डॉ. संजीव मिश्र
हम आजादी के बाद
75वें वर्ष की यात्रा पर हैं। आजादी की 75वीं सालगिरह मनाने में अब 200 दिन भी
नहीं बचे हैं। हमने पिछले कुछ वर्षों में इस वर्ष यानी 2022 के लिए तमाम सपने देखे
थे। ये सपने देखते समय हमें 75 वर्ष के भारत की संकल्पना से जोड़ा गया था। 22 साल
पहले जब हम 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर रहे थे, तब हमें बीस साल बाद यानी 2020 के
सपने दिखाए गए थे। 2020 पहुंचते-पहुंचते हमने पाया कि हम बीस साल पहले देखे गए
सपनों से दूर हैं। ऐसे में हमें 2022 के रूप में आजादी की 75वीं साल का मील का
पत्थर मिला और हमने अपने सपनों को 2022 तक का ‘एक्सटेंशन’ यानी विस्तार दे दिया। 2022 आते-आते हम जान गए कि सपने तो अब भी बस सपने
ही हैं, तो इस बार बजट में सरकार ने हमें अगले 25 साल के सपनों से जोड़ा है। अब
आजादी के सौ वर्ष पूरे होने यानी 2047 तक हमारे सपनों का ‘एक्सटेंशन’ हो गया है।
आइये अब दो साल
पहले चलते हैं। वर्ष 2020 की
शुरुआत के साथ हम इक्कीसवीं शताब्दी के बीसवें वर्ष की यात्रा शुरू कर दी थी।
दरअसल भारत में बीसवीं शताब्दी की समाप्ति से पहले ही जब इक्कीसवीं शताब्दी के
स्वागत की तैयारी चल रही थी, तभी वर्ष 2020 बेहद चर्चा में था। दरअसल भारत रत्न
डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम ने बदलते भारत के लिए वर्ष 2020 तक व्यापक बदलाव का सपना देखा था। इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बाद भी
उन सपनों को विस्तार दिया गया। ऐसे में 2020 के स्वागत के साथ हमने कलाम के सपने का स्मरण किया। तब हमें लग रहा था कि
अर्थव्यवस्था की चुनौतियों, देश के सर्वधर्म सद्भाव के
बिखरते ताने-बाने की चिंताओं और देश की मूल समस्याओं से भटकती राजनीति के बीच कलाम
का सपना ही हमें विकसित भारत के साथ पुनः विश्वगुरु बनने की ओर आगे बढ़ा सकता है।
उस समय पूरी
दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बनने का स्वप्न लेकर चल रहा भारत अर्थव्यवस्था
की कमजोरी से जुड़े संकटों का सामना कर रहा है। बेरोजगारी ने तो लगातार कई नये
पैमाने गढ़े हैं। रोजगार के अवसर कम हुए और तमाम ऐसे लोग बेरोजगार होने को विवश
हुए, जो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे।
इन चुनौतियों के स्थायी समाधान पर चर्चा व विमर्श तो दूर की बात है, पूरे देश में धार्मिक सद्भाव के ताने-बाने में बिखराव के दृश्य आम हो गए
हैं। हमारी चर्चाएं हिन्दू-मुस्लिम केंद्रित हो गयीं। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष
तक नेताओं को गमछे का भगवा और टोपी का लाल रंग तो याद रहा, बेरोजगारी जैसी देश की मूलभूत समस्याओं व स्थापित भारतीय परंपराओं के साथ
संविधान के मूल तत्वों के धूमिल होते रंग भुला दिये गए। इन स्थितियों में डॉ.एपीजे
अब्दुल कलाम के स्वर्णिम 2020 के स्वप्न टूटने की ओर भी किसी का ध्यान नहीं गया।
डॉ.कलाम ने वर्ष 2020 तक भारत की जिस यात्रा का
स्वप्न देखा था, दो साल बाद भी हम उसमें काफी पीछे छूटे
हुए हैं। कलाम ने इक्कीसवीं सदी के शुरुआती बीस वर्षों में ऐसे भारत की कल्पना की
थी, जिसमें गांव व शहरों के बीच की दूरियां खत्म हो
जाएं। इसके विपरीत ग्रामीण भारत व शहरी भारत की सुविधाओं में तो बराबरी के प्रयास
नहीं किये गए, बल्कि गांवों से
शहरों की ओर पलायन बढ़ाया। खेती पर फोकस न होने से कृषि क्षेत्र से पलायन बढ़ा, जिससे गांव खाली से होने लगे। कलाम ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जहां कृषि, उद्योग व सेवा क्षेत्र एक साथ मिलकर
काम करें। वे चाहते थे कि भारत ऐसा राष्ट्र बने, जहां
सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों के कारण किसी की पढ़ाई न रुके। 2020 तो दूर 2022 तक भी हम इस परिकल्पना के
आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैं, ऐसे में चुनौतियां बढ़
गयी हैं। किसान से लेकर विद्यार्थी तक परेशान हैं और उनकी समस्याओं के समाधान का
रोडमैप तक ठीक से सामने नहीं आ पाया है।
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