Saturday 31 October 2020

कोरोना प्रबंधन में तो भेदभाव न करते

डॉ.संजीव मिश्र

कोरोना को देश में आए छह महीने से ज्यादा हो गए हैं। कोरोना जैसी बीमारियों को लेकर हम कितना तैयार हैं, यह तो कोरोना की दस्तक के साथ ही अंदाजा लग गया था किन्तु इन छह महीनों में हम इलाज तो दूर प्रबंधन के लिए एक समान प्रोटोकॉल तक नहीं बना पाए। कोरोना संक्रमित होने के बाद ही इस भेदभाव का असली पता चलता है।

देश भर में कोरोना एक महामारी के रूप में सामने आया है। कोरोना संक्रमण अपने आप में भयावह है ही, इससे निपटने का तरीका और भी भयावह है। दरअसल एक देश के रूप में हम कोरोना जैसी महामारी के लिए तैयार ही नहीं थे। कोरोना आने के बाद पता चला कि आजादी के बाद से अब तक देश को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मजबूती से तैयार ही नहीं किया गया। देश में तो कोरोना जैसी बीमारी से निपटने के लिए उपयुक्त अस्पताल ही नहीं हैं। डॉक्टर तो वैसे भी जरूरत से काफी कम हैं। अब जब कोरोना का संकट आ ही गया था तो हमें इससे सबक लेना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। कोरोना के सबक से देश के स्वास्थ्य तंत्र की सेहत सुधारने की जरूरी पहल होनी चाहिए, ताकि हम कभी भी, किसी तरह की स्वास्थ्य संबंधी आपदा से निपटने के लिए तैयार हो सकें। इसके विपरीत कोरोना से बचाव के लिए पूरा फोकस दिखावटी ज्यादा ही लग रहा है। मरीज के कोरोना संक्रमित होते ही भेदभाव शुरू हो जाता है। कुछ प्राइवेट जांच वाले तो बस मरीज को अस्पताल भेजने का ठेका ही लिए रहते हैं, जिससे अस्पतालों के दिन बहुर सकें। वहीं सरकारी अस्पतालों में इतने बेड ही नहीं हैं कि सभी का इलाज हो सके।

दरअसल कोरोना की भारत में दस्तक तमाम चुनौतियों और सच्चाइयों के खुलासे की दस्तक भी है। भारत से पहले जब चीन में कोराना का हाहाकार मचा था, तो चीन ने एक सप्ताह में 12 हजार शैय्या का अस्पताल बनाने की चुनौती को स्वीकार किया और ऐसा कर दिखाया। ऐसे में भारत के सामने ऐसी ही चुनौती सामने थी। हमने जो भी काम किये वे अपर्याप्त साबित हुए। वैसे भी एक देश के रूप में भारत स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में खासा फिसड्डी साबित हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए शोध में 195 देशों के बीच स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता व पहुंच के मामले में भारत 145वें स्थान पर है। हालात ये है कि इस मामले में हम अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश, भूटान व श्रीलंका आदि से भी पीछे हैं। आम आदमी तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने में विफलता के साथ-साथ चिकित्सकों की उपलब्धता के मामले में भी भारत का हाल बेहाल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के मुताबिक एक हजार आबादी पर औसतन एक चिकित्सक होना जरूरी है किन्तु भारत में ऐसा नहीं है। यहां पूरे देश का औसत लिया जाए तो 1,445 आबादी पर एक चिकित्सक ही उपलब्ध है। अलग-अलग राज्यों की बात करें तो हरियाणा जैसे राज्य की स्थिति बेहद खराब सामने आती है। हरियाणा में एक डॉक्टर पर 6,287 लोगों की जिम्मेदारी है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का हाल भी कुछ अच्छा नहीं है। यहां 3,692 आबादी के हिस्से एक डॉक्टर की उपलब्धता आती है। देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली तक विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर खरी नहीं उतरती और यहां एक डॉक्टर के  सहारे 1,252 लोग हैं। मिजोरम व नागालैंड में तो 20 हजार से अधिक आबादी के हिस्से एक डॉक्टर की उपलब्धता है। ऐसे में यहां इलाज कितना दुष्कर होगा, यह स्वयं ही समझा जा सकता है।

