Wednesday 31 July 2019

पहले बेटी बचा लो... फिर पढ़ा लेना


डॉ.संजीव मिश्र
पिछले कुछ वर्षों से हम सड़क से संसद तक एक नारा पूरे जोश से सुन रहे हैं, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’। यह नारा भारतीय परिवेश के मूल तत्व से भी जुड़ता है, जहां यत्र नार्यस्तु पूज्यंते का भाव कदम-कदम पर हमें नारी सशक्तीकरण की याद दिलाता है। नारे के स्तर पर भले ही बेटियों को बचाने और उन्हें पढ़ाने की बड़ी-बड़ी बातें की जाती हों, किन्तु उनके सम्मान के स्तर पर यह नारा खरा उतरता नहीं दिखता। बेटियों के अस्तित्व पर सवाल उठाने से लेकर उन पर कटाक्ष करने और उनकी इज्जत की परवाह न करने जैसी बातें अब आम हो गयी हैं। पिछले एक महीने में उत्तराखंड में बेटियों को गर्भ में मार देने, संसद में महिला सांसद के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करने और फिर उन्नाव में बलात्कार पीड़िता को ट्रक के पहियों तले रौंदने जैसी कुछ घटनाओं ने एक बार फिर देश को झकझोर दिया है। अब लोग कहने लगे हैं, पहले बेटी बचा लो... फिर पढ़ा लेना।
उत्तर प्रदेश की एक घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया है। राजधानी लखनऊ से महज पचास किलोमीटर दूर उन्नाव जिले के एक विधायक इस समय बलात्कार के आरोप में जेल में हैं। जिस युवती ने उन पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज कराने का साहस किया है, रविवार को उक्त युवती की कार को एक ट्रक के पहियों तले रौंद दिया गया। तात्कालिक साक्ष्यों के आधार पर इसे महज दुर्घटना नहीं माना जा सकता। समूचा विपक्ष उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी भाजपा पर आरोपों का ठीकरा फोड़ रहा है। इन आरोपों के बीच यह सच तो खारिज ही नहीं किया जा सकता कि बलात्कार पीड़ित युवती के चाचा को पुलिस जेल भेज चुकी है और अब परिवार सहित उसकी हत्या की कोशिश की गयी है। इसमें सत्ता पक्ष की संलिप्तता हो या न हो, यह तो जांच का विषय है किन्तु इस मामले का इतिहास अलग ही कहानी कहता है। उक्त युवती ने जिस भाजपा विधायक पर बलात्कार का आरोप लगाया है, वहइस समय जेल में हैं। उसके रसूख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्नाव के सांसद साक्षी महाराज चुनाव जीतने के बाद जेल में उक्त विधायक से मिलने गए थे। भाजपा ने भी बलात्कार के आरोपी से अपने सांसद के जेल जाकर मिलने पर न तो रोक लगाई, न ही बाद में कोई कार्रवाई की। ऐसे में विधायक समर्थकों के हौसले बुलंद होना स्वाभाविक है। सत्ताधारी पार्टी के कुछ नेताओं के अनर्गल प्रलाप व क्रियाकलाप पूरे नेतृत्व को कठघरे में खड़ा करते हैं और उनके खिलाफ समय रहते कार्रवाई न होने से स्थितियां और गंभीर हो जाती हैं। ऐसे में जब बेटियों के उन्नयन की बात की जाती है तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब बेटियां सुरक्षित ही नहीं रहेंगी, तो बचेंगी कैसे और बचेंगी नहीं तो पढ़ेंगी कैसे?
