Wednesday 24 April 2019

...तो चुनाव बाद काम आएगी यह ‘फिक्सिंग’


डॉ. संजीव मिश्र
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में 18 अप्रैल की दोपहर चटख धूप के साथ तापमान भी खासा बढ़ा हुआ था। लोकसभा चुनाव की गहमागहमी इस तपिश को और बढ़ा रही थी। दरअसल हाल ही में भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए दिग्गज फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा यहां समाजवादी पार्टी का झंडा लहरा रहे थे। शत्रुघ्न की पत्नी पूनम को समाजवादी पार्टी ने केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के सामने लखनऊ से टिकट दिया और शत्रुघ्न अपनी पार्टी कांग्रेस के प्रत्याशी की जगह समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी गठबंधन की प्रत्याशी के समर्थन में बाकी सभी को ‘खामोश’ कर रहे थे। दरअसल सपा व कांग्रेस की यह ‘फिक्सिंग’ महज लखनऊ में ही नहीं, पूरे उत्तर प्रदेश में दिखाई दे रही है। माना जा रहा है कि यह ‘फिक्सिंग’ चुनाव बाद काम आ सकती है।
  कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में 2017 का विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा था। तब फिजां में गठबंधन की शक्ल में ‘दो लड़के’ छाए थे और राहुल गांधी व अखिलेश यादव की इस जोड़ी में तमाम लोग देश का भविष्य देख रहे थे। दो बरस भी नहीं हुए और यह जोड़ी टूट गयी। कभी धुर विरोधी रहे समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने राष्ट्रीय लोकदल के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया किन्तु कांग्रेस को उससे दूर रखा। शुरू में तो माना गया कि राजनीतिक नफा-नुकसान के आधार पर गठबंधन से कांग्रेस को दूर रखा गया है किन्तु अब जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ रहे हैं, उत्तर प्रदेश में तेजी से ‘फिक्सिंग’ की राय बन रही है। माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश की तमाम सीटों पर सपा व कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। वैसे भी सपा-बसपा ने गठबंधन के लिए दो सीटें (सोनिया गांधी की रायबरेली व राहुल गांधी की अमेठी) छोड़ दी थीं। इसके जवाब में कांग्रेस ने गठबंधन को सात सीटें देने का एलान कर दिया। कांग्रेस ने रालोद मुखिया अजित सिंह की सीट मुजफ्फर नगर, उनके बेटे जयंत चौधरी की सीट बागपत, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की सीट आजमगढ़, उनकी पत्नी डिम्पल यादव की सीट कन्नौज, सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव की सीट मैनपुरी व उनके भतीजे अक्षय यादव की सीट फिरोजाबाद से कांग्रेस ने प्रत्याशी ही नहीं खड़े किये। ऐसे में इन सीटों पर भाजपा को सपा-बसपा-रालोद के महागठबंधन से सीधा मुकाबला करना है और यहां ध्रुवीकरण की स्थितियां भी बन रही हैं।
  महागठबंधन से मुकाबले में कुछ सीटें छोड़ने तक तो बात खुल कर हुई किन्तु जिस तरह के प्रत्याशी उतारे गए हैं, उससे ‘फिक्सिंग’ के आरोप लगने अवश्यंभावी हैं। देश के गृह मंत्री राजनाथ सिंह की सीट लखनऊ को ही लें, तो वहां से समाजवादी पार्टी की टिकट पटना से कांग्रेस प्रत्याशी शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को मिली है। स्वयं शत्रुघ्न पार्टी धर्म भूल पत्नी धर्म निभाते हुए लखनऊ आए और सपा-बसपा के लहराते झंडों के बीच रोड शो किया। यही कारण है कि लखनऊ के कांग्रेस प्रत्याशी प्रमोद कृष्णम् को उन्हें पार्टी धर्म की याद