Wednesday 28 August 2019

लगी-लगाई नौकरी तो न छीनिये हुजूर!

डॉ.संजीव मिश्र
लखीमपुर निवासी रघुराज प्राइमरी स्कूल में अध्यापक हैं। दस साल पहले रघुराज पर घर वालों का जबर्दस्त दबाव था। सब चाहते थे कि दो बेटियों के बाद वह तीसरा बच्चा जरूर पैदा करें। उन्होंने परिवार नियोजन को अंगीकार किया और दो बच्चों के बाद विराम की नीति अपनाई। चार साल पहले वे चालीस के हुए तो सरकार ने उनके इस फैसले का सम्मान किया और उन्हें स्वैच्छिक परिवार कल्याण प्रोत्साहन भत्ते के रूप में 450 रुपये प्रति माह देना शुरू किया। इस महीने एक सुबह वे सो कर उठे तो सरकार उनसे यह भत्ता छीन चुकी थी। रघुराज ने अपनी व्यथा आर्डनेंस फैक्ट्री में काम करने वाले सहयोगी अजीत को बताई तो वे बोले, आपका तो बस भत्ता छिना है, हमारी तो नौकरी जाने की नौबत आ गयी है। रक्षा प्रतिष्ठानों के निजीकरण के भय से वहां के कर्मचारियों को नौकरी जाने की चिंता सता रही है। अब वे लोग यही गुहार कर रहे हैं कि मंदी के इस दौर में लगी-लगाई नौकरी तो न छीनिये हुजूर!
आर्थिक मंदी के इस दौर में वित्त मंत्री की कोशिशों व शेयर-बाजार के घटते-बढ़ते रूप के बावजूद आम आदमी अपने रोजगार को लेकर सबसे ज्यादा परेशान है। कश्मीर से धारा 370 हटने से खुश देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की गलबहियां देखकर कुछ पल के लिए उत्साहित तो हो जाता है किन्तु अंत में उसे अपने बच्चे की फीस के साथ सप्ताह में एक दिन भी पनीर न खा पाने का दर्द याद आता है। इस समय सरकारें नौकरियों के साथ वेतन-भत्तों में कटौती की राह भी निकाल रही हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य कर्मचारियों को दिये जाने वाले छह भत्ते एकाएक बंद कर दिये। इनमें परिवार कल्याण को प्रोत्साहित करने के लिए दिया जाने वाला स्वैच्छिक परिवार कल्याण प्रोत्साहन भत्ता भी शामिल है। एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले की प्राचीर से परिवार कल्याण पर जोर देते हैं, दूसरी ओर सरकारें ऐसे भत्ते बंद कर कर्मचारियों का मनोबल गिराने का काम करती हैं। इन स्थितियों में उनमें असंतोष होना स्वाभाविक है। कर्मचारी राजनेताओं व कर्मचारियों के बीच समभाव न होने की बात भी उठा रहे हैं। सरकारों में शामिल सांसद-विधायक खुद के लिए को पुरानी पेंशन बहाल किये हुए हैं, किन्तु कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन रोक दी गयी है। जब सरकारें विधानसभा से लोकसभा तक नई पेंशन की खूबियां गिनाती हैं तो कर्मचारियों की यह मांग स्वाभाविक है कि विधायक-सांसद अपने लिए इस नई पेंशन को स्वीकार क्यो नहीं करते? दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि कर्मचारियों की ये मांगें किसी राजनीतिक दल के लिए मुद्दा नहीं बन पा रही हैं।
पिछले कुछ महीनों से बेरोजगारी का संकट तो बढ़ता नजर ही आ रहा है, उससे बड़ी समस्या पुराने रोजगार समाप्त होने के रूप में सामने आ रही है। दुनिया का सबसे युवा देश होने का दंभ भरने वाले भारत के सामने इस समय बेरोजगार युवा ही सबसे बड़ी चुनौती है। दरअसल भारत में 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम आयु वर्ग की है। इन्हें रोजगार की सर्वाधिक आवश्यकता है। इनके लिए रोजगार के अवसर सृजित न होने के मतलब है इस ऊर्जावान आबादी का खाली बैठना, दिग्भ्रमित होना और परिणाम स्वरूप नशे व अपराध में वृद्धि होना। इस समय की सबसे बड़ी चिंता व चुनौती भी यही है। इसके अलावा चालीस से अधिक आयु वर्ग के वे लोग भी बेरोजगारी की जद में आ रहे हैं, जिनके बच्चे अभी पढ़ाई-लिखाई की दौड़ में हैं और उनके लिए रोजगार सांस लेने जैसी जरूरत है। आटो सेक्टर में लाखो नौकरियां जा चुकी हैं, एफएमसीजी सेक्टर में लाखों नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा है। तमाम सरकारी प्रतिष्ठानों का निजीकरण कर उन कर्मचारियों की नौकरी खतरे में है। हाल ही में टेक्सटाइल सेक्टर ने भी 25 लाख तक रोजगार कम होने का दावा किया गया है। रोजगार के अवसर कम होने के साथ ही उच्च शिक्षा के प्रति रुझान भी कम हो रहा है। कुछ वर्ष पूर्व पूरे देश में तेजी के साथ खुले इंजीनियिरंग व प्रबंधन कालेज उतनी ही तेजी से बंद हो रहे हैं। दरअसल इन कालेजों से उत्तीर्ण होकर निकलने वाले विद्यार्थियों को अपेक्षित रोजगार के अवसर ही नहीं उपलब्ध हो रहे हैं। अवसरों का यह चतुर्दिक संकट देश के लिए किसी भी तरह से सकारात्मक नही है। लोग डर रहे हैं। अब तो नई नौकरी मिलने की जगह पुरानी बची रहने का ही संकट सामने है। ऐसे में सरकारों को भी सकारात्मक ब्लूप्रिंट के साथ जनता के सामने आना होगा। 

