Thursday 26 December 2019

हरियाणा-महाराष्ट्र से जुड़ी है झारखंड की हार


डॉ.संजीव मिश्र
देश भर में असुरक्षित नारी शक्ति व नागरिकता संशोधन कानून को लेकर मचे हंगामे के बीच झारखंड चुनाव के नतीजे आए हैं। यहां भारतीय जनता पार्टी की हार सिर्फ रघुबर दास की हार नहीं है, बल्कि यह हार हरियाणा व महाराष्ट्र में भाजपा के चुनावी प्रदर्शन से जुड़ी हुई है। जिस तरह हरियाणा में भाजपा हारते-हारते बची, महाराष्ट्र में जीत कर भी हार गयी उससे सबक नहीं सीखा गया, जिसके परिणामस्वरूप झारखंड में स्पष्ट पराजय सामने आयी है। दरअसल राष्ट्रीय मुद्दों के साथ क्षेत्रीय क्षत्रपों पर अतिविश्वास इन तीनों राज्यों में भाजपा को महंगा पड़ा है। इन राज्यों में भाजपा ने अपनों को दूर किया और परिणाम नकारात्मक रहे।
झारखंड व छत्तीसगढ़ राज्यों का सृजन बिहार व मध्यप्रदेश से अलग कर भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने किया था। इन राज्यों के गठन के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के लिए यह अवसर भी था। इस बार के विधानसभा चुनावों में झारखंड में हेमंत सोरेन के हाथ यह अवसर बहुमत के साथ लगा है। झारखंड विधानसभा चुनावों में हेमंत सोरेन की जीत से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी की हार की चर्चा हो रही है। दरअसल भाजपा की यह हार हर स्तर पर समीक्षा का कारक बन रही है। जिस तरह पिछले दो वर्षों में देश में भाजपानीत राज्यों की संख्या घट रही है, उससे स्पष्ट है कि भाजपा के राज्य स्तरीय क्षत्रपों पर जनता भरोसा नहीं कर पा रही है। साथ ही उनके क्रियाकलाप भी भाजपा की सत्ता के कारकों व उनके मूल तौर-तरीकों से मेल नहीं खाते हैं।
वर्ष 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद जिस तरह तेजी से पूरे देश में भाजपा का विस्तार हुआ था, उससे लगने लगा था कि देश महज भगवा बयार के साथ बह रहा है। 2017 में उत्तर प्रदेश जीतने के साथ भाजपा के पक्ष में बना माहौल उस समय और मजबूत हुआ, जब 2019 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने मजबूती के साथ देश की सत्ता संभाली। इसके बाद की स्थितियां भाजपा के लिए चिंताजनक बनी हुई है। झारखंड विभानसभा चुनाव के नतीजे तो भाजपा के खिलाफ गए ही हैं, उससे पहले मध्य प्रदेश, झत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा व महाराष्ट्र में भी भाजपा को झटका लग चुका है। हरियाणा व महाराष्ट्र के चुनाव अभियान ही नहीं, परिणाम आने तक भाजपा नेतृत्व सब कुछ अपने पक्ष में मान रहा था, किन्तु वास्तविक धरातल में ऐसा संभव नहीं दिखा। हरियाणा में जनता ने