डॉ.संजीव मिश्र
कोरोना संकट के चलते बार-बार बढ़ते लॉक डाउन के बीच सोमवार को देश
में एक साथ शराब की दुकानें खुलीं तो विमर्श का नया दौर शुरू हो गया। प्रफुल्लित
शराबी दुकानों के बार पंक्तिबद्ध नजर आए तो गांधी से लेकर भारतीय संस्कृति को लेकर
बड़ी-बड़ी बातें करने वाले तक कहीं मौन तो कहीं चिंतित लगे। भारत की पहचान महात्मा
गांधी हैं, वही महात्मा गांधी जो न सिर्फ राष्ट्रपिता का दर्जा पाए हुए हैं, बल्कि
नोट तक में छपते हैं। वे गांधी शराब के घनघोर विरोधी थे, किन्तु यह दुर्योग ही कहा
जाएगा कि उन्हीं गांधी के देश में शराब जरूरी ही नहीं, मजबूरी सी बन गयी है।
राजस्व का तर्क देकर भारत में लस्सी से पहले शराब की दुकानें खोल दी गयी हैं और
गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले इस राजनीतिक फैसले का जरूरी हिस्सा बने हुए
हैं। वे मौन हैं और शराब देश की प्राथमिकता में शामिल हो चुकी है।
सोमवार सुबह शराब की दुकानें खोलने से पहले सोशल डिस्टेंसिंग से लेकर
तमाम शर्तों की बातें की गयी थीं। इसके बावजूद न तो उन शर्तों का पालन हुआ न ही
शराबियों की मनमानी रुकी। उन घरों की महिलाएं जरूर चिंतित दिखीं, जिन्हें पिछले एक
महीने में अपने पति को बिना शराब के शांति पूर्वक रहते देखने की आदत पड़ गयी थी।
वे बच्चे जरूर दोबारा दुखी दिखे, जिनके पिता पिछले एक महीने से अधिक समय से बिना
लहराए घर आए थे और उनके साथ मारपीट भी नहीं की थी। ऐसे समय में शराब की दुकानें
खोलने का फैसला किया गया है, जब स्कूल-कालेज बंद हैं, मंदिर-मस्जिद में लोगों की
आवाजाही थमी है। वह भी तब, जबकि सबको पता है कि शराब न सिर्फ घरेलू हिंसा को
बढ़ावा देती है, अपराध भी बढ़ाती है। कामकाज ठप पड़ा है, ऐसे में शराब के लिए पैसे
जुटाने को अपराध बढ़ेंगे। साथ ही यह समय नयी पीढ़ी के सीखने का भी है। इस फैसले से
नयी पीढ़ी तो यही संदेश लेकर आगे बढ़ेगी कि शराब से ज्यादा जरूरी शायद कुछ भी नहीं
है, इसीलिए सरकार ने स्कूल से पहले शराब की दुकानें खोलने का फैसला किया है। यह तब
है, जबकि देश पूरी तरह से सरकारों के साथ खड़ाहोकर कोरोना नियंत्रण की कोशिशों में
हाथ बंटा रहा है। बच्चे घरों में ऑनलाइन पढ़ाई की पहल कर रहे हैं, नौकरीपेशा लोगों
ने न सिर्फ अपने वेतन का एक हिस्सा कोरोना से लड़ाई में दान किया है, बल्कि अगले
एक वर्ष तक वेतन वृद्धि और पहले से मिल रहे तमाम भत्ते तक दान कर दिये हैं।
सकारात्मक पहलू यह है कि लोग खुले मन से दान कर रहे हैं और दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह
है कि सरकारें सबसे पहले शराब की दुकानें खोल रही हैं।
शराब की दुकानें खोलने के पीछे सरकारों के तर्क पूरी तरह नकारे भी
नहीं जा सकते। दरअसल राज्य सरकारों को मिलने वाले राजस्व का बड़ा हिस्सा शराब से
ही प्राप्त होता है। पूरे देश में राज्य सरकारों के राजस्व का बीस से तीस प्रतिशत
तक शराब से आता है। ऐसे में राज्यों की अर्थव्यवस्था शराब केंद्रित सी हो जाती है।
शराब आधारित अर्थव्यवस्था पर चलने वाली हमारी सरकारें अर्थव्यवस्था के मूल तत्व
यानी भारतीय रुपये पर छपी उस तस्वीर को भी भूल जाती हैं, जिस तस्वीर से शराबबंदी
का संदेश मुखर रूप से सामने आता है। जी हां, भारतीय रुपये पर हमारे राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी की तस्वीर छपी होती है और वे शराब के मुखर विरोधी थे। महात्मा गांधी
देशव्यापी शराबबंदी के पक्षधर थे। वे शराब को चोरी और व्यभिचार से भी ज्यादा
निंदनीय मानते थे। उनका मानना था कि यदि देश में शराबबंदी लागू नहीं होगी, तो
हमारी स्वतंत्रता गुलामी बनकर रह जाएगी। आज लग रहा है कि गांधी सही थे। आज हम शराब
के ही गुलाम बन गए हैं और शराब की दुकानें खोलना हमारी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर
हो गया है। महात्मा गांधी कहते थे कि शराब की आदत मनुष्य की आत्मा का नाश कर देती
है और उसे धीरे-धीरे पशु बना डालती है, जो पत्नी, मां और बहन में भेद करना भूल
जाता है। वे शराब से होने वाली हानि को तमाम बीमारियों से होने वाली हानि की
अपेक्षा अधिक हानिकारक मानते थे। उनका कहना था कि बीमारियों से तो केवल शरीर को ही
हानि पहुंचती है, जबकि शराब से शरीर और आत्मा, दोनों का नाश हो जाता है। शराब सो
अर्थव्यवस्था से जोड़ने वालों के लिए भी महात्मा गांधी ने सीधा जवाब दिया था।
उन्होंने कहा था कि वे भारत का गरीब होना बर्दाश्त करेंगे, किन्तु यह बर्दाश्त
नहीं कर सकते कि देश के लोग शराबी हों। वे किसी भी कीमत पर शराबबंदी चाहते थे।
शराब की दुकानें खोलने वालों में किसी भी राजनीतिक दल की सरकारें
पीछे नहीं हैं। इसमें सभी दल सहोदर भाव से एक साथ हैं। जो लोग आजादी के बाद आज तक
गांधी की विरासत को संभालने का दावा कर रहे हैं, उनकी सरकारें भी शराब की दुकानें
खोलने के फैसले के साथ खड़ी हैं। गांधी विरोध की तमाम तोहमतें बर्दाश्त करने के
बाद भी गांधी के बताए रास्ते पर चलने का दावा करने वाली सरकारें भी शराब की दुकानें
खुलवा रही हैं। वहीं जो लोग स्वयं को गांधी के सबसे करीब मानने का दावा कर राजनीति
बदलने आए हैं, वे भी शराब की दुकानें खोलने से पीछे नहीं हटे। इन सबने शराब की
दुकानें खोलने को मजबूरी बताते हुए जरूरी कर दिया है, यह पहलू दुखद है।
No comments:
Post a Comment