है कि परिवारवाद का मुखर विरोध करने वाली भाजपा को पर्रिकर के बेटे में तो परिवारवाद दिखा, किन्तु उसी गोवा में उसी भाजपा ने दो दंपती (पति-पत्नी) को टिकट दिया है। यह तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे कि टिकट वितरण का यह विशिष्ट भाव किसे कितना फायदा पहुंचाता है।

यह राजनीति ही है कि हर दिन भाजपा व भाजपा नेताओं को कोसने वाले अरविंद केजरीवाल पर्रिकर के बेटे को अपनाने के लिए तुरंत तैयार हो गए। गोवा ही क्यों, उत्तराखंड से पंजाब तक आम आदमी पार्टी दल बदल के इस वातावरण को खुले दिल से स्वीकार कर ही रही है। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने दर्जन भर से अधिक टिकट दूसरे दलों से आए नेताओं को दिये हैं। यही नहीं आम आदमी पार्टी ने अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार चुनते वक्त वोटिंग में कांग्रेसी सिद्धू तक का नाम शामिल कर लिया था। उत्तराखंड में भी आम आदमी पार्टी दूसरे दलों से आए नेताओं को टिकट देने में पीछे नहीं हट रही है। दिल्ली में पहले ही भाजपा व कांग्रेस से आए लोग आम आदमी पार्टी से विधायक तक बन चुके हैं। इस चुनाव में दल बदल का यह सिलसिला आदर्शों का कतई मोहताज नजर नहीं आ रहा है। पंजाब में वर्षों तक भाजपा को कोसते रहे अमरिंदर सिंह अब भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं, तो उत्तराखंड में हरक सिंह रावत दलबदल की अनूठी मिसाल बन गए हैं। कभी कांग्रेस से भाजपा में आकर भाजपा की सरकार बनवाने वाले हरक सिंह को भाजपा ने चुनाव के ठीक पहले सरकार और पार्टी से बाहर कर दिया। हरक वापस कांग्रेस में चले गए।

उत्तर प्रदेश का चुनाव तो बदलती निष्ठाओं का प्रतिमान बन गया है। एक दूसरे के दलों से लोगों को अपने दल में लाकर खुद को बड़ा साबित करने की होड़ सी लगी हुई है। पिछले विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मौर्य सहित दर्जन भर नेता अचानक मौजूदा चुनाव अभियान से ठीक पहले समाजवादी पार्टी का हिस्सा बन गए। समाजवादी पार्टी मुखिया अखिलेश यादव इसे अपनी बड़ी जीत मानकर फूले नहीं समा रहे थे, तभी भारतीय जनता पार्टी ने अखिलेश के सौतेले भाई की पत्नी यानी मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू को समाजवादी पार्टी से तोड़ लिया। मुलायम की बहू का भाजपा आगमन ऐसे गाजे-बाजे से हुआ, मानो कोई बहुत बड़े जनाधार वाले नेता को तोड़ लिया गया हो। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी में दूसरे दलों से नेताओं का आना कोई बड़ी बात नहीं है। प्रदेश सरकार में कई बार मंत्री रहे बहुजन समाज पार्टी के नेता रामवीर उपाध्याय का भाजपा से जुड़ना उतने गाजे बाजे से नहीं हुआ, जितने गाजे बाजे के साथ मुलायम की बहू को भाजपा में शामिल कराया गया। उन्हें दिल्ली कार्यालय में भाजपा का सदस्य बनाया गया, ताकि राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित कराया जा सके। यही नहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य सहित लगभग समूची उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी उस दिन दिल्ली में मौजूद थी। जवाबी दल-बदल का यह खेल इस बार ही विशेष रूप से देखने को मिल रहा है।

