Wednesday 25 March 2020

कोरोना के सबक से सुधारें सेहत

डॉ.संजीव मिश्र
कोरोना क्या आया, जनता के साथ सबसे ज्यादा परेशान नेता हो गए। वही नेता, जिन्हें हमने अपना भाग्यविधाता मानकर सत्ता से लेकर सेहत तक की चाभी सौंप रखी है। अब जब कोरोना जैसी चुनौती आयी, तो समझ में आ रहा है कि हम कितने तैयार हैं? जिन नेताओं को हमने अपनी किस्मत सौंप रखी है, आजादी के बाद से वे सिर्फ अपनी किस्मत संवारते रहे। देश को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मजबूती से तैयार ही नहीं किया गया। देश में तो कोरोना जैसी बीमारी से निपटने के लिए उपयुक्त अस्पताल ही नहीं हैं। डॉक्टर तो वैसे भी जरूरत से काफी कम हैं। अब जब कोरोना का संकट आ ही गया है, हमें इससे सबक लेना चाहिए। कोरोना के सबक से देश के स्वास्थ्य तंत्र की सेहत सुधारने की जरूरी पहल होनी चाहिए, ताकि हम कभी भी, किसी तरह की स्वास्थ्य संबंधी आपदा से निपटने के लिए तैयार हो सकें।
कोरोना की भारत में दस्तक तमाम चुनौतियों और सच्चाइयों के खुलासे की दस्तक भी है। भारत से पहले जब चीन में कोराना का हाहाकार मचा था, तो चीन ने एक सप्ताह में 12 हजार शैय्या का अस्पताल बनाने की चुनौती को स्वीकार किया और ऐसा कर दिखाया। अब सवाल उठ रहा है कि क्या भारत ऐसी कोई चुनौती स्वीकार करने की स्थिति में है? इस चुनौती पर चर्चा तक करने से पहले हमें भारत की स्वास्थ्य स्थितियों के वास्तविक स्वरूप पर चर्चा कर लेनी चाहिए। एक देश के रूप में भारत स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में खासा फिसड्डी देश है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए शोध में 195 देशों के बीच स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता व पहुंच के मामले में भारत 145वें स्थान पर है। हालात ये है कि इस मामले में हम अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश, भूटान व श्रीलंका आदि से भी पीछे हैं। आम आदमी तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने में विफलता के साथ-साथ चिकित्सकों की उपलब्धता के मामले में भी भारत का हाल बेहाल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के मुताबिक एक हजार आबादी पर औसतन एक चिकित्सक होना जरूरी है किन्तु भारत में ऐसा नहीं है। यहां पूरे देश का औसत लिया जाए तो 1,445 आबादी पर एक चिकित्सक ही उपलब्ध है। अलग-अलग राज्यों की बात करें तो हरियाणा जैसे राज्य की स्थिति बेहद खराब सामने आती है। हरियाणा में एक डॉक्टर पर 6,287 लोगों की जिम्मेदारी है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का हाल भी कुछ अच्छा नहीं है। यहां 3,692 आबादी के हिस्से एक डॉक्टर की उपलब्धता आती है। देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली तक विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर खरी नहीं उतरती और यहां एक डॉक्टर के  सहारे 1,252 लोग हैं। मिजोरम व नागालैंड में तो 20 हजार से अधिक आबादी के हिस्से एक डॉक्टर की उपलब्धता है। ऐसे में यहां इलाज कितना दुष्कर होगा, यह स्वयं ही समझा जा सकता है। दुखद पहलू यह है कि तमाम दावों के बावजूद भारत में इस मसले पर कभी सकारात्मक ढंग से विचार ही नहीं किया गया।
कोरोना संकट के बाद हम सबके लिए न्यूनतम स्वास्थ्य प्रोटोकाल पर फोकस करना जरूरी हो जाता है। जिस तरह इस समय सभी नेता जनता को उनके दायित्व याद दिला रहे हैं, उसी समय वे सब दायित्व भूलते भी नजर आ रहे हैं। राजनेताओं की गंभीरता का पता उत्तर प्रदेश की एक घटना से भी साफ चल जाता है। जिस समय पूरा देश कोराना संकट से जूझ रहा है, प्रधानमंत्री तक दूरियां बनाने की बात कर रहे हैं, उत्तर प्रदेश में तमाम राजनेता एक बॉलीवुड गायिका से नजदीकियां बनाते देखे गए। खास बात ये है कि ऐसा करने वालों में उत्तर प्रदेश के सिर्फ मौजूदा स्वास्थ्य मंत्री ही नहीं, पूर्व स्वास्थ्य मंत्री तक शामिल थे। इसी तरह मध्य प्रदेश में कोरोना को ठेंगा दिखाते हुए जिस तरह तमाम बैठकें हुईं और सरकार तक बन गयी, यह भी राजनेताओं की गंभीरता का लिटमस टेस्ट ही है। कोरोना के शुरुआती दौर में जिस तरह से इसको मोहरा बनाया गया, यह भी बस नेता ही कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भाषणों में कोरोना को लेकर कटाक्ष किये थे, वहीं मध्यप्रदेश में कोरोना की आड़ में सत्ता संधान की कोशिशें हुईं, यह किसी से छिपा नहीं है। अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि सघन चिकित्सा कक्ष से लेकर एक साथ लाखों लोगों के उपचार तक के लिए हम पूरी तरह तैयार तक नहीं है, हमें आपसी मतभेद भुलाकर देश को स्वास्थ्य सेवाओं में श्रेष्ठतम स्तर तक पहुंचाने की पहल करनी होगी। जिस तरह हमने पोलियो व स्मालपॉक्स (बड़ी माता) जैसी बीमारियों से संगठित रूप से मुकाबला किया, उसी तरह हमें कोरोना जैसी बीमारी से निपटना होगा। इसके लिए जनता, चिकित्सकों के साथ सरकारों को भी एक साथ गंभीरता दिखानी होगी। कोरोना हमें हमारी तैयारियों का आंकलन करने का अवसर भी दे रहा है, जिसके हिसाब से हमें आगे की कार्ययोजना बनानी होगी। फिलहाल हमारी पहली लड़ाई कोरोना से जूझने की है, जिसके लिए हर किसी को घर के भीतर रुकने की जिद करनी होगी। इस जिद से ही हम यह तात्कालिक लड़ाई जीत सकेंगे।

