Monday 24 January 2022

पिक्चर अभी बाकी है भक्तजनों!

 डॉ.संजीव मिश्र

उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। दल-बदल से लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चुका है। चुनाव आयोग की सख्ती से बड़ी जनसभाओं और गली-गली लाउडस्पीकर का शोर तो नहीं सुनाई दे रहा है, किन्तु सोशल मीडिया के मैदान में नए-नए अस्त्र-शस्त्र दागे जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश से गोवा, बड़े से छोटे राज्य तक सर्वाधिक उथल पुथल प्रत्याशिता को लेकर मची हुई है। यह सब यूं ही नहीं हो रहा है। सब सत्ता की बाजीगरी है। चुनाव तो हर साल होते हैं किन्तु 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले के ये चुनाव बेहद मायने रखते हैं। यह सत्ता का सेमीफाइनल है। इसे जीतने के लिए कुछ भी किया जाएगा। यही कारण है कि इस चुनाव में दलबदल भी अनूठे किस्म वाला हो रहा है। वैसे अभी शुरुआत ही हुई है, अगले कुछ दिन-महीने देश में कुछ भी देखने-सुनने के लिए तैयार रहिए।

शुरुआत एक छोटे से राज्य गोवा से करते हैं। वहां जिन मनोहर पर्रिकर को भारतीय जनता पार्टी ने हमेशा अपनी ईमानदारी का पोस्टर ब्वाय बनाया, उन्हीं पर्रिकर का बेटा टिकट न पा सका। टिकट तो अन्य बहुतों को भी नहीं मिलता है किन्तु चूंकि उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के बेटे से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पोते तक टिकट पा चुके हैं, इसलिए पर्रिकर का बेटा भी टिकट चाह रहा था। अब टिकट नहीं मिला तो पर्रिकर का बेटा पार्टी छोड़ने ही नहीं, निर्दलीय चुनाव लड़ने तक को तैयार हो गया। यह चुनाव जीतने की मशक्कत ही है कि नेता पुत्रों को खूब टिकट देने वाली भाजपा गोवा में पर्रिकर के बेटे को टिकट देने ले इनकार कर देती है। खास बात ये है कि परिवारवाद का मुखर विरोध करने वाली भाजपा को पर्रिकर के बेटे में तो परिवारवाद दिखा, किन्तु उसी गोवा में उसी भाजपा ने दो दंपती (पति-पत्नी) को टिकट दिया है। यह तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे कि टिकट वितरण का यह विशिष्ट भाव किसे कितना फायदा पहुंचाता है।

यह राजनीति ही है कि हर दिन भाजपा व भाजपा नेताओं को कोसने वाले अरविंद केजरीवाल पर्रिकर के बेटे को अपनाने के लिए तुरंत तैयार हो गए। गोवा ही क्यों, उत्तराखंड से पंजाब तक आम आदमी पार्टी दल बदल के इस वातावरण को खुले दिल से स्वीकार कर ही रही है। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने दर्जन भर से अधिक टिकट दूसरे दलों से आए नेताओं को दिये हैं। यही नहीं आम आदमी पार्टी ने अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री उम्मीदवार चुनते वक्त वोटिंग में कांग्रेसी सिद्धू तक का नाम शामिल कर लिया था। उत्तराखंड में भी आम आदमी पार्टी दूसरे दलों से आए नेताओं को टिकट देने में पीछे नहीं हट रही है। दिल्ली में पहले ही भाजपा व कांग्रेस से आए लोग आम आदमी पार्टी से विधायक तक बन चुके हैं। इस चुनाव में दल बदल का यह सिलसिला आदर्शों का कतई मोहताज नजर नहीं आ रहा है। पंजाब में वर्षों तक भाजपा को कोसते रहे अमरिंदर सिंह अब भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं, तो उत्तराखंड में हरक सिंह रावत दलबदल की अनूठी मिसाल बन गए हैं। कभी कांग्रेस से भाजपा में आकर भाजपा की सरकार बनवाने वाले हरक सिंह को भाजपा ने चुनाव के ठीक पहले सरकार और पार्टी से बाहर कर दिया। हरक वापस कांग्रेस में चले गए।

