Wednesday 26 February 2020

गांधी के भारत में मोदी के ट्रंप


डॉ.संजीव मिश्र
इसे दुर्योग ही कहेंगे कि जिस समय दुनिया के सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की राजधानी दिल्ली में शांति के पुजारी महात्मा गांधी की समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित कर रहे थे, उस समय तक दिल्ली के ही सात घरों के चिराग हिंसा की भेंट चढ़ चुके थे। गांधी के भारत में बीते दो दिन ट्रंप की यात्रा के साथ आंदोलन जनित हिंसा के लिए भी याद किये जाएंगे। ट्रंप ने जिस तरह साबरमती तट पर गांधी आश्रम से अपनी यात्रा की शुरुआत की और प्रधानमंत्री मोदी के साथ जोरदार केमिस्ट्री सामने आयी, उससे गांधी के भारत में मोदी के ट्रंप की इस यात्रा ने अलग तरह की चर्चाओं को तो जन्म दिया किन्तु दिल्ली की हिंसा ने स्थितियां चिंताजनक बना दी हैं। ट्रंप की भारत यात्रा कितनी देशहित में साबित होगी, यह तो समय के गर्भ में है किन्तु जलती दिल्ली पूरी दुनिया में हमारा चेहरा खराब कर रही है।
अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा की शुरुआत गांधी के चरणों से हुई है। अहमदाबाद के साबरमती आश्रम की विजिटर बुक में जिस तरह ट्रंप ने जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना महान दोस्त करार देते हुए वक्तव्य लिखा, किन्तु महात्मा गांधी के बारे में एक शब्द नहीं लिखा, उससे स्पष्ट है कि ट्रंप इस यात्रा में मोदीमय होकर आए हैं। बाद में सवा लाख से अधिक भारतीयों को संबोधित करते हुए जिस तरह ट्रंप ने स्वामी विवेकानंद व सरदार पटेल का जिक्र किया, ये दोनों नाम भी प्रधानमंत्री के वैचारिक अधिष्ठान के ज्यादा समीप नजर आते हैं। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत ने भी उनके स्वागत में कोई कसर नहीं उठा रखी है। यूं मोदी और ट्रंप की यह जुगलबंदी कुछ माह पूर्व अमेरिका में आयोजित हाउडी मोदी कार्यक्रम में भी नजर आई थी, किन्तु इसके असली परिणाम अगले कुछ माह में सामने आएंगे। दोनों देशों के बीच रक्षा व ऊर्जा क्षेत्र में व्यापार व खरीद-फरोख्त के समझौते के अलावा लोगों के बीच सीधे रिश्तों पर जिस तरह जोर दिया जा रहा है, उससे उम्मीदें तो बंध ही रही हैं।