Wednesday 18 March 2020

अप्रासंगिक हो रहा दल-बदल विरोधी कानून


डॉ. संजीव मिश्र
कोरोनाजनित चिंताओं और पूर्व न्यायमूर्ति रंजन गोगोई को राज्यसभा सदस्यता जैसे उपहार के बीच देश मध्यप्रदेश की ओर टकटकी बांधे देख रहा है। कोरोना ने मध्यप्रदेश विधानसभा में विश्वास मत टालने के लिए बहाने की भूमिका अदा की, वहीं रंजन गोगोई की राज्यसभा सदस्यता विमर्श को थोड़ा बहुत बदलने में सफल हो रही है। इन सबके बीच मध्य प्रदेश सरकार की स्थिरता व अस्थिरता के सवाल भी वातावरण में घूम रहे हैं। इन सवालों के बीच सबसे बड़ा सवाल दल-बदल कानून की प्रासंगिकता का भी है। जिस तरह विधायकों की सुगम आवाजाही कर सरकारें बदली जा रही हैं, उससे 35 साल पुराना दल-बदल विरोधी कानून अप्रासंगिक हो गया है। अब नए सिरे से इसमें बदलाव की जरूरत भी है।
दरअसल 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आए दिन दल-बदल व जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त रोकने के लिए 52वें संविधान संशोधन के रूप में दल-बदल विरोधी कानून की पहल की थी। तब देश के अधिकांश राजनीतिक दलों ने दल-बदल विरोधी कानून का समर्थन किया तो लगा कि देश में क्रांतिकारी बदलाव आएगा। अब सत्ता की शुचिता बरकरार रहेगी। दल-बदल बिल्कुल रुक जाएंगे। 35 साल पहले दल बदल कानून लागू होने पर कुछ ऐसा संदेश दिया गया था कि पूरी-पूरी पार्टी या उसकी बड़ी संख्या को तोड़ना थोड़ा कठिन होगा। इसीलिए उस समय अन्य राजनीतिक दलों व नेताओं ने इस कानून का समर्थन भी किया था। जिस तरह से विधायक व सांसद चुनाव बाद अपनी निष्ठाएं बदल देते थे, उससे सर्वाधिक कुठाराघात जनता की भावनाओं के साथ ही होता था। दल-बदल कानून लागू होने के बाद उम्मीद थी कि यह मनमानी रुकेगी। कुछ वर्षों तक ऐसा हुआ भी, किन्तु राजनीतिक दलों ने फिर से राह निकाल ली। अब थोक में दल-बदल के साथ इस्तीफे व दोबारा चुनाव के साथ पूरी-पूरी पार्टी के ही वैचारिक परिवर्तन जैसे रास्ते निकाल लिये गए हैं। इस समय भी देश उसी ऊहापोह से जूझ रहा है। हालांकि 1985 में ही प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने इस कानून को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की थीं। उन्होंने उसी समय चेताया था कि इस कानून से दल-बदल नहीं रुकेगा। उनका कहना था कि यह कानून छोटे-छोटे यानी फुटकर दल-बदल को तो रोकता है किन्तु थोक में हुए दल-बदल को वैधता प्रदान करता है। अब लग रहा है कि मधु लिमये की आशंकाएं गलत नहीं थीं। कहा जाए कि उनकी चिंता सही साबित हुई है तो गलत नहीं होगा। दल-बदल कानून बनने के कुछ सालों के भीतर ही स्पष्ट होने लगा था कि यह कानून अपने मकसद को पाने में नाकाम साबित हो रहा है। अब तो लगने लगा है कि इस कानून ने भारत के संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को भी हवा दी है।
