Saturday 30 January 2021

बापू से छल! कब तक टूटेंगे महात्मा के सपने?

डॉ. संजीव मिश्र

73 साल पहले, 30 जनवरी को हमारे राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी को एक राष्ट्रद्रोही की गोली लगी थी। 1948 में महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद उनके अनुयायी होने का दावा करने वाले और उनके नाम से जुड़कर राजनीति करने वाले लोग बार-बार सत्ता में आते रहे। यही नहीं, जिन पर गांधी से वैचारिक रूप से दूर होने के आरोप लगे, वे भी सत्ता में आए तो गांधी के सपनों से जुड़ने की बातें करते रहे। गांधी के ग्राम स्वराज की बातें तो खूब हुईं किन्तु उनके सपनों को पूरा करने के सार्थक प्रयास नहीं हुए। देखा जाए तो बीते 73 वर्षों में कदम-कदम पर बापू से छल हुआ है, उनके सपनों की हत्या हुई है। उनकी परिकल्पनाओं को पलीता लगाया गया और उनकी अवधारणाओं के साथ मजाक हुआ। बापू की मौत के बाद देश की तीन पीढ़ियां युवा हो चुकी हैं। उन्हें बार-बार बापू के सपने याद दिलाए गए किन्तु इसी दौरान लगातार उनके सपने रौंदे जाते रहे। बापू के सपने याद दिलाने वालों ने उनके सपनों की हत्या रोकने के कोई कारगर प्रयास नहीं किये। आज भी यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि सरकारें तो आती-जाती रहेंगी, किन्तु बापू कब तक छले जाते रहेंगे? कब तक उनके सपने टूटते रहेंगे?

बापू के सपनों का ग्राम स्वराज आज तक मूर्त रूप हीं ले सका, यह अलग बात है कि इस दिशा में तरह-तरह की घोषणाएं बार-बार की जाती रहीं। महात्मा गांधी ने स्वराज शब्द को वैदिक व पवित्र करार दिया था। 19 मार्च 1931 को ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित लेख में बापू कहते हैं, ‘स्वराज का अर्थ आत्म शासन व आत्म संयम है। अंग्रेजी शब्द इंडेपेंडेंस अक्सर सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी व स्वच्छंदता का अर्थ देता है, यह अर्थ स्वराज में नहीं है’। इसके विपरीत बीते सत्तर वर्षों में स्वराज के मायने ही बदल दिये गए हैं। आजादी के नाम पर मनमानी शुरू हो गयी। दुर्भाग्यवश आजादी के बापूभाव को समझने की कोशिश तक नहीं हुई और स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता पर अंकुश के पुख्ता उपाय नहीं किये जा सके। यही नहीं, सत्ता में बैठे लोगों ने बापू के सच्चे स्वराज के भाव को बार-बार कुचला है। कई बार तो लगता है, बापू को स्वराज के नाम पर अराजकता का डर भी था। 29 जनवरी 1925 को ‘नवजीवन’ में उन्होंने लिखा, ‘सच्चा स्वराज थोड़े लोगों द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि सत्ता के दुरुपयोग की स्थिति में उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके ही हासिल किया जा सकता है’। यह दुखद व दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा, कि आजादी के सात दशक बाद सत्ता के दुरुपयोग का प्रतिकार करने पर लाठियां, आंसू गैस के गोले और कई बार गोलियां तक मिलती हैं और ऐसे हर समय पर याद आते हैं बापू और उनके दिखते हैं उनके स्वराज संबंधी टूटते सपने। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान चली लाठियां हों, दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ सड़क पर उतरी तरुणाई पर हुई पानी की बौछार हो या उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आंदोलित शिक्षकों व शिक्षामित्रों पर हुआ बल प्रयोग हो, यह सबकुछ बापू के सपनों का स्वराज तो नहीं है। इस तरह के हर मौके पर सत्ता प्रतिष्ठान ने बापू के सपने चकनाचूर करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
बापू का स्वराज जाति-धर्म से ऊपर उठने की बात करता है। 1 मई 1930 को ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित लेख में उन्होंने कहा, ‘मेरे... हमारे... अपनों के स्वराज में जाति व धर्म के भेद का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों व धनवानों का एकाधिकार नहीं होगा। वह स्वराज सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा’। यहां विचारणीय बिन्दु यह है कि क्या हम ऐसा स्वराज स्थापित कर सके हैं? जाति के नाम पर वोट बैंक बनाने की मशक्कत व धर्म के नाम वोट मांगने को लगातार मिलता प्रश्रय हमें बापू के टूटते सपनों से सीधे जोड़ता है। इसे राजनीतिक दलों की बेशर्मी की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि चुनावों से पहले लोकसभा या विधानसभा क्षेत्रवार धर्म व जाति के आंकड़े जुटाकर उसके अनुसार टिकट वितरण किया जाता है। प्रत्याशियों का सामाजिक योगदान न देखकर जातीय समीकरण देखे जाते हैं। धार्मिक ध्रुवीकरण की कोई कोशिश बाकी नहीं रखी जाती और सत्ता में आने के लिए धार्मिक व जातीय आधार पर समीकरण बनाए जाते हैं। बापू चाहते थे कि स्वराज में धनवानों का एकाधिकार न हो, किन्तु आज स्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं। अब तो तमाम औद्योगिक घराने न सिर्फ राजनीतिक दलों से सत्ता संबंधी समझौते करते हैं, बल्कि अपने प्रत्याशी तक मैदान में उतारते हैं। वे राजनीति की दिशा व दशा तय करते हैं। इनके अलावा चुनाव जीत कर आने के बाद जिस तरह जनप्रतिनिधियों की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है, उससे भी स्पष्ट है कि सत्ता प्रतिष्ठान में धन-संपदा किस तरह प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर धनवानों का अधिपत्य स्थापित कर रही है। साथ ही लोकतंत्र में चुनाव जरूरी है और मौजूदा चुनावी व्यवस्था धनवानों को ही राजनीति के शीर्ष पर ले जाने का पथ प्रशस्त करती है। चुनाव लड़ना इतना महंगा हो गया है कि आम व गरीब आदमी तो इस बारे में सोच ही नहीं सकता।