कोरोना संकट के बाद हम सबके लिए न्यूनतम स्वास्थ्य प्रोटोकाल पर फोकस करना जरूरी हो जाता है। पूरे कोरोना काल में ऐसा न हो सका। जिस तरह बिहार में विधान सभा चुनाव अभियान के दौरान रैलियों में भीड़ उमड़ रही है , उससे कोरोना प्रोटोकॉल के प्रति हमारी व हमारे नेताओं की गंभीरता साफ समझ में आ रही है। कोरोना संक्रमण के बाद भी मरीजों के साथ समान व्यवहार न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। कोरोना संक्रमण के बाद सामान्य स्थितियों में होम आइसोलेशन पर जोर दिया जा रहा है। आइसोलेशन में भी भेदभाव हो रहा है। इसमें मरीजों के आर्थिक व सामाजिक स्तर को देखकर होने वाला भेदभाव ही शामिल नहीं है, जिला व प्रदेश स्तर पर नियोजन में भी भेदभाव है। आप हरियाणा में हैं तो आइसोलेशन प्रोटोकॉल अलग है, उत्तर प्रदेश में अलग। उत्तर प्रदेश में भी कानपुर में हैं तो स्वास्थ्य विभाग के लोग आपको एक कमरे में कैद कर मेडिकल स्टोर का नाम बता देंगे, दवा लाने के लिए। सैनिटाइजेशन घर के भीतर करेंगे ही नहीं। इसके विपरीत नोएडा में कई बार आपको दवा भी देंगे और घर के भीतर हर तीसरे दिन सैनिटाइजेशन होगा।

ये स्थितियां बेहद खतरनाक हैं।  अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि सघन चिकित्सा कक्ष से लेकर एक साथ लाखों लोगों के उपचार तक के लिए हम पूरी तरह तैयार तक नहीं है, हमें कोरोना जैसी बीमारी के लिए समान प्रोटोकॉल तो बनाना ही पड़ेगा, ताकि मरीजों के बीच भेदभाव न हो। जिस तरह हमने पोलियो व स्मालपॉक्स (बड़ी माता) जैसी बीमारियों से संगठित रूप से मुकाबला किया, उसी तरह हमें कोरोना जैसी बीमारी से निपटना होगा। इसके लिए जनता, चिकित्सकों के साथ सरकारों को भी एक साथ गंभीरता दिखानी होगी। कोरोना हमें हमारी तैयारियों का आंकलन करने का अवसर भी दे रहा है, जिसके हिसाब से हमें आगे की कार्ययोजना बनानी होगी।

Sunday 25 October 2020

चुनावी महारथियों को याद नहीं आते बच्चे!

डॉ.संजीव मिश्र

बिहार विधान सभा चुनाव अभियान इस समय चरम पर है। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र जारी हो चुके हैं। साथ ही देश के कई राज्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले उप चुनाव की भी सरगर्मी है। एक-एक वोट को अपने पाले में करने के लिए चुनावी महारथी जूझ रहे हैं, किन्तु इनमें से किसी को बच्चे कभी याद नहीं आते और इस बार भी याद नहीं आए हैं। किसी भी राजनीतिक दल का घोषणा पत्र बच्चों की परवाह करता नजर नहीं आ रहा है। पूरा राजनीतिक प्रचार अभियान विकास व जनमानस से जुड़े मुद्दों के स्थान पर जाति-धर्म और व्यक्तिविशेष की कटु-कुटिल आलोचनाओं तक केंद्रित हो चुका है। किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में बच्चे नहीं हैं। कहीं से उनकी चिंता के स्वर उठते नहीं दिखाई देते।

भारत को दुनिया का सबसे युवा देश कहा जाता है। भारतीय संसद में पेश आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट को मानें तो इस समय भारत दुनिया का सबसे युवा देश है। इस समय देश में 18 वर्ष से कम आयु वालों की आबादी भी 35 प्रतिशत के आसपास है। ये लोग अभी वोटर नहीं बन सके हैं किन्तु भविष्य के वोटर तो हैं ही। इसके बावजूद ये आबादी राजनीतिक दलों के एजेंडे में नहीं है। देश के दोनों प्रमुख दलों, भाजपा व कांग्रेस ने जनता के बीच जाकर अपना चुनावी एजेंडा तय करने का दावा किया था किन्तु किसी ने यह नहीं बताया कि वे कितने बच्चों के पास गए। दोनों दलों के घोषणा पत्रों में बच्चे कहीं दिखाई नहीं देते। दरअसल बच्चे व किशोर भारतीय राजनीति की वरीयता में हैं ही नहीं। वे तात्कालिक मतदाता होते नहीं हैं, इसलिए राजनेता उनकी परवाह करते नहीं हैं। सामान्य रूप से शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे मामले समग्रता में घोषणा पत्रों व वायदों का हिस्सा होते हैं किन्तु बच्चों व किशोरों के लिए विशेष रूप से कोई योजना सामने नहीं लाई जाती। इस चुनाव में भी कमोवेश ऐसा ही हुआ है। किसी भी राजनीतिक दल ने बच्चों की जरूरतों व अपेक्षाओं की पड़ताल नहीं की है। पूरे चुनाव अभियान में देश-दुनिया की तमाम बातें तो हो रही हैं किन्तु किसी राजनीतिक दल ने बच्चों के लिए अपनी योजनाओं का खुलासा नहीं किया है। दरअसल बच्चे भारतीय राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन ही नहीं पा रहे हैं।