चुनाव में टिकट की लड़ाई भी अनूठी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता माने जाने वाले इमरान मसूद ने समाजवादी पार्टी की टिकट की चाह में कांग्रेस छोड़ दी, किन्तु उन्हें समाजवादी पार्टी से भी टिकट नहीं मिला। अब वे निराश हैं और अपने कुछ समर्थकों को समाजवादी पार्टी में पद दिलाकर संतोष जाहिर कर रहे हैं। बरेली में कांग्रेस ने सुप्रिया एरन कांग्रेस की प्रत्याशी घोषित हुई थीं, किन्तु नामांकन से पहले ही वे समाजवादी हो गयीं। ऐन मौके पर सुप्रिया अपने पति के साथ कांग्रेस छोड़ कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गयीं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को ऐसे झटके कुछ ज्यादा ही लग रहे हैं। प्रियंका गांधी के बहुचर्चित अभियान लड़की हूं, लड़ सकती हूं की पोस्टर गर्ल रहीं प्रियंका मौर्य कांग्रेस से टिकट न मिलने पर पार्टी से नाराज हो गयीं। भाजपा ने उन्हें भी तुरंत मौका दिया और पार्टी का हिस्सा बना लिया। टिकट की मारामारी का आलम यह है कि स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ समाजवादी पार्टी में गए विनय शाक्य की बेटी रिया ने भारतीय जनता पार्टी का साथ नहीं छोड़ा है। भारतीय जनता पार्टी ने भी उन्हें टिकट देकर पिता-पुत्री को आमने-सामने खड़ा कर दिया। पिछले चुनाव से पहले बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के लिए अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर चर्चा में आए भाजपा नेता दयाशंकर सिंह की पत्न स्वाति सिंह को भाजपा ने पिछला चुनाव लड़ाया था। स्वाति मंत्री भी बनीं। अब दयाशंकर सिहं और स्वाति सिहं में भाजपा की टिकट को लेकर रार मची है। पति-पत्नी आमने सामने हैं और विवाद थम नहीं रहा है। कुल मिलाकर यह चुनाव अभियान अनूठा हो चला है। अभी तो यह शुरुआत ही है, आगे यह अभियान और गुल खिलाएगा।

पिक्चर अभी बाकी है भक्तजनों!

Sunday 9 January 2022

...तो अयोध्या के प्रतिनिधि बन राम राज्य लाएंगे योगी!

डॉ.संजीव मिश्र

लखनऊ। उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की अयोध्या एक बार फिर चर्चा में है। वैसे पिछले कई चुनाव अयोध्या की चर्चा के बिना नहीं हुए हैं, किन्तु इस बार वहां राम मंदिर निर्माण शुरू हो चुका है। लग रहा था कि विवाद थमने के बाद अब अयोध्या से इतर मुद्दों पर चर्चा होगी, किन्तु राजा राम की राजधानी अयोध्या इस बार सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ के चुनाव लड़ने की संभावना से चर्चा में है। माना जा रहा है कि योगी अयोध्या के प्रतिनिधि बनकर अगले पांच वर्षों में राम राज्य की अवधारणा को पुष्ट करेंगे।

सिपहसालारों ने डेरा डाला

अयोध्या से योगी आदित्यनाथ के चुनाव लड़ने को लेकर कयास तो लंबे समय से लग रहे थे, किन्तु पिछले कुछ दिनों से इन कयासों को बल मिलना शुरू हुआ है। वहां योगी के निजी सचिव सहित कई प्रमुख सिपहसालारों ने डेरा डाला है। वे स्थानीय कार्यकर्ताओं के लिए योगी द्वारा भेजे गए उपहार लेकर तो गए ही हैं, उनसे चर्चा भी कर रहे हैं। वे खुल कर पूछ रहे हैं कि यदि मुख्यमंत्री अयोध्या से चुनाव लड़ते हैं तो उसका क्या असर होगा। कार्यकर्ताओं की ओर से भी इस बारे में सकारात्मक व उत्साहजनक प्रतिक्रिया सामने आ रही है। माना जा रहा है कि काशी से नरेंद्र मोदी के सांसद बनने के बाद अयोध्या से योगी का विधायक बनना भाजपा की रणनीति का हिस्सा है, जिससे वे हिन्दू वोट बैंक को मजबूती के साथ जोड़े रह सकें। इससे भाजपा के एजेंडे में शामिल अयोध्या-मथुरा-काशी की त्रयी में से दो केंद्र सीधे जुड़ जाएंगे, जिसका लाभ चुनाव में निश्चित मिलेगा।

प्रशासन भी पहुंचा अयोध्या

योगी के सिपहसालारों के अलावा चुनाव घोषणा से ठीक पहले सूबे की प्रशासनिक मशीनरी भी अयोध्या पहुंची। प्रदेश के मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्र और पुलिस महानिदेशक मुकुल गोयल ने अयोध्या जाकर न सिर्फ रामलला और हनुमानगढ़ी के दर्शन किये, बल्कि वहां विकास कार्यों की समीक्षा भी की। उन्होंने अयोध्या जगन्नाथपुरी की तरह विकसित करने और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल बनाने पर जोर दिया। वैसे भी अयोध्या में इस समय विकास कार्य जोरों पर है। कुल मिलाकर 16 हजार करोड़ रुपये से अधिक की 110 परियोजनाओं पर काम हो रहा है। मुख्यमंत्री स्वयं इन परियोजनाओं की समीक्षा कर रहे हैं।

योगी सबके हैं, फैसला पार्टी करेगी

इस संबंध में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता अवनीश त्यागी का कहना है कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में पिछले पांच वर्षों से प्रदेश में राम राज्य का वातावरण बना है। योगी सबके हैं और पूरे प्रदेश के कार्यकर्ता चाहते हैं कि योगी उनके क्षेत्र से चुनाव लड़ें। मुख्यमंत्री चुनाव कहां से लड़ेंगे, इसका फैसला पार्टी करेगी। वे अयोध्या से लड़ेंगे तो कार्यकर्ता प्रफुल्लित होंगे। वैसे भी अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का पथ प्रशस्त होने के साथ चतुर्दिक विकास की राह खुली है।

Saturday 8 January 2022

यह सत्ता का सेमीफाइनल है!