बापू चाहते थे कि आम व गरीब आदमी को वे सभी सुविधाएं मिलनी चाहिए, जिनका प्रयोग अमीर आदमी करते हैं। 26 मार्च 1931 को ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित लेख में बापू कहते हैं कि पूर्ण स्वराज का अर्थ है नर कंकालों का उद्धार। पूर्ण स्वराज ऐसी स्थिति का द्योतक है, जिसमें गूंगे बोलने लगते हैं और लंगड़े चलने लगते हैं। पर सच में ऐसा कहां हो सका है? यहां महल बनाने के लिए गरीबों की झोपड़ियों में आग लगाना आम बात है। हम उन्हें उजाड़ने के बाद आधारभूत सुविधाएं तक मुहैया कराना सुनिश्चित नहीं करते। बापू लंगड़ों के चलने की बात करते थे, यहां तो उनकी बैसाखियों तक के सौदे हो जाते हैं। बापू लगातार शहरी धन के धोखे से लोगों को बचाने की बात करते रहे। 30 जून 1944 को ‘अमृत बाजार पत्रिका’ में बापू ने लिखा, ‘आज जरूरत इस बात की है कि ऊपर के लोग नीचे दबाने वाले लोगों की पीठ से उतर जाएं। ऊंचे कहे जाने वाले लोगों का बोझ नीचे के लोगों को कुचल रहा है’। आजादी के पहले इस स्थिति का आंकलन करने वाले बापू के भारत में आजादी के बाद भी वैसी ही स्थितियां हैं। आज भी गरीब मौका पाकर कुचला ही जाता है।