Wednesday 21 August 2019

...ये न किसान बचे न मजदूर


डॉ.संजीव मिश्र
आइये आपको दिल्ली से थोड़ा दूर ले चलते हैं। यात्रा लंबी होगी, पहले 440 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी कानपुर चलना होगा, फिर 67 किलोमीटर चलकर मिलेगा मजरा खेड़ा-कुर्सी। इस मजरे के एक गांव में आजादी के सत्तर साल बाद तक लोग बिनबिजली रहे हैं। जी हां, इसी बरस आई है यहां बिजली। यहां रहने वाले 55 साल के राम कृपाल के पास न ज्यादा जमीन है, न कोई नौकरी। जितनी जमीन है उससे घर चलता नहीं है और मजदूरी मिलती नहीं है। ऐसे में राम कृपाल व उनके जैसे लोग न किसान बचे हैं, न मजदूर और उनका यह दर्द बातचीत में उभर कर सामने भी आ जाता है।
राम कृपाल की कहानी उनके गांव ही नहीं, आसपास के गांवों के भी तमाम किसानों की कहानी है। वे खेतों में मजदूरी करना चाहते हैं किन्तु काम ही नहीं मिलता है। दो साल पहले मनरेगा में कुछ काम मिल जाता था, दो साल से वह भी नहीं मिल रहा है। बच्चों के भविष्य की बात कर वे निराश भाव में आसमान की ओर देखने लगते हैं। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में गांव के किसानों व मजदूरों की पूरी अर्थव्यवस्था में बदलाव आया है। पहले तो छोटी जोत (प्रति व्यक्ति कम खेती), ऊपर से आय के कम साधन मुसीबत बने हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में साल में बस दो फसलें ही हो पाती हैं। इसमें  दिन-रात एक कर दो, समय पर पानी बरसने से लेकर सिंचाई तक का बंदोबस्त हो जाए, तब जाकर एक बीघा खेत में बमुश्किल छह कुंतल गेहूं व छह कुंतल धान ही पैदा होती है। ऐसे में इतनी कम फसल में क्या बचाएं, क्या खाएं, यह सवाल मुंह बाए खड़ा रहता है। खेती पर होने वाले खर्च की तुलना में यह उत्पादन बेमतलब सा लगता है। किसानों का मानना है कि इस साल की शुरुआत में केंद्र सरकार की पहल पर दो हजार रुपये खाते में पहुंचे तो उम्मीद बंधी थी किन्तु यह रकम पर्याप्त साबित नहीं हुई। इन स्थितियों में बच्चों के भविष्य के बारे में अच्छा सोचने तक की फुर्सत नहीं होती, भविष्य बनाने की बात तो दूर की है।