बेटियों के साथ सड़क पर होने वाली घटनाएं ही परेशान करने वाली नहीं हैं। अब तो संसद भी बेटियों-महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं रह गयी है। जिस तरह पिछले दिनों लोकसभा में चर्चा के दौरान समाजवादी पार्टी सांसद आजम खान ने अध्यक्ष पीठ पर बैठी सांसद रमा देवी पर टिप्पणी की, उससे संसद तक पहुंचने वाले हमारे प्रतिनिधियों के चारित्रिक चिंतन पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। आजम के मुंह से एक महिला के बारे में उनके मन में चल रही राय निकल गयी, किन्तु ऐसे ही कितने सांसद वहां पहुंचने वाली महिला सांसदों के लिए क्या राय रखते होंगे, यह सवाल भी खड़े हो गए। यही कारण है कि सभी दलों की महिला सांसदों ने एक स्वर में आजम का विरोध किया और उन्हें माफी मांगनी पड़ी। यहां दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि आजम से माफी मंगवाने के लिए संसद पहुंचने तक का इंतजार किया गया। इससे पहले यही आजम खान न सिर्फ जयाप्रदा सहित महिला नेताओं पर ऊटपटांग टिप्पणी कर चुके हैं, यहां तक की भारत माता को डायन तक कह चुके हैं। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में पांच साल सरकार चलाने वाली समाजवादी पार्टी न सिर्फ उन्हें तवज्जो देती है, बल्कि पार्टी में उनके कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनका पूरा परिवार राजनीति में है। उनकी पत्नी राज्यसभा सदस्य हैं और बेटा विधायक। जिस समय आजम ने पहले महिलाओं के लिए गलत शब्दों का प्रयोग किया था, यदि उस समय सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव चेत गए होते, तो संसद में उन्हें अपनी पार्टी के सांसद के कारण शर्मसार नहीं होना पड़ता। इन स्थितियों में भी यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब बेटियों का सम्मान नहीं होगा, तो वे स्वाभिमान के साथ जियेंगी कैसे और जियेंगी नहीं तो पढ़ेंगी कैसे?
सड़क से संसद तक महिलाओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के बीच बेटियों के खिलाफ संगठित मुहिम आज भी जारी है। हाल ही में उत्तराखंड से एक चौंकाने वाली खबर आई है। वहां के उत्तरकाशी जिले के 132 गांवों में तीन माह में एक भी बेटी पैदा नहीं हुई। इस दौरान यहां पैदा हुए 216 बच्चों में सभी लड़के थे। चिकित्सक भी इसे असंभव मान रहे हैं। इससे तय है कि आज भी गर्भ में बेटियों को मारने का सिलसिला देश में चल रहा है। पढ़े लिखे डॉक्टर्स का पूरा नेटवर्क इसमें बेटियों का हत्यारा है। एक डॉक्टर पहले अल्ट्रासाउंड से पेट में बेटी होने की जानकारी देता है, फिर दूसरा एबॉर्शन कर देता है। ऐसे में भी सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब बेटियां गर्भ में ही मार दी जाएंगी, तो पैदा कैसे होंगी और पैदा ही नहीं होंगी तो पढ़ेंगी कैसे?

Wednesday 24 July 2019

चलो प्रज्ञान चलो, चांद के पार चलो


डॉ. संजीव मिश्र
