Wednesday 27 May 2020

ज़कात व अमन की सौग़ात दे गया रमजान

ईद पर हामिद चिमटा न ला सका, ज़कात के संदेशे दे गया
डॉ. संजीव मिश्र
मुंशी प्रेमचंद की कहानी ईदगाह हर ईद पर याद आती है। हर ईद इस उम्मीद के साथ आती है कि कोई हामिद अपनी दादी के जलते हाथों की परवाह कर चिमटा लाएगा। इस बार ईद तो आई पर ईदगाहों पर मेले न लगे। कोरोना के चलते इस बार ईद की नमाज़ भी घर मैं अदा की गई। ऐसे में न ईदगाह पर मेला लगा न हामिद वहाँ जा सका। हाँ, इतना ज़रूर हुआ कि हामिद ने पूरे देश को मज़बूत संदेश दिया। हामिद जैसे तमाम बच्चों ने आस पड़ोस के भूखे लोगों को खाना खिलाया और उन बच्चों को ईदी दी, जिन्हें कोरोना संकट के कारण इस बार ईदी मिलने की उम्मीद न थी। यह ईद जकात का संदेश लिए आई थी। देश में एकजुटता का भाव लिए आई ईद पर आय का दसांश दान करने संबधी भारतीय मूल भाव भी था और जकात सहेजे इस्लामी परंपरा भी।
कोरोना संकट के कारण चल रहे लॉकडाउन ने ईद पर परम्परागत उत्सवधर्मिता को घरों तक सीमित कर दिया था। इसको लेकर तमाम चर्चाएँ भी हो रही थी। कुछ कट्टरपंथियों को पूरी उम्मीद थी कि ईद पर लोग सड़कों पर उतरेंगे और जगह जगह लॉकडाउन का उल्लंघन होगा। देश में कोरोना की शुरुआत के बाद तब्लीगी जमात के क्रियाकलापों ने इस डर को और बढ़ाया था।            
इस बार ईद पर जिस तरह से देश में सकारात्मक वातावरण का सृजन हुआ है, इससे देश की विभाजनकारी शक्तियों के मुँह पर भी तमाचा लगा है। जिस तरह से ईद के पहले माहौल बना कर इस दिन को चुनौती के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था, देश के सद्भाव ने ऐसा माहौल बनाने वालों के मुँह पर तमाचा जड़ा है। पूरे देश से ईद पर दान की ख़बरें आ रही हैं। देश के सामने आ रहे आर्थिक संकट को देखते हुए इस समय अर्थव्यवस्था के साथ क़दमताल की ज़रूरत है और भारतीय दान परंपरा ही इस भाव को बचा सकती है। भारतीय परंपरा में अपनी आय का दसांश यानी दसवाँ हिस्सा दान करने की परंपरा है। इस्लाम इस मान्यता को ज़कात के रूप में अंगीकार करता है। इस बार ईद पर यह परम्परा और मज़बूती से प्रभावी रूप लेती दिखी। रमज़ान के दौरान मुस्लिम युवाओं ने रमज़ान और ईद पर पैसे बचाकर बेसहारा लोगों की मदद की मुहिम चलायी। लोगों ने दिखाया कि सोशल मीडिया का सदुपयोग भी किया जा सकता है। यही कारण है कि इस बार रमज़ान और ईद मुबारक के संदेशे दान का आह्वान भी कर रहे थे।
आय का एक हिस्सा दान करने की यह परंपरा कोरोना संकट के समय खुलकर देखने को मिल रही है। कोरोना के दौरान करुणा का भाव सहेज कर देश भर में लोग एक दूसरे की मदद को आगे आए हैं। इसमें बच्चों तक दान का संस्कार भी पहुँचा है। लखनऊ में जिस तरह बच्चों ने अपनी गुल्लकों को तोड़कर कोरोना पीड़ितों की मदद की पहल की है,  उससे स्पष्ट है कि अगली पीढ़ी जुड़ाव स्थापित कर रही है। कोरोना संकट के बीच रमज़ान के दौरान रोज़ा इफ़्तार की तमाम दावतें नहीं हुई और पूरे देश में मुस्लिम समाज ने इफ़्तार की दावतों पर खर्च होने वाला धन कोरोना पीड़ितों को दान करने की पहल की। लोगों ने बाक़ायदा अभियान चलाकर ईद पर नए कपड़े के स्थान पर मदद की गुहार तक की। जिस तरह लोगों ने पहले नवरात्र में घरों तक सीमित रहकर लॉकडाउन की शुचिता बनाए रखने में मदद की, उसी तरह रमज़ान के दौरान भी घरों के भीतर ही इबादत को स्वीकार किया गया। जिस तरह देशवासियों ने धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठकर संकट से निपटने को तरजीह दी है, उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। कोरोना हमें बहुत कुछ सिखा भी रहा है और संकट का सामना करने के साथ उसमें अवसर ढूँढने की राह भी दिखा रहा है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया इस समय दूसरे विश्व युद्ध के बाद के सबसे बड़े संकट से गुज़र रही है। भारत में जिस तरह यह परेशानी द्रुत गति से बढ़ रही है वह स्थिति चिन्ताजनक है।इसका असर रोज़ी रोज़गार से लेकर परिवार तक पड़ रहा है। ऐसे में ज़रूरी है कि हम सब मिलकर अपने आस पास भी पीड़ितों की पहचान करें और उन्हें हर संभव मदद पहुँचाएँ।                  