बच्चों व किशोरों की इस समस्या को लेकर एक गैरसरकारी संगठन यूथ एलायंस ने एक बाल घोषणा पत्र निकालने की पहल की थी। इसके अंतर्गत वे स्कूल-स्कूल जाकर बच्चों से मिले और उनकी समस्याएं जानने की कोशिश की। इस दौरान बच्चों की तमाम ऐसी जरूरतें व मांगें सामने आयीं जो निश्चित रूप से राजनीतिक दलों व नेताओं की वरीयता सूची में ऊपर होनी चाहिए थीं, पर ऐसा नहीं हुआ। बच्चे अपने लिए कुछ बड़ा मांग भी नहीं रहे हैं। वे बस सुरक्षा, पर्यावरण, सांस्कृतिक विरासत, शिक्षा व आधारभूत ढांचागत क्षेत्र में सुधार की मांग ही कर रहे हैं। तमाम छात्राओं ने घर से बाहर तक अपने लिए सुरक्षित वातावरण व गैरबराबरी समाप्त करने की मांग की। यह बातें पहले भी उठती रही हैं किन्तु वरीयताओं में शामिल नहीं होती हैं और इस बार भी कहीं नहीं दिख रहीं। इसी तरह बच्चे चाहते हैं कि स्कूल उनके लिए और अच्छा स्थान बने। उनके बस्तों का बोझ कम हो, वहीं वे सामाजिक हिस्सेदारी की बात भी करते नजर आ रहे हैं। बच्चे चाहते हैं कि स्कूल में कोई उनकी पिटाई न करे। ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित हो, जिसमें सभी समान हों और किसी के साथ भेदभाव न किया जाए। एक बच्चे ने कहा कि वह सप्ताह में एक दिन यातायात सुधार को देना चाहता है। ऐसी पहल हो तो बच्चे उससे जुड़ेंगे। शहर के जाम व यातायात दुरावस्था से स्कूल पहुंचने में होने वाली देरी बच्चों का बड़ा मुद्दा है, किन्तु किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में शहरों को जाम से मुक्त कराना नहीं दिखता। बच्चे सड़क पर सुरक्षित रहना चाहते हैं। उन्हें अपनी व अपनों की सुरक्षा की गारंटी चाहिए, जिस पर कोई ध्यान देने वाला नहीं है। ढांचागत सुधार के तहत बच्चों ने पार्क, स्वीमिंग पूल, खेल के मैदान और सकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा मांगी है। बच्चों को पर्यावरण की चिंता भी है और वे साफ सुधरा भारत चाहते हैं।

ऐसे ही तमाम छोटी-छोटी मांगों के साथ बच्चे उम्मीद लगाए बैठे हैं कि सरकारें उनकी परवाह करेंगी। इसके बावजूद पूरे चुनाव अभियान में बच्चों की इच्छाएं कहीं दिखाई नहीं पड़ रही हैं। बच्चों का इस्तेमाल नारे लगाने के लिए तो कर लिया जाता है किन्तु किसी रैली में कोई भी नेता बच्चों के स्कूलों में शैक्षिक समानता की बात करता नहीं दिखता। कोई नहीं कहता कि बच्चों की समस्याओं को सुनने के लिए पुलिस का रवैया बदलेगा। कोई उनके बस्तों के बढ़ते बोझ का मुद्दा नहीं उठाता। किसी को उनके गुम होते खेल के मैदानों और बिना पार्कों के बस रहे नए-नए मोहल्लों के नियमन की चिंता नहीं है। यह सब इसलिए भी है क्योंकि नेताओं को उनसे सीधे वोट नहीं मिलने हैं। ऐसा करते समय नेता यह भूल जा रहे हैं कि यही बच्चे कुछ वर्षों बाद उनके मतदाता होंगे और तब लोकतंत्र के प्रति उनका जुड़ाव स्थापित न हो पाने कारण आज की यही उपेक्षा ही बनेगी।

Saturday 17 October 2020

इतना कमजोर नहीं हो सकता हिन्दू धर्म !