बापू गांवों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के पक्षधर थे। 29 अगस्त 1935 को ‘हरिजन’ में प्रकाशित आलेख में उन्होंने लिखा, ‘अगर गांव नष्ट हो जाएं तो हिन्दुस्तान भी नष्ट हो जाएगा। दुनिया से इसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा’। आजाद भारत के सत्ताधीशों ने बापू की इस अवधारणा को पूरी तरह भुला दिया है। विकास के नाम पर कहीं बांध बनाने के लिए तो कहीं सड़क व शहर बढ़ाने के लिए गांव के गांव उजाड़ दिये जाते हैं।  26 दिसंबर 1929 को ‘यंग इंडिया’ में छपे लेख में बापू ने स्पष्ट लिखा था, ‘हमारे गांवों की सेवा करने से ही सच्चे स्वराज की स्थापना होगी। अन्य सब प्रयास निरर्थक साबित होंगे’। इसके विपरीत हमारी स्वातंत्र्योत्तर प्रतिबद्धताओं में ग्राम विकास पीछे चला गया। ऊंची अट्टालिकाओं व एक्सप्रेस-वे आदि पर ध्यान देने के चक्कर में हम खेतों की मेड़ व गांवों की पगडंडियां भुला बैठे। आज भी तमाम गांव ऐसे हैं जहां हमारे नीति निर्धारक सिर्फ वोट मांगने के लिए ही जाते हैं और चुनाव बाद उस ओर मुड़ कर नहीं देखते। महात्मा गांधी चाहते थे कि देश में सबका दर्जा समान हो। 10 नवंबर 1946 को ‘हरिजन सेवक’ में उन्होंने लिखा, ‘हर व्यक्ति को अपने विकास और अपने जीवन को सफल बनाने के समान अवसर मिलने चाहिए। यदि अवसर दिये जाएं तो हर आदमी समान रूप से अपना विकास कर सकता है’। दुर्भाग्य से आजादी के सात दशक से अधिक बीत जाने के बाद भी समान अवसरों वाली बात बेमानी ही लगती है। देश खांचों में विभाजित सा कर दिया गया है। हम लड़ रहे हैं और लड़ाए जा रहे हैं। कोई जाति, तो कोई धर्म के नाम पर बांट रहा है तो कोई इन दोनों से ही डरा रहा है। बापू की हत्या तो आज से 73 साल पहले हुई थी, पर बापू के सपनों की हत्या तो हर कदम पर 73 बार हो रही है।

Thursday 28 January 2021

उम्मीदों वाला गणतंत्र दिवस

डॉ.संजीव मिश्र

इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल का 19वां दिन। भारत से दस हजार किलोमीटर से भी ज्यादा दूर आस्ट्रेलिया में भारतीय तिरंगा तेजी से लहरा रहा था। जी हां, 19 जनवरी 2021 को आस्ट्रेलिया के गाबा क्रिकेट स्टेडियम में जब भारतीय क्रिकेट टीम ने आस्ट्रेलिया को हराया, तो पूरा भारत झूम उठा था।कोरोना काल के दौर में भीषण तनाव झेल चुके देश में 2021 की शुरुआत के साथ ही आई इस खबर ने उम्मीदों के नए आकाश का सृजन सा कर दिया था। ऐसी ही तमाम टिमटिमाती उम्मीदों के साथ हम इस बार देश का 72वां गणतंत्र दिवस आया है। कोरोना के टीके की खोज हो या सेंसेक्स की उछाल के साथ अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीदें हों, यह गणतंत्र दिवस अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला लग रहा है।

वर्ष 2021 की शुरुआत से ही भारत में संभावनाओं के नए द्वार खुलने की उम्मीद जताई जा रही थी। दरअसल कोरोना के कारण पिछले वर्ष पूरा देश ठहर सा गया था। गली-गली मौत की चीत्कार ने दहशत का वातावरण सृजित कर दिया था। वर्ष 2020 खत्म होते-होते इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे थे। बेहाल अर्थव्यवस्था के साथ बेरोजगारी मुंह बाए खड़ी थी और समाधान की कोई तात्कालिक उम्मीद भी नहीं दिख रही थी। ऐसे में इस वर्ष गणतंत्र दिवस को लेकर उत्साह भी हर वर्ष जैसा तो नहीं ही था। इस बीच लगातार आई सकारात्मक खबरों ने वातावरण बदला है। क्रिकेट की जीत तात्कालिक उत्साह वाली है और भारत जैसे देश के लिए तो उत्साह के अतिरेक वाली है, जिससे लोग अधिकाधिक संख्या में सीधे जुड़ जाते हैं। इस जीत के बाद तनाव की बेड़ियां टूट सी गयीं और चहुंओर उत्साह का वातावरण बना। इससे लोगों को उम्मीद जगी कि सकारात्मक खबरों का दौर शुरू हो चुका है। पहला टेस्ट मैच बुरी तरह हारने के बाद वापसी करने वाली भारतीय क्रिकेट टीम ने देश के मन में उम्मीद की किरण जगाई है। हमें लगने लगा है कि एक अंधेरी रात के बाद की सुबह की शुरुआत हो चुकी है। यह गणतंत्र दिवस महज इस जीत के बाद नहीं आया, तमाम उम्मीदों की रोशनी भी साथ लेकर आया है।