दिलानी पड़ी। प्रदेश की कुछ अन्य सीटों पर भी यह ‘फिक्सिंग’ साफ नजर आती है। उत्तर प्रदेश में इस समय सर्वाधिक चर्चा में रामपुर सीट है। यहां सपा प्रत्याशी आजम खां का मुकाबला भाजपा प्रत्याशी व फिल्म अभिनेत्री जयाप्रदा से है। कांग्रेस यहां लगातार मुस्लिम प्रत्याशी उतारती रही है। यहां से कांग्रेस की टिकट पर राजा सैयद अहमद मेहदी, जुल्फिकार अली खान के बाद 1996 व 1999 में बेगम नूर बानो सांसद बनी थीं। पिछले चुनाव में भी कांग्रेस ने नवाब काजिम अली खान को टिकट दिया था, किन्तु इस बार अचानक कांग्रेस का टिकट बदल गया। यहां से मुस्लिम प्रत्याशी की जगह संजय कपूर को टिकट दिया जाना लोग आजम खान के लिए फायदेमंद करार दे रहे हैं। इसी तरह मेरठ में भाजपा के राजेंद्र अग्रवाल के मुकाबले हरेंद्र अग्रवाल को उतारना गठबंधन के लिए लाभदायक माना जा रहा है। कैराना में सपा ने तबस्सुम हसन और भाजपा ने प्रदीप चौधरी को टिकट दिया है। इनके बीच कांग्रेस से हरेंद्र मलिक को मिली टिकट भी चौंका रही है। अमरोहा से गठबंधन प्रत्याशी कुँवर दानिश अली के मुकाबले में भाजपा के कंवर सिंह तंवर मैदान में हैं। यहां से राशिद अल्वी का टिकट पक्का माना जा रहा था, किन्तु अंततः कांग्रेस प्रत्याशी बने सचिन चौधरी, जो गठबंधन के लिए मुफीद माने जा रहे हैं।
  ऐसा नहीं है कि इस ‘फिक्सिंग’ धर्म का पालन केवल कांग्रेस द्वारा ही किया जा रहा है। कई सीटों पर गठबंधन भी इस धर्म पर खरा उतरता नजर आ रहा है। उन्नाव सीट पर समाजवादी पार्टी ने इलाहाबाद की चर्चित विधायक पूजा पाल का टिकट घोषित कर दिया था। मौजूदा सांसद साक्षी महाराज के खिलाफ कांग्रेस ने यहां पूर्व सांसद अन्नू टंडन को मैदान में उतारा है। ऐसे में सपा ने यहां टिकट बदला और अरुण कुमार शुक्ला को टिकट दिया। माना जा रहा है कि शुक्ला भाजपा के ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध लगाएंगे और इसका सीधा लाभ कांग्रेस को मिलेगा। इसी तरह कानपुर नगर से कांग्रेस ने पूर्व मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल को टिकट दिया है। यहां से भाजपा ने प्रदेश सरकार के मंत्री सत्यदेव पचौरी को चुनाव मैदान में उतारा है। ऐसे में सपा प्रत्याशी के रूप में राम कुमार का आना लोगों को चौंका गया। रामकुमार कभी राजनीतिक रूप से कानपुर में सक्रिय ही नहीं रहे और वे जो भी नुकसान करेंगे भाजपा का ही करेंगे। इस ‘फिक्सिंग’ के नतीजे तो 23 मई को पता चलेंगे, पर इतना तय है कि यदि नतीजे सकारात्मक रहे तो चुनाव बाद सरकार बनने के दौर में इनकी खासी भूमिका होगी।

Thursday 18 April 2019

राजनीति नहीं देखती हवा में घुलता जहर



डॉ.संजीव मिश्र
लोकसभा चुनाव की इस मारामारी के बीच भारत के लिए एक चौंकाने वाली खबर आयी है। अमेरिका के जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय की एक टीम ने भारत सहित पूरी दुनिया के 125 प्रमुख शहरों में वाहन जनित प्रदूषण के परिणामों पर शोध किया है। इस शोध के निष्कर्ष खतरनाक संदेश लिए हुए हैं। हमारे देश के बच्चे लगातार हवा में घुलते जहर के प्रकोप का शिकार हो रहे हैं, और राजनीति को इसकी कोई परवाह ही नहीं है। गंगा सहित नदियों के प्रदूषण पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाली राजनीति इस मसले पर मौन है। मंदिर से लेकर कश्मीर तक की चिंता के बीच किसी राजनीतिक दल की चिंता में वायु प्रदूषण नहीं हैं। सवाल यही है कि आखिर राजनीति को कब दिखेगा हवा में घुलता यह जहर?