भाजपा को सबक सिखाते हुए बहुमत से दूर रखा, किन्तु भाजपा ने भी सत्ता में आने के लिए भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद चौटाला के परिवार से हाथ मिलाने में देरी नहीं की। यह गठजोड़ भले ही देश के नक्शे में भाजपा का एक राज्य बढ़ा रहा हो, किन्तु शुचितापूर्ण राजनीति की छवि सहेजे भाजपा की साख पर बट्टा तो लगा ही रहा है। महाराष्ट्र में तो भाजपा सत्ता में आकर भी बाहर हो गयी। चुनाव पूर्व गठबंधन में साथ-साथ रहे भाजपा व शिवसेना चुनाव बाद मुख्यमंत्री बनने की होड़ में अलग-अलग हो गए। यहां भी भाजपा की जिद उस पर भारी पड़ी। अब झारखंड में तो भाजपा सीधे तौर पर सत्ता की लड़ाई से बाहर हो गयी है। हालात ये हैं कि मौजूदा मुख्यमंत्री चुनाव हार गए और पार्टी करो विपक्ष का नेता भी नया चुनना होगा।
इन तीनों राज्यों के राजनीतिक हालात और भाजपा के पिछड़ने के कारणों के पीछे राज्य स्तरीय क्षत्रपों के साथ जनता का अविश्वास बड़ा कारण है। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर को पूरी आजादी देने के बावजूद भाजपा वहां सरकार नहीं बचा सकी। एक बार फिर वहां खट्टर की सरकार है किन्तु दुष्यंत का साथ लेकर बनी सरकार वहां विपक्ष को ताने मारने का खूब मौका दे रही है। महाराष्ट्र में तो अपने ही साथ में नहीं रहे। शिवसेना ने अपने लिए मुख्यमंत्री का पद मानकर भाजपा से बड़प्पन दिखाने की मांग की, किन्तु ऐसा नहीं हो सका। हिन्दुत्व की एकता के पैरोकारों से बात करने पर वे खुलकर कहते हैं कि भाजपा को वहां व्यापक वैचारिक हित में शिवसेना को ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद दे देना चाहिए था। यहां भी भाजपा का फड़नवीस मोह सत्ता से दूर रहने का कारण बना। झारखंड में तो घर-घर मोदी की तर्ज पर घर-घर रघुबर का नारा भी लगा किन्तु यह नारा बेअसर हो गया। यहां भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के मुखर योद्धा माने जाने वाले सरयू राय अपनी ही पार्टी के खिलाफ खड़े हो गए। रघुबर खुद हारे और अपनों को साथ न ले पाने के कारण भाजपा को भी हरा बैठे। अकाली दल से लेकर शिवसेना, जनता दल (यूनाइटेड), आजसू व लोकजनशक्ति पार्टी जैसे पुराने साथियों के साथ बड़ा दिल न दिखा पाना भी भाजपा को महंगा पड़ रहा है। झारखंड में भाजपा ने अपने बिहार के सहयोगी दलों को भी सीटें नहीं दीं और वे सब विरोध में थे। अपनों को नाराज कर रही भाजपा ने दूसरे दलों से आने वालों के लिए दरवाजे खोल दिये। इससे वर्षों तक दरी बिछाने वाला कार्यकर्ता निराश व हताश ही नहीं, नाराज भी हुआ। अब भाजपा को इन सब कारणों पर भी विस्तार से सोचना होगा।

