Friday 2 October 2020

ऐसा तो नहीं होगा गांधी का राम राज्य!

 डॉ.संजीव मिश्र

 2 अक्टूबर यानी गांधी जयंती। बड़ी-बड़ी गोष्ठियों और संकल्पों का दिन। इस बार 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी की 151वीं जयंती है। देश जिन स्थितियों से जूझ रहा है, उनमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों से भटकाव साफ दिख रहा है। नशे में डूबती युवा पीढ़ी हो या असुरक्षित बेटियां हों, ऐसे भारत का स्वप्न तो गांधी ने कतई नहीं देखा था। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि देश की हर राजनीतिक विचारधारा गांधी को अंगीकार तो करना चाहती है किन्तु उनके बताए रास्ते से दूर ही नजर आती है। यह सर्वाधिक उपयुक्त समय है, जब हमें गांधी को नोट से ऊपर उठाकर दिलों तक पहुंचाना होगा। गांधी के राम राज्य का सामंजस्य राम राज्य की घोषणाओं के साथ बिठाना होगा। आज की स्थितियों से तो स्पष्ट है कि गांधी ने ऐसे राम राज्य की परिकल्पना तो नहीं ही की होगी।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 151वीं जयंती के साथ ही उनके वैचारिक अधिष्ठान के साथ जुड़े लोगों तक भी निश्चित रूप से चर्चाएं होंगी। गांधी महज राजनीति के शलाका पुरुष नहीं थे, वे अध्यात्म के चितेरे भी थे, जहां से सत्याग्रह का पथ प्रशस्त हुआ था। गांधी रामराज्य का स्वप्न देखते थे और ग्राम स्वराज की परिकल्पना के साथ देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थ महात्मा गांधी की हत्या के बाद उनकी राजनीतिक विरासत पर तो काम शुरू हो गया था, किन्तु उनके सपनों के भारत पर काम करने वाले अनुयायी एक तरह से दिशाहीन से हो गये। इस समय इस समय देश के सामने गांधी के मूल्यों की स्वीकार्यता की चुनौती भी है। 1948 में महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद उनके अनुयायी होने का दावा करने वाले और उनके नाम से जुड़कर राजनीति करने वाले लोग बार-बार सत्ता में आते रहे। यही नहीं, जिन पर गांधी से वैचारिक रूप से दूर होने के आरोप लगे, वे भी सत्ता में आए तो गांधी के सपनों से जुड़ने की बातें करते रहे। गांधी के ग्राम स्वराज की बातें तो खूब हुईं किन्तु उनके सपनों को पूरा करने के सार्थक प्रयास नहीं हुए। देखा जाए तो बीते 72 वर्षों में कदम-कदम पर बापू से छल हुआ है, उनके सपनों की हत्या हुई है। उनकी परिकल्पनाओं को पलीता लगाया गया और उनकी अवधारणाओं के साथ मजाक हुआ।

बापू की मौत के बाद देश की तीन पीढ़ियां युवा हो चुकी हैं। उन्हें बार-बार बापू के सपने याद दिलाए गए किन्तु इसी दौरान लगातार उनके सपने रौंदे जाते रहे। बापू के सपने याद दिलाने वालों ने उनके सपनों की हत्या रोकने के कोई कारगर प्रयास नहीं किये। आज भी यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि सरकारें तो आती-जाती रहेंगी, किन्तु बापू कब तक छले जाते रहेंगे? महात्मा गांधी चाहते थे कि देश में सबका दर्जा समान हो। 10 नवंबर 1946 को ‘हरिजन सेवक’ में उन्होंने लिखा, ‘हर व्यक्ति को अपने विकास और अपने जीवन को सफल बनाने के समान अवसर मिलने चाहिए। यदि अवसर दिये जाएं तो हर आदमी समान रूप से अपना विकास कर सकता है’। दुर्भाग्य से आजादी के सात दशक से अधिक बीत जाने के बाद भी समान अवसरों वाली बात बेमानी ही लगती है। देश खांचों में विभाजित सा कर दिया गया है। हम लड़ रहे हैं और लड़ाए जा रहे हैं। कोई जाति, तो कोई धर्म के नाम पर बांट रहा है तो कोई इन दोनों से ही डरा रहा है।