उत्तर प्रदेश का चुनाव तो बदलती निष्ठाओं का प्रतिमान बन गया है। एक दूसरे के दलों से लोगों को अपने दल में लाकर खुद को बड़ा साबित करने की होड़ सी लगी हुई है। पिछले विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मौर्य सहित दर्जन भर नेता अचानक मौजूदा चुनाव अभियान से ठीक पहले समाजवादी पार्टी का हिस्सा बन गए। समाजवादी पार्टी मुखिया अखिलेश यादव इसे अपनी बड़ी जीत मानकर फूले नहीं समा रहे थे, तभी भारतीय जनता पार्टी ने अखिलेश के सौतेले भाई की पत्नी यानी मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू को समाजवादी पार्टी से तोड़ लिया। मुलायम की बहू का भाजपा आगमन ऐसे गाजे-बाजे से हुआ, मानो कोई बहुत बड़े जनाधार वाले नेता को तोड़ लिया गया हो। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी में दूसरे दलों से नेताओं का आना कोई बड़ी बात नहीं है। प्रदेश सरकार में कई बार मंत्री रहे बहुजन समाज पार्टी के नेता रामवीर उपाध्याय का भाजपा से जुड़ना उतने गाजे बाजे से नहीं हुआ, जितने गाजे बाजे के साथ मुलायम की बहू को भाजपा में शामिल कराया गया। उन्हें दिल्ली कार्यालय में भाजपा का सदस्य बनाया गया, ताकि राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित कराया जा सके। यही नहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य सहित लगभग समूची उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी उस दिन दिल्ली में मौजूद थी। जवाबी दल-बदल का यह खेल इस बार ही विशेष रूप से देखने को मिल रहा है।

चुनाव में टिकट की लड़ाई भी अनूठी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता माने जाने वाले इमरान मसूद ने समाजवादी पार्टी की टिकट की चाह में कांग्रेस छोड़ दी, किन्तु उन्हें समाजवादी पार्टी से भी टिकट नहीं मिला। अब वे निराश हैं और अपने कुछ समर्थकों को समाजवादी पार्टी में पद दिलाकर संतोष जाहिर कर रहे हैं। बरेली में कांग्रेस ने सुप्रिया एरन कांग्रेस की प्रत्याशी घोषित हुई थीं, किन्तु नामांकन से पहले ही वे समाजवादी हो गयीं। ऐन मौके पर सुप्रिया अपने पति के साथ कांग्रेस छोड़ कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गयीं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को ऐसे झटके कुछ ज्यादा ही लग रहे हैं। प्रियंका गांधी के बहुचर्चित अभियान लड़की हूं, लड़ सकती हूं की पोस्टर गर्ल रहीं प्रियंका मौर्य कांग्रेस से टिकट न मिलने पर पार्टी से नाराज हो गयीं। भाजपा ने उन्हें भी तुरंत मौका दिया और पार्टी का हिस्सा बना लिया। टिकट की मारामारी का आलम यह है कि स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ समाजवादी पार्टी में गए विनय शाक्य की बेटी रिया ने भारतीय जनता पार्टी का साथ नहीं छोड़ा है। भारतीय जनता पार्टी ने भी उन्हें टिकट देकर पिता-पुत्री को आमने-सामने खड़ा कर दिया। पिछले चुनाव से पहले बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के लिए अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर चर्चा में आए भाजपा नेता दयाशंकर सिंह की पत्न स्वाति सिंह को भाजपा ने पिछला चुनाव लड़ाया था। स्वाति मंत्री भी बनीं। अब दयाशंकर सिहं और स्वाति सिहं में भाजपा की टिकट को लेकर रार मची है। पति-पत्नी आमने सामने हैं और विवाद थम नहीं रहा है। कुल मिलाकर यह चुनाव अभियान अनूठा हो चला है। अभी तो यह शुरुआत ही है, आगे यह अभियान और गुल खिलाएगा।

पिक्चर अभी बाकी है भक्तजनों!

Sunday 9 January 2022

...तो अयोध्या के प्रतिनिधि बन राम राज्य लाएंगे योगी!