डॉ.संजीव मिश्र

यह वर्ष 2022 है। भारतीय राजनीति के लिए यह वर्ष कुछ विशेष अंदाज में शुरू हो रहा है। देश में कोरोना के मामले तेजी से बढ़ने के बावजूद चुनावी रैलियां हो रही हैं। प्रधानमंत्री का काफिला जाम में फंस रहा है तो मुख्यमंत्री जाम लगाए लोगों के बीच जा रहे हैं। प्रधानमंत्री की सुरक्षा चिंताओं से इतर तमाम सवाल खड़े किये जा रहे हैं। यह सब यूं ही नहीं हो रहा है। सब सत्ता की बाजीगरी है। इस साल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। ये चुनाव घोषित भी हो चुके हैं। चुनाव तो हर साल होते हैं किन्तु 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले के ये चुनाव बेहद मायने रखते हैं। यह सत्ता का सेमीफाइनल है। इसे जीतने के लिए कुछ भी किया जाएगा। अगले कुछ दिन-महीने देश में कुछ भी देखने-सुनने के लिए तैयार रहिए।

वर्ष 2022 देश की राजनीति के लिए तमाम संदेश व चुनौतियां लेकर आया है। इसका असर अभी से दिखने भी लगा है। वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं तो पंजाब में कांग्रेस का शासन है। खास बात यह है कि उत्तर प्रदेश व मणिपुर को छोड़कर तीनों राज्यों ने बीते पांच वर्षों में एकाधिक मुख्यमंत्री देखे हैं। ऐसे में इन राज्यों में सत्ता की लड़ाई भी कुछ ज्यादा रोचक व रोमांचक होने वाली है। वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव के चलते पांच राज्यों के ये विधानसभा चुनाव देश की सत्ता का सेमीफाइनल माने जा रहे हैं। ऐसे में हर राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता और इस समय मची खींचतान इसी का परिणाम है।

जिन पांच राज्यों में इस वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से सिर्फ उत्तर प्रदेश व मणिपुर ही ऐसे हैं, जहां के मुख्यमंत्री इस वर्ष पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करेंगे। दोनों जगह भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री हैं, ऐसे में इन राज्यों की सत्ता में वापसी न सिर्फ पार्टी, बल्कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह का रिपोर्ट कार्ड भी सामने लाएगी। इन दो राज्यों से अलग गोवा, उत्तराखंड और पंजाब के मुख्यमंत्रियों को अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों से जुड़े सवालों के जवाब भी देने होंगे। बीते पांच वर्ष के कार्यकाल में गोवा और उत्तराखंड ने मुख्यमंत्री के तीन-तीन चेहरे देखे हैं। गोवा में मनोहर पर्रिकर और लक्ष्मीकांत पारसेकर के बाद मौजूदा मुख्यमंत्री डॉ.प्रमोद सावंत ने 2019 में काम संभाला था। इसी तरह उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत व तीरथ सिंह रावत के बाद मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने जुलाई 2021 को सत्ता का नेतृत्व सौंपा गया था। पंजाब में तो कांग्रेस का घमासान बहुचर्चित रहा है। मौजूदा विधानसभा के कार्यकाल में चार साल से अधिक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे अमरिंदर सिंह अब न सिर्फ सत्ता से बल्कि सत्तारूढ़ दल कांग्रेस से भी बाहर हैं। अब वहां कांग्रेस का चेहरा बने चरणजीत सिंह चन्नी को आम आदमी पार्टी, अकालीदल-बसपा गठजोड़ के साथ कभी अपने ही नेता रहे अमरिंदर सिंह व भाजपा गठजोड़ से मुकाबला करना पड़ रहा है। यही कारण है कि पंजाब को लेकर घमासान भी कुछ अधिक है।

बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पंजाब यात्रा के दौरान घटित घटनाक्रम को लेकर जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला, वह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण, बल्कि लोकतंत्र के लिए दुखद भी है। वहां पहले प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगी और फिर इस मसले पर जिस तरह देश के सामने खींचतान मचाई गयी, दोनों ही पहलू चिंताजनक हैं। पंजाब यात्रा से बमुश्किल दस दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में कानपुर की यात्रा पर थे। कानपुर में भी मौसम खराब होने के कारण उनका विमान नहीं उड़ पाया तो प्रधानमंत्री को पहले कानपुर के भीतर कई कार्यक्रमों में सड़क मार्ग से ही जाना पड़ा और फिर लखनऊ भी सड़क मार्ग से ही गये थे। यह सब कुछ आकस्मिक रूप से हुआ और कानपुर, उन्नाव व लखनऊ की पुलिस ने सुरक्षित यात्रा मार्ग सुनिश्चित कराया था। ऐसे में पंजाब पुलिस की जिम्मेदारी से कतई इनकार नहीं किया जा सकता। जब उत्तर प्रदेश की पुलिस आकस्मिक स्थिति में प्रधानमंत्री के लिए सुरक्षित यात्रा पथ प्रशस्त कर सकती है, तो पंजाब की पुलिस ऐसा क्यो नहीं कर पाई, यह सवाल उठना तो स्वाभाविक है। यदि किसान आंदोलन को प्रधानमंत्री की यात्रा में बाधक मान लिया जाए तो देश की समूचे सुरक्षा तंत्र पर सवाल उठेंगे। स्पष्ट है कि यदि पंजाब में कुछ लोग प्रधानमंत्री के काफिले को रोक सकते हैं, तो देश में कभी भी, कहीं भी, कुछ भी हो सकता है। इस चूक के लिए सिर्फ राज्य पुलिस को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था महज राज्य पुलिस के सहारे भी नहीं रहती है। ऐसे में प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए गठित स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) की जिम्मेदारियां भी सवालों के घेरे में हैं। इन सवालों के जवाब भी दिये जाने चाहिए कि एसपीजी व केंद्रीय खुफिया तंत्र की विफलता के लिए कौन जिम्मेदार है। केंद्र व राज्य स्तर पर जिम्मेदारों को चिह्नित कर देश के सामने लाया जाना चाहिए, क्योंकि खतरे में देश के प्रधानमंत्री की जान थी।

प्रधानमंत्री की पंजाब यात्रा को लेकर जिस तरह राजनीतिक खींचतान और सोशल मीडिया पर अनर्गल प्रलाप शुरू हुए हैं उन्हें देशहित में कतई नहीं माना जा सकता। जिस तरह से कुछ विपक्षी नेता और सोशल मीडिया के भाजपाविरोधी वीर खाली कुर्सियों पर ध्यान केंद्रित कर सुरक्षा व्यवस्था में हुई चूक की दिशा मोड़ना चाहते हैं, वह ठीक नहीं है। प्रधानमंत्री के यात्रा पथ पर प्रदर्शनकारियों के जमाव के जवाब में पंजाब के मुख्यमंत्री के यात्रा पथ पर प्रदर्शन का घटनाक्रम भी सामने आया है, जिसमें मुख्यमंत्री चन्नी स्वयं प्रदर्शनकारियों के बीच पहुंच गए। यह तात्कालिक रूप से तो अच्छा लगता है, किन्तु अराजक व देशविरोधी तत्वों के इरादों को ध्यान में रखें तो यह आदर्श स्थिति नहीं कही जा सकती। हमें याद रखना होगा कि हम इंदिरा गांधी व राजीव गांधी के रूप में दो प्रधानमंत्रियों की जान असमय ही गंवा चुके हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी के जो समर्थक उनके जीवन को लेकर चिंतित हैं, उनकी चिंता को बेमतलब नहीं करार दिया जा सकता। सोशल मीडिया पर जिस तरह पहले भी सुरक्षा व्यवस्था में सेँध लगाए जाने के उदाहरण देते हुए घटनाक्रमों की जानकारी दी जा रही है, उसका यह मतलब तो कतई नहीं हो सकता कि यदि पहले प्रधानमंत्री की जान की दांव पर लगाया जा चुका है, तो वह सिलसिला अब भी जारी रहना चाहिए। सोशल मीडिया पर महज भाजपाविरोधी वीर ही सक्रिय हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। भाजपा के समर्थन में उतरे लोग जिस तरह इस मसले पर पंजाब व पंजाबियत को चुनौती देते हुए दिख रहे हैं, वह भी ठीक नहीं है। इस मसले पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। यह देश के राजनीतिक मुखिया की सुरक्षा का मसला है। इस पर सबको मिलकर चिंतन की एक दिशा में चलना चाहिए, अन्यथा जगहंसाई अवश्यंभावी है।