ट्रंप ने इस यात्रा में खुलकर इस्लामिक आतंकवाद पर निशाना साधा है, इसे भी भारत की कूटनीतिक जीत माना जा सकता है। भारत से जाने के बाद भी ट्रंप अपने रुख पर कायम रहें, यह भी जरूरी है। ट्रंप की इस यात्रा और तमाम उम्मीदों-संभावनाओं के बीच दिल्ली हिंसा भी खतरनाक स्थितियों में पहुंच चुकी है। जिस तरह एक नेता  ने ट्रंप के जाने के बाद कुछ भी कर गुजरने की चेतावनी दी थी, उसके बाद ट्रंप के सामने ही हिंसा हो जाना दोनों पक्षों के अराजक रवैये का परिणाम है। दिल्ली में हुई हिंसा के पीछे जिम्मेदारी तय करने से पहले उन स्थितियों को लेकर जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए, जिन्होंने वातावरण खराब किया है। संसद में बने एक कानून के खिलाफ और समर्थन में जिद की पराकाष्ठा ने दिल्ली में हिंसा को जन्म दिया है। शाहीनबाग सहित दिल्ली ही नहीं देश के कई हिस्सों में चल रहे प्रदर्शनों में जिस तरह के भाषण दिये गए हैं, उसके बाद तनावपूर्ण स्थितियां तो पहले ही बनी हुई थीं। समय पर इस ओर ध्यान न दिये जाने के कारण स्थितियां हिंसक आंदोलन में तब्दील हो गयीं।
दरअसल नागरिकता संशोधन कानून संसद से पास होने के बाद इसके विरोधी जिस तरह जिद पर अड़े हैं, वे देश-दुनिया व समाज की परवाह तक नहीं कर रहे हैं। ठीक उसी तरह इस कानून के समर्थक भी जिद्दी नजर आ रहे हैं। सरकार व सरकार से जुड़े लोग साफ कह चुके हैं कि वे कानून वापसी पर विचार तक नहीं करेंगे, वहीं आंदोलनकारी कानूनवापसी तक आंदोलन चलाए रखने की जिद पर अड़े हैं। दोनों तरफ से यह जिद खत्म होनी चाहिए, किन्तु ऐसा होने के स्थान पर अब यह जिद जनता के बीच तक पहुंच गयी है। इस जिद में सर्वोच्च न्यायालय तक मामला तो पहुंचा किन्तु कोई सीधा फैसला सामने नहीं आया। आतंकवाद व अराजकता का एक अलग नमूना दिल्ली में साफ नजर आ रहा है। जिस तरह एक पुलिसकर्मी की हत्या की गयी और बवाल करने वालों के हाथों में हथियार दिखे हैं, उससे यह पूरा बवाल नियोजित प्रतीत होता है। शांतिपूर्ण आंदोलन का दावा करने वालों के हाथ से यह आंदोलन हथियार रखने वालों के हाथ में पहुंच जाना भी दुर्भाग्यपूर्ण है। अगले कुछ दिनों में हम ट्रंप के दौरे को तो भूल जाएंगे किन्तु गांधी के देश में हिंसक आंदोलनों की स्थितियां हमेशा के लिए घाव दे जाएंगी। इस पर तुरंत नियंत्रण की जरूरत है, ट्रंप के मन में जगह बनाने से ज्यादा जरूरी जनता के बीच आपसी भरोसा बढ़ाना है। इस पर काम किया जाना चाहिए।