Thursday 19 December 2019

शिक्षण संस्थानों को न बनाओ धर्म का अखाड़ा

डॉ.संजीव मिश्र
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए महामना मदन मोहन मालवीय जब हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान की प्रभावी आर्थिक मदद स्वीकार कर रहे थे, तब उन्होंने नहीं सोचा होगा कि सौ साल बाद इसी विश्वविद्यालय में फिरोज खान की नियुक्ति पर बवाल होगा। अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय के संस्थापक सरसैयद अहमद खान व जामिया मिलिया इस्लामिया अली ब्रदर्स ने भी धर्म को आधार बनाकर इन संस्थानों में चल रहे हिंसक आंदोलनों की कल्पना नहीं की होगी। किसी भी देश व समाज के लिए सौ वर्ष सकारात्मक परिवर्तन के साक्षी बनने चाहिए, किन्तु जिस तरह इन संस्थानों को धर्म के आधार पर बांटा जा रहा है, उससे सर्वाधिक निराश इनके संस्थापक होंगे। वे कभी नहीं चाहते होंगे कि इन शिक्षण संस्थानों को धर्म का अखाड़ा बनाया जाए।
देश इस समय धर्म की आग में जल रहा है। इस आग को जलाने वाले कौन हैं, इसको लेकर तो सड़क से संसद तक चर्चा हो चुकी है, किन्तु संसद से भड़की आग सड़कों पर तेजी से फैलती जरूर नजर आ रही है। इस समय समस्या सिर्फ नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हो रहा बवाल नहीं है। असल समस्या वैचारिक धरातल पर हिन्दू बनाम मुसलमान के भाव का व्यापक जागरण है। बहुत वर्षों तक राम जन्म भूमि के मसले पर हिन्दू-मुसलमानों के बीच खाई चौड़ी करने वाले सभी पक्ष इस मसले का सुप्रीम समाधान हो जाने के बाद एक बार फिर कभी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में फिरोज खान की नियुक्ति की आड़ में तो कभी नागरिकता संशोधन कानून की आड़ में अपने एजेंडे पर काम करने ही लग जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इस बार देश के शीर्ष शिक्षण संस्थान इन विभाजनकारी तत्वों के षडयंत्र का हिस्सा बन चुके हैं। इन शिक्षण संस्थान में हिन्दू, मुस्लिम या इस्लाम जुड़े होने मात्र से वे किसी धर्म विशेष का पर्याय नहीं बनने चाहिए, किन्तु इस समय ऐसा होता ही दिख रहा है। यह स्थिति निराशाजनक है और इन संस्थानों के संस्थापकों के मूल विचार से पूर्णतया भिन्न भी है।
महामना मदन मोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय इस स्वरूप की कल्पना तक नहीं की होगी कि एक दिन चयन के पश्चात परिसर की सड़कों पर महज इसलिए किसी शिक्षक की नियुक्ति का विरोध होगा क्योंकि वह मुसलमान है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में उन्होंने न सिर्फ एनी बेसेंट का सहयोग स्वीकारा था, बल्कि हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान से दस लाख रुपये का दान भी स्वीकार किया था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सर संघ चालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) ने पढ़ाई की, तो प्रसिद्ध इतिहासकार व पुरातत्वविद अहमद हसन दानी भी यहीं से निकले। इन सबके बावजूद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दू-मुसलमान बहस के ग्वापा सर्वधर्म सद्भाव के पैरोकार महामना के स्वप्न के साथ हुआ खिलवाड़ मूलतः हिन्दू-मुसलमानों के बीच खाई बढ़ाने वाला ही साबित हुआ है।