गांधी नारी सशक्तीकरण के शीर्ष पैरोकार थे। 15 सितंबर 1921 को को यंग इंडिया में उन्होंने लिखा, आदमी जितनी बुराइयों के लिए जिम्मेदार है, उनमें सबसे घटिया नारी जाति का दुरुपयोग है। वह अबला नहीं है। गांधी की इस सोच के विपरीत देश में महिलाओं को आज भी सताया जा रहा है। हाल ही में जिस तरह हाथरस में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार व हत्या जैसी वीभत्स घटना हुई और उसके बाद प्रशासन का जो रवैया सामने आया, उससे स्पष्ट है कि महिलाओं के प्रति गांधी के नजरिये को कोई अंगीकार नहीं करना चाहता। महात्मा गांधी महिलाओं को हर स्तर पर समान अधिकार के पैरोकार थे। 25 जनवरी 1936 को ‘हरिजन सेवक’ में उन्होंने लिखा कि पुरुष ने स्त्री को अपनी कठपुतली समझ लिया है, यह स्थिति ठीक नहीं है। आज भी स्थितियां नहीं बदली हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी द्वारा अपनी पत्नी की पिटाई का वीडियो इसका प्रमाण है।

महात्मा गांधी हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच विचारों के समन्वय के पक्षधर थे। यंग इंडिया में 25 फरवरी 1920 को लिखे अपने लेख में उन्होंने लिखा कि यदि मुसलमानों की पूजा पद्धति व उनके तौर-तरीकों व रिवाजों को हिन्दू सहन नहीं करेंगे या यदि हिन्दुओं की मूर्ति पूजा व गोभक्ति के प्रति मुसलमान असहिष्णुता दिखाएंगे तो हम शांति से नहीं रह सकते। उनका मानना था कि एक दूसरे के धर्म की कुछ पद्धितयां नापसंद भले ही हों, किन्तु उसे सहन करने की आदत दोनों धर्मों को डालनी होगी। वे मानते थे कि हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच के सारे झगड़ों की जड़ में एक दूसरे पर विचार लादने की जिद ही मुख्य बात है। बापू के इन विचारों के सौ साल बात भी झगड़े जस के तस हैं और वैचारिक दूरियां और बढ़ सी गयी हैं।

गांधी धर्म के नाम पर अराजकता व गुंडागर्दी के सख्त खिलाफ थे। यंग इंडिया में 14 सितंबर 1924 को उन्होंने लिखा था कि गुंडों के द्वारा धर्म की तथा अपनी रक्षा नहीं की जा सकती। यह तो एक आफत के बदले दूसरी अथवा उसके सिवा एक और आफत मोल लेना हुआ। गांधी देश में किभी तरह के साम्प्रदायिक विभाजन के खिलाफ थे। उनका मानना था कि साम्प्रदायिक लोग हिंसा, आगजनी आदि अपराध करते हैं, जबकि उनका धर्म इन कुकृत्यों की इजाजत नहीं देता। 6 अक्टूबर 1921 को प्रकाशित यंग इंडिया के एक लेख में उन्होंने लिखा कि हिंसा या आगजनी कोई धर्म-सम्मत काम नहीं हैं, बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग धर्म की आड़ में बेशर्मी से ऐसे काम करते हैं। महात्मा गांधी ने सौ साल पहले यानी 1920 में इस संकट को भांप कर रास्ता सुझाया था। 25 फरवरी 1920 को यंग इंडिया में प्रकाशित अपने आलेख में गांधी ने लिखा कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए समान उद्देश्य व समान लक्ष्य के साथ समान सुख-दुख का भाव जरूरी है। एकता की भावना बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका समान लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न में सहयोग करना, एक दूसरे का दुख बांटना और परस्पर सहिष्णुता बरतना ही है। आज बापू भले ही नहीं हैं, पर उनके विचार हमारे साथ हैं। देश को संकट से बचाने के लिए बापू के विचारों को अंगीकार करना होगा, वरना देर तो हो ही चुकी है, अब बहुत देर होने से बचाना जरूरी है।

No comments:

Post a Comment