छोटी जोत वाले किसानों के साथ गांव में ऐसे किसान भी हैं जिनके पास जमीन बची ही नहीं है। इनके लिए बड़ी जोत वाले किसान थोड़े बहुत मददगार साबित होते हैं, किन्तु वे भी अब मजदूरी के स्थान पर बटाई पर खेत देना पसंद करते हैं। बटाई में मेहनत छोटे किसानों की होती है, लागत भी आधी होती है, किन्तु फसल पर आधा अधिकार खेत मालिक का होता है। इसमें भी प्राकृतिक आपदा या कोई अन्य मुसीबत आ जाए तो बटाई पर खेती लेने वाले के पास कोई अधिकार नहीं होते हैं। यहां भी खाने-बचाने का सवाल खड़ा होता है और तब सरकारें भी साथ नहीं देतीं। ऐसे में मांग उठ रही है कि सरकार को चाहिए कि मजदूरों व बटाईदारों के लिए भी मुआवजे का कानून बनाए। दरअसल किसान इस समय लक्ष्य के अनुकूल उत्पादन न होने के संकट से जूझ रहे हैं। कम उत्पादन की गाज छोटे व सीमांत किसानों के साथ ऐसे कृषि मजदूरों पर गिरती है, जो सिर्फ खेती पर ही आश्रित हैं। तमाम बार वे कर्ज अदा नहीं कर पाते और फिर आत्महत्या जैसी स्थितियां भी पैदा होती हैं। कम फसल और घाटे का सबसे अधिक असर बच्चों के भविष्य पर पड़ता है। सबसे पहले बच्चों की पढ़ाई छूटती है और इससे अगली पीढ़ियां प्रभावित होती हैं।
भारत को कृषि प्रधान देश भले ही कहा जाता रहा है, किन्तु गांव जाकर साफ पता चलता है कि किसान किसी की प्राथमिकताओं में नहीं हैं। वे बेरोजगारी व गरीबी का दंश झेलने को विवश हैं। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश को ही आधार बनाएं तो 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में एक करोड़ से अधिक खेतिहर मजदूर हैं। इनमें से 9518 स्नातक या उससे ज्यादा पढ़े बेरोजगार खेतों में मजदूरी करने को विवश हैं। यही नहीं तकनीकी डिग्री या डिप्लोमा (बीटेक, पॉलीटेक्निक आदि) की पढ़ाई कर चुके 10 हजार से अधिक बेरोजगारों ने खेती को अपना रोजगार बना लिया है, वहीं ऐसे 2581 बेरोजगार खेतों में मजदूरी कर रहे हैं। उन्हें पूरे साल मजदूरी के मौके नहीं मिलते तो वे गरीबी झेलने को विवश हैं।
ग्रामीण इन स्थितियों को लेकर परेशान हैं किन्तु सरकार से उम्मीद लगाए हुए हैं। उनका मानना है कि सरकारों को प्राथमिकताएं बदलनी होंगी। मनरेगा के बाद जिस तरह खेतों में काम करने वाले मिलना बंद हो गए उससे तमाम छोटे किसानों ने विकल्पों पर फोकस किया। अब वे दोनों तरफ से निराश हैं। सशक्त पंचायतों के हाथ में कामकाज के अवसर देकर कुछ सुधार किया जा सकता है। जिस तरह जोर देकर व लक्ष्य निर्धारित कर स्वच्छ भारत अभियान चलाया गया, उसी तरह मजबूत किसान अभियान जैसा कोई आंदोलन खड़ा करना होगा। जब सरकारों के लिए किसान प्राथमिकता में होंगे, तो स्थितियां बदलेंगी।

Wednesday 14 August 2019

अब बेरोजगारी पर तीर चलाइये सरकार!


