Thursday 30 January 2020

गांधी ने तो नहीं सोचा था ऐसा भारत


डॉ.संजीव मिश्र
30 जनवरी 1948 यानी भारतीय इतिहास का वह काला दिन जब हमने अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की हत्या का दंश सहा था। महात्मा गांधी ने तमाम आरोपों-अवरोधों का सामना करते हुए भी देश में सर्वधर्म सद्भाव की स्थापना के लिए अपनी जान तक गंवा दी। आज उनकी मृत्यु के 72 साल बाद पूरे देश का वातावरण गांधी की विचार प्रक्रिया को ठेंगा दिखाता नजर आ रहा है। आज देश का राजनीतिक व सामाजिक वातावरण जिस तरह का बन गया है, वैसा भारत तो गांधी ने कभी नहीं सोचा था। आज गांधी के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले उन्हें कदम-कदम पर वैचारिक चुनौती दे रहे हैं। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है किन्तु इस पर विराम नहीं लग पा रहा है।
अहिंसा और सत्य के साथ आजादी की लड़ाई लड़ने वाले महात्मा गांधी देश में धार्मिक सौहार्द्र के प्रणेता थे। गांधी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की पैरोकारी की तो एक हिन्दू ने उन पर मुस्लिमपरस्त होने का आरोप लगाकर उनकी हत्या कर दी। गांधी ने मुस्लिमपरस्ती का आरोप भी झेला, किन्तु गांधी के ही भारत में जब एक मुस्लिम युवा असम को देश से अलग कर देश के टुकड़े-टुकड़े करने की बात कर रहा था, उस समय ‘नारा-ए-तकबीर’ जैसे धार्मिक नारे उसका तो समर्थन कर रहे थे किन्तु गांधी के विचारों की हत्या कर रहे थे। ठीक इसी तरह ‘रघुपति राघव राजा राम’ गाने वाले गांधी के देश में जब-जब राम के नाम पर राजनीति होती है, गांधी की वैचारिक हत्या होती है। ऐसे में एक गोडसे को गांधी का हत्यारा मानने वालों से बड़े हत्यारे वे लोग हैं जो दैनंदिन प्रक्रिया में गांधी की वैचारिक हत्या कर रहे हैं। महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर उन्हें स्मरण के साथ हमें उन हत्यारों से भी मुक्ति का संकल्प लेना होगा, जो रोज-रोज गांधी की वैचारिक हत्या कर रहे हैं।
देश में इस समय जिस तरह से शिक्षण संस्थानों तक को ध्रुवीकरण व तुष्टीकरण के दायरे में लाया जा चुका है, गांधी ऐसा भारत तो कभी नहीं चाहते थे। वे सर्वग्राह्य शिक्षा पद्धति के पक्षधर थे, किन्तु अब तो शिक्षण संस्थान भी धर्म के आधार पर बंटे से नजर आ रहे हैं। वहां पढ़ाई से ज्यादा धार्मिक नारों की गूंज सुनाई दे रही है। शिक्षण संस्थानों में धार्मिक नारों की गूंज से मुक्ति के बिना गांधी के सपनों वाले भारत की प्राप्ति संभव नहीं है। महात्मा गांधी हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच विचारों के समन्वय के पक्षधर थे। यंग इंडिया में 25 फरवरी 1920 