डॉ.संजीव मिश्र

लखनऊ। उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की अयोध्या एक बार फिर चर्चा में है। वैसे पिछले कई चुनाव अयोध्या की चर्चा के बिना नहीं हुए हैं, किन्तु इस बार वहां राम मंदिर निर्माण शुरू हो चुका है। लग रहा था कि विवाद थमने के बाद अब अयोध्या से इतर मुद्दों पर चर्चा होगी, किन्तु राजा राम की राजधानी अयोध्या इस बार सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ के चुनाव लड़ने की संभावना से चर्चा में है। माना जा रहा है कि योगी अयोध्या के प्रतिनिधि बनकर अगले पांच वर्षों में राम राज्य की अवधारणा को पुष्ट करेंगे।

सिपहसालारों ने डेरा डाला

अयोध्या से योगी आदित्यनाथ के चुनाव लड़ने को लेकर कयास तो लंबे समय से लग रहे थे, किन्तु पिछले कुछ दिनों से इन कयासों को बल मिलना शुरू हुआ है। वहां योगी के निजी सचिव सहित कई प्रमुख सिपहसालारों ने डेरा डाला है। वे स्थानीय कार्यकर्ताओं के लिए योगी द्वारा भेजे गए उपहार लेकर तो गए ही हैं, उनसे चर्चा भी कर रहे हैं। वे खुल कर पूछ रहे हैं कि यदि मुख्यमंत्री अयोध्या से चुनाव लड़ते हैं तो उसका क्या असर होगा। कार्यकर्ताओं की ओर से भी इस बारे में सकारात्मक व उत्साहजनक प्रतिक्रिया सामने आ रही है। माना जा रहा है कि काशी से नरेंद्र मोदी के सांसद बनने के बाद अयोध्या से योगी का विधायक बनना भाजपा की रणनीति का हिस्सा है, जिससे वे हिन्दू वोट बैंक को मजबूती के साथ जोड़े रह सकें। इससे भाजपा के एजेंडे में शामिल अयोध्या-मथुरा-काशी की त्रयी में से दो केंद्र सीधे जुड़ जाएंगे, जिसका लाभ चुनाव में निश्चित मिलेगा।

प्रशासन भी पहुंचा अयोध्या

योगी के सिपहसालारों के अलावा चुनाव घोषणा से ठीक पहले सूबे की प्रशासनिक मशीनरी भी अयोध्या पहुंची। प्रदेश के मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्र और पुलिस महानिदेशक मुकुल गोयल ने अयोध्या जाकर न सिर्फ रामलला और हनुमानगढ़ी के दर्शन किये, बल्कि वहां विकास कार्यों की समीक्षा भी की। उन्होंने अयोध्या जगन्नाथपुरी की तरह विकसित करने और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल बनाने पर जोर दिया। वैसे भी अयोध्या में इस समय विकास कार्य जोरों पर है। कुल मिलाकर 16 हजार करोड़ रुपये से अधिक की 110 परियोजनाओं पर काम हो रहा है। मुख्यमंत्री स्वयं इन परियोजनाओं की समीक्षा कर रहे हैं।

योगी सबके हैं, फैसला पार्टी करेगी

इस संबंध में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता अवनीश त्यागी का कहना है कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में पिछले पांच वर्षों से प्रदेश में राम राज्य का वातावरण बना है। योगी सबके हैं और पूरे प्रदेश के कार्यकर्ता चाहते हैं कि योगी उनके क्षेत्र से चुनाव लड़ें। मुख्यमंत्री चुनाव कहां से लड़ेंगे, इसका फैसला पार्टी करेगी। वे अयोध्या से लड़ेंगे तो कार्यकर्ता प्रफुल्लित होंगे। वैसे भी अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का पथ प्रशस्त होने के साथ चतुर्दिक विकास की राह खुली है।

Saturday 8 January 2022

यह सत्ता का सेमीफाइनल है!