Wednesday 19 February 2020

सेना में महिलाओं का ‘सुप्रीम’ सम्मान, संसद में कब?

डॉ.संजीव मिश्र
सर्वोच्च न्यायालय ने सेना में महिलाओं के लिए स्थायी कमीशन को मंजूरी देने के साथ ही देश की रक्षा में उनके योगदान को ‘सुप्रीम’ सम्मान दिया है। इससे सेना में महिलाओं का न सिर्फ सम्मान बढ़ेगा, बल्कि देश में लैंगिक समानता की दृष्टि से नया अध्याय भी लिखा जाएगा। लैंगिक समानता व महिला सम्मान का यह मसला सैन्य दृष्टि से स्वीकार्यता के अध्याय लिख देगा, किन्तु देश की महिलाओं को संसद में अब भी इस सम्मान की प्रतीक्षा है। लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण के लिए दशकों से चल रहे प्रयास फलीभूत नहीं हो रहे हैं। ऐसे में संसद के गलियारों से महिलाओं के लिए भागीदारी के कानून की प्रतीक्षा कब समाप्त होगी, यह सवाल यक्ष प्रश्न बन गया है।
सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में देश की रक्षा में अपना सर्वस्व समर्पण का भाव रखने वाली महिलाओं को पुरुषों की भांति स्थायी कमीशन देने का आदेश जारी किया है। इससे महिलाओं के सेना में उच्च पदों तक पहुंचने का पथ प्रशस्त होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं को सैन्य कमान का नेतृत्व संभालने के लिए भी उपयुक्त माना है। ऐसे में अब उम्मीद की जानी चाहिए कि महिलाएं कमांड पोस्ट की जिम्मेदारी संभालते हुए यानी सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए अपने शौर्य का अद्भुत प्रदर्शन करती दिखाई देंगी। महिलाएं वैसे भी लगातार समानता के अधिकार के लिए संघर्षरत हैं। ऐसे में शौर्य की प्रतीक महिलाओं को सेना में महत्व मिलने से उनका हौसला बढ़ेगा। महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपनी विशिष्टता साबित की है। सेना एकमात्र क्षेत्र रहा है, जहां महिलाओं के अधिकारों व संभावनाओं को सीमित कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद न सिर्फ उन्हें सैन्य क्षेत्र के असीमित आकाश में संभावनाओं के द्वार खोलकर उड़ने का मौका मिलेगा, बल्कि वे सफलताओं के नए प्रतिमान स्थापित कर सकेंगी। सेना में मिले अवसर सार्वजनिक रूप से महिलाओं के लिए समानता के द्वार भी खोलेंगे।
सेना में तो महिलाओं के सम्मान की राह सर्वोच्च न्यायालय ने खोल दी है किन्तु देश की संसद व विधानमंडलों में महिलाओं के आरक्षण की मांग दशकों से लंबित चली आ रही है। देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आने के पहले संसद व विधानमंडलों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिये जाने की बात करती रही है, किन्तु केंद्र में सत्ता की लगातार दूसरी पारी के बावजूद इस दिशा में सकारात्मक निर्णय नहीं हो सका है। देश की राजनीति में 1974 से इस मुद्दे पर चर्चा हो रही है। 1993 में स्थानीय निकायों में तो महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दी गयीं किन्तु संसद व विधानमंडलों में आरक्षण पर अब तक सफलता नहीं मिली है। 1996 में तत्कालीन एचडी देवेगौड़ा सरकार ने संसद में इस आशय का विधेयक प्रस्तुत किया था, किन्तु सरकार ही गिर गयी। भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने पर 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर यह विधेयक लोकसभा में पेश किया गया किन्तु सफलता नहीं मिली। 1999, 2002 और 2003 में बार-बार विफलताओं के बाद 2008 में लोकसभा व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण से जुड़ा विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया, जो दो साल बाद 2010 में पारित भी हो गया किन्तु महिलाओं का सम्मान सुनिश्चित करने में लोकसभा एक बार फिर हार गयी। तब से अब तक इस मसले पर राजनीतिक दलों  में लुकाछिपी जैसा खेल चल रहा है और कोई सकारात्मक प्रयास होते नहीं दिख रहे हैं।
मौजूदा केंद्र सरकार से एक बार फिर महिलाओं को बड़ी उम्मीदें जगी हैं। जिस तरह से तमाम विरोध के बावजूद सरकार ने तीन तलाक पर पाबंदी, नागरिकता संसोधन विधेयक और कश्मीर से धारा 370 के प्रावधान हटाने जैसे बड़े फैसले ले लिये, उसके बाद महिलाओं को आरक्षण देने का फैसला लेना इस सरकार के लिए कठिन होगा, यह कहना उपयुक्त नहीं लगता। जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी बड़े-बड़े फैसले ले रही है, महिलाएं चाहती हैं कि संसद व विधानमंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण का फैसला भी येन-केन प्रकारेण ले ही लिया जाना चाहिए। दरअसल पुरुष प्रधान समाज में तमाम राजनीतिक दल चाहते ही नहीं हैं कि महिलाएं राजनीति में आगे आएं। उन्हें पता है कि महिलाओं ने जिस क्षेत्र में कदम बढ़ाए हैं, वहां सफलता के झंडे लहरा दिये हैं। ऐसे में राजनीति में महिलाएं आईं तो न सिर्फ समाज में उनका वर्चस्व घटेगा, बल्कि महिलाएं सफलतापूर्वक उनका नेतृत्व कर उन्हें पीछे छोड़ देंगी। ऐसे में यह उपयुक्त समय है कि सरकार उनकी प्रतीक्षा समाप्त करे और संसद व विधानमंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण की सौगात देकर देश की राजनीति को नई दिशा देने का पथ प्रशस्त करे। 