डॉ. संजीव मिश्र

हिन्दू धर्म खतरे में है? देश में चल रहे तमाम झंझावातों के बीच में हिन्दू धर्म को लेकर यह भय भी सार्वजनिक हो रहा है। हाल ही में तनिष्क के एक विज्ञापन को लेकर जिस तरह हंगामा हुआ, उसके बाद तो साफ लग रहा है कि लोगों को हिन्दू धर्म के खतरे में होने की चिंता देश की अर्थव्यवस्था, विकास और कोरोना जैसी बीमारियों से अधिक खाए जा रही है। देश के एक वर्ग की इन चिंताओं के बीच यदि हम प्राचीन भारतीय विमर्श को आधार मानें तो हिन्दू धर्म कभी इतना कमजोर नहीं हो सकता, जितना इस समय बताया जा रहा है।

अडानी-अंबानी जैसे कई औद्योगिक समूहों के सतत विकास के इस दौर में भी देश के प्रति टाटा समूह के औद्योगिक योगदान को नकारा नहीं जा सकता। टाटा समूह ने देश में ही नहीं दुनिया भर में अपनी श्रेष्ठ औद्योगिक परंपराओं का पालन करते हुए मजबूत जगह बनाई है। उसी टाटा समूह के एक प्रतिष्ठान तनिष्क के हाल ही में जारी एक विज्ञापन पर मचा हंगामा देश के सहिष्णु व समभाव के मूल तत्व से मेल नहीं खाता। तनिष्क के एकत्वम् अभियान में मुस्लिम घर में हिन्दू बहू को लेकर जिस तरह हंगामा मचा, उससे तो साफ लगता है मानो लोग इसकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। हंगामा करने वालों के अपने तर्क हो सकते हैं और बाजार को इस ओर ध्यान भी देना चाहिए, किन्तु ऐसे विज्ञापनों से हिन्दू धर्म खतरे में आ जाए यह नहीं माना जा सकता। हंगामा करने वालों का कहना है कि सद्भाव स्थापना के नाम पर बेटियां हिन्दू होती हैं और बेटे मुसलमान। वे चाहते हैं कि ऐसे विज्ञापन भी बनें, जिसमें मुस्लिम लड़की के गाल पर हिन्दू लड़का रंग लगा रहा हो या हिन्दू लड़के के घर पर दीवाली में रंगोली सजाए मुस्लिम लड़की लक्ष्मीपूजन करे। सद्भाव के मूल में ऐसी अपेक्षाएं की जा सकती हैं किन्तु इसके विपरीत होने पर हिन्दू धर्म को चुनौती मिलेगी, यह नहीं माना जा सकता। हिन्दू धर्म कभी इस तरह से कमजोर नहीं रहा है। यह हिन्दू धर्म की सर्वस्वीकार्यता ही रही है कि तमाम आक्रमणों के बाद भी मूल हिन्दुत्व का भाव कमजोर नहीं हुआ। लोग एक दूसरे के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते रहे और बड़ी संख्या में आज भी चल रहे हैं।

19वीं शताब्दी में हिन्दुत्व के झंडाबरदारों की जब-जब बात होगी, तो स्वामी विवेकानंद का नाम जरूर लिया जाएगा। जब स्वामी विवेकानंद का नाम हिन्दुत्व के साथ जोड़ा जाएगा, तो अमेरिका के शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में उनके भाषण को भी जरूर याद किया जाएगा। 11 सितंबर 1893 को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था, मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। जिस समय स्वामी विवेकानंद अपने विश्व प्रसिद्ध भाषण में हिन्दू धर्म को सहनशील और सार्वभौमिक स्वीकार्यता वाले धर्म के रूप में परिभाषित कर रहे होंगे, उस समय उन्हें यह अंदाजा भी नहीं होगा सवा सौ साल बाद उनके ही अपने देश भारत में महज एक विज्ञापन से हिन्दू धर्म खतरे में पड़ जाएगा। वे नहीं सोच पाए होंगे कि आज जिस सहनशीलता को वे हिन्दू धर्म की पहचान बता रहे हैं, भविष्य में हिन्दू धर्म के सामने सहनशीलता ही सबसे बड़ी कसौटी और चुनौती के रूप में सामने आएगी। आज तो स्वयं को स्वामी विवेकानंद का अनुयायी बताने वाले भी हिन्दुत्व के मसले पर सहनशीलता का मापदंड नकारते नजर आ रहे हैं।