चांद के बारे में सोचते ही हर किसी को चांद से जुड़े कुछ गीत जरूर याद आते हैं। चंदा मामा दूर के... गीत बचपन से जोड़ता है, तो चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो... गीत युवावस्था की याद दिलाता है। भारत का हर व्यक्ति इस समय चांद के पार जाने की प्रक्रिया के साथ अलग ही इश्क में डूबा है। उसे इश्क हो रहा है देश के वैज्ञानिकों से, जिन्होंने दुनिया के सामने पहले मंगलयान, फिर चंद्रयान के द्वितीय संस्करण के साथ अंतरिक्ष में अपनी श्रेष्ठता साबित की है। प्रज्ञान चांद पर जा रहा है, और लोगों के दिल पर चलो प्रज्ञान चलो, चांद के पार चलो... जैसे गीत का कब्जा है।
सोमवार दोपहर जब चंद्रयान-2 की यात्रा शुरू हुई, तो पूरा देश जश्न में डूब उठा था। चंद्रयान-2 को भारत में ही बना राकेट जीएसएलवी मार्क-3 अंतरिक्ष में लेकर गया है। रोवर प्रज्ञान चांद से भारत को जोड़ने में सीधी भूमिका का निर्वहन करेगा। प्रज्ञान की यह यात्रा हर भारतवासी को गर्व की अनुभूति करा रही है। इससे पूरी दुनिया में भारत की धमक तो बढ़ रही है, हमारे वैज्ञानिकों का हौसला भी बढ़ रहा है। ऐसे अभियान आम देशवासी को भी गर्व की अनुभूति कराते हैं। चांद पर सूत कातती बुढ़िया की कहानियां सुनकर बड़ी हुई पीढ़ी अब अपने बच्चों को चांद पर हनीमून मनाने का उपहार देने का मन बनाने लगी है। चांद पर कालोनी बसाने की बात भले ही पश्चिम से आयी हो, किन्तु भारत ने साबित कर दिया है कि वह किसी भी मामले में पश्चिम से पीछे नहीं है। आर्थिक दृष्टि से भी भारतीय अभियान खासे विशिष्ट होते हैं। हमने दुनिया में सबसे कम खर्चे पर मंगलयान भेजा है, वहीं अब चंद्रयान-2 ने इस अभियान में मील के पत्थर का काम किया है। यह अभियान हमारी ऊर्जा जरूरतों के साथ तमाम सामरिक जरूरतों को पूरा करेगा।
चंद्रयान जैसे अभियान भारतीय मेधा की श्रेष्ठता अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साबित कर रही है। वैसे भी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिकों ने अपने ऊपर  होने वाले खर्च से अधिक कमाकर देने के मामले में भी नाम कमा रखा है। इसरो पर खर्च होने वाले हर एक रुपये के बदले भारत कम से कम डेढ़ रुपए तो कमाता ही है। इसके अलावा देश की तमाम वैज्ञानिक जरूरतें भी हमारे वैज्ञानिकों की मेधा से पूरी होती रहती हैं। हाल ही में उड़ीसा में आए भीषण तूफान की सटीक जानकारी भारतीय वैज्ञानिकों के प्रयासों से ही मिल सकी थी। इसका परिणाम हुआ कि उड़ीसा में उससे निपटने के लिए पर्याप्त तैयारी की जा सकी। इससे जान-माल का तुलनात्मक रूप से कम नुकसान हुआ और बाद में भी उससे निपटना आसान हो सका। एक बार फिर चंद्रयान-2 के साथ भारत चंद्रमा की सतह पर पहुंचने वाले दुनिया का चौथा देश बन जाएगा। भारत चंद्रयान-2 के साथ चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर दस्तक देने जा रहा है और वहां पानी मिलने की संभावना अधिक होने के कारण भारत के हाथ यह अनूठी सफलता भी लगने की उम्मीद है। इन सफलताओं के साथ भारतीय वैज्ञानिक दुनिया भर में छा जाएंगे। हम अंतरिक्ष बाजार की बड़ी ताकत बन जाएंगे। पूरी दुनिया उम्मीदों से हमारी तरफ देख रही है और उम्मीद है कि हम इन सभी उम्मीदों पर खरे उतरेंगे।