Wednesday 12 February 2020

काम वाली राजनीति की हैट्रिक


डॉ.संजीव मिश्र
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे देश की राजनीति को एक नई दिशा देने वाले साबित हो सकते हैं। दिल्ली के चुनाव तमाम उतार-चढ़ाव के बीच हंगामे और खींचतान के साथ परवान चढ़े थे। काम के साथ धर्म ही नहीं देश-विदेश के हस्तक्षेप तक पहुंची दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी की जीत काम वाली राजनीति की हैट्रिक के रूप में सामने आई है। इस चुनाव में जिस तरह राजनीतिक दलों ने वोट पाने के लिए कोई हथकंडा बाकी नहीं रखा, उस समय काम की बातें करने वाली आम आदमी पार्टी का जीतना देश के सभी राजनीतिक दलों को संदेश देने वाला भी है।
देश में आम आदमी पार्टी के उदय के बाद पहले उसे वन एलेक्शन वंडर माना गया, किन्तु 2015 में जिस तरह आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की 70 में से 67 सीटें जीत लीं, उसके बाद आम आदमी पार्टी को देश की उम्मीद भी माना जाने लगा। आम आदमी पार्टी ने भी पंजाब से लेकर देश के कई राज्यों में सरकार बनाने के सपने देखने शुरू कर दिये थे। राज्यों के स्तर पर आम आदमी पार्टी अपेक्षित सफलता तो पा ही नहीं सकी, दिल्ली के नगर निगम चुनावों से लेकर पिछले वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में तो आम आदमी पार्टी खासी पिछड़ गयी। भारतीय जनता पार्टी व कांग्रेस के लिए उम्मीदों की किरण भी इसीलिए जगी थी, किन्तु जिस तरह विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का परचम लहराया है, उससे साफ हो गया है कि दिल्ली की जनता लोकतंत्र के तीनों स्तरों पर अलग-अलग राजनीतिक फैसले ले चुकी है। नगर निगम भाजपा को सौंपने के साथ ही दिल्ली ने देश की कमान तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपने का फैसला लिया, किन्तु सूबे के लिए दिल्ली को अरविंद केजरीवाल ही अच्छे लगे। दिल्ली की यही पसंद सभी राजनीतिक दलों की आंखें खोलने वाली है।
दिल्ली की सत्ता संभालने वाली आम आदमी पार्टी देश की राजनीति को नई दिशा देने की बातों के साथ अस्तित्व में आई थी। तमाम आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच इस बार के दिल्ली विधानसभा चुनाव इस राजनीतिक परिवर्तन का लिटमस टेस्ट भी थे। अब यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि दिल्ली की जनता ने आम आदमी पार्टी को इस लिटमस टेस्ट में सकारात्मक परिणाम दिये हैं। जिस तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने चुनाव अभियान शुरू होते ही काम के आधार पर वोट मांगने की बात कही थी, उससे साफ था कि केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली की सरकार वोट मांगने के तौर-तरीके बदलने वाली है। केजरीवाल ने जनता से साफ कहा कि यदि उन्होंने पांच साल में काम न किया हो, तो उन्हें वोट न दिया जाए। ऐसे में काम न करने पर वोट नकारने वाले मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल ने संपूर्ण राजनीतिक विमर्श को ही नई दिशा दे दी। केजरीवाल ने दिल्ली के चुनाव अभियान के दौरान धार्मिक व क्षेत्रीय ध्रुवीकरण न होने देने के लिए भी खासी मशक्कत की। यही कारण है कि केजरीवाल ने न सिर्फ शाहीनबाग से दूरी बनाए रखी, बल्कि धर्म व जाति के स्थान पर स्कूल व अस्पताल के नाम पर वोट मांगे।
दिल्ली के चुनाव में सत्ता का संघर्ष इस बार जिस कदर खतरनाक स्तर तक कुछ भी कर गुजरने जैसा नजर आया, वह देश की संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था के लिए अच्छे संकेत लिए नहीं था। जिस तरह समग्र राजनीतिक विमर्श को विभाजन की पराकाष्ठा तक पहुंचाया गया, बयानवीर नेताओं ने अपनी जुबान को नियंत्रण से बाहर कर दिया और वोट के लिए अराजकता की हदें पार कर ली गयीं, वह स्थिति कतई अच्छी नहीं कही जा सकती। हालात ये हो गए कि दिल्ली का चुनाव सरहद पार पाकिस्तान तक पहुंच गया और पाकिस्तान के एक मंत्री के बयान पर यहां भी बयानबाजी शुरू हो गयी। इन सबके बावजूद आम आदमी पार्टी की जीत देश के सभी राजनीतिक दलों के लिए सबक वाली भी है। शाहीन बाग से लेकर राजनीति के तमाम आयामों के बीच जिस तरह आम आदमी पार्टी ने अपना पूरा चुनाव अभियान मोहल्ला क्लीनिक के बहाने स्वास्थ्य और स्कूलों की स्थिति सुधारने के बहाने शिक्षा पर केंद्रित कर दिया। मुफ्त बिजली-पानी के साथ अगले पांच साल में कामकाज और सुधारने का गारंटी कार्ड देने वाले केजरीवाल ने देश की चुनावी राजनीति में विकास व काम को मील के पत्थर के रूप में स्थापित किया है। केजरीवाल की यह जीत इसलिए भी बड़ी है क्योंकि उनका मुकाबला लगातार हार रही कांग्रेस से न होकर जीत के लिए सर्वस्व झोंकने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी से था। मोदी-शाह की जोड़ी न सिर्फ चुनावी जीत के लिए खुद को झोंकती है, बल्कि कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ाती है। ऐसे में यह चुनाव भाजपा के लिए भी तमाम संदेश सहेजे है। भाजपा को अब राज्यों के स्तर पर अपनी रणनीति बदलनी होगी और रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा व विकास पर फोकस करना होगा। वहीं आम आदमी पार्टी नेतृत्व को भी अब दोहरी जिम्मेदारी के साथ राजनीति करनी होगी, ताकि भविष्य में वह दिल्ली से बाहर निकलकर देश के लिए भी राजनीतिक विकल्प बन सके।