स्वामी विवेकानंद ही नहीं, महात्मा गांधी ने भी हिन्दू धर्म को लेकर बहुत कुछ लिखा है। गांधी वांग्मय में महात्मा गांधी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि सत्य की अथक खोज का ही दूसरा नाम हिन्दू धर्म है। निश्चित रूप से हिन्दू धर्म ही सबसे अधिक सहिष्णु धर्म है। यंग इंडिया के 20 अक्टूबर 1927 के अंक में प्रकाशित आलेख में भी महात्मा गांधी ने लिखा, अध्ययन करने पर जिन धर्मों को मैं मानता हूं, उनमें मैंने हिन्दू धर्म को सर्वाधिक सहिष्णु पाया है। इसमें सैद्धांतिक कट्टरता नहीं और ये बात मुझे बहुत आकर्षित करती है। हिन्दू धर्म वर्जनशील नहीं है, इसलिए इसके अनुयायी न केवल दूसरे धर्मों का आदर करते हैं, बल्कि वे सभी धर्मों की अच्छी बातों को पसंद करते हैं। महात्मा गांधी के ये विचार भी तनिष्क जैसे विज्ञापनों से हिन्दू धर्म को खतरा बताने वालों के साथ मेलमिलाप नहीं कर पा रहे हैं। खास बात ये है कि गांधी को मानने का दावा करने वाले भी खुलकर इस सैद्धांतिक कट्टरता का विरोध नहीं कर पा रहे हैं। वैसे महज एक विज्ञापन में हिन्दू लड़की के मुस्लिम बहू बन जाने से परेशान लोगों में ज्यादातर उस राजनीतिक दल के समर्थक हैं, जिसके अधिकांश मुस्लिम चेहरों की पत्नियां हिन्दू हैं। उऩके पास इस सवाल का जवाब नहीं होता है, कि जब एक विज्ञापन में मुस्लिम घर की हिन्दू बहू उन्हें अंदर तक हिला डालती है तो वे उस राजनीतिक दल का समर्थन कैसे करते हैं, जिसके अधिकांश मुस्लिम नेताओं ने हिन्दू युवतियों से विवाह किया है। इस समय देश को आंतरिक सद्भाव की सर्वाधिक आवश्यकता है, जिस पर सबको मिलकर काम करना होगा।

Friday 9 October 2020

कठपुतली ब्यूरोक्रेसी बनेगी लोकतंत्र का खतरा!

डॉ.संजीव मिश्र

उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुए हंगामे के दौरान कदम-कदम पर चर्चा में आए ज्वाइंट मजिस्ट्रेट प्रेम प्रकाश मीणा 2018 बैच के आईएएस अधिकारी हैं। जब संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा में अखिल भारतीय स्तर पर 102वीं रैंक आई तो राजस्थान के अखबारों में बड़े-बड़े साक्षात्कार प्रकाशित हुए। उक्त अधिकारी प्रेमप्रकाश मीणा ने भी दायित्वों के निर्वन के प्रति सजगता के बड़े-बड़े दावे किये। हाथरस में दायित्वों का निर्वहन करते हुए उन्होंने सबसे पंगा भी लिया, पर यह पंगा उन्होंने इतने दिल से लिया कि कोरोना को कर्म से जोड़ दिया। टीवी की एक चर्चित एंकर से हुए विवाद के बाद जब उक्त एंकर कोरोनाग्रस्त हुईं तो मीणा ने अपने ट्वीट के माध्यम से इस कर्मफल करार दिया। ऐसा सिर्फ मीणा नहीं कर रहे हैं। इस समय ब्यूरोक्रेसी का बड़ा हिस्सा कठपुतली के रूप में काम कर रहा है और यह कठपुतली ब्यूरोक्रेसी भविष्य में लोकतंत्र के लिए खतरा साबित होती नजर आ रही है।

लोकतंत्र के चारो स्तंभों यानी न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया की कमजोरी को लेकर आए दिन सवाल उठते रहते हैं। पिछले कुछ कालखंड में ये सवाल और गहराए हैं। इन सबके बीच कार्यपालिका की जिम्मेदार ब्यूरोक्रेसी से उम्मीदें हमेशा ही सकारात्मक रही हैं। आईएएस बनने के लिए इन्हें सिविल सेवा परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त करना होता है। शुरुआती दौर में आदर्शों की पूरी पोटली इनके हाथ में होती है किन्तु समय के साथ इनमें आने वाले बदलाव इन्हें विधायिका के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव जगा देते हैं। अच्छी पोस्टिंग में योग्यता से अधिक समर्पण का पलड़ा भारी रहने के कारण ये अफसर भी कभी नेताओं को चप्पल पहनाते तो कभी सार्वजनिक रूप से डांट खाते नजर आते हैं। इसी चक्कर में नये आईएएस अधिकारी तक स्वयं को सत्ता की टीम का हिस्सा मान लेते हैं और वैचारिक संकल्पों से भी विरत हो जाते हैं। जिस तरह हाथरस प्रकरण में अधिकारियों की नासमझी सामने आ रही है, उससे साफ है कि ये अधिकारी परिपक्व तो हैं ही नहीं, होना भी नहीं चाहते। वे हर प्रकरण को व्यक्तिगत स्तर पर अंगीकार करते हैं। जिस तरह से एक पत्रकार से विवाद के बाद प्रेमप्रकाश मीणा ने उक्त पत्रकार को कोरोना होने पर इसे सत्य की हार-जीत और कर्मफल से जोड़ दिया, यह इसी अपरिपक्वता का परिचायक है। ऐसे अपरिपक्व अधिकारियों को कई बार राजनीति का साथ भी मिल जाता है। प्रेमप्रकाश मीणा के इस ट्वीट को सत्ताधारी दल के एक वरिष्ठ चेहरे ने रीट्वीट कर इसे बढ़ावा भी दिया है। कार्यपालिका व विधायिका में अपरिपक्वता व खुन्नस की यह जुगलबंदी निश्चित रूप से लोकतंत्र के लिए खतरनाक ह है।