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ यूं तो देश के कई हिस्सों में आंदोलन चल रहा है किन्तु जिस तरह जामिया मिलिया इस्लामिया व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय शैक्षिक क्षेत्र में इस आंदोलन के चेहरे बनकर उभरे हैं, यह स्थिति चिंताजनक है। जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक अली ब्रदर्स यानी मोहम्मद अली जौहर व शौकत अली ने जिस तरह से इस संस्थान के विकास का स्वप्न देखा था, उसमें महज इस्लामपरस्ती की बात तो नहीं थी। जामिया में उग्र आंदोलन के बाद पुलिस का तौर-तरीका किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता, किन्तु जामिया के छात्रों द्वारा जिस तरह इस्लाम के नाम पर नारेबाजी हुई, वह भी ठीक नहीं है। अपने पूर्व छात्रों की फेहरिश्त में शाहरुख खान से लेकर वीरेंद्र सहवाग तक के नाम सहेजे जामिया को महज इस्लाम का पैरोकार साबित करने की कोशिशें दुखी करने वाली हैं। इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले सर सैयद अहमद खान ने अंग्रेजों द्वारा रियासत संभालने के लालच को ठुकराकर शिक्षा की अलख जगाई थी किन्तु अब उनके सपनों की इमारत बार-बार हिन्दू बनाम मुस्लिम विचार का केंद्र बन जाती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़े रहे लोगों में भारत रत्न डॉ. जाकिर हुसैन व खान अब्दुल गफ्फार खान के नाम लिये जाते हैं तो पद्मभूषण डॉ.अशोक सेठ व सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस आरपी सेठी भी यहीं की देन हैं। जिस विश्वविद्यालय को हिन्दू मुस्लिम एकता की पहचान बनना चाहिए, वह मुस्लिमों के नाम पर आंदोलन के लिए चर्चा में रहता है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हो या जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इन सभी के नाम में धर्म जुड़े होने मात्र से ये किसी धर्म विशेष के परिचायक नहीं हो जाते। इन पर सभी धर्मों का समान अधिकार है। ऐसे में बुद्धिजीवियों, विशेषकर छात्र-छात्राओं को उन छद्म धार्मिक ठेकेदारों से सावधान रहना चाहिए जो इन विश्वविद्यालयों के नाम में जुड़े धर्म के आधार पर उन्हें बांटने की कोशिश कर रहे हैं। इन सभी विश्वविद्यालयों की अपनी अलग राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पहचान है। धर्म के नाम पर बंटवारा हुआ तो ये अपनी मूल पहचान खो देंगे। इससे टूट जाएगा इनके संस्थापकों का सपना। जिसे बचाने की जिम्मेदारी सबसे अधिक इन विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं की है कि वे किसी के छलावे में न आएं। शिक्षा के ये धर्मस्थल बचेंगे, तभी असली विकास हो सकेगा। ऐसा न हुआ तो समाज व देश का पूरा ताना-बाना ही बिखर जाएगा। 

