Monday 7 February 2022

...ये सपनों का ‘एक्सटेंशन’ है

डॉ. संजीव मिश्र

हम आजादी के बाद 75वें वर्ष की यात्रा पर हैं। आजादी की 75वीं सालगिरह मनाने में अब 200 दिन भी नहीं बचे हैं। हमने पिछले कुछ वर्षों में इस वर्ष यानी 2022 के लिए तमाम सपने देखे थे। ये सपने देखते समय हमें 75 वर्ष के भारत की संकल्पना से जोड़ा गया था। 22 साल पहले जब हम 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर रहे थे, तब हमें बीस साल बाद यानी 2020 के सपने दिखाए गए थे। 2020 पहुंचते-पहुंचते हमने पाया कि हम बीस साल पहले देखे गए सपनों से दूर हैं। ऐसे में हमें 2022 के रूप में आजादी की 75वीं साल का मील का पत्थर मिला और हमने अपने सपनों को 2022 तक का एक्सटेंशन यानी विस्तार दे दिया। 2022 आते-आते हम जान गए कि सपने तो अब भी बस सपने ही हैं, तो इस बार बजट में सरकार ने हमें अगले 25 साल के सपनों से जोड़ा है। अब आजादी के सौ वर्ष पूरे होने यानी 2047 तक हमारे सपनों का एक्सटेंशन हो गया है।

आइये अब दो साल पहले चलते हैं। वर्ष 2020 की शुरुआत के साथ हम इक्कीसवीं शताब्दी के बीसवें वर्ष की यात्रा शुरू कर दी थी। दरअसल भारत में बीसवीं शताब्दी की समाप्ति से पहले ही जब इक्कीसवीं शताब्दी के स्वागत की तैयारी चल रही थीतभी वर्ष 2020 बेहद चर्चा में था। दरअसल भारत रत्न डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम ने बदलते भारत के लिए वर्ष 2020 तक व्यापक बदलाव का सपना देखा था। इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बाद भी उन सपनों को विस्तार दिया गया। ऐसे में 2020 के स्वागत के साथ हमने कलाम के सपने का स्मरण किया। तब हमें लग रहा था कि अर्थव्यवस्था की चुनौतियोंदेश के सर्वधर्म सद्भाव के बिखरते ताने-बाने की चिंताओं और देश की मूल समस्याओं से भटकती राजनीति के बीच कलाम का सपना ही हमें विकसित भारत के साथ पुनः विश्वगुरु बनने की ओर आगे बढ़ा सकता है।

उस समय पूरी दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बनने का स्वप्न लेकर चल रहा भारत अर्थव्यवस्था की कमजोरी से जुड़े संकटों का सामना कर रहा है। बेरोजगारी ने तो लगातार कई नये पैमाने गढ़े हैं। रोजगार के अवसर कम हुए और तमाम ऐसे लोग बेरोजगार होने को विवश हुएजो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे। इन चुनौतियों के स्थायी समाधान पर चर्चा व विमर्श तो दूर की बात है पूरे देश में धार्मिक सद्भाव के ताने-बाने में बिखराव के दृश्य आम हो गए हैं। हमारी चर्चाएं हिन्दू-मुस्लिम केंद्रित हो गयीं। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक नेताओं को गमछे का भगवा और टोपी का लाल रंग तो याद रहाबेरोजगारी जैसी देश की मूलभूत समस्याओं व स्थापित भारतीय परंपराओं के साथ संविधान के मूल तत्वों के धूमिल होते रंग भुला दिये गए। इन स्थितियों में डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम के स्वर्णिम 2020 के स्वप्न टूटने की ओर भी किसी का ध्यान नहीं गया।