डॉ.संजीव मिश्र
चंद्रयान की लांचिंग सफलता पूर्वक हो चुकी है। अनुच्छेद 370 अतीत का हिस्सा बन चुका है। हमारे प्रधानमंत्री डिस्कवरी चैनल पर धूम मचा चुके हैं। ऐसे में अब देश की मूलभूत समस्याओं की ओर लौटने का समय भी आ गया है। पिछले कुछ वर्ष देश में बेरोजगारी की दृष्टि से चिंता वाले रहे हैं। दो माह पहले शैक्षिक सत्र समाप्ति के बाद बेरोजगारों की संख्या में और वृद्धि हो गयी है। देश में रोजगार के नए अवसर सृजित नहीं हो पा रहे हैं और कई मोर्चों पर तो पुराने रोजगार के अवसर खत्म होने से संकट दोहरा रहा है। इसलिए तमाम बड़े तीर चलाने के बाद अब सरकार पर बेरोजगारी पर तीर चलाने की जिम्मेदारी बनती है। बेरोजगारी संकट का सार्थक समाधान ढूंढ़ना सरकारी नीतियों की सबसे बड़ी विजय होगी।
पूरी दुनिया इस समय हमारी तकनीकी प्रगति का लोहा मान रही है। हमारे पास अथाह युवा शक्ति भी है। सामान्य स्थितियों में तकनीकी प्रगति रोजगार के नवसृजन का पथ प्रशस्त करती है। भारत जैसे देश में जहां हम अपनी सभ्यता व संस्कृति के मूल में तकनीक व अनुसंधान पर जोर देते रहे हैं, वहां तकनीकी प्रगति को सकारात्मक ही माना जाता है। हम पुष्पक विमान की परिकल्पना के साथ आगे बढ़ते हुए कौटिल्य के अर्थशास्त्र को प्रगति का आधार मानते हैं। हम शून्य की खोज कर दुनिया को तकनीक के रहस्य से जोड़ने वाले लोग हैं। इसके बावजूद पिछले कुछ वर्ष अलग ही नतीजों की व्याख्या करने वाले रहे हैं। सबसे कम खर्च कर मंगल व चांद तक पहुंच जाने वाले भारतीय तकनीकी प्रगति के साथ बेरोजगारी का दंश भी झेल रहे हैं।
अस्सी के दशक में जब भारत में कम्प्यूटरीकरण की तेजी के साथ तकनीकी प्रगति के नए अध्याय लिखे जा रहे थे, यह दुर्योग ही है कि बेरोजगारी की स्थिति भी तबसे ही गंभीर होने लगी है। इक्कीसवीं सदी को तकनीकी उन्नयन की शताब्दी कहा गया और भारत में इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से रोजगार के नए अवसरों के सृजन की चर्चा पर जोर दिया जाने लगा। इसके विपरीत आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्ष तकनीकी उन्नयन के तमाम शोरगुल के बीच बेरोजगारी दर बढ़ाने वाले रहे हैं। वर्ष 2011-12 को आधार वर्ष मानें तो तब से अब तक बेरोजगारी दर लगभग दो गुना बढ़ चुकी है। भारत सरकार के श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011-12 में बेरोजगारी दर 3.8 प्रतिशत थी, जो 2012-13 में बढ़कर 4.7 प्रतिशत हो गयी। इस दौरान तकनीकी प्रगति तो हो रही थी, किन्तु बेरोजगार भी उसी रफ्तार से बढ़ रहे थे। 