Saturday 26 December 2020

...तो नाली-सड़क की चिंता कौन करेगा?

डॉ.संजीव मिश्र

बात पिछले वर्ष जुलाई माह की है। भारतीय जनता पार्टी की सांसद साध्वी प्रज्ञा ने कहा था कि वे नाली व शौचालय साफ करने के लिए सांसद नहीं बनी हैं। इसको लेकर खासी चर्चा तो हुई थी, किन्तु यह तथ्य बहुत गलत नहीं माना गया था। दरअसल ये काम स्थानीय निकायों के जिम्मे हैं और सांसदों-विधायकों के हस्तक्षेप से उन निकायों के प्रतिनिधियों के कामकाज में रुकावट आती है। साध्वी प्रज्ञा ने यह बयान भले ही दे दिया हो, किन्तु अब हर चुनाव को राष्ट्रीय चश्मे से देखा जाने लगा है। अब नगर निगम व जिला परिषद चुनावों को भी राष्ट्रीय नेतृत्व की नीतियों का परिणाम माना जाने लगा है। यह स्थितियां लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण की दृष्टि से अच्छी नहीं मानी जा सकतीं। यदि हैदराबाद से जम्मू-कश्मीर तक, स्थानीय चुनाव भी राष्ट्रीय मुद्दों वाले चुनाव हो जाएंगे तो स्थानीय समस्याओं के प्रति जवाबदेही भी घटेगी। ऐसे में यह सवाल उठना अवश्यंभावी है कि नाली-सड़क की चिंता कौन करेगा?

ग्राम पंचायत चुनाव हो या देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी लोकसभा का चुनाव हो, देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को इन चुनावों के प्रति गंभीर होना चाहिए, इसमें कोई संशय नहीं है। यहां जरूरी यह है कि स्थानीय स्तर के चुनावों में मुद्दे भी स्थानीय स्तर के होने चाहिए। जम्मू-कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति के बाद हाल ही में जिला विकास परिषदों के चुनाव कराए गए। इन चुनावों में कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी के अलावा स्थानीय दलों ने गुपकार गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा। इन चुनावों के परिणाम की खास बात यह है कि उनसे सभी लोग खुश नजर आ रहे हैं। इस खुशी के पीछे का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि स्थानीय विकास की अवधारणा सामने रखकर जिला विकास परिषदों के गठन की बात तो कही गयी किन्तु चुनाव परिणाम आने के बाद हर राजनीतिक दल इन परिणामों के राष्ट्रीय निहितार्थ तलाश रहा है। चुनाव परिणाम भी बहुत अधिक चौंकाने वाले नहीं कहे जा सकते। जम्मू व आसपास के इलाकों में भारतीय जनता पार्टी आगे रही है तो कश्मीर घाटी में गुपकार गठबंधन ने विजयध्वजा फहराई है। कश्मीर घाटी में जीतने के बाद महबूबा मुफ्ती व उमर अब्दुल्ला सहित गुपकार गठबंधऩ के सभी नेता इन चुनाव परिणामों को धारा 370 समाप्ति की अस्वीकार्यता के रूप में परिभाषित कर रहे हैं। इसके विपरीत घाटी में पहली बार तीन सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी चुनाव परिणामों को अपनी स्वीकार्यता के रूप में परिभाषित कर रही है। कांग्रेस सहित भाजपा विरोधी दलों के नेता भारतीय जनता पार्टी के घाटी में महज तीन सीटों पर सिमटने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों के विरोध में जनादेश मान रहे हैं, वहीं भाजपा के नेता समग्र जम्मू-कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों की जीत करार दे रहे हैं। इस खींचतान के परिणाम स्वरूप जिला स्तर का चुनाव राष्ट्रीय नीतियों के शोर में दब सा गया है।

स्थानीय चुनावों को राष्ट्रीय मुद्दों से जोड़कर वातावरण निर्माण की कोशिश कोई पहली बार नहीं हो रही है। पिछले कुछ वर्षों से स्थानीय चुनावों को राष्ट्रीय बनाकर प्रस्तुत करने और फिर पूरा वातावरण बदल देने की कोशिशें चल रही हैं। हाल ही में हैदराबाद के नगर निगम चुनावों को जिस तरह राष्ट्रीय रूप दिया गया, वह भी ऐसी ही कोशिशों का हिस्सा था। हैदराबाद नगर निगम चुनावों को भारतीय जनता पार्टी ने एक तरह से प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। यही कारण है कि वहां नगर निगम चुनाव के लिए चुनाव प्रचार करने भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ही नहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक को भेजा गया। वहां पार्षद की जीत को प्रधानमंत्री की नीतियों की जीत बनाकर प्रस्तुत किया गया। ऐसे में यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि यदि हैदराबाद नगर निगम का पार्षद प्रधानमंत्री की नीतियों के कारण जीत सकता है, तो कश्मीर घाटी के जिला विकास परिषद के सदस्य के रूप में भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी की हार को किस रूप में स्वीकार किया जाए।