को लिखे अपने लेख में उन्होंने लिखा कि यदि मुसलमानों की पूजा पद्धति व उनके तौर-तरीकों व रिवाजों को हिन्दू सहन नहीं करेंगे या यदि हिन्दुओं की मूर्ति पूजा व गोभक्ति के प्रति मुसलमान असहिष्णुता दिखाएंगे तो हम शांति से नहीं रह सकते। उनका मानना था कि एक दूसरे के धर्म की कुछ पद्धितयां नापसंद भले ही हों, किन्तु उसे सहन करने की आदत दोनों धर्मों को डालनी होगी। वे मानते थे कि हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच के सारे झगड़ों की जड़ में एक दूसरे पर विचार लादने की जिद ही मुख्य बात है। बापू के इन विचारों के सौ साल बात भी झगड़े जस के तस हैं और वैचारिक दूरियां और बढ़ सी गयी हैं।
गांधी धर्म के नाम पर अराजकता व गुंडागर्दी के सख्त खिलाफ थे। यंग इंडिया में 14 सितंबर 1924 को उन्होंने लिखा था कि गुंडों के द्वारा धर्म की तथा अपनी रक्षा नहीं की जा सकती। यह तो एक आफत के बदले दूसरी अथवा उसके सिवा एक और आफत मोल लेना हुआ। गांधी भले ही धर्म की रक्षा के नाम पर किसी तरह की अराजकता के पक्षधर नहीं थे किन्तु पूरे देश पिछले कुछ दिनों से जिस तरह धार्मिक नारों के साथ धर्म को खतरे में बताकर धर्म की रक्षा के लिए सड़क तक हिंसक व अराजक आंदोलन हुए हैं, वे सब गांधी के विचारों की हत्या ही कर रहे थे। गांधी देश में किभी तरह के साम्प्रदायिक विभाजन के खिलाफ थे। उनका मानना था कि साम्प्रदायिक लोग हिंसा, आगजनी आदि अपराध करते हैं, जबकि उनका धर्म इन कुकृत्यों की इजाजत नहीं देता। 6 अक्टूबर 1921 को प्रकाशित यंग इंडिया के एक लेख में उन्होंने लिखा कि हिंसा या आगजनी कोई धर्म-सम्मत काम नहीं हैं, बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग धर्म की आड़ में बेशर्मी से ऐसे काम करते हैं।
पूरा देश इस समय हिन्दू-मुस्लिम विभाजन की आग में जल रहा है। आपस में विश्वास का कम होना सबसे बड़ा संकट है। महात्मा गांधी ने सौ साल पहले यानी 1920 में इस संकट को भांप कर रास्ता सुझाया था। 25 फरवरी 1920 को यंग इंडिया में प्रकाशित अपने आलेख में गांधी ने लिखा कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए समान उद्देश्य व समान लक्ष्य के साथ समान सुख-दुख का भाव जरूरी है। एकता की भावना बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका समान लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न में सहयोग करना, एक दूसरे का दुख बांटना और परस्पर सहिष्णुता बरतना ही है। आज बापू भले ही नहीं हैं, पर उनके विचार हमारे साथ हैं। देश को संकट से बचाने के लिए बापू के विचारों को अंगीकार करना होगा, वरना देर तो हो ही चुकी है, अब बहुत देर होने से बचाना जरूरी है।