ऐसा नहीं है कि पहली दफा ब्यूरोक्रेसी का यह हल्कापन सामने आया है। एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी खुलकर कहते हैं कि प्रेमप्रकाश मीणा या ऐसे ही नए आईएएस अफसरों का यह कृत्य तमाम पुरानों के साथ होने वाली कार्रवाइयों का दुष्परिणाम है। वे जानते हैं कि ट्रांसफर-पोस्टिंग से लेकर प्रोन्नति व निलंबन तक पूरी नौकरशाही राजनीति पर निर्भर है, ऐसे में वे सत्ताधारी दल की भावनाओं से पंगा ले ही नहीं सकते। ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक शासन को दिशा निर्देश जारी कर चुका है किन्तु उपर अमल नहीं होता। सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश हैं कि किसी भी अधिकारी की कम से कम दो साल के लिए नियुक्ति की जानी चाहिए और नियुक्ति या तबादलों के लिए राज्य सरकार को सिविल सर्विस बोर्ड का गठन करना होगा। सरकारों ने आईएएस व आईपीएस अफसरों की नियुक्ति व तबादलों आदि के लिए दो अलग-अलग बोर्ड बनाए भी थे किन्तु ये बहुत  प्रभावी नहीं साबित हुए। आईएएस अफसरों के लिए बने बोर्ड में राजस्व परिषद के अध्यक्ष के साथ मुख्य सचिव व नियुक्ति विभाग के मुखिया को सदस्य बनाया गया था, वहीं आईपीएस अफसरों के लिए बने बोर्ड में मुख्य सचिव के साथ पुलिस महानिदेशक व गृह विभाग के मुखिया को सदस्य बनाया गया था। स्पष्ट किया गया था कि आपात स्थिति में यदि किसी को हटाया जाएगा या नियुक्ति की जाएगी तो बोर्ड की सहमति लेनी होगी किन्तु ऐसा सही मायनों में प्रभावी रूप से हो नहीं पा रहा है।

आईएएस अफसरों की नयी पीढ़ी इस मामले में कुछ ज्यादा ही तेज है। 1995 बैच के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी साफ कहते हैं कि हाथरस में नयी पीढ़ी की अपरिपक्वता साफ दिख रही है। वे मानते हैं कि बीसवीं सदी तक आईएएस देश की पहले नंबर की नौकरी हुआ करती थी। तब देश की सर्वश्रेष्ठ मेधा आईएएस का हिस्सा होती थी। इक्कीसवीं सदी आते-आते सूचना क्रांति ने देश की मेधा को सिलिकॉन वैली की ओर भेजना शुरू किया और अब तो आईएएस में देश का बेस्ट टैलेंट आ ही नहीं रहा है। इसके पीछे भी राजनीति बड़ा कारण है। पिछले ढाई दशक में कुछ ऐसा हुआ है, जब नेताओं ने मंच से आईएएस अफसरों को उल्टा-सीधा कहना शुरू किया और वे बर्दाश्त भी करते रहे। इससे राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ा और श्रेष्ठ मेधा ने यहां आईएएस बनकर काम करने से अधिक उपयुक्त किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की बड़ी भूमिका को स्वीकार करना समझा। इन स्थितियों में अब आईएएस को देश की पहले नंबर की नौकरी नहीं माना जाता। इसके अलावा आईएएस में सुपीरियरिटी कॉम्प्लेक्स बहुत है। आईएएस स्वयं को नौकरियों का ब्राह्मण मानता है और एक तरह से नौकरियों का मनुवाद आईएएस कैडर के भीतर हावी है। आईएएस के प्रभुत्व को लेकर बाकी सारी नौकरियां आवाज उठाती रहती हैं। यह स्थिति भी अत्यधिक खतरनाक है। आईएएस प्रशिक्षण एकेडमी में भी सिखाया जाता है कि नेता हमारे बॉस हैं, मालिक नहीं। हम गवर्नमेंट सर्वेंट यानी सरकार के नौकर हैं, नेताओं के नहीं किन्तु समय के साथ स्थितियां बदल चुकी हैं। नेताओं कोलगा कि लोकतंत्र में पूरी पॉवर उनकी ही है, जिसके परिणाम स्वरूप आईएएस का नैतिक बल समाप्त हुआ और नौकरशाही ने समर्पण कर दिया। पूरी प्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हैं। एक परीक्षा देकर आईएएस बनने के बाद तीस-पैंतीस साल उनकी कोई परीक्षा नहीं होती है। ऐसे में शीर्ष पर बने रहने के लिए आईएएस सत्ता में रहने वालों को खुश करते रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पूरी ब्यूरोक्रेसी कठपुतली की तरह नाचती है, जो अंततः लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है।