जिस तरह पिछले कुछ वर्षों में दल-बदल का स्वरूप बदला है, उससे इन विकृतियों को लेकर सामाजिक चिंताएं भी बढ़ी हैं। मध्यप्रदेश का समूचा घटनाक्रम इसका गवाह है। जिस तरह भाजपा का विरोध कर सत्ता में आए कांग्रेस के 22 विधायकों ने इस्तीफा देकर कमलनाथ की सरकार गिराने की तैयारी की है, उसे कानूनी रूप से भले ही दल-बदल न माना जाए किन्तु वैचारिक दल-बदल तो है ही। इससे पहले थोक में दल बदल का एक और स्वरूप कर्नाटक में भी सामने आया था। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनवाने के लिए कांग्रेस व जनता दल (एस) के 17 विधायकों ने अपनी पार्टियों की बात नहीं मानी और विधानसभा से गैरहाजिर होकर अपनी पार्टियों के साथ विश्वासघात किया। अब वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गयी है और इन 17 विधायकों की सीटों पर उपचुनाव कराना पड़ा। इस पर होने वाला खर्च सरकार को उठाना पड़ा है, जो जनता की जेब से ही करों के रूप में वसूला हुआ है। इसके अलावा बिना विधानसभा चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बनने वालों के लिए सीट छोड़ने की परंपरा भी खासी प्रचलित है। इस कारण होने वाले उपचुनाव का खर्च भी जनता की जेब से ही जाता है।
इससे पूर्व महाराष्ट्र भी इन स्थितियों का गवाह बना था। शिव सेना ने जिस भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनाव लड़ा, चुनाव के तुरंत बाद भाजपा से मतभिन्नता और फिर अलगाव जैसी स्थितियां उत्पन्न हो गयीं। इसी तरह कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उस शिवसेना के साथ सरकार बना ली, जिसकी आलोचना करते हुए पूरा चुनाव लड़ा। ऐसे में जनता के साथ तो यह भी विश्वासघात माना जाएगा। जनता ने शिवसेना को इसलिए वोट दिया था क्योंकि वह वैचारिक रूप से भाजपा के साथ खड़ी थी। अब भाजपा से अलग होकर शिवसेना ने उस जनादेश को चुनौती दी है। इसी तरह भाजपा ने शिवसेना के साथ चुनाव लड़ते समय चुनाव बाद भी साथ रहने का वादा किया था, जिसे नहीं निभाया गया। निश्चित रूप से अब नए सिरे से ऐसी वादाखिलाफी पर भी अंकुश लगाए जाने की जरूरत है। यह समय एक बार फिर दल-बदल कानून पर पुनर्विचार का है। चुनाव पूर्व गठबंधनों की स्थिति में चुनाव बाद बदलाव की अनुमति न देने सहित दोबारा चुनाव की नौबत आने पर इसका खर्च इसके जिम्मेदार विधायकों से वसूलने जैसे प्रस्तावों पर भी विचार होना चाहिए। साथ ही ऐसी नौबत पैदा करने वालों के चुनाव लड़ने पर रोक जैसे प्रावधान भी लागू किये जाने चाहिए। देश की राजनीतिक व चुनावी शुचिता के लिए यह जरूरी भी है। ऐसा न होने पर राजनीतिक क्षेत्र से नए व अच्छे लोगों का जुड़ाव भी कठिन हो जाएगा।

Wednesday 4 March 2020

कितना ‘सोशल’ बचा सोशल मीडिया?