स्वच्छ भारत अभियान जैसी भारतीय स्वच्छ परंपराओं के साथ अंतरिक्ष में सफाई भी इधर एक बड़ा मुद्दा बन गया है। अंतरिक्ष में पहुंचने वाले उपग्रहों की सफल यात्राओं के साथ वहां पहुंचने वाला कचरा भी अतंर्राष्ट्रीय समस्या बन रहा है। एक आंकलन के अनुसार अंतरिक्ष में कचरा फैलाने के मामले में अमेरिका सबसे आगे है। वहां छह हजार से अधिक टुकड़े कचरे के रूप में पड़े हैं। ऐसे में अब इस कचरे के निस्तारण की दिशा में भी सकारात्मक काम की जरूरत है। तो आइये चंद्रयान-2 की पूर्ण सफलता की कामना के साथ हम अंतरिक्ष में और व्यापक सफलताओं की कामना करें। भारतीय वैज्ञानिकों की इस सफलता के साथ अब देश अपने प्रधानमंत्री की लालकिले से की गयी घोषणा के साथ आगे बढ़ने की तैयारी में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2018 को लाल किले की प्राचीर से घोषणा की थी कि भारतीय स्वतंत्रता की 75 सालगिरह यानी 2022 तक भारतीय नागरिक हाथ में तिरंगा झंडा लेकर अंतरिक्ष की यात्रा करेंगे। उम्मीद है कि अगले तीन साल इस दिशा में काम वाले होंगे और भारत मानव को अंतरिक्ष तक पहुंचाने वाला देश बन जाएगा।

Wednesday 17 July 2019

बरेली की बेटी


डॉ.संजीव मिश्र
बरेली एक बार फिर चर्चा में है। कभी बरेली के बाजार में गिरा एक झुमका गीत की शक्ल में बॉलीवुड से बरेली को चर्चा में लाया था। बरेली की बाला प्रियंका चोपड़ा विश्व सुन्दरी बनीं, तो बरेली पर फिर खूब बातें हुईं। कुछ साल पहले आई फिल्म बरेली की बर्फी ने भी देश को बरेली से जोड़ा। इन सबके बाद एक बार फिर बरेली चर्चा में है। इस बार बरेली की बेटी देश भर में चर्चा का कारण बनी है। बरेली की बेटी ने इश्क के लिए बगावत की है, यह बगावत क्या करवट लेगी, यह तो वक्त ही बताएगा किन्तु फिलहाल इस बगावत ने देश की बेटियों को ही बांट दिया है। कुछ बेटियां आंख बंद कर बरेली की बेटी के साथ खड़ी हैं, तो कुछ उसे यह कहकर खारिज कर रही हैं कि बरेली की बेटी ने देश की अन्य बेटियों को मिल रही आजादी की राह में बड़ा रोड़ा अटका दिया है।
पिछले कुछ वर्षों से देश में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे नारे तेजी से बढ़े हैं। भारतीय परंपरा में वैसे भी ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते’ जैसी पंक्तियां नारी सशक्तीकरण का आधार बनती रही हैं। बेटियों की पढ़ाई को लेकर जागरूकता बढ़ी है और उन्हें आजादी भी मिली है। बेटियां घर से दूर छात्रावासों में रहकर पढ़ रही हैं। बरेली की बेटी साक्षी भी इश्क की इस बगावत से पहले जयपुर में माता-पिता से दूर रहकर ही पढ़ रही थी। यह पहला मामला नहीं है, जब अंतर्जातीय विवाह हुआ हो। अच्छी बात यह है कि ऑनर किलिंग की तमाम घटनाओं के बीच ही सही, अंतर्जातीय विवाहों की स्वीकार्यता भी बढ़ी है। इसके बावजूद साक्षी ने जिस तरह से अपने पिता के खिलाफ बगावत करने के साथ उन्हें हर कदम पर शर्मसार करने की रणनीति अपनाई है, उससे तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं। साक्षी ने पहले दिन जब अपने पिता से खतरा होने संबंधी वीडियो संदेश जारी किया था, तब तक अधिकांश लोग उसके साथ ही खड़े थे किन्तु अगले ही दिन जस तरह साक्षी ने मीडिया के बीच जाकर अपने परिवार की छीछालेदर की, उससे स्थितियां बदल गयी हैं। यह स्थितियां विचारणीय भी हैं।