2013-14 में देश की बेरोजगारी दर और बढ़कर 4.9 प्रतिशत हुई, जो 2015-16 तक 5 प्रतिशत के आंकड़े को छू चुकी थी। 2016 के बाद तो बेरोजगारी मानो आकाश छू रही है। 2017-18 में बेरोजगारी दर बढ़कर 6.1 प्रतिशत पहुंच गयी, जो पिछले 45 वर्ष में सर्वाधिक थी। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि 45 साल का कीर्तिमान स्थापित करने के बाद भी स्थितियां सुधारने की पहल नहीं हुई और फरवरी 2019 में बेरोजगारी दर तेजी से उछलकर 7.2 प्रतिशत पहुंच गयी।
बेरोजगारी दर बढ़ने के साथ हाल ही के वर्षों में रोजगार छिनने की स्थितियां भी मुखर रूप से सामने आई हैं। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के हाल ही में जारी आंकड़े इन खराब स्थितियों की ओर स्पष्ट इंगित कर रहे हैं। सीएमआईई रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में नए रोजगार सृजन में तो कमी आई ही, पहले से रोजगार पाए 1.1 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए। भारत के लिए स्थितियां आगे भी आसान नहीं हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की नई रिपोर्ट में कहा है कि इस वर्ष (2019) के अंत तक भारत में बेरोजगारों की संख्या दो करोड़ के आसपास पहुंच जाएगी। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में भारत में कुल कर्मचारियों की संख्या 53.5 करोड़ होगी, उनमें से 39.8 करोड़ लोगों को उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी नहीं मिलेगी। यह स्थिति बीच-बीच में साफ भी हो जाती है। दो वर्ष पहले की ही बात है, जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सचिवालय में चतुर्थ श्रेणी (चपरासी) पद के लिए तमाम बीटेक ही नहीं पीएचडी तक कर चुके लोगों ने आवेदन कर दिया था। ऐसी घटनाएं आए दिन देश भर से सामने आती हैं। लोग पीएचडी या बीटेक करने के बाद चतुर्थ या तृतीय श्रेणी संवर्ग की नौकरी के लिए आवेदन करते हैं। देखा जाए तो सही रोजगार न मिलना भी अर्द्धबेरोजगारी जैसा ही है। तकनीकी उन्नयन के दौर में हमें इस ओर भी गंभीर ध्यान देने की जरूरत है। सरकार ने रोजगार के अवसर सृजित करने के लिए कौशल विकास की तमाम योजनाएं शुरू कीं। उद्यमिता संवर्द्धन के प्रयासों की कई घोषणाएं की गयीं किन्तु अब तक वे प्रभावी साबित नहीं हो सकी हैं। बेरोजगारी बढ़ने पर अपराध बढ़ते हैं और कानून व्यवस्था के लिए चुनौतियां बढ़ती हैं। ऐसे में सरकार को इस ओर सकारात्मक प्रयास करने ही होंगे। ऐसा न होने पर भारत की इक्कीसवीं सदी बनाने का सपना पूरा करने की राह कठिन हो जाएगी।