Thursday 21 May 2020

अमानवीयता की पराकाष्ठा झेलता देश

डॉ.संजीव मिश्र

सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछाकर

मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते

शायर मुनव्वर राना की ये पंक्तियां देश भर में मजदूरों का हाल बयां कर रही हैं। कोरोना संकट की भेंट चढ़कर बेरोजगार हुए मजदूरों के साथ कदम-दर-कदम अमानवीयता के नए-नए पैमाने गढ़े जा रहे हैं। कहीं मजदूर रेल पटरी की गिट्टियों पर सोते हुए जान गंवा रहे हैं, तो कहीं सड़क दुर्घटना उन्हें मौत के मुंह में ले जा रही है। पूरे देश में अव्यवस्था का माहौल है, जिसके साथ ही देश को अमानवीयता की पराकाष्ठा का सामना भी करना पड़ रहा है। इन सबके बीच भी राजनीति हो रही है और मजदूर उस राजनीति की भेंट चढ़ रहे हैं।

कोरोना संकट की सबसे गहरी व खतरनाक गाज रोज कमाने-खाने वाले मजदूरों पर ही पड़ी है। दरअसल कोरोना से बचाव के लिए अब तक चल रहे लॉकडाउन के कारण अचानक दस करोड़ से अधिक लोगों को बेरोजगारी संकट का सामना करने के लिए विवश होना पड़ा है। इनमें से से एक तिहाई से अधिक ऐसे हैं जो अपने राज्यों से इतर दूसरे राज्यों में मजदूरी कर जीवन यापन कर रहे थे। ऐसे मजदूर अप्रवासी मजदूर की श्रेणी में आए और वे सब अब अपने घर पहुंचने के लिए व्याकुल है। उनकी इस व्याकुलता के सकारात्मक समाधान की जिम्मेदारी सरकारों की है, किन्तु सरकारों की प्राथमिकताओं में ये मजदूर रहे ही नहीं। भारत सरकार की पहल स्थापित स्टेट वाइड एरिया नेटवर्क (एसडब्ल्यूएएन) की हेल्पलाइन नंबर पर आई शिकायतों को आधार बनाकर किये गए आंकलन में भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। पता चलता है कि मजदूरों में तीन चौथाई से अधिक को लॉक़डाउन अवधि की मजदूरी ही नहीं मिली। सरकार हर मजदूर तक राशन पहुंचाने का दावा करती है किन्तु एसडब्ल्यूएएन का आंकलन बताता है कि 80 प्रतिशत से अधिक मजदूरों को सरकार की ओर से राशन नहीं मिल सका है। इन मजदूरों को भीषण आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है। 60 प्रतिशत से अधिक मजदूरों के पास तो औसतन सौ रुपये के आसपास ही बचे हैं। ऐसे में रोजगार जाने, पैसे न बचने और भविष्य के प्रति नाउम्मीदी उन्हें वापस अपने घर की ओर ले जाना चाहती है। घर जाने के लिए पर्याप्त बंदोबस्त न होने से स्थितियां अराजक सी हो गयी हैं और पूरे देश में मजदूर परेशान हैं। 