प्यार को परिभाषित करना बड़ा कठिन सा भी है। एक बेटी बीस साल तक माता-पिता के साथ रहती है। इस दौरान वह पापा की लाड़ली होती है, इस कदर लाड़ली कि उसकी जुबां पर ‘पापा की परी हूं मैं’ जैसे गीत गूंजते रहते हैं। अचानक एक दिन एक युवक उसकी जिंदगी में आता है और उसका प्यार बीस साल के प्यार के ऊपर भारी पड़ जाता है। दोनों के प्यार की कोई तुलना नहीं की जानी चाहिए, इसके बावजूद स्वीकार्यता के साथ आगे बढ़ने के रास्ते पर विचार तो होना ही चाहिए। अपनी बेटी को प्यार करने वाला हर पिता उसके फैसले के साथ खड़ा होगा। इस मामले में तो साक्षी ने ऐसा भी नहीं किया। पिता को पता ही नहीं चला कि वह किसी से विवाह करना चाहती है। सामान्य भारतीय परिस्थितियों में किसी बेटी का पिता अपने बेटी से उम्र में काफी बड़े, बेरोजगार व कर्जदार युवक से उसका विवाह नहीं करना चाहेगा। ऐसे में जिस तरह साक्षी ने अपने पूरे परिवार को कठघरे में खड़ा किया, उससे भी तमाम सवाल उठ रहे हैं। पिता व भाई अपराधी हो सकते हैं, पर सामान्यतः बेटियां मां को तो अपने मन की बात बताती ही हैं, किन्तु इस मामले में ऐसा भी नहीं हुआ। ये स्थितियां समाज में आ रहे नकारात्मक बदलावों की कहानी कह रही हैं, इस पर सकारात्मक विचार होना जरूरी है।
दरअसल यह मामला भी तमाम अन्य मामलों की तरह शांत हो जाता, यदि साक्षी के पिता विधायक न होते। पिता के विधायक होने के कारण साक्षी को भी शायद उनसे कुछ ज्यादा ही डर लगा होगा। वैसे पहले वायरल वीडियो के बाद स्थितियां साक्षी के पक्ष में आ गयी थीं, ऐसे में चैनल-चैनल जाकर परिवार पर आरोप लगाने से स्थितियां बदल गयीं। इसमें मीडिया की भूमिका भी सवालों में है। जिस तरह से मीडिया ने साक्षी के साथ खड़ा दिखने भर के लिए भारतीय परिवार व्यवस्था पर सवाल उठाए, वह भी दुर्भाग्यपूर्ण है। अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने की बात करने वाले भी साक्षी द्वारा उठाए गए कदम से सहमत नजर नहीं आते हैं। ऐसे में इतना तय है कि बरेली की इस बेटी ने पूरे देश में एक नयी चर्चा को जन्म दिया है। परिवार व्यवस्था व प्यार की परिभाषा के साथ रिश्तों की तराजू पर तौलते मनोभावों का विश्लेषण भी जरूरी है।

Tuesday 16 July 2019

यह अश्वमेध है...


डॉ.संजीव मिश्र
बात 1985 की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आए दिन दल-बदल व जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त रोकने के लिए 52वें संविधान संशोधन के रूप में दल-बदल विरोधी कानून की पहल की। उस समय लगा कि देश में क्रांतिकारी बदलाव आएगा। अब सत्ता की शुचिता बरकरार रहेगी। दल-बदल बिल्कुल रुक जाएंगे। कुछ वर्षों तक ऐसा हुआ भी, किन्तु राजनीतिक दलों ने फिर से राह निकाल ली। अब थोक में दल-बदल के साथ इस्तीफे व दोबारा चुनाव जैसे रास्ते निकाल लिये गए हैं। इस समय भी देश उसी ऊहापोह से जूझ रहा है। सत्ता का अश्वमेध यज्ञ चल रहा है। कहीं इस्तीफों, तो कहीं दबाव की राजनीति चल रही है और सच के पैरोकार मौन साध बैठे हैं।