डॉ.संजीव मिश्र

यह वर्ष 2022 है। भारतीय राजनीति के लिए यह वर्ष कुछ विशेष अंदाज में शुरू हो रहा है। देश में कोरोना के मामले तेजी से बढ़ने के बावजूद चुनावी रैलियां हो रही हैं। प्रधानमंत्री का काफिला जाम में फंस रहा है तो मुख्यमंत्री जाम लगाए लोगों के बीच जा रहे हैं। प्रधानमंत्री की सुरक्षा चिंताओं से इतर तमाम सवाल खड़े किये जा रहे हैं। यह सब यूं ही नहीं हो रहा है। सब सत्ता की बाजीगरी है। इस साल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। ये चुनाव घोषित भी हो चुके हैं। चुनाव तो हर साल होते हैं किन्तु 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले के ये चुनाव बेहद मायने रखते हैं। यह सत्ता का सेमीफाइनल है। इसे जीतने के लिए कुछ भी किया जाएगा। अगले कुछ दिन-महीने देश में कुछ भी देखने-सुनने के लिए तैयार रहिए।

वर्ष 2022 देश की राजनीति के लिए तमाम संदेश व चुनौतियां लेकर आया है। इसका असर अभी से दिखने भी लगा है। वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं तो पंजाब में कांग्रेस का शासन है। खास बात यह है कि उत्तर प्रदेश व मणिपुर को छोड़कर तीनों राज्यों ने बीते पांच वर्षों में एकाधिक मुख्यमंत्री देखे हैं। ऐसे में इन राज्यों में सत्ता की लड़ाई भी कुछ ज्यादा रोचक व रोमांचक होने वाली है। वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव के चलते पांच राज्यों के ये विधानसभा चुनाव देश की सत्ता का सेमीफाइनल माने जा रहे हैं। ऐसे में हर राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता और इस समय मची खींचतान इसी का परिणाम है।

जिन पांच राज्यों में इस वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से सिर्फ उत्तर प्रदेश व मणिपुर ही ऐसे हैं, जहां के मुख्यमंत्री इस वर्ष पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करेंगे। दोनों जगह भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री हैं, ऐसे में इन राज्यों की सत्ता में वापसी न सिर्फ पार्टी, बल्कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह का रिपोर्ट कार्ड भी सामने लाएगी। इन दो राज्यों से अलग गोवा, उत्तराखंड और पंजाब के मुख्यमंत्रियों को अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों से जुड़े सवालों के जवाब भी देने होंगे। बीते पांच वर्ष के कार्यकाल में गोवा और उत्तराखंड ने मुख्यमंत्री के तीन-तीन चेहरे देखे हैं। गोवा में मनोहर पर्रिकर और लक्ष्मीकांत पारसेकर के बाद मौजूदा मुख्यमंत्री डॉ.प्रमोद सावंत ने 2019 में काम संभाला था। इसी तरह उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत व तीरथ सिंह रावत के बाद मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने जुलाई 2021 को सत्ता का नेतृत्व सौंपा गया था। पंजाब में तो कांग्रेस का घमासान बहुचर्चित रहा है। मौजूदा विधानसभा के कार्यकाल में चार साल से अधिक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे अमरिंदर सिंह अब न सिर्फ सत्ता से बल्कि सत्तारूढ़ दल कांग्रेस से भी बाहर हैं। अब वहां कांग्रेस का चेहरा बने चरणजीत सिंह चन्नी को आम आदमी पार्टी, अकालीदल-बसपा गठजोड़ के साथ कभी अपने ही नेता रहे अमरिंदर सिंह व भाजपा गठजोड़ से मुकाबला करना पड़ रहा है। यही कारण है कि पंजाब को लेकर घमासान भी कुछ अधिक है।

बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पंजाब यात्रा के दौरान घटित घटनाक्रम को लेकर जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला, वह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण, बल्कि लोकतंत्र के लिए दुखद भी है। वहां पहले प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगी और फिर इस मसले पर जिस तरह देश के सामने खींचतान मचाई गयी, दोनों ही पहलू चिंताजनक हैं। पंजाब यात्रा से बमुश्किल दस दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में कानपुर की यात्रा पर थे। कानपुर में भी मौसम खराब होने के कारण उनका विमान नहीं उड़ पाया तो प्रधानमंत्री को पहले कानपुर के भीतर कई कार्यक्रमों में सड़क मार्ग से ही जाना पड़ा और फिर लखनऊ भी सड़क मार्ग से ही गये थे। यह सब कुछ आकस्मिक रूप से हुआ और कानपुर, उन्नाव व लखनऊ की पुलिस ने सुरक्षित यात्रा मार्ग सुनिश्चित कराया था। ऐसे में पंजाब पुलिस की जिम्मेदारी से कतई इनकार नहीं किया जा सकता। जब उत्तर प्रदेश की पुलिस आकस्मिक स्थिति में प्रधानमंत्री के लिए सुरक्षित यात्रा पथ प्रशस्त कर सकती है, तो पंजाब की पुलिस ऐसा क्यो नहीं कर पाई, यह सवाल उठना तो स्वाभाविक है। यदि किसान आंदोलन को प्रधानमंत्री की यात्रा में बाधक मान लिया जाए तो देश की समूचे सुरक्षा तंत्र पर सवाल उठेंगे। स्पष्ट है कि यदि पंजाब में कुछ लोग प्रधानमंत्री के काफिले को रोक सकते हैं, तो देश में कभी भी, कहीं भी, कुछ भी हो सकता है। इस चूक के लिए सिर्फ राज्य पुलिस को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था महज राज्य पुलिस के सहारे भी नहीं रहती है। ऐसे में प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए गठित स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) की जिम्मेदारियां भी सवालों के घेरे में हैं। इन सवालों के जवाब भी दिये जाने चाहिए कि एसपीजी व केंद्रीय खुफिया तंत्र की विफलता के लिए कौन जिम्मेदार है। केंद्र व राज्य स्तर पर जिम्मेदारों को चिह्नित कर देश के सामने लाया जाना चाहिए, क्योंकि खतरे में देश के प्रधानमंत्री की जान थी।

प्रधानमंत्री की पंजाब यात्रा को लेकर जिस तरह राजनीतिक खींचतान और सोशल मीडिया पर अनर्गल प्रलाप शुरू हुए हैं उन्हें देशहित में कतई नहीं माना जा सकता। जिस तरह से कुछ विपक्षी नेता और सोशल मीडिया के भाजपाविरोधी वीर खाली कुर्सियों पर ध्यान केंद्रित कर सुरक्षा व्यवस्था में हुई चूक की दिशा मोड़ना चाहते हैं, वह ठीक नहीं है। प्रधानमंत्री के यात्रा पथ पर प्रदर्शनकारियों के जमाव के जवाब में पंजाब के मुख्यमंत्री के यात्रा पथ पर प्रदर्शन का घटनाक्रम भी सामने आया है, जिसमें मुख्यमंत्री चन्नी स्वयं प्रदर्शनकारियों के बीच पहुंच गए। यह तात्कालिक रूप से तो अच्छा लगता है, किन्तु अराजक व देशविरोधी तत्वों के इरादों को ध्यान में रखें तो यह आदर्श स्थिति नहीं कही जा सकती। हमें याद रखना होगा कि हम इंदिरा गांधी व राजीव गांधी के रूप में दो प्रधानमंत्रियों की जान असमय ही गंवा चुके हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी के जो समर्थक उनके जीवन को लेकर चिंतित हैं, उनकी चिंता को बेमतलब नहीं करार दिया जा सकता। सोशल मीडिया पर जिस तरह पहले भी सुरक्षा व्यवस्था में सेँध लगाए जाने के उदाहरण देते हुए घटनाक्रमों की जानकारी दी जा रही है, उसका यह मतलब तो कतई नहीं हो सकता कि यदि पहले प्रधानमंत्री की जान की दांव पर लगाया जा चुका है, तो वह सिलसिला अब भी जारी रहना चाहिए। सोशल मीडिया पर महज भाजपाविरोधी वीर ही सक्रिय हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। भाजपा के समर्थन में उतरे लोग जिस तरह इस मसले पर पंजाब व पंजाबियत को चुनौती देते हुए दिख रहे हैं, वह भी ठीक नहीं है। इस मसले पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। यह देश के राजनीतिक मुखिया की सुरक्षा का मसला है। इस पर सबको मिलकर चिंतन की एक दिशा में चलना चाहिए, अन्यथा जगहंसाई अवश्यंभावी है।