Thursday 12 December 2019

धर्मम् शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि

डॉ.संजीव मिश्र
भगवान बुद्ध के अनुयायी सामूहिक चेतना के जागरण व जीवन के नियमों के अनुपालन के लिए त्रिशरण मंत्र, ‘बुद्धं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि।’ का उच्चारण करते हैं। सामान्य रूप से इसका अर्थ है कि मैं बुद्ध की शरण लेता हूं, मैं धर्म की शरण लेता हूं, मैं संघ की शरण लेता हूं। बौद्ध मतावलंबी यहां बुद्ध को एक जागृत स्वरूप में स्वीकार करने के साथ धर्म को जीवन का महानियम मानते हुए संघ को सत्यान्वेषियों के समूह के रूप में ग्रहण करते हैं। हाल ही के वर्षों में भारतीय राजनीति ने इस स्वरूप को बदल ही दिया है। बौद्ध मतावलंबियों को महज दलित चिंतन तक समेट दिया गया है, वहीं धर्म व संघ को तो अलग तरीके से परिभाषित किया जा रहा है। नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर मचे घमासान के बीच धर्म व संघ को लेकर अलग ही चर्चाएं चल रही हैं और यहां भाव ‘धर्मम् शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि’ का ही नजर आ रहा है।
नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर देश में घमासान मचना स्वाभाविक ही था। यह मसला भी भारतीय जनता पार्टी के मूल वैचारिक अधिष्ठान से जुड़ा हुआ है। जिस तरह भाजपा कश्मीर धारा 370 हटाने को लेकर अपने स्थापना काल से ही स्पष्ट थी, किन्तु गठबंधन की जटिलताओं सहित उपयुक्त राजनीतिक वातावरण के अभाव में इस वादे से दूरी बनाए हुए थी, उसी तरह नागरिकता संशोधन व समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे भी भाजपा के मूल स्वभाव में स्पष्ट ही थे। भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक अधिष्ठान के प्रणेता संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दुओं की चिंता करने की बातें बार-बार कही हैं। संघ आज दुनिया भर में अलग-अलग नामों से सक्रिय है और सभी जगह हिन्दू ही संघ के मूल कॉडर का हिस्सा हैं। ऐसे में पड़ोसी देशों के हिन्दुओं की चिंता संघ की प्राथमिकताओं में शामिल है। अब जब संघ का स्वयंसेवक देश का प्रधानमंत्री है, देश में संघ की विचारधारा राजनीतिक रूप से सरकार के रूप में स्वीकार की जा चुकी है, हिन्दुओं की चिंता करते कानून बनना भी स्वाभाविक है। ऐसे में भाजपा सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन विधेयक के द्वारा पाकिस्तान सहित पड़ोसी देशों में सताए गए हिन्दुओं की चिंता जताने का विरोध निश्चित रूप से देश में हिन्दुओं के बीच भाजपा की विचारधारा का पोषक ही साबित होगा। यही कारण है कि भाजपा खुलकर इस मसले पर सामने आ रही है और भाजपा की पूरी कोशिश इस कानून के साथ स्वयं को हिन्दू हितैषी व इसका विरोध करने वालों को हिन्दू विरोधी साबित करने की है।
इस विधेयक में भले ही हिन्दुओं के साथ जैन, सिख, पारसी, ईसाई व बौद्धों को शरण देने की बात कही जा रही हो, किन्तु इस विधेयक के विरोधियों का पूरा जोर धार्मिक आधार पर है। वे लोग भाजपा पर देश को बांटने के लिए धर्म की शरण में जाने का आरोप लगा रहे हैं, जबकि भाजपा इसे वैश्विक रूप से उन लोगों के लिए जरूरी मान रही है, जिन्हें धार्मिक आधार पर सताया गया है। इस विधेयक के विरोधियों की नीयत पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए जो विरोधी रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने के पक्षधर हैं, वही इस विधेयक में हिन्दुओं व अन्य मतावलंबियों को विशेष रूप से परिभाषित कर शरण देने का विरोध कर रहे हैं। इसके लिए उनके पास मजबूत तर्क भी है। जिस तरह देश की आजादी के समय भारत ने धर्म के आधार पर नागरिकता को स्वीकार नहीं किया, वहीं पाकिस्तान की स्थापना ही मुसलमानों के लिए अलग देश के रूप में हुई थी। ऐसे में भारतीय नागरिकता के लिए धर्म को आधार बनाया जाना संविधान सम्मत नहीं माना जा रहा। ऐसे लोग ही भाजपा पर धर्म व संघ की शरण में जाने का आरोप लगा रहा है।
नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोधियों की चिंता महज यह विधेयक नहीं है। इसे वे भविष्य में समान नागरिक संहिता की तैयारियों से भी जोड़कर देख रहे हैं। जिस तरह भाजपा पहले तीन तलाक, फिर धारा 370 के खिलाफ फैसले सहेजे कानून बना चुकी है, उसके बाद भाजपा विरोधियों को ऐसे ही उन सभी मसलों पर फैसलों का डर सता रहा है, जो संघ व भाजपा के एजेंडे में रहे हैं। नागरिकता संशोधन विधेयक को तो भाजपा पहले ही पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से जोड़ने का एक कदम करार दे चुकी है। ऐसे में इस विधेयक के बाद पूरे देश में बसे अवैध घुसपैठियों की चिंता बढ़ेगी। तमाम जगह ये घुसपैठिये वोटर भी बन चुके हैं। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से पूरे देश के जुड़ने के बाद इनका मताधिकार छिनेगा। इन स्थितियों में इनके वोट पाने वाले राजनीतिक दलों की चिंता स्वाभाविक है। यह शोर-शराबा भी इसीलिए है। इस शोर-शराबे की चिंता किये बिना भाजपा अपने एजेंडे पर बढ़ रही है। इसमें कितनी और किस दिशा में सफलता मिलेगी, यह बात अभी काल के गर्भ में ही है।