भारत हो या कोई और देश, राजनीति में सक्रिय हर व्यक्ति का मूल लक्ष्य सत्ता प्राप्ति ही माना जाता है। ऐसे में सत्ता को साधन की जगह साध्य मानने वालों का वर्चस्व भी कायम होता जा रहा है। महात्मा गांधी राजनीतिक सत्ता को साध्य के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। वे कहते थे, ‘मेरे लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं है, अपितु जीवन के हर क्षेत्र में जनता को अपनी स्थिति सुधारने में सहायता करने का एक साधन है’। भारत के तमाम राजनीतिक दल भी सत्ता को साध्य न मानकर सेवा का साधन मानने की बातें बीच-बीच में कहते रहते हैं। इस समय देश का राजनीतिक नेतृत्व संभाल रही भारतीय जनता पार्टी के नेता भी अपनी पूरी राजनीति का आधार ही इसे मानते हैं। भाजपा के वैचारिक अधिष्ठान के प्रतिपादक माने जाने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 11 दिसंबर 1961 को पॉलिटिकल डायरी में लिखा था, ‘अच्छे दल के सदस्यों के लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं, साधन होनी चाहिए’। गांधी हों या दीनदयाल, उनके बताए रास्ते पर चलने का दावा करने वाले आज सत्ता को जनसेवा का साधन बनाने के स्थान पर सत्ता की साधना में जुटे हुए हैं। इसके लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। राजनेता चुनावी हार-जीत को अपनी सफलता का पैमाना मानने के साथ उसमें निरंतरता के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। यह ‘कुछ भी’ देश व समाज के लिए खासा चिंताजनक साबित हो रहा है।
इस समय तो पूरे देश में मानो सत्ता का अश्वमेध यज्ञ चल रहा है। चक्रवर्ती सम्राट के रूप में स्थापित होने के लिए हर तरह के प्रयास हो रहे हैं। अश्वमेध का अश्व छोड़ा जा चुका है। हां, रणभूमि का चयन जरूर तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार हो रहा है। कभी वह कोई रेसॉर्ट होता है, तो कभी कोई कोई पांच या सात सितारा होटल। राजनीतिक दलों में अविश्वास व समग्र भारतीय राजनीतिक परिवेश में असमंजस इस कदर बढ़ा है कि हाल ही में केंद्र में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत के साथ ही कांग्रेस को अपनी कर्नाटक, मध्य प्रदेश व राजस्थान सरकारों की विदाई का डर सताने लगा था। इस डर को तमाम भाजपा नेता भी हवा दे रहे थे। इस समय चल रहा कर्नाटक का घटनाक्रम भी इसी अविश्वास व असमंजस का परिणाम है। कर्नाटक में सत्ता संघर्ष चल ही रहा है, बहुमत के मामले में किनारे पर खड़े अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री भी डरे हुए से नजर आते हैं। सत्ता को साध्य बनाकर अश्वमेध यज्ञ जीतने के लिए हो रहा संधान निश्चित रूप से भारतीय राजनीति के लिए शुभ संकेत तो नहीं माना जा सकता। सत्ता प्राप्ति की बलवती जिजीविषा और उसके लिए कुछ भी कर गुजरने की इच्छाशक्ति ने पूरी राजनीति के मायने ही बदल दिए हैं।
इन स्थितियों में दल बदल कानून के औचित्य पर भी सवालिया निशान लगने लगे हैं। 1985 में जब राजीव गांधी दल बदल कानून लाए थे, तब लगता था कि पूरी-पूरी पार्टी या उसकी बड़ी संख्या को तोड़ना थोड़ा कठिन होगा। उस समय अन्य राजनीतिक दलों व नेताओं ने इस कानून का समर्थन भी किया था किन्तु समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने उसी समय चेताया था कि इस कानून से दल-बदल नहीं रुकेगा। उनका कहना था कि यह कानून छोटे-छोटे यानी फुटकर दल-बदल को तो रोकता है किन्तु थोक में हुए दल-बदल को वैधता प्रदान करता है। यह