महज क्रिकेट की जीत ही नहीं, यह गणतंत्र दिवस हमारे लिए चिकित्सकीय आत्मनिर्भरता का संदेश लेकर भी आया है। जिस तरह से भारतीय मेधा ने कोरोना की चुनौती को स्वीकार कर कोरोना से मुक्ति दिलाने वाली वैक्सीन के निर्माण का पथ प्रशस्त किया है, वह भी उम्मीदों भरा है। भारत में कोरोना की दस्तक के बाद जिस तरह से लगातार स्थितियां भयावह होती जा रही थीं, उससे पूरे देश में न सिर्फ भय का वातावरण बन गया था, बल्कि भविष्य की संभावनाओं पर अनिश्चितता के बादल छाए हुए थे। आसपास हो रही मौतों से परेशान घरों में कैद लोगों के लिए भारतीय वैक्सीन वही उम्मीद की किरण बनकर आयी है, जिससे लोगों को इस गणतंत्र दिवस के साथ नवसूर्योदय होता दिख रहा है। इसके साथ ही जिस तरह पूरी दुनिया इस वैक्सीन के लिए भारत की ओर देख रही है, उससे भी भारतीय संभावनाओं को बल मिला है। वसुधैव कुटुंबकम् की परिकल्पना वाले भारत में बनी वैक्सीन इस भाव को और पुष्ट करती दिख रही है। भारत भी दुनिया के तमाम देशों को खुले मन से यह वैक्सीन उपलब्ध करा रहा है। साथ ही देश के भीतर भी कोरोना की वैक्सीन का प्रयोग शुरू हो गया है। इससे कोरोना को लेकर डर भी दूर हो रहा है।

भारतीय परिवेश में वर्ष 2020 की शुरुआत की बात करें तो अर्थव्यवस्था चरमराती सी नजर आ रही थी। रोजगार के अवसर कम होने को लेकर सवाल खड़े हो रहे थे। इसके बाद रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी थी। लग रहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था की कमर सी टूट चुकी है और इसे सुधरने में लंबा वक्त लगेगा। जिस तरह कोरोना काल में कामकाज ठप हो जाने के कारण उत्पादन से लेकर विपणन तक की यात्रा संकट में पड़ गयी थी, भारत की अर्थव्यवस्था पर जटिल सावल उठना अवश्यंभावी था। ऐसे में इस वर्ष गणतंत्र दिवस से पहले शेयर बाजार में आई उछाल ने उम्मीदों के नए दीपक रोशन किये हैं। जिस तरह घरेलू शेयर बाजार में उछाल के बाद मुंबई स्टॉक एक्सचेंज का सूचकांक यानी सेंसेक्स 50 हजार के पार गया है, उससे वे लोग भी प्रफुल्लित हैं, जिन्हें शेयर बाजार का गुणा-गणित तो दूर, सेंसेक्स का मतलब तक नहीं मालूम है। यह खुशी उम्मीदों वाली है। उन्हें लगने लगा है कि जब सेंसेक्स उछल कर 50 हजार तक पहुंच सकता है, तो देश की समूची अर्थव्यवस्था में सुधार आना भी अवश्यंभावी है। ऐसी ही उम्मीदों के साथ आया गणतंत्र दिवस भारतीय गणतंत्र के मूल भाव को और मजबूत करेगा। इस दौरान किसान आंदोलन से अरुणांचल में चीन के कब्जे जैसे मसले देश के लिए चुनौती भी बने हुए हैं। इसके बावजूद लोगों को लगता है कि अंधकार के बाद दिख रही प्रकाश की ये किरणें सभी समस्याओं का समाधान करने में सफल होंगी।