स्थानीय चुनावों का राष्ट्रीयकरण लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण की मूल भावना के विपरीत ही है। पंचायती राज की स्थापना के पीछे विधानसभा व लोकसभा से हटकर स्थानीय विकास का नियोजन स्थानीय स्तर पर करना ही रहा है। नगर निगम व पंचायत चुनावों के मुद्दे भी इसीलिए स्थानीय ही रहने चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह पंचायतों से लेकर जिला व नगर स्तरीय निकायों के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों पर फोकस किया जाने लगा है, वह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र की स्थापना के भाव के साथ खिलवाड़ करना भी है। स्थानीय चुनावों के राष्ट्रीयकरण से ये चुनाव महंगे भी हो रहे हैं। जिस तरह अब एक सामान्य व्यक्ति विधानसभा या लोकसभा चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकता, क्योंकि इन चुनावों में प्रत्याशिता का मतलब करोड़ों रुपये खर्च के रूप में सामने आता है। उसी तरह यदि स्थानीय चुनावों में राष्ट्रीय हस्तक्षेप कम न हुआ तो ये चुनाव भी महंगे हो जाएंगे। इसके बाद स्थानीय स्तर पर नियमित सक्रिय रहने वालों के लिए ये चुनाव लड़ना खासा कठिन हो जाएगा। इस पर सबको मिलकर विचार करना होगा, वरना इतनी देर हो जाएगी कि हम स्थितियां संभाल नहीं पाएंगे।

Friday 18 December 2020

2020 संग कलाम के सपनों की विदाई !!

डॉ.संजीव मिश्र 

वर्ष 2020 की शुरुआत के साथ ही हमने इक्कीसवीं शताब्दी के बीसवें वर्ष की यात्रा शुरू कर दी थी। भारत में बीसवीं शताब्दी की समाप्ति से पहले से ही वर्ष 2020 बेहद चर्चा में था। दरअसल भारत रत्न डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम ने बदलते भारत के लिए वर्ष 2020 तक व्यापक बदलाव का सपना देखा था। इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बाद भी उन सपनों को विस्तार दिया गया। ऐसे में 2020 के स्वागत के साथ हमें कलाम के तमाम सपने भी याद आए। अब 2020 की विदाई की बेला आई है और साथ ही कलाम के सपने भी विदा हो रहे हैं। कोरोना संकट और शाहीनबाग से किसान आंदोलन तक की यात्रा सहेजे इस वर्ष ने अर्थव्यवस्था की चुनौतियों, देश के सर्वधर्म सद्भाव के बिखरते ताने-बाने की चिंताओं और देश की मूल समस्याओं से भटकती राजनीति को विस्तार ही दिया है। इसके परिणास्वरूप कलाम के सपने बिखर से गए हैं।

वर्ष 2020 की शुरुआत में ही देश संभावनाओं के साथ चुनौतियों की पूरी फेहरिश्त लिए खड़ा था।  पूरी दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बनने का स्वप्न लेकर चल रहा भारत अर्थव्यवस्था की कमजोरी से जुड़े संकटों का सामना कर रहा था। बेरोजगारी ने पिछले कुछ वर्षों में कई नये पैमाने गढ़े ही थे, ऊपर से कोरोना का संकट आ गया। रोजगार के अवसर पहले ही कम हुए थे और तमाम ऐसे लोग बेरोजगार होने को विवश हुए, जो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे। इन चुनौतियों के स्थायी समाधान पर चर्चा व विमर्श तो दूर की बात है, पूरे देश में धार्मिक सद्भाव के ताने-बाने में बिखराव के दृश्य आम हो गए हैं। कहीं लव जेहाद के नारे लग रहे हैं, तो कहीं धार्मिक राजनीतिक ध्रुवीकरण कर संविधान के मूल भाव को चुनौती दी जा रही है।  हमारी चर्चाएं हिन्दू-मुस्लिम केंद्रित हो चुकी हैं। कोरोना संक्रमण के दौर में कारणों की पड़ताल तक धर्म आधारित हो गयी थी।