सच भी साबित हुए कानून बनने के कुछ सालों के भीतर ही स्पष्ट होने लगा था कि यह कानून अपने मकसद को पाने में नाकाम साबित हो रहा है। अब तो लगने लगा है कि इस कानून ने भारत के संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को भी हवा दी है। इस कानून पर अमल की जिम्मेदारी सदन के अध्यक्ष की होती है और वह सत्ता पक्ष का ही होता है। कई बार सत्ताधारी दल इसका लाभ उठाता है। अब तो इस्तीफा देकर दोबारा चुनाव में झोंकने की स्थितियां भी पैदा की जाने लगी हैं। नेता विधानसभा चुनाव नहीं लड़ते और फिर मुख्यमंत्री बनने के लिए किसी विधायक का इस्तीफा करा देते हैं। इसमें भी विरोधी दल के विधायक का इस्तीफा दिलाना फैशन सा बन गया है ताकि वे सत्ता की हनक साबित कर सकें। दल-बदल के लिए भी जरूरी संख्या न जुटा पाने पर इस्तीफा दिलाना एक उपयुक्त तरीके के रूप में सामने आया है। ऐसे में दल-बदल कानून पर भी नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। अन्यथा इसी तरह सत्ता प्राप्ति के लिए तमाम प्रपंच होते रहेंगे और लोकतंत्र रोता रहेगा।

Wednesday 3 July 2019

भक्तों से दूर हो रहे धरती के भगवान


डॉ.संजीव मिश्र
उन्हें धरती का भगवान कहा जाता है। वे वर्षों से एक अनूठी शपथ (हिप्पोक्रेटिक ओथ) लेते हैं, जिसमें वे हर बीमार को इलाज सुनिश्चित करने का वादा स्वयं से कर रहे होते हैं। वे डॉक्टर हैं और उम्मीदों के आसमान पर रहते हैं। सामान्य स्थितियों में मरीज व उनके परिजन डॉक्टर्स की कही हर बात को ब्रह्मवाक्य मानकर आगे बढ़ते हैं। इसके बावजूद कभी वे हाथ उठाते हैं, कभी उन पर हाथ उठते हैं। दरअसल सच ये है कि कई बार उनकी उपेक्षा मरीजों को भारी पड़ती है, तो कई बार मरीजों की अपेक्षा उन्हें भारी पड़ती है। इसका परिणाम नकारात्मक रूप से सामने आ रहा है और धरती के ये भगवान अपने भक्तों से दूर होते जा रहे हैं।
एक जुलाई को पूरे देश में डॉक्टर्स डे के रूप में मनाया जाता है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन सहित की संगठन देश भर में ख्यातिलब्ध चिकित्सकों का सम्मान करते हैं। इधर पिछले कुछ वर्षों से डॉक्टर्स डे पर होने वाले आयोजनों में मरीजों से चिकित्सकों की बढ़ती दूरी व्याख्यानों व विमर्श का बड़ा विषय बन गयी है। पिछला पूरा महीना ही चिकित्सकों से जुड़े विमर्श का रहा है। पश्चिम बंगाल में चिकित्सकों के साथ मारपीट के बाद देशव्यापी आंदोलन हुआ और मामला लोकसभा से लेकर अदालत तक पहुंचा, किन्तु स्थितियां पूरी तरह सामान्य नहीं हो सकीं। ऐन डॉक्टर्स डे की पूर्व संध्या पर दिल्ली एक अस्पताल में चिकित्सकों से मारपीट का मामला सामने आया है। इन सभी घटनाओं में चिकित्सक जहां मरीजों पर गलत व्यवहार का आरोप लगाते नजर आ रहे हैं, वहीं मरीज चिकित्सकों पर लापरवाही का आरोप साबित करते दिखाई दे रहे हैं। देश के स्वास्थ्य मंत्रालय की जिम्मेदारी एक डॉक्टर के पास है, ऐसे में उनकी अपेक्षाएं सरकार से भी कुछ अधिक हो गयी हैं। सरकार भी ऐसे कानून पर विचार कर रही है, जिसमें डॉक्टरों पर हमले करने वालों को कठोर सजा दिलाना सुनिश्चित किया जा सका। ऐसे कानून से सजा व कार्रवाई का पथ तो प्रशस्त हो जाएगा, किन्तु चिकित्सा पेशे के प्रति मरीजों की घटती विश्वसनीयता बहाल हो सकेगी, यह कहना मुश्किल ही लग रहा है।