पहले दो दौर के लॉकडाउन में मजदूरों को लेकर हर स्तर पर रणनीतिक विफलताओं के बाद सरकारें कुछ चेतीं, किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी और पूरे देश में मजदूरों का मरना शुरू हो चुका था। पूरे देश से मजदूरों की मौत की खबरें आ रही हैं और सरकारें हर स्थिति का आंकलन अपने हिसाब से कर रही हैं। मजदूर घर जाना चाहते हैं और इसके लिए बचत की हुई धनराशि तक खर्च करने के लिए तैयार हैं। यही कारण है कि महाराष्ट्र में जगह-जगह मजदूरों की भीड़ उन्हें लाखों की संख्या में स्टेशन पहुंचा देती है और गुजरात में तो यही मजदूर डटकर पुलिस की लाठियों तक का सामना कर रहे हैं। दरअसल मजदूर हर स्तर पर खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। जब सरकारों ने उन्हें वापस भेजने व बुलाने के बड़े-बड़े दावे किये तो लगा कि सब ठीक हो जाएगा, किन्तु ऐसा हो न सका। जब इन दावों ने हकीकत की सड़क पर उतरना शुरू किया तो मजदूरों के साथ छलावा साफ दिखा। रेल के पहिए दौड़ने तो शुरू हुए किन्तु मजदूरों को पेट काटकर किराया देना पड़ा। सड़क पर वाहन दौड़े तो मजदूरों को कोरोना संकट के दौरान जरूरी न्यूनतम बचाव के उपाय के बिना भूसे की तरह भरकर यात्रा के लिए विवश होना पड़ा। कई बार तो लगता है कि राज्य सरकारें चाहती ही नहीं हैं कि मजदूर उनके राज्यों से वापस जाएं। उन्हें अपने घर जाने देने से रोकना कई बार उन्हें बंधक बनाए रखने जैसी अनुभूति प्रदान कराता है। बंधक बने रहने का यही भाव छूटते ही भाग ख़ड़े होने की ताकत देता है और देश भर में मजदूर यही कर रहे हैं। कभी वे सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं तो कभी साइकिल से लंबी यात्राएं करने को मजबूर हैं।

सरकारों की उदासीनता व अराजक नियोजन के कारण मजदूरों को हो रही परेशानी के बीच राजनीति के रंग भी निराले हो रहे है। पूरी दुनिया के साथ भारत कोरोना जैसी अंतर्राष्ट्रीय आपदा से लड़ तो रहा है किन्तु व्यवस्थाओं के बीच राजनीति कोरोना से जूझते लोगों को निराश ही कर रही है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर 2019 में श्रमशक्ति भागीदारी दर 49.3 प्रतिशत रह गयी थी। इसी तरह सेंटर फॉर मानीटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के ताजा आंकड़े भी भारत में बेरोजगारी दर 27 प्रतिशत की ऊंचाई तक पहुंचने की बात कहते हैं। ऐसे में जरूरी है कि राजनीति को भूलकर अगले कुछ वर्ष मानवीय आधार पर चिंता करने की तैयारी की जाए। लोग एक दूसरे की मदद को आगे बढ़ें और सरकारें अपने हिस्से का काम ईमानदारी से करें।