डॉ.कलाम ने वर्ष 2020 तक भारत की जिस यात्रा का स्वप्न देखा थादो साल बाद भी हम उसमें काफी पीछे छूटे हुए हैं। कलाम ने इक्कीसवीं सदी के शुरुआती बीस वर्षों में ऐसे भारत की कल्पना की थीजिसमें गांव व शहरों के बीच की दूरियां खत्म हो जाएं। इसके विपरीत ग्रामीण भारत व शहरी भारत की सुविधाओं में तो बराबरी के प्रयास नहीं किये गए, बल्कि गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ाया। खेती पर फोकस न होने से कृषि क्षेत्र से पलायन बढ़ाजिससे गांव खाली से होने लगे। कलाम ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थीजहां कृषिउद्योग व सेवा क्षेत्र एक साथ मिलकर काम करें। वे चाहते थे कि भारत ऐसा राष्ट्र बनेजहां सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों के कारण किसी की पढ़ाई न रुके। 2020 तो दूर 2022 तक भी हम इस परिकल्पना के आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैंऐसे में चुनौतियां बढ़ गयी हैं। किसान से लेकर विद्यार्थी तक परेशान हैं और उनकी समस्याओं के समाधान का रोडमैप तक ठीक से सामने नहीं आ पाया है।

कलाम के सपनों का भारत 2020 तक ऐसा बन जाना थाजिसमें दुनिया का हर व्यक्ति रहना चाहता हो। उन्होंने ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थीजो विद्वानोंवैज्ञानिकों व अविष्कारकों की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ निवास स्थान बने। इसके लिए वे चाहते थे कि देश की शासन व्यवस्था जवाबदेहपारदर्शी व भ्रष्टाचारमुक्त बने और सभी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य सुविधाएं समान रूप से उपलब्ध हों। ये सारी स्थितियां अभी तो दूरगामी ही लगती हैं। देश आपसी खींचतान से गुजर रहा है। यहां स्वास्थ्य सेवाएं आज भी अमीरों-गरीबों में बंटी हुई हैं। नेता हों या अफसरन तो सरकारी अस्पतालों में इलाज कराना चाहते हैंन ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई पहले अधिक चौड़ी हो गयी है। यह स्थिति तब है कि वर्ष 2020 के लिए अपने सपनों को साझा करते हुए उन्होंने देश को गरीबी से पूरी तरह मुक्त करने का विजन सामने रखा था। वे कहते थे कि देश के 26 करोड़ लोगों को गरीबी से मुक्त करानाहर चेहरे पर मुस्कान लाना और देश को पूरी तरह विकसित राष्ट्र बनाना ही हम सबका लक्ष्य होना चाहिए। वे इसे सबसे बड़ी चुनौती भी मानते थे। उनका कहना था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें साधारण मसलों को भूलकरएक देश के रूप में सामने आकर हाथ मिलाना होगा। कलाम ने ऐसे भारत का स्वप्न देखा थाजिसके नागरिकों पर निरक्षर होने का कलंक न लगे। वे एक ऐसा राष्ट्र चाहते थे जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से पूरी तरह मुक्त हो और समाज का कोई भी व्यक्ति खुद को अलग-थलग महसूस न करे। कलाम के विजन 2020 का यह वह हिस्सा हैजो पिछले कुछ वर्षों में सर्वाधिक आहत हुआ है। साक्षरता के नाम पर हम शिक्षा के मूल तत्व से दूर हो चुके हैं। महिलाएं व बच्चे असुरक्षित हैं और यह बार-बार साबित हो रहा है। समाज में जुड़ाव के धागे कमजोर पड़ चुके हैं और न सिर्फ कुछ व्यक्तिबल्कि पूरा समाज ही अलगाव के रास्ते पर है। ऐसे में आजादी के 75वें वर्ष में हमें यह विचार भी करना होगा कि हम कलाम के दिखाए सपने और उस लक्ष्य से कितना पीछे रह चुके हैं। अब जबकि हम अपने सपनों को एक साथ 25 साल का एक्सटेंशन दे चुके हैं, तो उन सपनों को पूरा करने की ठोस कार्ययोजना भी बनानी होगी। इस कार्ययोजना में हमें महज सपनों के बारे में विमर्श तक सीमित न रहकर उन्हें पूरे करने की रणनीति भी बनानी होगी। सबको साथ जोड़ना पड़ेगा और सपने साझा करने होंगे।

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