Friday 2 October 2020

ऐसा तो नहीं होगा गांधी का राम राज्य!

 डॉ.संजीव मिश्र

 2 अक्टूबर यानी गांधी जयंती। बड़ी-बड़ी गोष्ठियों और संकल्पों का दिन। इस बार 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी की 151वीं जयंती है। देश जिन स्थितियों से जूझ रहा है, उनमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों से भटकाव साफ दिख रहा है। नशे में डूबती युवा पीढ़ी हो या असुरक्षित बेटियां हों, ऐसे भारत का स्वप्न तो गांधी ने कतई नहीं देखा था। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि देश की हर राजनीतिक विचारधारा गांधी को अंगीकार तो करना चाहती है किन्तु उनके बताए रास्ते से दूर ही नजर आती है। यह सर्वाधिक उपयुक्त समय है, जब हमें गांधी को नोट से ऊपर उठाकर दिलों तक पहुंचाना होगा। गांधी के राम राज्य का सामंजस्य राम राज्य की घोषणाओं के साथ बिठाना होगा। आज की स्थितियों से तो स्पष्ट है कि गांधी ने ऐसे राम राज्य की परिकल्पना तो नहीं ही की होगी।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 151वीं जयंती के साथ ही उनके वैचारिक अधिष्ठान के साथ जुड़े लोगों तक भी निश्चित रूप से चर्चाएं होंगी। गांधी महज राजनीति के शलाका पुरुष नहीं थे, वे अध्यात्म के चितेरे भी थे, जहां से सत्याग्रह का पथ प्रशस्त हुआ था। गांधी रामराज्य का स्वप्न देखते थे और ग्राम स्वराज की परिकल्पना के साथ देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थ महात्मा गांधी की हत्या के बाद उनकी राजनीतिक विरासत पर तो काम शुरू हो गया था, किन्तु उनके सपनों के भारत पर काम करने वाले अनुयायी एक तरह से दिशाहीन से हो गये। इस समय इस समय देश के सामने गांधी के मूल्यों की स्वीकार्यता की चुनौती भी है। 1948 में महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद उनके अनुयायी होने का दावा करने वाले और उनके नाम से जुड़कर राजनीति करने वाले लोग बार-बार सत्ता में आते रहे। यही नहीं, जिन पर गांधी से वैचारिक रूप से दूर होने के आरोप लगे, वे भी सत्ता में आए तो गांधी के सपनों से जुड़ने की बातें करते रहे। गांधी के ग्राम स्वराज की बातें तो खूब हुईं किन्तु उनके सपनों को पूरा करने के सार्थक प्रयास नहीं हुए। देखा जाए तो बीते 72 वर्षों में कदम-कदम पर बापू से छल हुआ है, उनके सपनों की हत्या हुई है। उनकी परिकल्पनाओं को पलीता लगाया गया और उनकी अवधारणाओं के साथ मजाक हुआ।

बापू की मौत के बाद देश की तीन पीढ़ियां युवा हो चुकी हैं। उन्हें बार-बार बापू के सपने याद दिलाए गए किन्तु इसी दौरान लगातार उनके सपने रौंदे जाते रहे। बापू के सपने याद दिलाने वालों ने उनके सपनों की हत्या रोकने के कोई कारगर प्रयास नहीं किये। आज भी यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि सरकारें तो आती-जाती रहेंगी, किन्तु बापू कब तक छले जाते रहेंगे? महात्मा गांधी चाहते थे कि देश में सबका दर्जा समान हो। 10 नवंबर 1946 को ‘हरिजन सेवक’ में उन्होंने लिखा, ‘हर व्यक्ति को अपने विकास और अपने जीवन को सफल बनाने के समान अवसर मिलने चाहिए। यदि अवसर दिये जाएं तो हर आदमी समान रूप से अपना विकास कर सकता है’। दुर्भाग्य से आजादी के सात दशक से अधिक बीत जाने के बाद भी समान अवसरों वाली बात बेमानी ही लगती है। देश खांचों में विभाजित सा कर दिया गया है। हम लड़ रहे हैं और लड़ाए जा रहे हैं। कोई जाति, तो कोई धर्म के नाम पर बांट रहा है तो कोई इन दोनों से ही डरा रहा है।

