Tuesday 15 February 2022

हाथी की सुस्त चाल और दलित आंदोलन

डॉ.संजीव मिश्र

इस समय उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव अभियान चरम पर है। इस अभियान में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के अलावा बहुजन समाज पार्टी ही एकमात्र ऐसा राजनीतिक दल है जो एकाधिक राज्य में पूरी तन्मयता से चुनाव मैदान में है। पूरी तन्मयता के बावजूद बहुजन समाज पार्टी का हाथी उस राज्य में बेहद सुस्त चाल से चल रहा है, जहां वह चार बार सत्ता में रह चुकी है। जी हां, उत्तर प्रदेश में चार बार सत्ता में रहने के बावजूद बहुजन समाज पार्टी की सक्रियता को लेकर तमाम सवाल उठ रहे हैं। इसे लेकर दलित आंदोलन के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए जाने लगे हैं।

उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता मायवती की भूमिका को लेकर इस समय खासी चर्चा हो रही है। दरअसल पंजाब में बहुजन समाज पार्टी अकाली दल के साथ गठबंधन कर वहां की कई सीटों पर मुकाबले में नजर आ रही है। उत्तराखंड में यूं तो कांग्रेस और भाजपा में ही मुकाबला दिख रहा है किन्तु इस बार आम आदमी पार्टी ने पूरे मन से उत्तराखंड चुनाव मैदान में दांव लगाया है। इनके अलावा बहुजन समाज पार्टी ही ऐसी पार्टी है, जो उत्तराखंड में भी चौंकाने वाले परिणाम देने का दावा कर रही है। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश को लेकर बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का मौन लोगों को परेशान कर रहा है। मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं, किन्तु उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव अभियान में मायावती सबसे विलंब से और कहा जाए तो धीमी रफ्तार से उतरी हैं। माया के मौन के इस मायाजाल का जवाब खुल कर तो दस मार्च को सामने आएगा, किन्तु राजनीतिक विश्लेषण माया के मौन को लेकर हैरान तो हैं ही। वैसे मायावती और बसपा की जमीनी हकीकत खयाली विश्लेषणों से थोड़ा अलग है। मायावती के साथ उनका कैडर आज भी पूरे मन से जुड़ा है। इसका अंदाजा उस समय लगा, जब चुनाव अभियान की शुरुआत में लगभग मौन रहीं मायावती बीते दिनों आगरा में पहली बार सभा करने पहुंचीं तो वहां अनुमति से दस गुना लोग पहुंच चुके थे। यह बसपा कार्यकर्ताओं का अपनी बहनजी के प्रति स्नेह ही था। अब बहनजी भी उत्साहित हुए बिना न रह सकीं। उन्होने कार्यकर्ताओं से कहा, बहनजी कहां हैं, यह पूछने वालों को बता दीजिएगा कि बहनजी पार्टी मजबूत करने में लगी थीं। कार्यकर्ता भी इस जवाब से खासे उत्साहित नजर आए।