डॉ.कलाम ने वर्ष 2020 तक भारत की जिस यात्रा का स्वप्न देखा था, उसमें हम काफी पीछे छूट चुके हैं। कलाम ने इक्कीसवीं सदी के शुरुआती बीस वर्षों में ऐसे भारत की कल्पना की थी, जिसमें गांव व शहरों के बीच की दूरियां खत्म हो जाएं। ग्रामीण भारत व शहरी भारत की सुविधाओं में तो बराबरी के प्रयास नहीं किये, गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ाया। खेती पर फोकस न होने से कृषि क्षेत्र से पलायन बढ़ा, जिससे गांव खाली से होने लगे। कलाम ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जहां कृषि, उद्योग व सेवा क्षेत्र एक साथ मिलकर काम करें। वे चाहते थे कि भारत ऐसा राष्ट्र बने, जहां सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों के कारण किसी की पढ़ाई न रुके। 2020 के समाप्त होने तक तो हम इस परिकल्पना के आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैं, ऐसे में चुनौतियां बढ़ गयी हैं। किसान से लेकर विद्यार्थी तक परेशान हैं और उनकी समस्याओं के समाधान का रोडमैप तक ठीक से सामने नहीं आ पाया है।

कलाम के सपनों का भारत 2020 तक ऐसा बन जाना था, जिसमें दुनिया का हर व्यक्ति रहना चाहता हो। उन्होंने ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी, जो विद्वानों, वैज्ञानिकों व अविष्कारकों की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ निवास स्थान बने। इसके लिए वे चाहते थे कि देश की शासन व्यवस्था जवाबदेह, पारदर्शी व भ्रष्टाचारमुक्त बने और सभी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य सुविधाएं समान रूप से उपलब्ध हों। ये सारी स्थितियां अभी तो दूरगामी ही लगती हैं। देश आपसी खींचतान से गुजर रहा है। यहां स्वास्थ्य सेवाएं आज भी अमीरों-गरीबों में बंटी हुई हैं। नेता हों या अफसर, न तो सरकारी अस्पतालों में इलाज कराना चाहते हैं, न ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई पहले अधिक चौड़ी हो गयी है। यह स्थिति तब है कि वर्ष 2020 के लिए अपने सपनों को साझा करते हुए उन्होंने देश को गरीबी से पूरी तरह मुक्त करने का विजन सामने रखा था। वे कहते थे कि देश के 26 करोड़ लोगों को गरीबी से मुक्त कराना, हर चेहरे पर मुस्कान लाना और देश को पूरी तरह विकसित राष्ट्र बनाना ही हम सबका लक्ष्य होना चाहिए। वे इसे सबसे बड़ी चुनौती भी मानते थे। उनका कहना था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें साधारण मसलों को भूलकर, एक देश के रूप में सामने आकर हाथ मिलाना होगा। कलाम ने ऐसे भारत का स्वप्न देखा था, जिसके नागरिकों पर निरक्षर होने का कलंक न लगे। वे एक ऐसा राष्ट्र चाहते थे जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से पूरी तरह मुक्त हो और समाज का कोई भी व्यक्ति खुद को अलग-थलग महसूस न करे। कलाम के विजन 2020 का यह वह हिस्सा है, जो पिछले कुछ वर्षों में सर्वाधिक आहत हुआ है। साक्षरता के नाम पर हम शिक्षा के मूल तत्व से दूर हो चुके हैं। महिलाओं व बच्चों का सड़क पर निकलना दूभर हो गया है। वे असुरक्षित हैं और यह बार-बार साबित हो रहा है। समाज में जुड़ाव के धागे कमजोर पड़ चुके हैं और न सिर्फ कुछ व्यक्ति, बल्कि पूरा समाज ही अलगाव के रास्ते पर है। ऐसे में 2020 के बाद ही सही, हमें विचार करना होगा कि हम कलाम के दिखाए सपने और उस लक्ष्य से कितना पीछे रह चुके हैं। हमें मिलकर उस सपने को साकार करने के लिए कदम उठाने होंगे।


Friday 4 December 2020

अविश्वास व डर तो दूर करो सरकार

डॉ.संजीव मिश्र

कभी सीएए और एनआरसी से डरे लोग एक सड़क जाम कर बैठ जाते हैं और देश का बड़ा हिस्सा उनके साथ खड़ा दिखता है। कभी अपनी खेती जाने और कृषि कार्य में संकट बढ़ जाने का डर बताते किसान दिल्ली सीमा पर सड़क जाम कर बैठ जाते हैं और फिर देश का वही हिस्सा उनके साथ खड़ा दिखता है। दोनों स्थितियों मे देश का दूसरा बड़ा हिस्सा इन आंदोलनों के विरोध में जुट जाता है। वह भी इस हद तक कि देश के युवा हों या किसान, सब उन्हें आतंकवादी तक लगने लगते हैं। जाम लगाने वाले व आंदोलन करने वालों के बीच भी कुछ ऐसे लोग पहुंच जाते हैं, जो इस डर को दहशत में तब्दील करने का अवसर दे देते हैं। यह स्थितियां देश के भीतर वैचारिक विभाजन से ऊपर मानसिक विभाजन की स्थितियां सृजित कर रही हैं। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह देश की जनता के मन में किसी भी तरह का अविश्वास न रहने दे और हर प्रकार का डर दूर करे। मौजूदा स्थितियों में भी किसानों के मन से डर निकालकर अन्नदाता के साथ विश्वास का रिश्ता कायम किया जा सकता है।