डॉ. संजीव मिश्र
बात सोलह साल पहले की है। इंटरनेट के साथ लोगों को संवाद व संपर्क का चस्का लगना शुरू ही हुआ था कि ऑर्कुट के रूप में एक ऐसा प्लेटफार्म मिला जिससे लोग एक दूसरे से जुड़ने लगे। 2004 में ऑर्कुट की शुरुआत के चार साल के भीतर यानी 2008 तक पहुंचते-पहुंचते ऑर्कुट की सर्वाधिक लोकप्रियता भारत में पांव पसार चुकी थी। लोग आर्कुट प्रोफाइल के वैशिष्ट्य की चर्चा में डूबे थे कि फेसबुक का धमाकेदार प्रवेश हुआ। 2014 आते-आते गूगल ने ऑर्कुट की बंदी का एलान कर दिया, किन्तु तब तक समाज से जुड़ाव वाले मीडिया के रूप में सोशल मीडिया तेजी से अपना रूप ले चुका था। फेसबुक धीरे-धीरे छा रहा था और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अपनी जगह बना रहे थे। तब से आज तक भारत इक्कीसवीं सदी की इस मीडिया क्रांति के साथ मजबूती से आगे बढ़ रहा है। यह मजबूती इस कदर है कि भारत में सोशल मीडिया राय बनाने-बिगाड़ने की स्थिति में है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सोशल मीडिया से दूरी बनाने की संभावना मात्र से देश में व्यापक चर्चा हो रही है। इन सबके साथ सवाल भी उठ रहे हैं कि सोशल मीडिया कितना सोशल बचा है?
अब चलते हैं सोमवार शाम की ओर। सारे खबरिया चैनल दिल्ली दंगे के बाद की स्थितियों और निर्भया के बलात्कारियों की फांसी एक बार और टलने की स्थितियों पर चर्चा कर रहे थे। इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक ट्वीट आया कि वे सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स से दूरी बनाने पर विचार कर रहे हैं और कुछ देर के लिए तो पूरे देश का विमर्श ही बदल सा गया। सारे खबरिया चैनल प्रधानमंत्री के सोशल मीडिया से दूरी बनाने की स्थितियों पर चर्चा करने लगे। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया भारतीय जनमानस के लिए आत्मिक स्तर पर जुड़ाव का मजबूत माध्यम बन चुका है। सोशल मीडिया के तमाम लाभों का विश्लेषण करने के साथ उस कारण हो रहे नुकसान भी खुलकर सामने आ रहे हैं। जिस तरह दिल्ली में हुए दंगों के पीछे सोशल मीडिया की अराजकता बड़ा कारण बन कर उभरी है, उससे स्पष्ट है कि सोशल मीडिया वास्तविक संदर्भों में सोशल नहीं रह गया है। सोशल मीडिया का मूल प्रादुर्भाव समाज को जोड़ने के लिए माना जा सकता है किन्तु पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह समाजिक विघटन के मूल कारणों में सोशल मीडिया एक बड़ा कारण बन कर उभरा है, उससे स्पष्ट है कि सोशल मीडिया की स्वीकार्यता के स्तर पर विधायी विचार भी जरूरी है।
सोशल मीडिया को लेकर ये चिंताएं सिर्फ भारत के संदर्भ में ही प्रभावी नहीं हैं। पूरी दुनिया में सोशल मीडिया समाधान के साथ समस्या के रूप में भी उभर कर सामने आया है। डेटा सस्ता होने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। सोशल मीडिया पर सक्रियता के मामले में भारत शेष दुनिया से पीछे नहीं है। आंकड़े गवाह हैं कि भारत के लोग अपना 70 प्रतिशत तक समय तमाम सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर बिताते हैं। भारत के सोशल मीडिया प्रयोक्ता रोज औसतन ढाई घंटे का समय सोशल मीडिया को देते हैं। इस मामले में भारत पूरी दुनिया में तेरहवें स्थान पर है। पिछले कुछ चुनावों से भारत में सोशल मीडिया की उपयोगिता को गंभीरता से समझा जा रहा है। सोशल मीडिया पर चुनावी अभियान तो चले ही हैं, माहौल बनाने में भी इसका उपयोग बहुत किया गया है। भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी अभिव्यक्त कर देने की शिकायतें आम हो गयी हैं और सरकार भी इस बाबत नया कानून बनाने की तैयारी कर रही है। इस कानून के लिए सरकार ने जनता से राय भी मांगी थी। माना जा रहा है कि जल्द ही कानून बनाकर सोशल मीडिया को अफवाहों का प्लेटफार्म बनने से रोकने की प्रभावी कोशिश की जाएगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सोशल मीडिया से दूरी बनाए जाने संबंधी विचार को भी भारत में सोशल मीडिया के दुरुपयोग से जोड़कर देखा जा रहा है। जिस तरह प्रधानमंत्री स्वयं सोशल मीडिया से जुड़ाव के पक्षधर रहे हैं, उसके बाद उनका यह विचार सोशल मीडिया के वैचारिक ह्रास और इसे लेकर प्रधानमंत्री की चिंताओं की अभिव्यक्ति भी है। भारत इस समय सर्वाधिक युवा आबादी के साथ हर हाथ में मोबाइल लेकर दुनिया के साथ कदमताल कर रहा है। ऐसे में सोशल मीडिया का अराजक होना निश्चित रूप से देश व समाज के लिए खतरनाक है। ऐसे में समाज के सभी वर्गों को सोशल मीडिया के बारे में सकारात्मक वातावरण बनाने के साथ इसके दुरुपयोग रोकने की मशक्कत करनी होगी। इन्हीं स्थितियों में सोशल मीडिया, वास्तविक रूप से सोशल बन सकेगा।