देश में इस समय सरकार को लेकर हर नुक्कड़ पर चर्चा हो रही है। चौराहों पर चर्चा के बीच सड़क पर उड़ता धुआं इन चर्चाओं का हिस्सा नहीं बन पा रहा है। क्या आपने सुना है कि लोकसभा चुनाव लड़ रहा कोई प्रत्याशी कभी अपने भाषण में यह कहे कि वह अपने संसदीय क्षेत्र को वायु प्रदूषण और उससे हो रही बीमारियों से मुक्ति दिलाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान 2014 में जब वाराणसी चुनाव लड़ने पहुंचे तो उन्हें ‘मां गंगा ने बुलाया था’। मां गंगा की पुकार पर नमामि गंगे जैसा व्यापक अभियान भी चलाया गया किन्तु वायु प्रदूषण पर प्रभावी अंकुश की कोई कोशिश नहीं हुई। इसी तरह पिछली सरकारों ने गंगा कार्य योजना पर अरबों रुपये खर्च कर दिये, किन्तु वायु प्रदूषण पर नियंत्रण की कोई कार्ययोजना नहीं बनाई गयी। वाहनों के मानकों पर आगे बढ़ने की मशक्कत के बीच भी उनके कारण हो रहे प्रदूषण पर प्रभावी रोकथाम आज तक सुनिश्चित नहीं हो सकी है।
चर्चित मेडिकल जर्नल ‘द लैंसेट’ में इसी दस अप्रैल को प्रकाशित आंकड़े चौंकाने वाले हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि जहरीली हवाओं के कारण हमारा बचपन संकट में है। लैंसेट के इस शोध प्रबंध के मुताबिक यूं तो पूरी दुनिया में बच्चे वायु प्रदूषण सहित अन्य कारणों से होने वाले अस्थमा के शिकार हैं, किन्तु भारत जैसे देशों में वायु प्रदूषण के कारण होने वाला अस्थमा खतरनाक स्थितियों में पहुंच रहा है। लगातार बढ़ते वाहनों के कारण नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड तेजी से हवा को जहरीला बना रही है। इस कारण बच्चों में अस्थमा तेजी से बढ़ रहा है। अस्थमा के नए शिकार भी बच्चे ही ज्यादा जल्दी बनते हैं। जहरीली हवाओं के कारण बच्चों में सर्वाधिक अस्थमा के मामले में भारत चीन के बाद दूसरे स्थान पर है। चीन में जहां हर साल साढ़े सात लाख के आसपास नए बच्चे अस्थमा के शिकार बन रहे हैं, वहीं भारत में यह संख्या प्रति वर्ष साढ़े तीन लाख के ऊपर है। दुनिया में सर्वाधिक बच्चों को सहेजे भारत में नए बच्चों का इस तेजी से अस्थमा का शिकार बनना चिंताजनक है, पर सरकारों का इस ओर ध्यान ही नहीं जाता।
आंकड़े गवाही देते हैं कि भारत का हर बड़ा शहर बच्चों के लिए खतरनाक बनता जा रहा है। नई दिल्ली, अहमदाबाद, बंगलौर, मुंबई, हैदराबाद, पुणे, सूरत, चेन्नई, जयपुर, कोलकाता, लखनऊ, कानपुर व वाराणसी दुनिया के उन 125 शहरों में शामिल हैं, जहां वायु प्रदूषण के कारण बच्चों में अस्थमा तेजी से फैल रहा है। इन शहरों में हर एक हजार बच्चों में से कम से दो बच्चे तो हर साल अस्थमा के नए मरीज बन ही जाते हैं। कुल नए अस्थमा पीड़ित बच्चों में से इन शहरों की हिस्सेदारी अलग-अलग 25 से 30 फीसद के बीच है। पूरी दुनिया की तुलना में भी भारत की हिस्सेदारी कुछ कम नहीं है। पूरी दुनिया में वायु प्रदूषण के कारण बच्चों को होने वाले अस्थमा में 14 फीसद बच्चे भारतीय होते हैं। ये आंकड़े तो सिर्फ यातायात जनित प्रदूषण के कारण बच्चों में हो रहे अस्थमा की गवाही