Wednesday 22 January 2020

अटल से नड्डा तक बदलती भाजपा


डॉ.संजीव मिश्र
बात चालीस साल पहले की है। दिसंबर 1980 में भारतीय जनता पार्टी के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए पार्टी के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘भारत के पश्चिमी घाट को मंडित करने वाले महासागर के किनारे खड़े होकर मैं यह भविष्यवाणी करने का साहस करता हूं कि अंधेरा छटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।’ इस अटल भविष्यवाणी के 39 साल पूरे होते-होते कमल तो खिला किन्तु भाजपा पूरी तरह बदल गयी। अटल बिहारी वाजपेयी से जेपी नड्डा तक आते-आते इस बदलती भाजपा के सामने एक बार फिर बड़ी चुनौतियां नजर आ रही हैं। भाजपा को पार्टी की विचारधारा के साथ देश के समग्र वैचारिक अधिष्ठान की रक्षा के प्रति भी सतर्क रहना होगा।
जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक की यात्रा के बाद भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी समग्र पहचान बनाने के लिए भरपूर कोशिशें की हैं। भाजपा की स्थापना के बाद लोकसभा में महज दो सदस्यों की पार्टी से शुरुआत कर भाजपा अब लोकसभा 303 सदस्यों वाली पार्टी बनकर देश की जनता का बहुमतीय प्रतिनिधित्व कर रही है। इस विराट स्वरूप के साथ ही भाजपा के सामने भीतर व बाहर, दोनों तरह की चुनौतियां भी प्रस्तुत हो रही हैं। 1980 में भाजपा की स्थापना के समय अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी को सर्वग्राह्य बनाने के लिए गांधीवादी समाजवाद के साथ एकात्म मानववाद पर जोर दिया गया था। भाजपा के शलाका पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी का संसद में दिया वह भाषण बेहद लोकप्रिय है, जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी पर ये देश रहना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में भाजपा को जिस तरह देशव्यापी सफलता मिल रही है, उसके बाद भाजपा पर अटल बिहारी वाजपेयी की इस विचार प्रक्रिया से पीछे हटने के आरोप भी लगते रहे हैं। जिस तरह सरकारें बनाने-बिगाड़ने के खेल हुए हैं, भाजपा के भीतर भी तमाम लोगों ने इसे मूल भाजपाई विचार प्रक्रिया का हिस्सा नहीं माना है। इस समय भाजपा के सामने पार्टी को लेकर उत्पन्न इस द्वंद्व पर निर्णायक छाप छोड़ने की चुनौती भी है, जिसका सामना अध्यक्ष के रूप में जेपी नड्डा को करना है।
स्थापना के बाद से अब तक की यात्रा में भारतीय जनता पार्टी ने तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं। इस पूरी यात्रा में अटल-आडवाणी की जोड़ी चर्चित रही तो इस जोड़ी में डॉ.मुरली मनोहर जोशी के जुड़ने से बनी त्रयी ने तो भाजपा कार्यकर्ताओं को ‘भारत मां की तीन धरोहर, अटल आडवाणी मुरली मनोहर’ जैसा नारा भी दे दिया था। ये तीनों नेता भाजपा के शुरुआती अध्यक्ष भी रहे। इन तीनों के बाद भाजपा को कुशाभाऊ ठाकरे, बंगारू लक्ष्मण, जन कृष्णमूर्ति, वेंकैया नायडू, नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह जैसे अध्यक्ष भी  मिले, किन्तु अटल-आडवाणी जैसी जोड़ी या अटल-आडवाणी-मुरलीमनोहर जैसी त्रयी का निर्माण नहीं हो सका। अटल-आडवाणी के बाद भाजपा और देश ने मोदी-शाह के रूप में जरूर एक जोरदार राजनीतिक जोड़ी देखी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अब तक भाजपा के अध्यक्ष रहे अमित शाह की राजनीतिक जोड़ी ने देश ही नहीं दुनिया में भाजपा को लेकर अलग छाप छोड़ी है। नए अध्यक्ष जेपी नड्डा मोदी-शाह की इस जोड़ी की पसंद माने जाते हैं। ऐसे में नड्डा अगले कुछ वर्षों में मोदी-शाह के साथ मिलकर त्रयी का रूप ले पाते हैं या नहीं, यह भी निश्चित रूप से देखा जाएगा। दरअसल राजनाथ सिंह ने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का नाम आगे किया था। तब मोदी-राजनाथ की जोड़ी चर्चा में आई थी, किन्तु अमित शाह के अध्यक्ष बनने के बाद ये जोड़ी त्रयी में न बदल सकी।
अध्यक्ष के रूप में नड्डा के सामने भले ही दिल्ली का विघानसभा चुनाव पहली चुनौती हो किन्तु असली चुनौती देश के समग्र राजनीतिक वातावरण में आ रहे बदलाव से निपटना है। सीएए और एनआरसी को लेकर देश में जिस तरह के वातावरण निर्माण के प्रयास हो रहे हैं, उसके बाद भाजपा के सामने अधिकाधिक जनता को अपने साथ जोड़ने की चुनौती भी मुंह बाए खड़ी है। शैक्षिक संस्थानों में दक्षिणपंथ व वामपंथ के बीच वैमनस्य की जो रेखा खिंची है, उसे दूर करने की जिम्मेदारी भी सत्ताधारी दल होने के नाते भाजपा की ही होगी। नड्डा ने अपनी राजनीतिक यात्रा में विद्यार्थी परिषद से लेकर युवा मोर्चा की यात्रा भी की है। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिबद्ध स्वयंसेवक भी हैं। ऐसे में उनके सामने संघ के वैचारिक अधिष्ठान की सर्वस्वीकार्यता स्थापित करने की चुनौती भी है। वे इन चुनौतियों पर खरे उतरे तो भाजपा ही नहीं देश के नेतृत्व की ओर भी पथ प्रशस्त कर सकेंगे। वे इक्कीसवीं सदी की भाजपा का नेतृत्व कर रहे हैं, इसे उन्हें साबित भी करना होगा।