दरअसल यह मायावती का ओवरकांफीडेंस नहीं, आंकड़ों वाला कांफीडेंस है। 1984 में बहुजन समाज पार्टी के गठन के बाद 1993 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी न सिर्फ दस फीसदी से ज्यादा यानी 11.2 फीसद वोट पाए, बल्कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में 67 सीटें जीतकर तहलका मचा दिया था। यह चुनाव बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था, किन्तु डेढ़ साल बाद ही दोनों दलों में विवाद हुआ और बहुजन समाज पार्टी ने सरकार गिरा दी। 1996 में फिर चुनाव हुए। इस बार मायावती ने समाजवादी पार्टी के भ्रम को तोड़ा। जिन्हें लग रहा था कि समाजवादी पार्टी के साथ समझौते की बदौलत बहुजन समाज पार्टी 67 सीटें जीत सकी थी, वे गलत साबित हुए। मायावती ने न सिर्फ अपना वोट बैंक बढ़ा कर 19.6 प्रतिशत तक पहुंचाया, बल्कि एक बार फिर 67 सीटें जीतीं। इसके बाद से मायावती ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 2002 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने 23.06 प्रतिशत वोट पाकर 98 सीटें जीतीं और वे भारतीय जनता पार्टी व राष्ट्रीय लोक दल की मदद से मुख्यमंत्री भी बनीं। विवादों के चलते मायावती पांच साल मुख्यमंत्री तो नहीं रह पायीं किन्तु उनके समर्थकों को बहुमत न दिला पाने की टीस बनी रही। 2007 में मायावती ने अनूठी सोशल इंजीनियरिंग के साथ टिकट बांटे और दलित, मुस्लिम, अतिपिछड़ों के साथ ब्राह्मणों तक के वोट बहुजन समाज पार्टी को मिले। इस बार बहुजन समाज पार्टी ने 30.43 प्रतिशत वोट पाकर 206 सीटें जीतीं और अपने बलबूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। सत्ता के पांच साल बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति के समीकरण बदले और इसका खामियाजा मायावती को भी उठाना पड़ा। परिणामस्वरूप 2012 में बहुजन समाज पार्टी के वोट कम हुए। इस चुनाव में 25.91 प्रतिशत वोटों के साथ बहुजन समाज पार्टी ने 80 सीटें जीतीं। इसके बाद 2017 के चुनाव में भी बहुजन समाज पार्टी न सिर्फ सत्ता से बाहर रही, बल्कि भारतीय जनता पार्टी की लहर में बस 19 सीटों पर सिमट गयी। हां, बहनजी के वोटर बस कुछ ही कम हुए। इस चुनाव में भी उन्हें 22.23 फीसद वोट मिले।

अब 2022 के विधानसभा चुनाव में बहनजी के मौन और देर से चुनाव प्रचार अभियान शुरू करने पर सवाल उठ रहे हैं। बहुजन के कार्यकर्ताओं का मानना है कि परिणाम चौकाने वाले होंगे। पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर मैदान में थे। इसके बावजूद बहनजी को 22.23 प्रतिशत वोट मिल गए थे। इस चुनाव में वे दोनों अलग-अलग हैं। बहुजन समाज पार्टी ने टिकट वितरण में 2007 का फार्मूला ही अपनाया है। ऐसे में बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता बहनजी के मौन के पीछे छिपे मर्म को पहचान रहे हैं। उन्हें अब भी उम्मीद है कि बहनजी को पिछली बार से ज्यादा वोट मिलेगा और यदि दो-तीन फीसद वोट भी बढ़ गया तो यूपी की सत्ता की चाभी बहनजी के हाथ में होगी। बहनजी का चुनाव चिन्ह हाथी है। वह अपनी चाल ही चलेगा, पर हाथी तो हाथी ही रहेगा। वह अपनी जगह बनाकर जम ही जाएगा। हाथी भले ही जगह बना ले, किन्तु इस समय पूरे देश में दलित आंदोलन को लेकर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। चंद्रशेखर आजाद जैसे नए उभरे नेताओं से लेकर रिपब्लिकन पार्टी के राम दास अठावले जैसे कई नेता मायावती की जगह लेना चाहते हैं। अब वे यह जगह ले पाएंगे या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है किन्तु मायावती का भविष्य इस बार के विधानसभा चुनाव ही तय करेंगे। इसके साथ ही तय होगा देश के दलित आंदोलन का भविष्य।