Wednesday 13 May 2020

कब दिखेंगे मजदूरों की मौत के आंसू


डॉ.संजीव मिश्र
कोरोना को लेकर पूरा देश चिंता में डूबा है। घर से रोजी-रोटी की चाह लेकर दूर-देश कमाने गए ये मजदूर भी चिंतित हुए। राह न मिली तो कोई सड़क पर तो कोई पटरी-पटरी चल पड़ा। वे घर पहुंचना चाहते थे, किन्तु व्यवस्था ने उन्हें दी मौत। कोरोना काल में बीमारी से इतर व्यवस्था की भेंट चढ़े मजदूरों की मौत के आंसू किसी को नहीं दिख रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘वन इंडिया’ और ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ जैसी चर्चाओं और वैमर्शिक आख्यानों के बीच ये मजदूर ‘इस प्रदेश उस प्रदेश’ के मजदूर बन कर रह गए हैं और उन्हें मौत के मुंह में झोंक कर सरकारें कोरोना नियंत्रण के लिए अपनी पीठ थपथपा रही हैं।
कोरोना संकट के बाद पूरी दुनिया खासी परेशान हुई थी। ऐसे में भारत को लेकर भी बहुत चिंताएं थीं किन्तु जिस तरह से भारत ने कोरोना संकट से निपटने की रणनीति बनाई और उस पर अमल किया, उसकी प्रशंसा भी चहुंओर हो रही थी। इस प्रशंसा के बीच इस देश के मजदूर व गरीब शायद मरने के लिए छोड़ दिये गए थे। भारत में आर्थिक विषमता के कारण आज भी देश के कुछ राज्यों से मजदूर भारी संख्या में दूसरे राज्यों में जाकर जीवन यापन करते हैं। दूसरे राज्यों में जाने वाले ये मजदूर कोरोना संकट के समय खासे परेशान से हो गए। एक साथ लॉकडाउन ने अपने घरों तक पहुंचने के लिए उनके रास्ते रोक दिये। कोरोना से बचने के लिए लॉकडाउन होना जरूरी था किन्तु ऐसे में राज्य सरकारों की जिम्मेदारी थी कि वे मजदूरों व गरीबों की चिंता करतीं। दुर्भाग्य की शुरुआत यहीं से हुई। जिन राज्यों में काम करते हुए ये मजदूर अभी तक उनके लिए उपयोगी थी, अचानक वे अनुपयोगी हो गए। ‘एक भारत’ का स्वप्न राज्य सरकारों की अपने-अपने नागरिकों की खींचतान के भाव के कारण टूट सा गया। कई राज्यों की सीमा पर हजारों नागरिक जुट गए जिससे उनके लिए प्रबंधन चुनौती बन गया।
राज्यों की इस खींचतान का परिणाम मजदूरों की मौत के रूप में सामने आ रहा है। महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में उत्तर भारतीय राज्यों से मजदूर काम करने जाते हैं। महाराष्ट्र में कामकाज न होने और पैसे भी खत्म हो जाने की स्थिति में मध्य प्रदेश स्थित अपने घर की ओर रवाना हुए ऐसे ही 16 मजदूर थक हार कर ट्रेन की पटरी पर ही सो गए और धड़धड़ाती रेलगाड़ी उन्हें कुचलते हुए निकल गयी। उनकी मौत के बाद बातें तो बड़ी-बड़ी हुईं किन्तु इन स्थितियों के लिए जिम्मेदारियों का निर्धारण कर उन्हें दंडित करने की पहल नहीं की गयी। दरअसल इस घटना के बाद हम कुछ सीख ही लेते, वह भी नहीं हुआ। आज भी मजदूर दूर-दूर से पैदल आने को विवश हैं। महाराष्ट्र से ऐसे ही उत्तर प्रदेश के तमाम मजदूर पैदल चल पड़े, जिनमें से कई मजदूरों ने रास्ते में दम तोड़ दिया। दरअसल लॉकडाउन के बावजूद देश की सड़कें अराजक बनी हुई हैं। यी कारण है कि अंबाला में पैदल जा रहे मजदूर को कार ने कुचल दिया। अब यह सवाल उठना अवश्यंभावी है कि लॉकडाउन के दौर में वह अराजक कार सड़क पर क्यों घूम रही थी। ऐसी ही तमाम घटनाएं देश भर से सामने आ चुकी हैं।
मजदूरों की मौत को लेकर समाज व सरकार, दोनों की गंभीरता कभी सामने नहीं आती। कई बार तो लगता है कि देश अमीर-गरीब में बुरी तरह विभाजित हो गया है। यहां की सारी चिंताएं बस धनाढ्य-केंद्रित हैं, जिनमें गरीबों की भूमिका महज मजदूरों जैसी है। इन गरीबों का नेतृत्व करने वाले जब सत्ता का हिस्सा बनते हैं तो वे भी उनसे दूर हो जाते हैं। मजदूरों की उपेक्षा करते समय हम भूल जाते हैं कि यही लोग हमारी नींव का पत्थर हैं। जिस तरह नींव का पत्थर भले ही सामने न दिखता हो किन्तु यदि नींव कमजोर हुई तो आकर्षक भवन भी ढह जाएगा, वैसे ही मजदूरों के प्रति हमारा दुर्भावनापूर्ण व्यवहार पूरे देश के लिए भारी पड़ेगा। कोरोना से निपटने के बाद देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती ऐसे गरीब व मजदूर ही होंगे। अर्थव्यवस्था चौपट होने के बाद की स्थितियों में मजदूरों की चिंता करना भी एक बड़ी जिम्मेदारी होगी। दरअसल भारत में गरीबी कोरोना से बड़ी बीमारी है। कोरोना से निपटने के बाद गरीब बढ़ेंगे तो यह बीमारी भी बढ़ेगी। यह गरीब ही है, जो कभी किसान के रूप में तो कभी कारखाने के कुशल-अकुशल श्रमिक के रूप में हमारी मूलभूत जरूरतों को पूरा करता है किन्तु जब उसके परेशान होने की बारी आती है तो हम उसे कभी रेल की पटरियों पर तो कभी कार के पहियों से कुचलकर मरने के लिए छोड़ देते हैं। सामान्य स्थितियों में भी इलाज की श्रेष्ठतम सुविधाएं तो धन आधारित ही होती हैं, जिनसे गरीब वंचित ही रहते हैं। कोरोना के साथ ही हमें गरीबी से मुक्ति की राह भी खोजनी होगी। ऐसा किये बिना ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ जैसे नारे महज स्वप्न बनकर रह जाएंगे, ये यथार्थ के धरातल पर नहीं उतर सकेंगे।

