डॉ.संजीव मिश्र
यह वर्ष 2022 है। भारतीय
राजनीति के लिए यह वर्ष कुछ विशेष अंदाज में शुरू हो रहा है। देश में कोरोना के
मामले तेजी से बढ़ने के बावजूद चुनावी रैलियां हो रही हैं। प्रधानमंत्री का काफिला
जाम में फंस रहा है तो मुख्यमंत्री जाम लगाए लोगों के बीच जा रहे हैं। प्रधानमंत्री
की सुरक्षा चिंताओं से इतर तमाम सवाल खड़े किये जा रहे हैं। यह सब यूं ही नहीं हो
रहा है। सब सत्ता की बाजीगरी है। इस साल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने
हैं। ये चुनाव घोषित भी हो चुके हैं। चुनाव तो हर साल होते हैं किन्तु 2024 के
लोकसभा चुनाव से पहले के ये चुनाव बेहद मायने रखते हैं। यह सत्ता का सेमीफाइनल है।
इसे जीतने के लिए कुछ भी किया जाएगा। अगले कुछ दिन-महीने देश में कुछ भी देखने-सुनने
के लिए तैयार रहिए।
वर्ष 2022 देश की राजनीति
के लिए तमाम संदेश व चुनौतियां लेकर आया है। इसका असर अभी से दिखने भी लगा है।
वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव
होने हैं। इनमें से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भारतीय जनता
पार्टी की सरकारें हैं तो पंजाब में कांग्रेस का शासन है। खास बात यह है कि उत्तर
प्रदेश व मणिपुर को छोड़कर तीनों राज्यों ने बीते पांच वर्षों में एकाधिक
मुख्यमंत्री देखे हैं। ऐसे में इन राज्यों में सत्ता की लड़ाई भी कुछ ज्यादा रोचक
व रोमांचक होने वाली है। वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव के चलते पांच राज्यों के ये
विधानसभा चुनाव देश की सत्ता का सेमीफाइनल माने जा रहे हैं। ऐसे में हर राजनीतिक
दल सत्ता में बने रहने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता और इस समय मची खींचतान
इसी का परिणाम है।
जिन पांच राज्यों में इस
वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से सिर्फ उत्तर प्रदेश व मणिपुर ही ऐसे हैं,
जहां के मुख्यमंत्री इस वर्ष पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करेंगे। दोनों जगह भारतीय
जनता पार्टी के मुख्यमंत्री हैं, ऐसे में इन राज्यों की सत्ता में वापसी न सिर्फ
पार्टी, बल्कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मणिपुर के
मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह का रिपोर्ट कार्ड भी सामने लाएगी। इन दो राज्यों से अलग
गोवा, उत्तराखंड और पंजाब के मुख्यमंत्रियों को अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों से
जुड़े सवालों के जवाब भी देने होंगे। बीते पांच वर्ष के कार्यकाल में गोवा और
उत्तराखंड ने मुख्यमंत्री के तीन-तीन चेहरे देखे हैं। गोवा में मनोहर पर्रिकर और
लक्ष्मीकांत पारसेकर के बाद मौजूदा मुख्यमंत्री डॉ.प्रमोद सावंत ने 2019 में काम
संभाला था। इसी तरह उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत व तीरथ सिंह रावत के बाद
मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने जुलाई 2021 को सत्ता का नेतृत्व सौंपा गया
था। पंजाब में तो कांग्रेस का घमासान बहुचर्चित रहा है। मौजूदा विधानसभा के
कार्यकाल में चार साल से अधिक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे अमरिंदर सिंह अब न सिर्फ
सत्ता से बल्कि सत्तारूढ़ दल कांग्रेस से भी बाहर हैं। अब वहां कांग्रेस का चेहरा
बने चरणजीत सिंह चन्नी को आम आदमी पार्टी, अकालीदल-बसपा गठजोड़ के साथ कभी अपने ही
नेता रहे अमरिंदर सिंह व भाजपा गठजोड़ से मुकाबला करना पड़ रहा है। यही कारण है कि
पंजाब को लेकर घमासान भी कुछ अधिक है।
बीते दिनों प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की पंजाब यात्रा के दौरान घटित घटनाक्रम को लेकर जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप
का दौर चला, वह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण, बल्कि लोकतंत्र के लिए दुखद भी है। वहां
पहले प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगी और फिर इस मसले पर जिस तरह
देश के सामने खींचतान मचाई गयी, दोनों ही पहलू चिंताजनक हैं। पंजाब यात्रा से
बमुश्किल दस दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में कानपुर की
यात्रा पर थे। कानपुर में भी मौसम खराब होने के कारण उनका विमान नहीं उड़ पाया तो
प्रधानमंत्री को पहले कानपुर के भीतर कई कार्यक्रमों में सड़क मार्ग से ही जाना
पड़ा और फिर लखनऊ भी सड़क मार्ग से ही गये थे। यह सब कुछ आकस्मिक रूप से हुआ और
कानपुर, उन्नाव व लखनऊ की पुलिस ने सुरक्षित यात्रा मार्ग सुनिश्चित कराया था। ऐसे
में पंजाब पुलिस की जिम्मेदारी से कतई इनकार नहीं किया जा सकता। जब उत्तर प्रदेश
की पुलिस आकस्मिक स्थिति में प्रधानमंत्री के लिए सुरक्षित यात्रा पथ प्रशस्त कर
सकती है, तो पंजाब की पुलिस ऐसा क्यो नहीं कर पाई, यह सवाल उठना तो स्वाभाविक है।
यदि किसान आंदोलन को प्रधानमंत्री की यात्रा में बाधक मान लिया जाए तो देश की
समूचे सुरक्षा तंत्र पर सवाल उठेंगे। स्पष्ट है कि यदि पंजाब में कुछ लोग
प्रधानमंत्री के काफिले को रोक सकते हैं, तो देश में कभी भी, कहीं भी, कुछ भी हो
सकता है। इस चूक के लिए सिर्फ राज्य पुलिस को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था महज राज्य पुलिस के सहारे भी नहीं रहती है। ऐसे
में प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए गठित स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) की
जिम्मेदारियां भी सवालों के घेरे में हैं। इन सवालों के जवाब भी दिये जाने चाहिए
कि एसपीजी व केंद्रीय खुफिया तंत्र की विफलता के लिए कौन जिम्मेदार है। केंद्र व
राज्य स्तर पर जिम्मेदारों को चिह्नित कर देश के सामने लाया जाना चाहिए, क्योंकि
खतरे में देश के प्रधानमंत्री की जान थी।
प्रधानमंत्री की पंजाब
यात्रा को लेकर जिस तरह राजनीतिक खींचतान और सोशल मीडिया पर अनर्गल प्रलाप शुरू
हुए हैं उन्हें देशहित में कतई नहीं माना जा सकता। जिस तरह से कुछ विपक्षी नेता और
सोशल मीडिया के भाजपाविरोधी वीर खाली कुर्सियों पर ध्यान केंद्रित कर सुरक्षा
व्यवस्था में हुई चूक की दिशा मोड़ना चाहते हैं, वह ठीक नहीं है। प्रधानमंत्री के
यात्रा पथ पर प्रदर्शनकारियों के जमाव के जवाब में पंजाब के मुख्यमंत्री के यात्रा
पथ पर प्रदर्शन का घटनाक्रम भी सामने आया है, जिसमें मुख्यमंत्री चन्नी स्वयं
प्रदर्शनकारियों के बीच पहुंच गए। यह तात्कालिक रूप से तो अच्छा लगता है, किन्तु
अराजक व देशविरोधी तत्वों के इरादों को ध्यान में रखें तो यह आदर्श स्थिति नहीं
कही जा सकती। हमें याद रखना होगा कि हम इंदिरा गांधी व राजीव गांधी के रूप में दो
प्रधानमंत्रियों की जान असमय ही गंवा चुके हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी के जो
समर्थक उनके जीवन को लेकर चिंतित हैं, उनकी चिंता को बेमतलब नहीं करार दिया जा
सकता। सोशल मीडिया पर जिस तरह पहले भी सुरक्षा व्यवस्था में सेँध लगाए जाने के
उदाहरण देते हुए घटनाक्रमों की जानकारी दी जा रही है, उसका यह मतलब तो कतई नहीं हो
सकता कि यदि पहले प्रधानमंत्री की जान की दांव पर लगाया जा चुका है, तो वह सिलसिला
अब भी जारी रहना चाहिए। सोशल मीडिया पर महज भाजपाविरोधी वीर ही सक्रिय हैं, ऐसा
नहीं कहा जा सकता। भाजपा के समर्थन में उतरे लोग जिस तरह इस मसले पर पंजाब व
पंजाबियत को चुनौती देते हुए दिख रहे हैं, वह भी ठीक नहीं है। इस मसले पर राजनीति
नहीं होनी चाहिए। यह देश के राजनीतिक मुखिया की सुरक्षा का मसला है। इस पर सबको
मिलकर चिंतन की एक दिशा में चलना चाहिए, अन्यथा जगहंसाई अवश्यंभावी है।
No comments:
Post a Comment