Monday 7 February 2022

...ये सपनों का ‘एक्सटेंशन’ है

डॉ. संजीव मिश्र

हम आजादी के बाद 75वें वर्ष की यात्रा पर हैं। आजादी की 75वीं सालगिरह मनाने में अब 200 दिन भी नहीं बचे हैं। हमने पिछले कुछ वर्षों में इस वर्ष यानी 2022 के लिए तमाम सपने देखे थे। ये सपने देखते समय हमें 75 वर्ष के भारत की संकल्पना से जोड़ा गया था। 22 साल पहले जब हम 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर रहे थे, तब हमें बीस साल बाद यानी 2020 के सपने दिखाए गए थे। 2020 पहुंचते-पहुंचते हमने पाया कि हम बीस साल पहले देखे गए सपनों से दूर हैं। ऐसे में हमें 2022 के रूप में आजादी की 75वीं साल का मील का पत्थर मिला और हमने अपने सपनों को 2022 तक का एक्सटेंशन यानी विस्तार दे दिया। 2022 आते-आते हम जान गए कि सपने तो अब भी बस सपने ही हैं, तो इस बार बजट में सरकार ने हमें अगले 25 साल के सपनों से जोड़ा है। अब आजादी के सौ वर्ष पूरे होने यानी 2047 तक हमारे सपनों का एक्सटेंशन हो गया है।

आइये अब दो साल पहले चलते हैं। वर्ष 2020 की शुरुआत के साथ हम इक्कीसवीं शताब्दी के बीसवें वर्ष की यात्रा शुरू कर दी थी। दरअसल भारत में बीसवीं शताब्दी की समाप्ति से पहले ही जब इक्कीसवीं शताब्दी के स्वागत की तैयारी चल रही थीतभी वर्ष 2020 बेहद चर्चा में था। दरअसल भारत रत्न डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम ने बदलते भारत के लिए वर्ष 2020 तक व्यापक बदलाव का सपना देखा था। इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बाद भी उन सपनों को विस्तार दिया गया। ऐसे में 2020 के स्वागत के साथ हमने कलाम के सपने का स्मरण किया। तब हमें लग रहा था कि अर्थव्यवस्था की चुनौतियोंदेश के सर्वधर्म सद्भाव के बिखरते ताने-बाने की चिंताओं और देश की मूल समस्याओं से भटकती राजनीति के बीच कलाम का सपना ही हमें विकसित भारत के साथ पुनः विश्वगुरु बनने की ओर आगे बढ़ा सकता है।

उस समय पूरी दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बनने का स्वप्न लेकर चल रहा भारत अर्थव्यवस्था की कमजोरी से जुड़े संकटों का सामना कर रहा है। बेरोजगारी ने तो लगातार कई नये पैमाने गढ़े हैं। रोजगार के अवसर कम हुए और तमाम ऐसे लोग बेरोजगार होने को विवश हुएजो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे। इन चुनौतियों के स्थायी समाधान पर चर्चा व विमर्श तो दूर की बात है पूरे देश में धार्मिक सद्भाव के ताने-बाने में बिखराव के दृश्य आम हो गए हैं। हमारी चर्चाएं हिन्दू-मुस्लिम केंद्रित हो गयीं। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक नेताओं को गमछे का भगवा और टोपी का लाल रंग तो याद रहाबेरोजगारी जैसी देश की मूलभूत समस्याओं व स्थापित भारतीय परंपराओं के साथ संविधान के मूल तत्वों के धूमिल होते रंग भुला दिये गए। इन स्थितियों में डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम के स्वर्णिम 2020 के स्वप्न टूटने की ओर भी किसी का ध्यान नहीं गया।