पिछले एक सप्ताह से देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर किसानों ने डेरा डाल रखा है। दिल्ली पहुंचने से पहले जो आंदोलन किसानों के समग्र विरोध का परिणाम लग रहा था, दिल्ली पहुंचते ही इस आंदोलन के साथ लोग शाहीन बाग को याद करने लगे हैं। जिस तरह शाहीन बाग में महिलाएं डेरा डालकर बैठी थीं और केंद्र सरकार विरोधी उस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे, उसी तरह किसान आंदोलन भी नजर आने लगा है। फर्क सिर्फ इतना है कि शाहीन बाग आंदोलन के दौर में केंद्र सरकार वार्ता के लिए इस हद तक उत्साहित नहीं नजर आ रही थी, जिस तरह से इस बार प्रयास हो रहे हैं। सरकार और किसानों के बीच बातचीत की पहल भले ही हुई हो किन्तु देश एक बार फिर दो हिस्सों में बंटा नजर आ रहा है। जिस तरह से शाहीनबाग में नारेबाजी के कुछ वीडियो आंदोलनकारियों को देशद्रोही साबित करने की कोशिश का सबब बने थे, उसी तरह किसान आंदोलन के दौरान एक वीडियो आंदोलनकारियों को खालिस्तानी तक साबित करने का कारण बन गया है। किसी भी आंदोलन की इस तरह की विभाजनकारी परिणति देश के लिए चिंताजनक है और इस समय वही स्थितियां साफ नजर आ रही हैं। सोशल मीडिया इसमें और तेजी से आग लगाने का काम कर रहा है।

दोनों स्थितियों में भय व अविश्वास सबसे महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। शाहीनबाग के आंदोलनकारियों के मन में अपनी नागरिकता बची रहने का भय व्याप्त था और वे इसे ही मुद्दा बनाकर आंदोलन कर रहे थे। अब किसानों को अपनी फसल के लिए उचित मूल्य न मिल पाने और बड़े उद्योगपतियों द्वारा उनका हक मारे जाने का डर सता रहा है। दोनों स्थितियों में सरकारी मशीनरी डरे लोगों का डर भगा पाने में सफल नहीं हुई और आंदोलन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गए। किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह कनाडा सरकार तक से आवाज उठाई गयी है, यह स्थिति चिंताजनक है। किसानों को लगता है कि भारत सरकार द्वारा उनके हित में बताया जा रहा कानून दरअसल उनके खिलाफ लाया गया है। उन्हें डर है कि इस कानून की आड़ में बड़े उद्योगपति किसानों का हक मार लेंगे। वे अपनी फसलों को वाजिब दाम दिलाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था समाप्त करने की संभावना से डरे हुए हैं। यह डर इस कदर है कि स्वयं प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था समाप्त नहीं होने जा रही थी, फिर भी वे विश्वास नहीं कर पा रहे हैं।

किसानों की मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीद को अपराध घोषित करे और न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर सरकारी खरीद को चालू रखा जाए। प्रधानमंत्री से लेकर कृषि मंत्री तक बार-बार न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था जारू रखने और सरकारी खरीद बंद न होने की बात कर रहे हैं। इसके बावजूद किसानों को सरकार पर विश्वास ही नहीं हो रहा है। उनका कहना है कि सरकार हाल ही में लाए कृषि सुधार कानूनों में संशोधन कर इस व्यवस्था को उन कानूनों का हिस्सा बनाएं और सरकार इस पर तैयार नहीं हो रही है। पंजाब से शुरू हुआ आंदोलन देश भर में धीरे-धीरे विस्तार ले रहा है। कोरोना के संकट से जूझ रहा देश किसान आंदोलन से उत्पन्न संकट का संत्रास भी बर्दाश्त कर रहा है। इसके पीछे अविश्वास की स्थितियां होना भी खतरनाक है। अब किसानों व सरकार के बीच अविश्वास की खाईं भरी जानी चाहिए। यदि नए कानून वास्तव में किसानों के हित में हैं तो उन्हें यह बात समझाई जानी चाहिए। साथ ही किसानों की जायज मांगों को कानून का हिस्सा बनाने जैसी पहल भी होनी चाहिए, ताकि उनका भरोसा बढ़े। डर हमेशा खतरनाक होता है और डर नहीं समाप्त हुआ तो संकट बढ़ेगा ही।