Wednesday 4 December 2019

...तो सही थे मधु लिमए

डॉ. संजीव मिश्र
बात 1985 की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आए दिन दल-बदल व जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त रोकने के लिए 52वें संविधान संशोधन के रूप में दल-बदल विरोधी कानून की पहल की। उस समय समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने इस कानून की यह कहकर आलोचना की थी कि इससे थोक दल-बदल बढ़ेगा। तब देश के अधिकांश राजनीतिक दलों ने दल-बदल विरोधी कानून का समर्थन किया तो लगा कि देश में क्रांतिकारी बदलाव आएगा। अब सत्ता की शुचिता बरकरार रहेगी। दल-बदल बिल्कुल रुक जाएंगे। कुछ वर्षों तक ऐसा हुआ भी, किन्तु राजनीतिक दलों ने फिर से राह निकाल ली। अब थोक में दल-बदल के साथ इस्तीफे व दोबारा चुनाव के साथ पूरी-पूरी पार्टी के ही वैचारिक परिवर्तन जैसे रास्ते निकाल लिये गए हैं। इस समय भी देश उसी ऊहापोह से जूझ रहा है। कई बार तो लगता है कि मधु लिमए ही सही थे।
1985 में दल बदल कानून लागू होने पर कुछ ऐसा संदेश दिया गया था कि पूरी-पूरी पार्टी या उसकी बड़ी संख्या को तोड़ना थोड़ा कठिन होगा। इसीलिए उस समय अन्य राजनीतिक दलों व नेताओं ने इस कानून का समर्थन भी किया था। जिस तरह से विधायक व सांसद चुनाव बाद अपनी निष्ठाएं बदल देते थे, उससे सर्वाधिक कुठाराघात जनता की भावनाओं के साथ ही होता था। दल-बदल कानून लागू होने के बाद उम्मीद थी कि यह मनमानी रुकेगी। उसी समय प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने इस कानून को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की थीं। उन्होंने उसी समय चेताया था कि इस कानून से दल-बदल नहीं रुकेगा। उनका कहना था कि यह कानून छोटे-छोटे यानी फुटकर दल-बदल को तो रोकता है किन्तु थोक में हुए दल-बदल को वैधता प्रदान करता है। अब लग रहा है कि मधु लिमये की आशंकाएं गलत नहीं थीं। कहा जाए कि उनकी चिंता सही साबित हुई है तो गलत नहीं होगा। दल-बदल कानून बनने के कुछ सालों के भीतर ही स्पष्ट होने लगा था कि यह कानून अपने मकसद को पाने में नाकाम साबित हो रहा है। अब तो लगने लगा है कि इस कानून ने भारत के संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को भी हवा दी है।
जिस तरह पिछले कुछ वर्षों में दल-बदल का स्वरूप बदला है, उससे इन विकृतियों को लेकर सामाजिक चिंताएं भी बढ़ी हैं। हाल ही में महाराष्ट्र का घटनाक्रम इसका गवाह है। महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ, उसे कानूनी रूप से भले ही दल-बदल न माना जाए किन्तु वैचारिक दल-बदल तो है ही। शिव सेना ने जिस भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनाव लड़ा, चुनाव के तुरंत बाद भाजपा से मतभिन्नता और फिल अलगाव जैसी स्थितियां उत्पन्न हो गयीं। इसी तरह कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उस शिवसेना के साथ सरकार बना ली, जिसकी आलोचना करते हुए पूरा चुनाव लड़ा। ऐसे में जनता के साथ तो यह भी विश्वासघात माना जाएगा। जनता ने शिवसेना को इसलिए वोट दिया था क्योंकि वह वैचारिक रूप से भाजपा के साथ खड़ी थी। अब भाजपा से अलग होकर शिवसेना ने उस जनादेश को चुनौती दी है। इसी तरह भाजपा ने शिवसेना के साथ चुनाव लड़ते समय चुनाव बाद भी साथ रहने का वादा किया था, जिसे नहीं निभाया गया। निश्चित रूप से अब नए सिरे से ऐसी वादाखिलाफी पर भी अंकुश लगाए जाने की जरूरत है।
थोक में दल बदल का एक और स्वरूप कर्नाटक में भी सामने आया है। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनवाने के लिए कांग्रेस व जनता दल (एस) के 17 विधायकों ने अपनी पार्टियों की बात नहीं मानी और विधानसभा से गैरहाजिर होकर अपनी पार्टियों के साथ विश्वासघात किया। अब वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गयी है और इन 17 विधायकों की सीटों पर उपचुनाव हो रहा है। इस पर होने वाला खर्च सरकार को उठाना पड़ रहा है, जो जनता की जेब से ही करों के रूप में वसूला हुआ है। इसके अलावा बिना विधानसभा चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बनने वालों के लिए सीट छोड़ने की परंपरा भी खासी प्रचलित है। इस कारण होने वाले उपचुनाव का खर्च भी जनता की जेब से ही जाता है। ऐसे में यह समय एक बार फिर दल-बदल कानून पर पुनर्विचार का है। चुनाव पूर्व गठबंधनों की स्थिति में चुनाव बाद बदलाव की अनुमति न देने सहित दोबारा चुनाव की नौबत आने पर इसका खर्च इसके जिम्मेदार विधायकों से वसूलने जैसे प्रस्तावों पर भी विचार होना चाहिए। साथ ही ऐसी नौबत पैदा करने वालों के चुनाव लड़ने पर रोक जैसे प्रावधान भी लागू किये जाने चाहिए। देश की राजनीतिक व चुनावी शुचिता के लिए यह जरूरी भी है। ऐसा न होने पर राजनीतिक क्षेत्र से नए व अच्छे लोगों का जुड़ाव भी कठिन हो जाएगा।