डॉ.कलाम ने वर्ष 2020 तक भारत की जिस यात्रा का स्वप्न देखा थादो साल बाद भी हम उसमें काफी पीछे छूटे हुए हैं। कलाम ने इक्कीसवीं सदी के शुरुआती बीस वर्षों में ऐसे भारत की कल्पना की थीजिसमें गांव व शहरों के बीच की दूरियां खत्म हो जाएं। इसके विपरीत ग्रामीण भारत व शहरी भारत की सुविधाओं में तो बराबरी के प्रयास नहीं किये गए, बल्कि गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ाया। खेती पर फोकस न होने से कृषि क्षेत्र से पलायन बढ़ाजिससे गांव खाली से होने लगे। कलाम ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थीजहां कृषिउद्योग व सेवा क्षेत्र एक साथ मिलकर काम करें। वे चाहते थे कि भारत ऐसा राष्ट्र बनेजहां सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों के कारण किसी की पढ़ाई न रुके। 2020 तो दूर 2022 तक भी हम इस परिकल्पना के आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैंऐसे में चुनौतियां बढ़ गयी हैं। किसान से लेकर विद्यार्थी तक परेशान हैं और उनकी समस्याओं के समाधान का रोडमैप तक ठीक से सामने नहीं आ पाया है।

कलाम के सपनों का भारत 2020 तक ऐसा बन जाना थाजिसमें दुनिया का हर व्यक्ति रहना चाहता हो। उन्होंने ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थीजो विद्वानोंवैज्ञानिकों व अविष्कारकों की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ निवास स्थान बने। इसके लिए वे चाहते थे कि देश की शासन व्यवस्था जवाबदेहपारदर्शी व भ्रष्टाचारमुक्त बने और सभी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य सुविधाएं समान रूप से उपलब्ध हों। ये सारी स्थितियां अभी तो दूरगामी ही लगती हैं। देश आपसी खींचतान से गुजर रहा है। यहां स्वास्थ्य सेवाएं आज भी अमीरों-गरीबों में बंटी हुई हैं। नेता हों या अफसरन तो सरकारी अस्पतालों में इलाज कराना चाहते हैंन ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई पहले अधिक चौड़ी हो गयी है। यह स्थिति तब है कि वर्ष 2020 के लिए अपने सपनों को साझा करते हुए उन्होंने देश को गरीबी से पूरी तरह मुक्त करने का विजन सामने रखा था। वे कहते थे कि देश के 26 करोड़ लोगों को गरीबी से मुक्त करानाहर चेहरे पर मुस्कान लाना और देश को पूरी तरह विकसित राष्ट्र बनाना ही हम सबका लक्ष्य होना चाहिए। वे इसे सबसे बड़ी चुनौती भी मानते थे। उनका कहना था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें साधारण मसलों को भूलकरएक देश के रूप में सामने आकर हाथ मिलाना होगा। कलाम ने ऐसे भारत का स्वप्न देखा थाजिसके नागरिकों पर निरक्षर होने का कलंक न लगे। वे एक ऐसा राष्ट्र चाहते थे जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से पूरी तरह मुक्त हो और समाज का कोई भी व्यक्ति खुद को अलग-थलग महसूस न करे। कलाम के विजन 2020 का यह वह हिस्सा हैजो पिछले कुछ वर्षों में सर्वाधिक आहत हुआ है। साक्षरता के नाम पर हम शिक्षा के मूल तत्व से दूर हो चुके हैं। महिलाएं व बच्चे असुरक्षित हैं और यह बार-बार साबित हो रहा है। समाज में जुड़ाव के धागे कमजोर पड़ चुके हैं और न सिर्फ कुछ व्यक्तिबल्कि पूरा समाज ही अलगाव के रास्ते पर है। ऐसे में आजादी के 75वें वर्ष में हमें यह विचार भी करना होगा कि हम कलाम के दिखाए सपने और उस लक्ष्य से कितना पीछे रह चुके हैं। अब जबकि हम अपने सपनों को एक साथ 25 साल का एक्सटेंशन दे चुके हैं, तो उन सपनों को पूरा करने की ठोस कार्ययोजना भी बनानी होगी। इस कार्ययोजना में हमें महज सपनों के बारे में विमर्श तक सीमित न रहकर उन्हें पूरे करने की रणनीति भी बनानी होगी। सबको साथ जोड़ना पड़ेगा और सपने साझा करने होंगे।

बापू के सपनों से छल! कब तक?