Wednesday 6 May 2020

गांधी के देश में शराब जरूरी या मजबूरी!


डॉ.संजीव मिश्र
कोरोना संकट के चलते बार-बार बढ़ते लॉक डाउन के बीच सोमवार को देश में एक साथ शराब की दुकानें खुलीं तो विमर्श का नया दौर शुरू हो गया। प्रफुल्लित शराबी दुकानों के बार पंक्तिबद्ध नजर आए तो गांधी से लेकर भारतीय संस्कृति को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले तक कहीं मौन तो कहीं चिंतित लगे। भारत की पहचान महात्मा गांधी हैं, वही महात्मा गांधी जो न सिर्फ राष्ट्रपिता का दर्जा पाए हुए हैं, बल्कि नोट तक में छपते हैं। वे गांधी शराब के घनघोर विरोधी थे, किन्तु यह दुर्योग ही कहा जाएगा कि उन्हीं गांधी के देश में शराब जरूरी ही नहीं, मजबूरी सी बन गयी है। राजस्व का तर्क देकर भारत में लस्सी से पहले शराब की दुकानें खोल दी गयी हैं और गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले इस राजनीतिक फैसले का जरूरी हिस्सा बने हुए हैं। वे मौन हैं और शराब देश की प्राथमिकता में शामिल हो चुकी है।
सोमवार सुबह शराब की दुकानें खोलने से पहले सोशल डिस्टेंसिंग से लेकर तमाम शर्तों की बातें की गयी थीं। इसके बावजूद न तो उन शर्तों का पालन हुआ न ही शराबियों की मनमानी रुकी। उन घरों की महिलाएं जरूर चिंतित दिखीं, जिन्हें पिछले एक महीने में अपने पति को बिना शराब के शांति पूर्वक रहते देखने की आदत पड़ गयी थी। वे बच्चे जरूर दोबारा दुखी दिखे, जिनके पिता पिछले एक महीने से अधिक समय से बिना लहराए घर आए थे और उनके साथ मारपीट भी नहीं की थी। ऐसे समय में शराब की दुकानें खोलने का फैसला किया गया है, जब स्कूल-कालेज बंद हैं, मंदिर-मस्जिद में लोगों की आवाजाही थमी है। वह भी तब, जबकि सबको पता है कि शराब न सिर्फ घरेलू हिंसा को बढ़ावा देती है, अपराध भी बढ़ाती है। कामकाज ठप पड़ा है, ऐसे में शराब के लिए पैसे जुटाने को अपराध बढ़ेंगे। साथ ही यह समय नयी पीढ़ी के सीखने का भी है। इस फैसले से नयी पीढ़ी तो यही संदेश लेकर आगे बढ़ेगी कि शराब से ज्यादा जरूरी शायद कुछ भी नहीं है, इसीलिए सरकार ने स्कूल से पहले शराब की दुकानें खोलने का फैसला किया है। यह तब है, जबकि देश पूरी तरह से सरकारों के साथ खड़ाहोकर कोरोना नियंत्रण की कोशिशों में हाथ बंटा रहा है। बच्चे घरों में ऑनलाइन पढ़ाई की पहल कर रहे हैं, नौकरीपेशा लोगों ने न सिर्फ अपने वेतन का एक हिस्सा कोरोना से लड़ाई में दान किया है, बल्कि अगले एक वर्ष तक वेतन वृद्धि और पहले से मिल रहे तमाम भत्ते तक दान कर दिये हैं। सकारात्मक पहलू यह है कि लोग खुले मन से दान कर रहे हैं और दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि सरकारें सबसे पहले शराब की दुकानें खोल रही हैं।