गांधी नारी सशक्तीकरण के शीर्ष पैरोकार थे। 15 सितंबर 1921 को को यंग इंडिया में उन्होंने लिखा, आदमी जितनी बुराइयों के लिए जिम्मेदार है, उनमें सबसे घटिया नारी जाति का दुरुपयोग है। वह अबला नहीं है। गांधी की इस सोच के विपरीत देश में महिलाओं को आज भी सताया जा रहा है। हाल ही में जिस तरह हाथरस में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार व हत्या जैसी वीभत्स घटना हुई और उसके बाद प्रशासन का जो रवैया सामने आया, उससे स्पष्ट है कि महिलाओं के प्रति गांधी के नजरिये को कोई अंगीकार नहीं करना चाहता। महात्मा गांधी महिलाओं को हर स्तर पर समान अधिकार के पैरोकार थे। 25 जनवरी 1936 को ‘हरिजन सेवक’ में उन्होंने लिखा कि पुरुष ने स्त्री को अपनी कठपुतली समझ लिया है, यह स्थिति ठीक नहीं है। आज भी स्थितियां नहीं बदली हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी द्वारा अपनी पत्नी की पिटाई का वीडियो इसका प्रमाण है।

महात्मा गांधी हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच विचारों के समन्वय के पक्षधर थे। यंग इंडिया में 25 फरवरी 1920 को लिखे अपने लेख में उन्होंने लिखा कि यदि मुसलमानों की पूजा पद्धति व उनके तौर-तरीकों व रिवाजों को हिन्दू सहन नहीं करेंगे या यदि हिन्दुओं की मूर्ति पूजा व गोभक्ति के प्रति मुसलमान असहिष्णुता दिखाएंगे तो हम शांति से नहीं रह सकते। उनका मानना था कि एक दूसरे के धर्म की कुछ पद्धितयां नापसंद भले ही हों, किन्तु उसे सहन करने की आदत दोनों धर्मों को डालनी होगी। वे मानते थे कि हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच के सारे झगड़ों की जड़ में एक दूसरे पर विचार लादने की जिद ही मुख्य बात है। बापू के इन विचारों के सौ साल बात भी झगड़े जस के तस हैं और वैचारिक दूरियां और बढ़ सी गयी हैं।

गांधी धर्म के नाम पर अराजकता व गुंडागर्दी के सख्त खिलाफ थे। यंग इंडिया में 14 सितंबर 1924 को उन्होंने लिखा था कि गुंडों के द्वारा धर्म की तथा अपनी रक्षा नहीं की जा सकती। यह तो एक आफत के बदले दूसरी अथवा उसके सिवा एक और आफत मोल लेना हुआ। गांधी देश में किभी तरह के साम्प्रदायिक विभाजन के खिलाफ थे। उनका मानना था कि साम्प्रदायिक लोग हिंसा, आगजनी आदि अपराध करते हैं, जबकि उनका धर्म इन कुकृत्यों की इजाजत नहीं देता। 6 अक्टूबर 1921 को प्रकाशित यंग इंडिया के एक लेख में उन्होंने लिखा कि हिंसा या आगजनी कोई धर्म-सम्मत काम नहीं हैं, बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग धर्म की आड़ में बेशर्मी से ऐसे काम करते हैं। महात्मा गांधी ने सौ साल पहले यानी 1920 में इस संकट को भांप कर रास्ता सुझाया था। 25 फरवरी 1920 को यंग इंडिया में प्रकाशित अपने आलेख में गांधी ने लिखा कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए समान उद्देश्य व समान लक्ष्य के साथ समान सुख-दुख का भाव जरूरी है। एकता की भावना बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका समान लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न में सहयोग करना, एक दूसरे का दुख बांटना और परस्पर सहिष्णुता बरतना ही है। आज बापू भले ही नहीं हैं, पर उनके विचार हमारे साथ हैं। देश को संकट से बचाने के लिए बापू के विचारों को अंगीकार करना होगा, वरना देर तो हो ही चुकी है, अब बहुत देर होने से बचाना जरूरी है।