Sunday 2 January 2022

उम्मीदों और नयी जिम्मेदारियों वाला नया साल

डॉ.संजीव मिश्र

वर्ष 2021 बीत चुका है। वह वर्ष जिसने हममें से अधिकांश के आसपास तनाव, दुख व कष्ट का वातावरण सृजित कर दिया था। कोरोना से देश में हुई मौतें और कई बार इलाज भी न करा पाने का दर्द आज भी लोगों को पीड़ा की अनुभूति करा रहा है। ऐसे में वर्ष 2022 हर नए वर्ष की तरह उम्मीदों की पोटली लेकर तो आया है किन्तु नयी जिम्मेदारियों की चुनौती भी साथ लाया है।

वर्ष 2021 का स्वागत करते समय हम नवोन्मेष की उम्मीदों के साथ कोरोना रूपी अंतर्राष्ट्रीय तनाव से जूझ रहे थे। हम कोरोना टीकाकरण से तमाम उम्मीदें लगाए हुए थे। इसके बावजूद वर्ष 2021 तमाम कड़वी यादें देकर गया है। बीते दो वर्ष तमाम अनुभवों के बीच देश के रुकने, बच्चों के स्कूल छूटने और वर्क फ्रॉम होम जैसी यादें तो देकर गए ही हैं, साथ ही ऐसी चुनौतियां व समस्याओं की सौगात देकर गए हैं, जिनके समाधान हमें मिलकर खोजने होंगे। 2021 में भीषण कोरोना संकट के बीच दिल्ली का किसान आंदोलन भी नहीं भुलाया जा सकेगा। भीषण सर्दी में देश के किसान अपनी मांगों को लेकर दिल्ली सीमा पर डटे रहे और अंततः सरकारों को किसानों के सामने झुकना पड़ा। किसान आंदोलन तो रुक गया किन्तु खेती की चुनौतियां वर्ष 2022 के हिस्से में भी वैसी की वैसी हैं। देश की जिम्मेदारी है कि वे अन्नदाताओं को उनकी फसल का उपयुक्त मूल्य मुहैया कराएं, अन्यथा एक नए आंदोलन से बचा नहीं जा सकेगा।

दो साल से बस कुछ अधिक ही समय हुआ है, जब सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का पथ प्रशस्त करते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। तब लगा था कि देश में साम्प्रदायिक सद्भाव का पथ प्रशस्त होगा। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण कार्य की शुरुआत करने के लिए वहां पहुंचे थे। हिन्दुओं व मुस्लिमों के बीच वर्षों पुराना विवाद सुलझ जाने से उनके बीच सद्भाव की राह खुलने की उम्मीदों के बीच मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म भूमि को लेकर सवाल उठाए जाने लगे हैं। स्वयं उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य इस सिलसिले में बयान देकर मामला गर्मा चुके हैं। उधर काशी विश्वनाथ धाम के भव्य कारीडोर की शुरुआत कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्षों पुराने अयोध्या-मथुरा-काशी के भाजपाई संकल्प के एक हिस्से पर अमल का संदेश दिया है। 2022 में पांच राज्यों के चुनाव के बीच मथुरा का मुद्दा बार-बार सामने आने की पूरी उम्मीद है। यह वर्ष ऐसे तमाम मसलों से निपटने की जिम्मेदारियों वाला नव वर्ष भी है।