शराब की दुकानें खोलने के पीछे सरकारों के तर्क पूरी तरह नकारे भी नहीं जा सकते। दरअसल राज्य सरकारों को मिलने वाले राजस्व का बड़ा हिस्सा शराब से ही प्राप्त होता है। पूरे देश में राज्य सरकारों के राजस्व का बीस से तीस प्रतिशत तक शराब से आता है। ऐसे में राज्यों की अर्थव्यवस्था शराब केंद्रित सी हो जाती है। शराब आधारित अर्थव्यवस्था पर चलने वाली हमारी सरकारें अर्थव्यवस्था के मूल तत्व यानी भारतीय रुपये पर छपी उस तस्वीर को भी भूल जाती हैं, जिस तस्वीर से शराबबंदी का संदेश मुखर रूप से सामने आता है। जी हां, भारतीय रुपये पर हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की तस्वीर छपी होती है और वे शराब के मुखर विरोधी थे। महात्मा गांधी देशव्यापी शराबबंदी के पक्षधर थे। वे शराब को चोरी और व्यभिचार से भी ज्यादा निंदनीय मानते थे। उनका मानना था कि यदि देश में शराबबंदी लागू नहीं होगी, तो हमारी स्वतंत्रता गुलामी बनकर रह जाएगी। आज लग रहा है कि गांधी सही थे। आज हम शराब के ही गुलाम बन गए हैं और शराब की दुकानें खोलना हमारी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर हो गया है। महात्मा गांधी कहते थे कि शराब की आदत मनुष्य की आत्मा का नाश कर देती है और उसे धीरे-धीरे पशु बना डालती है, जो पत्नी, मां और बहन में भेद करना भूल जाता है। वे शराब से होने वाली हानि को तमाम बीमारियों से होने वाली हानि की अपेक्षा अधिक हानिकारक मानते थे। उनका कहना था कि बीमारियों से तो केवल शरीर को ही हानि पहुंचती है, जबकि शराब से शरीर और आत्मा, दोनों का नाश हो जाता है। शराब सो अर्थव्यवस्था से जोड़ने वालों के लिए भी महात्मा गांधी ने सीधा जवाब दिया था। उन्होंने कहा था कि वे भारत का गरीब होना बर्दाश्त करेंगे, किन्तु यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि देश के लोग शराबी हों। वे किसी भी कीमत पर शराबबंदी चाहते थे।
शराब की दुकानें खोलने वालों में किसी भी राजनीतिक दल की सरकारें पीछे नहीं हैं। इसमें सभी दल सहोदर भाव से एक साथ हैं। जो लोग आजादी के बाद आज तक गांधी की विरासत को संभालने का दावा कर रहे हैं, उनकी सरकारें भी शराब की दुकानें खोलने के फैसले के साथ खड़ी हैं। गांधी विरोध की तमाम तोहमतें बर्दाश्त करने के बाद भी गांधी के बताए रास्ते पर चलने का दावा करने वाली सरकारें भी शराब की दुकानें खुलवा रही हैं। वहीं जो लोग स्वयं को गांधी के सबसे करीब मानने का दावा कर राजनीति बदलने आए हैं, वे भी शराब की दुकानें खोलने से पीछे नहीं हटे। इन सबने शराब की दुकानें खोलने को मजबूरी बताते हुए जरूरी कर दिया है, यह पहलू दुखद है।