Friday 15 January 2021

संक्रांति काल में क्रांति की छटपटाहट

डॉ. संजीव मिश्र

भारत पर्वों व त्योहारों का देश है। इस समय देश में कोरोना के संक्रमण से बाहर निकलने की छटपटाहट तो है ही, कोरोना जनित संकटों के समाधान की जल्दी भी है। ऐसे में मकर संक्रांति का आना देश के लिए भी सूर्योदय की आकांक्षाओं का द्योतक है। मकर संक्रांति पर सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। यह वातावरण में बदलाव का पर्व भी है। देश भी इस समय ऐसे ही संक्रांति काल में है। बदलाव की यह प्रक्रिया सकारात्मक हो, इसके लिए संक्रांति की दिशा भी सकारात्मक होनी चाहिए। वर्ष 2021 की संक्रांति के साथ देश के सामने चुनौतियों भरी क्रांति भी है। मकर संक्रांति गंगा की यात्रा समाप्ति का पर्व भी है, ऐसे में भारत जैसे देश में सागर जैसी महत्वाकांक्षाओं पर धैर्य की जीत जैसी संक्रांति की जरूरत भी है। इस संक्रांति काल में महज खिचड़ी खाने-बांटने या पोंगल जैसे उल्लास से काम नहीं चलेगा, हमें सहज सद्भाव की संक्रांति की ओर बढ़ना होगा।

भारत में वर्ष पर्यंत चलने वाली उत्सवधर्मिता पर इस समय संकट के बादल से छाए हुए लग रहे हैं। युवा शक्ति को आधार मानने वाले भारत में युवाओं के लिए तो अवसर अपर्याप्त से नजर आते हैं किन्तु राजनीतिक स्तर पर सभी को अपने लिए अवसर ही अवसर नजर आ रहे हैं। देश को दिग्भ्रमित कर अलग-अलग एजेंडे पर काम करने की मुहिम सी चल रही है। पिछला लगभग पूरा वर्ष कोरोना की भेंट चढ़ सा गया है। ऐसे में इस वर्ष मकर संक्रांति के तुरंत बाद कोरोना टीकाकरण से जनता के बीच उम्मीद सी बंधी है। अब इस टीकाकरण पर हो रही राजनीति चिंताजनक है। देश को इस राजनीतिक व धार्मिक संक्रमण से बाहर निकलना होगा। देश के जिन विद्वानों ने कोरोना के टीके का समयबद्ध विकास कर पूरी दुनिया को चौंकाया है, उन विद्वानों के सम्मान के साथ हमें दुनिया के सामने भी एकजुटता की बड़ी लकीर खींचनी होगी। सरकार को भी टीकाकरण में ईमानदारी व पारदर्शिता के मानदंड स्थापित करने होंगे।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उस देश के विकास का पैमाना होती है। भारतीय संदर्भों में देखें तो पिछले कुछ वर्षों से हम खराब अर्थव्यवस्था के दौर से ही गुजर रहे हैं। बड़े अरमानों के साथ वर्ष 2020 की शुरुआत तो हुई किन्तु अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कोरोना की बुरी छाया सी पड़ गयी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में दोबारा सत्ता संभालने के बाद पांच साल के भीतर यानी 2024 तक देश को 50 खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प देखते हुए उत्कृष्ट आर्थिक प्रबंधन का स्वप्न दिखाया था। मौजूदा स्थितियों में तो दिग्गज अर्थशास्त्रियों को भी ऐसा होता नहीं दिख रहा है। कोरोना काल में जिस तरह से हमारी अर्थव्यवस्था पर आघात हुआ है, उन स्थितियों में 50 खरब डालर की अर्थव्यवस्था का स्वप्न फिलहाल पूरा होता नजर नहीं आ रहा है। देश के संक्रांति काल में असली सूर्योदय तो तभी होगा, जब हम आर्थिक क्रांति के लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होंगे।

अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त सामाजिक ताने-बाने पर भी देश का समग्र विकास निर्भर है। हम जिस कट्टरवाद की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, वह देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए भी अच्छा नहीं है। हाल ही में हमने स्वामी विवेकानंद की जयंती मनाई है। स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि उन्हें उस धर्म का प्रतिनिधि होने पर गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। उन्होंने कहा था कि हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते, बल्कि सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने भारत को एक ऐसे देश के रूप में उद्धृत किया था, जिसने सभी धर्मों व सभी देशों के सताए हुए लोगों को शरण दी और इस पर गर्व भी व्यक्त किया था। आज स्वामी विवेकानंद की वही गर्वोक्ति खतरे में है। न तो हम सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ध्यान केंद्रित कर पा रहे हैं, न ही हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकारकर मिलजुलकर साथ चलने की राह दिखा पा रहे हैं। इक्कीसवीं सदी के भारत में सामाजिक समता लाना भी एक बड़ी चुनौती बन गया है। ऐसे में संक्रांति का सूर्योदय सही मायने में तभी हो सकेगा, जब देश सद्भाव के साथ विकास यात्रा पर आगे बढ़ेगा।

संक्रांति के साथ ही भारत की उत्सवधर्मिता का बोध भी दिखने लगता है। लोहड़ी का उल्लास हो या पोंगल का वैशिष्ट्य, इनके साथ बसंत पंचमी की प्रतीक्षा इस वैविध्य का संवर्धन करती है। ऐसे में संक्रांति के साथ भव्य भारत की संकल्पना का अरुणोदय आवश्यक है। इसके लिए शिक्षण संस्थानों का वातावरण सही करना होगा, बेरोजगारी के संकट से जूझना होगा, भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदार कोशिश करनी होगी, सड़क पर बेटियों को सुरक्षित महसूस कराना होगा, राजनीतिक शुचिता सुनिश्चित करनी होगी। ऐसा न हुआ तो यह संक्रांति निश्चित ही संक्रमण में बदल जाएगी, जो देश और देशवासियों के लिए बेहद चिंताजनक होगा। 

Monday 4 January 2021

नए वर्ष पर, बीती ताहि बिसारि दे...

डॉ.संजीव मिश्र

वर्ष 2020 बीत रहा है। वर्ष 2021 के स्वागत की तैयारियां हो रही हैं। इस बार वर्ष बीतते-बीतते गिरिधर कविराय की ये पंक्तियां हर मन पर छायी हैं,

बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।

जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देई।।

वर्ष 2020 का स्वागत करते समय हम इक्कीसवीं शताब्दी के पांचवें हिस्से की समाप्ति के साथ नवोन्मेष की उम्मीदों से भरे हुए थे। तीन माह बीतते-बीतते कोरोना के रूप में 2020 ने अंतर्राष्ट्रीय तनाव भरी सौगात दी। उसके पश्चात तो वर्ष पर्यन्त संकट के नवोन्मेष होते रहे। घरों में कैद होने से लेकर आए दिन मौतों ने हर किसी को हिला कर रख दिया। इन स्थितियों में अब 2021 से चुनौती भरी उम्मीदें लगाई जा रही हैं। बीती हुई कड़वी यादों को भुलाकर 2021 में कुछ अच्छा सुनने की उम्मीद के साथ नए वर्ष की अगवानी की जा रही है।

2020 को लेकर तमाम अनुभवों के बीच देश के रुकने, बच्चों के स्कूल छूटने और वर्क फ्रॉम होम जैसी यादें तो साथ रहेंगी ही, 2021 व भविष्य के अन्य वर्षों को लेकर चुनौतियां भी मुंह बाए खड़ी हैं। समाधान की तलाश भले ही की जा रही है, किन्तु समस्याएं जस की तस मौजूद है। 2020 की शुरुआत में दिल्ली के शाहीन बाग का आंदोलन देश ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का केंद्र बना था, वहीं 2021 की अगवानी दिल्ली में ही किसान आंदोलन की भयावहता के साथ हो रही है। भीषण सर्दी में देश के किसान अपनी मांगों को लेकर दिल्ली सीमा पर डटे पड़े हैं और सरकार  के लिए समाधान की राह निकालना मुश्किल हो रहा है। धीरे-धीरे किसान आंदोलन विस्तार भी ले रहा है और देश के लिए बड़ी चुनौती सा बन गया है। साम्प्रदायिक सद्भाव की राह में लव-जेहाद जैसे मसले भी बड़ा रोड़ा साबित होते हैं। उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश सरकारों द्वारा जबरन अंतर्धार्मिक विवाह को लेकर कठोर कानून लाए जाने के बाद देश की कई अन्य सरकारें इस पर विचार कर रही हैं। वहीं इन कानूनों के विरोध में खड़े लोग धार्मिक स्वतंत्रता व जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता को खतरा करार दे रहे हैं।