दे रहे हैं। सामान्य स्थितियों तो और खतरनाक हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के स्तर पर राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत तो हुई किन्तु प्राथमिक ही नहीं, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र स्तर तक पर जांच की सुविधा नहीं है। हाल ये हैं कि वायु प्रदूषण जनित बीमारियों की चपेट में आने पर सबसे जरूरी जांच स्पाइरोपेट्री सभी सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध नहीं है। कहीं यदि स्पाइरोमीटर हैं तो जांच करने वाले विशेषज्ञों की अनुपलब्धता संकट बनती है।
पूरी दुनिया में भारत की आबो-हवा को लेकर सवाल खड़े किये जा रहे हैं। इसके बावजूद भारतीय राजनीतिज्ञों की गंभीरता इस ओर दिखाई नहीं पड़ रही है। देश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के एजेंडे में पूरा प्रदूषण महज गंगा तक सिमट गया है। जलवायु परिवर्तन की चुनौती पूरी दुनिया को परेशान कर रही है। विकसित देशों से लेकर विकासशील व विकास के लिए संघर्षरत देशों तक की प्राथमिकताओं में यह मुद्दा है, किन्तु भारतीय राजनीति की प्राथमिकताएं ही अलग हैं। मंदिर-मस्जिद, जाति-धर्म, देश-प्रदेश की तमाम चर्चाओं के बीच जानलेवा बीमारियों का कारण बन रहा वायु प्रदूषण चर्चा तक में नहीं है। नए मेडिकल कालेज बनाने से लेकर अस्पताल खोलने की बातें चुनाव घोषणा पत्र व संकल्प पत्र का हिस्सा हैं किन्तु मौजूदा अस्पतालों में चिकित्सकों, विशेषज्ञों व उपकरणों आदि के प्रबंध की कार्ययोजना कहीं नहीं दिख रही है। देश में लंबे समय से ऐसे रोगों के लिए अलग नीति व नियोजन की मांग की जा रही है किन्तु राजनीतिक नेतृत्व पर इन मांगों का कोई असर नहीं दिख रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह भी है कि नेताओं का इलाज कर तमाम सम्मान बटोर लेने वाले डॉक्टर व उनकी संस्थाएं भी अपने राजनीतिक संपर्कों का प्रयोग देश के एजेंडे में सुधार के लिए नहीं कर रही हैं। ऐसे में जरूरी है कि जनता वोट मांगने आने वालों से सवाल करे, ताकि वे लोग बच्चों से बड़ों तक की सेहत के बारे में सोचने पर विवश हों।

Wednesday 10 April 2019

कोउ नृप होउ हमहि का हानी



डॉ. संजीव मिश्र
गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस के अयोध्या कांड में एक चौपाई लिखी है, ‘कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।’ मानस में यह चौपाई मंथरा और कैकेयी के बीच संवाद की है, किन्तु इस समय देश की जनता से हो रहे वायदों में भी बार-बार याद आ रही है। देश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों, भारतीय जनता पार्टी व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के घोषणा पत्र जनता के सामने आ चुके हैं। इन घोषणा पत्रों से तो जनता बस फायदे ही फायदे में दिखती है। लुभावने वायदों के बीच जनता को यह तय करना मुश्किल सा हो रहा है कि चुनाव बाद ये वायदे किस हद तक पूरे होंगे, क्योंकि कोई भी इन्हें पूरा करने की योजना के साथ सामने नहीं आया है।