इन सबसे अलग देश के सामने 2022 के लिए सबसे बड़ी चुनौती कोरोना ही बना हुआ है। 2021 में कोरोना के पहले संस्करण के लिए टीका बाजार में आ भी नहीं पाया था कि कोरोना के दूसरे संस्करण ने दस्तक दे दी थी। उसके बाद जिस तेजी से भारत में लोगों ने कोरोना से जान गंवाई, उसे भूला नहीं जा सकता। हर घर के आसपास किसी न किसी की मृत्यु हुई। श्मशान घाट छोटे पड़ गए। शव नदियों में बहाए गए। हालात ये है कि मरीज और अस्पताल का अनुपात बिगड़ गया। तमाम मरीज तो अस्पताल व इलाज के अभाव में दम तोड़ गए। भारी संख्या में ऐसे मरीज भी थे, जो किसी तरह अस्पताल पहुंच भी गए तो ऑक्सीजन के संकट ने उनकी जान ले ली। यह आपदा इस कदर अप्रत्याशित थी कि सरकारी तैयारियां कम पड़ गयीं। इस संकट के बावजूद 2021 में हम कोरोना टीकाकरण में आत्मनिर्भर नजर आने लगे थे। देश में तेजी से टीकाकरण हुआ, जिससे लगा कि अब मौतों की संख्या में कमी आएगी। भारत भर में धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य सी दिखने भी लगी थीं। स्कूल-कॉलेज से लेकर बाजार-दफ्तर तक खुल गए थे, तभी 2022 आते आते कोरोना का तीसरा संस्करण दस्तक दे चुका है। एक बार फिर देश में दहशत का मंजर है। इसके लिए बीमारी के साथ लापरवाही भी खासी जिम्मेदार है। लोग दो गज दूरी और मास्क है जरूरी जैसे स्लोगन भूल सा चुके हैं। बाजारों में भीड़ बेतहाशा हो रही है। यही नहीं राजनीतिक दल भी अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सचेत नहीं हैं। पांच राज्यों के चुनाव इसी वर्ष होने के चलते राजनीतिक दलों की रैलियों में भारी भीड़ हो रही है और सत्ता को लक्ष्य माने जाने के कारण कोई राजनीतिक दल इनसे दूरी नहीं बना रहा। ऐसे में 2022 कोरोना के तीसरे संस्करण की भयावहता की चुनौती के साथ इससे निपटने की जिम्मेदारियों वाला नया साल भी है।

भारत में कोरोना ने सिर्फ मौतें ही नहीं दी हैं, बेरोजगारी, आर्थिक संकट के साथ सामाजिक व मानसिक विकारों में भी वृद्धि की है। विद्यार्थी महीनों अपने स्कूल-कालेज का मुंह नहीं देख पाए। ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर पढ़ाई-लिखाई की बातें तो खूब हुईं किन्तु वह पढ़ाई पूरी तरह प्रभावी साबित हुई हो, यह नहीं कहा जा सकता। जिस तरह कोरोना के तीव्र प्रवाह में नौकरियां बही हैं, पहले से ही सुस्त अर्थव्यवस्था में इस संकट ने और पलीता लगाया है। आर्थिक संकट और कोरोना की तीसरी लहर जैसी सौगातों के साथ 2022 में प्रवेश करते भारत की सबसे बड़ी चुनौती कोरोना संकट का समाधान है। कोरोना के पहले ही स्ट्रेन में हमने देख लिया था कि हम कोरोना जैसी बीमारी के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं। कोरोना के कारण कोरोना से इतर बीमारियों का इलाज भी जिस तरह थम सा गया था, वह चिंता का विषय है। कोरोना के गंभीर मरीजों को सघन चिकित्सा उपलब्ध कराना दुष्कर हो रहा था और अस्पतालों में कोरोना के इलाज के चलते अन्य बीमारियों के मरीज लाइलाज रह जा रहे थे। इस कारण भी भारी संख्या में मौतें हुई और कई जगह तो इनका संज्ञान भी नहीं लिया गया। ऐसे में 2022 का स्वागत करते हुए हमें इन चुनौतियों से निपटने और तदनुरूप रणनीति बनाने की जरूरत है। जनता को भी इसके लिए तैयार रहना होगा। सिर्फ सरकार के भरोसे रहने से तो काम नहीं चलेगा। 

खास बात ये है कि वर्ष 2022 के स्वागत के लिए जगह-जगह जुटे लोगों की भीड़ देखें तो लगता है मानो किसी ने पिछले वर्षों से मचे घमासान से कोई सीख ही नहीं ली है। सड़क पर एक साथ दूरियां मिटाते लोगों की भीड़ दिख जाती है। उनमें भी अधिकांश मास्क नहीं लगाए होते हैं। ऐसे में 2022 के लिए बीमारी के साथ अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी व सामाजिक दायित्वों के प्रति उदासीनता जैसी चुनौतियां सामने हैं। हर किसी को बीते हुए समय से सीख लेकर आगे की जिम्मेदारियों के ईमानदार निर्वहन का संकल्प लेना होगा। ऐसे में गिरिधर कविराय की ये पंक्तियां हर मन पर छायी हैं,

बीती ताहि बिसारि देआगे की सुधि लेइ।

जो बनि आवै सहज मेंताही में चित देई।।