Wednesday 5 February 2020

...क्योंकि ये सिर्फ बच्चे हैं, वोटर नहीं


डॉ.संजीव मिश्र
बात एक फरवरी की है। तेरह साल का अनन्य शाम को टीवी पर अपना मनपसंद कार्टून चैनल देखना चाहता था, किन्तु पापा ने मना कर दिया। पापा चैनल बदल-बदल कर बजट समझने की कोशिश कर रहे थे। इस पर थोड़ा गुस्साए अनन्य ने सवाल किया, पापा बजट क्या होता है? पापा ने बजट के बारे में समझाया तो बोला, इसमें बच्चों पर कितना खर्च होगा? इस मासूम सवाल का जवाब पापा के पास नहीं था। उस समय तो अनन्य को झिड़क दिया गया कि तुम पढ़ाई पर फोकस करो, किन्तु यह सवाल लगातार घुमड़ रहा है। बजट में बच्चे कहां हैं? उनकी हिस्सेदारी क्यों पिछड़ती जा रही है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब मिल ही नहीं रहे हैं। वे सिर्फ बच्चे हैं, वोटर नहीं है, इसलिए सरकारें भी उनकी चिंता नहीं करतीं।
बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। ऐसे में कोई भी योजना बनाते समय भविष्य की नींव मजबूत करने की बात जरूरी है, किन्तु देश में ऐसा नहीं हो रहा है। बच्चों के लिए बजट में किये जाने वाले प्रावधान पिछले कुछ वर्षों से लगातार कम होते जा रहे हैं। यदि कुल बजट में बच्चों की हिस्सेदारी को आधार बनाया जाए तो वर्ष 2012-13 में बच्चों के लिए कुल बजट का 5.04 प्रतिशत आवंटित किया गया था, जौ मौजूदा वर्ष में घटकर 3.29 प्रतिशत पहुंच गया है। वर्ष-दर वर्ष बच्चों के लिए प्रस्तावित खर्च में कटौती आयी है। देश के बजट आवंटन के आधार पर देखा जाए तो वर्ष 2013-14 में बच्चों के लिए कुल बजट का 4.65 प्रतिशत धन आवंटित हुआ था, जो 2014-15 में घटकर 4.20 प्रतिशत हो गया। वर्ष 2015-16 में यह और घटकर 3.23 प्रतिशत रह गया। वर्ष 2016-17 में बच्चों की बजट हिस्सेदारी में आंशिक वृद्धि हुई और उन पर कुल बजट की 3.35 प्रतिशत धनराशि खर्च करने का फैसला किया गया। इस अपर्याप्त हिस्सेदारी को वर्ष 2017-18 में फिर घटाकर 3.30 प्रतिशत व वर्ष 2018-19 में 3.31 प्रतिशत कर दिया गया। बजट में बच्चों की इस घटती हिस्सेदारी की बड़ी वजह उनकी आवाज न होना माना जा रहा है। समाज के अन्य हिस्सों की आवाजें तो किसी न किसी तरह से सरकारों तक पहुंचती हैं किन्तु बच्चों की चिंता करने वाले भी बजट में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाने की वकालत करते नहीं दिखते। वे वोटर भी नहीं होते, ताकि अपनी उपेक्षा करने वाली सरकारों को वोट से जवाब दे सकें।
पिछले दो वर्षों से देश के वित्तीय नियोजन की जिम्मेदारी एक महिला के हाथ में है। पिछले दो वर्षों से बजट देश की पूर्णकालिक महिला वित्त मंत्री द्वारा पेश किया जा रहा है। एक महिला होने के नाते वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन से बच्चों के लिए विशेष प्रावधानों की उम्मीद थी। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू ये है कि ऐसा संभव न हो सका। यह स्थिति तब है, जबकि देश के कई राज्यों में बच्चों के लिए अलग बजट जैसे प्रावधानों पर चर्चा हो रही है। हाल ही में कर्नाटक की सरकार ने वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए अपने प्रस्तावित बजट से अलग बच्चों के लिए विशेष बजट प्रस्तुत करने की तैयारी की है। इसके लिए विभिन्न विभागों से बच्चों पर केंद्रित योजनाओं व कार्यक्रमों को चिह्नित करने के निर्देश भी दिये जा चुके हैं। कर्नाटक में यदि बच्चों के लिए अलग बजट पेश किया गया तो ऐसा करने वाला वह देश का चौथा राज्य होगा। केरल व असम में पहले से ही बच्चों के लिए अलग बजट पेश किया जाता है। मौजूदा वित्तीय वर्ष में बिहार भी इस दिशा में पहल कर चुका है। ऐसे में केंद्रीय स्तर पर बच्चों के लिए विशेष बजट जैसी पहल कर देश के सभी राज्यों को सकारात्मक संदेश दिये जाने की जरूरत है। दरअसल जब बच्चों के लिए अलग बजट की बात होती है, तो उसका आशय दो दर्जन से अधिक विभागों से जुड़ी उन लगभग आठ दर्जन योजनाओं से है जो देश की चालीस प्रतिशत आबादी यानी बच्चों की चिंता से जुड़ी होती हैं। इन योजनाओं में शिक्षा व स्वास्थ्य पर सर्वाधिक ध्यान देने की जरूरत है। सरकारों के बड़े-बड़े दावों के बावजूद देश में बाल मृत्यु दर पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। देश के एक तिहासी से अधिक बच्चे आज भी कुपोषण का शिकार हैं। बच्चे घर से बाहर तक असुरक्षित हैं। इन सब स्थितियों के बावजूद बच्चे सरकारों की वरीयता में नहीं हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। हमें अपनी नींव मजबूत करनी होगी, तभी बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर सामने आ सकेगी।