  इस वर्ष के लोकसभा चुनावों में जनता को लुभाने की हर कोशिश की जा रही है। कांग्रेस ने पहले घोषणा पत्र जारी कर देश के गरीबों को 72 हजार रुपये की न्यूनतम आय देने का वायदा कर छक्का मारा था। वह गेंद हवा में ही थी कि भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में सभी किसानों को छह हजार रुपये देने के साथ सस्ती चीनी व पांच साल तक ब्याजमुक्त एक लाख रुपये देने जैसे वायदों से उस गेंद को कैच करने की कोशिश की है। अब भाजपा ने इस कोशिश से कांग्रेस को आउट किया है या कांग्रेस 72 हजार रुपये न्यूनतम आय का छक्का लगाने में सफल हुई है, यह तो लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद ही पता चल सकेगा। फिलहाल तो जनता के सामने वायदों व फायदों की पूरी फेहरिश्त है और उसे अपने हिसाब से फैसला करना है। अब सवाल सिर्फ इतना ही है कि कहीं ऐसा न हो कि जिस तरह मंथरा ने कैकेयी का मतिभ्रम कर राजा दशरथ से राम वनगमन जैसा बड़ा फैसला करवा लिया था और अयोध्या की जनता छली गयी है, वैसे ही देश की जनता के साथ छल हो और आधारहीन वायदे पूरे ही न हो सकें।
  फिलहाल कांग्रेस व भाजपा के दो बड़े वायदों पर बात करते हैं। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में तमाम वायदों के साथ देश की बीस फीसद सबसे गरीब आबादी को 72 हजार रुपये सालाना तक आर्थिक सहयोग का वादा किया है। इस वायदे को गरीबी पर आखिरी प्रहार बताने के साथ दावा किया गया है कि इससे सबसे गरीब लोग आर्थिक रूप से मजबूत होंगे और देश की अर्थव्यवस्था को भी मजबूती प्रदान करेंगे। कांग्रेस ने तमाम अर्थशास्त्रियों की सलाह लेने की बात तो कही है किन्तु जनता में आज भी सवाल खड़ा हो रहा है कि इस कारण आने वाले आर्थिक बोझ को सरकार कैसे सहेगी। कहा जा रहा है कि इसका सबसे बड़ा असर ईमानदार करदाताओं पर होगा। कांग्रेसी दिग्गज इस सवाल का सीधा जवाब भी नहीं दे रहे हैं। कांग्रेस अपने पूरे चुनाव अभियान में पिछले लोकसभा चुनाव के साथ भाजपा के हर खाते में 15 लाख रुपये पहुंचाने के वादे और फिर उसे जुमला करार दिये जाने की बात उठा रही है। अब कांग्रेस की 72 हजारी योजना अमल में आएगी या जुमला बनेगी, इस पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।
  वादे करने में भाजपा भी पीछे नहीं है। अब हर किसान को छह हजार रुपये वार्षिक देने के साथ उनकी आय दोगुनी करने का वायदा भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में किया है। सत्ता प्राप्ति का यह संकल्प दोहराते समय भाजपा भी तमाम लुभावने वादों पर अमल की राह नहीं बता पाई है। कांग्रेस ने जहां धारा 370 को बरकरार रखने का वायदा किया है, वहीं भाजपा ने इसे समाप्त करने की प्रतिबद्धता दोहराई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 व धारा 35ए को समाप्त करने का वायदा कर भाजपा ने अपनी कश्मीर नीति पर बने रहने की बात कही है। साथ ही समान नागरिक संहिता लागू करने का वायदा भी संकल्प पत्र का हिस्सा है। पूर्ण बहुमत के साथ पांच साल सरकार चला चुकी भाजपा इसे पहले क्यों नहीं कर पायी और अब कैसे करेगी, इसका जिक्र संकल्प पत्र में कहीं नहीं है। ऐसे में जनता के मन में इस वायदे को पूरा करने की राह खोजने जैसे सवाल उठना स्वाभाविक है।
  दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के तमाम वायदों के बीच इतना तो है कि भारतीय राजनीति अब अलग दिशा में करवट ले रही है। पहली दफा शिक्षा पर भाजपा व कांग्रेस, दोनों राजनीतिक दलों का ठीक-ठाक फोकस नजर आ रहा है। कांग्रेस ने जहां सकल घरेलू आय का छह फीसद शिक्षा पर खर्च करने की बात कही थी, वहीं भाजपा ने सभी के लिए प्रभावी शिक्षा के साथ इंजीनयिरंग मेडिकल कालेजों में पचास फीसद तक सीटें बढ़ाने की बात कही है। 2025 तक देश को टीबीमुक्त करने का वायदा भी भाजपा के घोषणा पत्र का हिस्सा है। रोजगार पर भी दोनों राजनीतिक दल खुल कर बात कर रहे हैं। उम्मीदें दोनों से हैं, सरकार किसी की भी बने, वायदे पूरे हुए तो सभी प्रसन्न होंगे। ऐसा न हुआ तो जुमलों व वायदों से मुकरने वालों की आदी तो देश की जनता हो ही चुकी है।

Saturday 6 April 2019

इन उखड़ती सांसों की ओर भी देखो साहब!


डॉ.संजीव मिश्र

देश में लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। पाकिस्तान पर अंकुश से लेकर अलग बांग्लादेश बनाने के क्रेडिट तक की चर्चाएं हैं, पर आम आदमी की सेहत किसी के एजेंडे में नहीं है। हाल ही में हमने पूरे देश में टीबी सप्ताह मनाया और अब स्वास्थ्य सप्ताह पर फोकस कर रहे हैं, पर किसी का ध्यान फूलती सांसों पर नहीं जा रहा है। हर साल टीबी के कारण हो रही मौतें और उखड़ती सांसों की बीमारी, क्रोनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मनरी डिसीज (सीओपीडी) सहित सेहत किसी की चिंता का हिस्सा नहीं है।
  बीते 24 से 31 मार्च तक हमने पूरे देश में टीबी सप्ताह मनाया है। सात अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस होने के कारण इस समय भी कागजों पर सेहत चर्चा का हिस्सा है। पूरे देश में कार्यक्रम हो रहे हैं किन्तु चुनाव में व्यस्त ‘नेताजी’ के पास इसके लिए समय नहीं है। सेहत की पूरी चिंता डॉक्टरों के द्वारा, डॉक्टरों के लिए और डॉक्टरों तक बजट खर्च में सिमट कर रह गयी है। चलिए, वो चिंता करें न करें, हम आपको इस संकट से जोड़ने की कोशिश करते हैं। टीबी दुनिया भर में हो रही मौतों के शीर्ष दस कारणों में से एक है। दुनिया में हर साल एक करोड़ से अधिक नए टीबी मरीज सामने आते हैं और लगभग इतनी ही मौतें टीबी के कारण होती हैं। टीबी के मामले में हम पूरी दुनिया पर एक तरह से राज ही कर रहे हैं। दुनिया के कुल टीबी मरीजों में से हर पांचवां मरीज भारतीय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी लगातार भारत में बढ़ते टीबी मरीजों को लेकर चिंता जता रहा है। इसके बावजूद भारत में टीबी का इलाज आज तक गंभीरता नहीं ले सका है। देश में टीबी नियंत्रण कार्यक्रम चले, जिला स्तर तक अलग से टीबी के अस्पताल बने और विशेष चिकित्सकों तक की नियुक्ति हुई किन्तु अब तक नियंत्रण के कारगर उपाय नहीं हो सके। चुनाव के इस दौर में तमाम उपलब्धियों व असफलताओं की चर्चा के बीच किसी भी राजनीतिक दल को टीबी या ऐसी कोई बीमारी याद तक नहीं आ रही है।