दरअसल चिकित्सकों व मरीजों के बीच बढ़ती दूरी महज महीने-दो महीने की प्रक्रिया नहीं है। इक्कीसवीं सदी की दस्तक के साथ ही हर पेशे में व्यावसायिकता बढ़ी, जिसका असर चिकित्सा व्यवस्था पर भी पड़ा। शोध व उपचार की उपलब्धता के साथ नयी जांचों का दौर तेजी से बढ़ा। नयी जांचों के लिए करोड़ों रुपये की मशीनों की जरूरत पड़ी और इसमें धनाढ्य वर्ग का प्रवेश हुआ। तमाम पढ़े लिखे डॉक्टर धनाढ्य वर्ग के नौकर बन कर रह गए। करोड़ों की मशीनों के लिए टर्नओवर भी लाखों रुपये का चाहिए था, तो डॉक्टर्स ने जांच से लेकर इलाज तक कमीशन पर फोकस किया। बड़े अस्पताल खुले, तो इलाज के पैकेज बनने लगे। इन स्थितियों में इलाज पर पैसा भारी हो गया। यही कारण रहा कि निजी मेडिकल कालेजों में एमबीबीएस व  एमडी-एमएस की सीटें करोड़ों रुपये में बिकने लगी। रेडियोलॉजी में परास्नातक की पढ़ाई सबसे महंगी हो गयी क्योंकि यह महंगी जांचों वाली विशेषज्ञता के रूप में सामने आई। बहुत अधिक समय नहीं हुआ है, जब निजी कालेजों को मान्यता देने के मामले में भारतीय चिकित्सा परिषद की गड़बड़ियां सामने आई थीं। ऐसा नहीं है कि इन सबके बीच सेवाभावी चिकित्सक नहीं बचे, वे थे, हैं और आगे भी रहेंगे। आज भी तमाम चिकित्सक ऐसे हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व चिकित्सकीय मर्यादा की रक्षा में समर्पित कर दिया। उनके लिए मरीज सर्वोपरि हैं और वे दिन-रात देखे बिना मरीजों की सेवा में लगे रहते हैं। यहां दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि सरकारों द्वारा पद्मश्री जैसे सम्मान देते समय ऐसे जमीनी चिकित्सकों के स्थान पर राजनेताओं का इलाज करने वाले दिग्गज चिकित्सकों के नाम ही चर्चा में आते हैं।
चिकित्सकों व आम जनमानस में बढ़ती इस दूरी के पीछे जनता भी कम जिम्मेदार नहीं है। चिकित्सकों से मरीजों व उनके परिजनों की अपेक्षाओं का स्तर भी लगातार बढ़ रहा है। तमाम बीमारियों के साथ जिस तरह निजी क्षेत्र का विस्तार हुआ, मरीज भी सरकारी चिकित्सा प्रणाली से निजी चिकित्सा व्यवस्था की ओर घूमे। चिकित्सक भी समाज का हिस्सा हैं और वे इलाज के लिए शुल्क देते हैं। शुल्क देते ही मरीज उनसे दुकानदार की भूमिका में बात करने लगते हैं। मरीज की मौत या अन्य स्थितियों में ये अपेक्षाएं विस्तार ले लेती हैं और फिर हंगामा, तोड़फोड़ जैसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप भी तेजी से चिकित्सा व्यवसाय को नुकसान पहुंचा रहा है। राजनेताओं से लेकर प्रशासनिक अफसरों तक हर कोई निजी अस्पतालों में ही इलाज कराना श्रेयस्कर समझता है। वे सरकारी अस्पतालों में जाते नहीं हैं और कई बार तो सरकारी अस्पतालों में तैनात चिकित्सकों से ही निजी अस्पताल में इलाज कराते हैं। ये स्थितियां ठीक होनी चाहिए। चिकित्सकों को उस शपथ (हिप्पोक्रेटिक ओथ) का सम्मान करना चाहिए, जिसके साथ वे डॉक्टर बनकर मरीजों के इलाज का बीड़ा उठाते हैं। वहीं सामाजिक जीवन के सभी स्तंभों को भी अपनी भूमिका का सतत निर्वहन करना चाहिए, ताकि चिकित्सकों व आम जनमानस के बीच विश्वास का रिश्ता कायम हो सके।