Thursday 8 August 2019

बेड़ी तोड़ दी, अब दिल जोड़ दो


डॉ.संजीव मिश्र
पिछले कुछ दिनों से देश में मची ऊहापोह बमुश्किल थम सी गयी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकांश हिस्से समाप्त करने सहित कश्मीर को लेकर सरकार के बड़े फैसले ने कश्मीर और शेष भारत के बीच रिश्तों की बेड़ी तोड़ दी है। इस बेड़ी को लेकर पिछले सत्तर साल से तमाम सवाल उठाए जाते रहे हैं। देश का बड़ा हिस्सा अनुच्छेद 370 को हटाने की मांग कर रहा था, तो दूसरा हिस्सा इसे हटाने में असमर्थता के साथ चुनौतियां भी पेश कर रहा था। अब जब मौजूदा सरकार ने बड़ा फैसला लेकर बेड़ी तोड़ी है, तो कश्मीरियों के साथ देश का दिल जोड़ने की चुनौती भी है। अगले कुछ बरस इस चुनौती को स्वीकार कर दिल जोड़ने की हर संभव पहल करने वाले हैं। सरकार के साथ पूरे देश को इस दिशा में पहल करनी होगी और इस पहल की सफलता ही नए भारत के निर्माण का पथ प्रशस्त करेगी।
अनुच्छेद 370 को हटाए जाने की कार्रवाई इतिहास बदलने जैसी कार्रवाई लग रही है। देश की पूरी एक पीढ़ी ऐसी है, जिसने लगातार सिर्फ यह सुना है कि 370 हटते ही कश्मीर टूट जाएगा। कश्मीर से बाहर के जो लोग कश्मीर गए हैं और घूमते समय उन्होंने कश्मीर विधानसभा परिसर में तिरंगे के साथ  कश्मीर का अलग झंडा देखा है, उन्हें निश्चित रूप से यह अजीब सा लगता होगा। यही कारण है कि डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर राम मनोहर लोहिया तक कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 का विरोध करते थे। माना तो यह भी जाता है कि स्वयं डॉ.अंबेडकर इस अनुच्छेद के विरोधी थे। साथ ही यह कहना भी गलत ही है कि कश्मीर के भारत में विलय की शर्त के रूप में अनुच्छेद 370 की अनिवार्यता जैसी कोई शर्त थी। दरअसल कश्मीर के विलय प्रपत्रों पर कश्मीर के राजा हरि सिंह ने 27 अक्टूबर 1947 को हस्ताक्षर किये थे और अऩुच्छेद 370 इसके लगभग दो वर्ष बाद 17 अक्टूबर 1949 को अस्तित्व में आया था। इसके बाद धारा 35ए तो संसद में बिना किसी बहस के 1954 में लागू की गयी थी। इन स्थितियों में सरकार ने वक्त का पन्ना पलटने की कोशिश की है। उम्मीद है कि अब भविष्य में लिखे जाने वाले नए पन्ने न सिर्फ नया इतिहास लिखेंगे, बल्कि सफलता की नयी कहानी भी लिखेंगे।
वैसे सरकार ने यह फैसला आनन-फानन में किया हो, ऐसा नहीं है। इसके लिए पूरी तैयारी की गयी है। पिछली सरकार में राज्य सभा में कम बहुमत के कारण तीन तलाक पर कानून पारित न करा पाने वाली सरकार ने इस बार सबसे पहले राज्यसभा में मजबूती हासिल की है। तमाम छोटी-बड़ी पार्टियों के राज्यसभा सदस्यों के इस्तीफे से लेकर वैचारिक धरातल पर राजनीतिक दलों के साथ सामंजस्य बिठाने जैसी रणनीति भी बनाई गयी। यही कारण है कि तीन तलाक के खिलाफ बने कानून का विरोध करने वाली बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसी पार्टियां कश्मीर से जुड़े कानून का समर्थन करती नजर आई। सरकार ने जनता दल (यूनाइटेड) जैसे अपने सहयोगी दलों के विरोध की भी परवाह नहीं की। इनके अलावा सूचना तंत्र व सुरक्षा के मोर्चे पर भी सरकार पूरी तैयारी कर चुकी नजर आ रही है। यह कानून आने से पहले सूचना के अधिकार कानून में संशोधन सुनिश्चित किया गया और साथ ही आतंकवाद पर नकेल कसने के लिए विधि विरुद्ध क्रियाकलाप निवारण संशोधन विधेयक (यूएपीए) भी लाया गया। कश्मीर में पहले से ही सेना झोंक देने जैसी तैयारियां तो स्पष्ट दिख ही रही हैं।
इस फैसले से जम्मू, कश्मीर घाटी से लेकर लद्दाख तक अलग-अलग प्रभाव व प्रवाह देखने को मिल रहा है। जम्मू व लद्दाख से तो इस फैसले के समर्थन में आवाजें सुनाई दे रहीं है और कश्मीर के आम अवाम की आवाज का इंतजार हमें अभी करना होगा। ऐसे में सरकार के साथ कश्मीरी अवाम का सामंजस्य बैठना भी बेहद आवश्यक है। राज्य सभा व लोक सभा में इस मसले पर हुई बहस में सरकार ने विकास की दशा व दिशा भी दिखाई है। अब सरकार के लिए भी चुनौती है कि कश्मीर के विभाजन व पूर्ण राज्य का दर्जा छिनने के बाद वहां विकास दिखाई दे। सरकार को पूर्ण राज्य का दर्जा छीनने के पीछे के कारण भी कश्मीरी अवाम को समझाने होंगे। ऐसा न करने पर अवाम का भरोसा जीतना कठिन होगा। देश में जब आतंकवाद से सीधे प्रभावित न होने वाले राज्यों में कानून व्यवस्था का बुरा हाल है, ऐसे में अब कश्मीर की कानून-व्यवस्था भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। इन स्थितियों के साथ अगर कश्मीरियों के दिल से शेष भारत के दिल जुड़े तो इतिहास गर्व के साथ इस फैसले को याद रखेगा।