टीबी वैसे तो शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकती है किन्तु श्वसन तंत्र की टीबी फेफड़े छलनी कर देती है। इस कारण श्वसन तंत्र से जुड़ी अन्य बीमारियां भी सिर चढ़कर बोलने लगती हैं। चिकित्सकों की मानें तो टीबी के मरीजों में सीओपीडी जैसी श्वसन तंत्र की अन्य बीमारियां होने की संभावनाएं तीन गुना बढ़ जाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में संचारी रोगों पर अपनी अतंर्राष्ट्रीय कार्य योजना प्रस्तुत की है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि टीबी से तमाम गंभीर श्वसन तंत्र संबंधी बीमारी होने का डर रहता है। इसमें भारत जैसे मध्य आय वर्ग की बहुलता वाले देशों को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतने की बात कही गयी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि टीबी के इलाज के बाद उन मरीजों का ठीक से ध्यान न रखना भी खतरनाक हो सकता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य ये है कि यहां किसी भी राजनीतिक दल को टीबी या श्वसन रोगों पर केंद्रित कार्ययोजना तो दूर समूची स्वास्थ्य व्यवस्था की परवाह नहीं है। सोच कर देखिये, क्या कभी किसी नेता के भाषण में आपको बढ़ते टीबी की चिंता सुनाई पड़ी है।
 टीबी के साथ पिछले कुछ वर्षों में भारत क्रोनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मनरी डिसीज (सीओपीडी) से ग्रस्त लोगों का अंतर्राष्ट्रीय केंद्र बनता जा रहा है। सीओपीडी व दमा जैसी बीमारियां भारत के लिए बोझ सी बनती जा रही हैं। इन बीमारियों में भारत दुनिया का सिरमौर बना हुआ है। दमा को ही लें तो पूरी दुनिया के 34 करोड़ दमा मरीजों में से लगभग चार करोड़ मरीज भारतीय हैं। दमा से होने वाली मौतों के मामले में तो भारत पूरी दुनिया में अव्वल है।पूरी दुनिया में दमा के कारण होने वाली मौतों में से चालीस फीसदी से अधिक लोग भारतीय होते हैं। अचानक श्वसन तंत्र अवरुद्ध हो जाने जैसी समस्याओं से जूझती बीमारी सीओपीडी के मामले में भी भारत पीछे नहीं है। मरीजों की संख्या के मामले में भारत सीओपीडी में सबसे आगे है। दुनिया भार के 25 करोड़ सीओपीडी मरीजों में से साढ़े पांच करोड़ से अधिक मरीज भारतीय हैं। यही नहीं यहां हर साल नौ लाख के आसपास सीओपीडी मरीजों की मौत हो जाती है। दुनिया में श्वसन तंत्र अवरोधन से होने वाली हर तीसरी मौत भारतीय नागरिक की होती है। इस भयावह स्थिति के बावजूद भारतीय राजनीतिक नेतृत्व को कोई परवाह नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय टीबी दिवस की तरह स्वास्थ्य दिवस भी मना लिया जाएगा, किन्तु नेताओं के मुंह से चिंता के बोल सुनने को लोग तरस जाएंगे। जिस दिन भारतीय राजनीति की प्राथमिकताओं में जाति, धर्म, आक्रमण से ऊपर बीमारियां होंगी, उस दिन देश की दशा व दिशा में बदलाव का पथ प्रशस्त होगा।