2019 के जाते-जाते सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का पथ प्रशस्त करते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। तब लगा था कि देश में साम्प्रदायिक सद्भाव का पथ भी प्रशस्त होगा। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण कार्य की शुरुआत करने के लिए वहां पहुंचे थे। हिन्दुओं व मुस्लिमों के बीच वर्षों पुराना विवाद सुलझ जाने से उनके बीच सद्भाव की राह खुलने की उम्मीदों के बीच मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म भूमि को लेकर विवाद का मसला अदालत तक पहुंच चुका है। निर्माण का यह द्वंद्व देश में लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर को लेकर भी तेज हो उठा है। मौजूदा संसद भवन के पास ही एक नए संसद भवन के निर्माण को लेकर केंद्र सरकार की योजना का विरोध तेज हो गया है। प्रधानमंत्री इस महत्वाकांक्षी सेंट्रल विस्टा परियोजना का शिलान्यास तो कर चुके हैं किन्तु मामला अदालत में भी पहुंच चुका है। इस परियोजना पर आने वाली लागत से अधिक लोग पर्यावरण के रूप में कीमत चुकाने की चिंता कर रहे हैं। पहले ही दिल्ली सहित पूरा देश पर्यावरण संकट से जूझ रहा है। इस परियोजना के बाद यह संकट और बढ़ने वाला है। 2021 को इस चुनौती भी निपटना होगा।

इन सबसे अलग देश के सामने 2021 के लिए सबसे बड़ी चुनौती कोरोना ही बना हुआ है। अभी कोरोना के पहले संस्करण के स्थायी इलाज के लिए टीका बाजार में आ नहीं पाया है कि कोरोना का दूसरा संस्करण दस्तक दे रहा है। जिस तरह इंग्लैंड के बाद भारत में भी कोरोना के नए स्ट्रेन से पीड़ित मरीज मिलने लगे हैं, उसके बाद यह चुनौती कम होने के स्थान पर बढ़ती ही नजर आ रही है। भारत में कोरोना ने सिर्फ मौतें ही नहीं दी हैं, बेरोजगारी, आर्थिक संकट के साथ सामाजिक व मानसिक विकारों में भी वृद्धि की है। विद्यार्थी महीनों से अपने स्कूल-कालेज का मुंह नहीं देख पाए हैं। ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर पढ़ाई-लिखाई की बातें तो हो रही हैं किन्तु वह पढ़ाई पूरी तरह प्रभावी हो यह नहीं कहा जा सकता। जिस तरह कोरोना के तीव्र प्रवाह में नौकरियां बही हैं, पहले से ही सुस्त अर्थव्यवस्था में इस संकट ने और पलीता लगाया है। आर्थिक संकट और किसान आंदोलन जैसी सौगातों के साथ 2021 में प्रवेश करते भारत की सबसे बड़ी चुनौती कोरोना संकट का समाधान है। कोरोना के पहले ही स्ट्रेन में हमने देख लिया था कि हम कोरोना जैसी बीमारी के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं। कोरोना के कारण कोरोना से इतर बीमारियों का इलाज भी जिस तरह थम सा गया था, वह चिंता का विषय है। कोरोना के गंभीर मरीजों को सघन चिकित्सा उपलब्ध कराना दुष्कर हो रहा था और अस्पतालों में कोरोना के इलाज के चलते अन्य बीमारियों के मरीज लाइलाज रह जा रहे थे। इस कारण भी भारी संख्या में मौतें हुई और कई जगह तो इनका संज्ञान भी नहीं लिया गया। ऐसे में 2021 का स्वागत करते हुए हमें इन चुनौतियों से निपटने और तदनुरूप रणनीति बनाने की जरूरत है। जनता को भी इसके लिए तैयार रहना होगा। सिर्फ सरकार के भरोसे रहने से तो काम नहीं चलेगा।