Friday 17 January 2020

देश का संक्रांति काल


डॉ. संजीव मिश्र
भारत पर्वों व त्योहारों का देश है। इस समय देश में आंदोलन पर्व मनाया जा रहा है। ऐसे में मकर संक्रांति का आना देश के लिए भी सूर्योदय की आकांक्षाओं का द्योतक है। मकर संक्रांति पर सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। यह वातावरण में बदलाव का पर्व भी है। देश भी इस समय ऐसे ही संक्रांति काल में है। बदलाव की यह प्रक्रिया सकारात्मक हो, इसके लिए संक्रांति की दिशा भी सकारात्मक होनी चाहिए। वर्ष 2020 की संक्रांति के साथ देश के सामने चुनौतियों भरी क्रांति भी है। मकर संक्रांति गंगा की यात्रा समाप्ति का पर्व भी है, ऐसे में भारत जैसे देश में सागर जैसी महत्वाकांक्षाओं पर धैर्य की जीत जैसी संक्रांति की जरूरत भी है। इस संक्रांति काल में महज खिचड़ी खाने-बांटने या पोंगल जैसे उल्लास से काम नहीं चलेगा, हमें सहज सद्भाव की संक्रांति की ओर बढ़ना होगा।
भारत में वर्ष पर्यंत चलने वाली उत्सवधर्मिता पर इस समय संकट के बादल से छाए हुए लग रहे हैं। युवा शक्ति को आधार मानने वाले भारत में युवाओं के लिए तो अवसर अपर्याप्त से नजर आते हैं किन्तु राजनीतिक स्तर पर सभी को अपने लिए अवसर ही अवसर नजर आ रहे हैं। देश को दिग्भ्रमित कर अलग-अलग एजेंडे पर काम करने की मुहिम सी चल रही है। आम नागरिक से जुड़े मुद्दों की किसी को परवाह नहीं है। लोकतंत्र में सत्तापक्ष के साथ विपक्ष की भूमिका भी धारदार होनी चाहिए। यहां सभी लोग अराजकता में अवसर तलाश रहे हैं। देश से लुप्तप्राय वामपंथ विश्वविद्यालयों के सहारे वापसी के स्वप्न संजो रहा है तो दक्षिणपंथ विश्वविद्यालयों में काबिज होने का मौका तलाशता नजर आ रहा है। इस खींचतान में युवा पीढ़ी के सपनों का भारत पिछड़ता जा रहा है।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उस देश के विकास का पैमाना होती है। भारतीय संदर्भों में देखें तो पिछले कुछ वर्षों से हम खराब अर्थव्यवस्था के दौर से ही गुजर रहे हैं। बड़े अरमानों के साथ वर्ष 2020 की शुरुआत तो हुई किन्तु अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर अच्छी खबरें सुनाई ही नहीं पड़ रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में दोबारा सत्ता संभालने के बाद पांच साल के भीतर यानी 204 तक देश को 50 खरब डालर की अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प देखते हुए उत्कृष्ट आर्थिक प्रबंधन का स्वप्न दिखाया था। मौजूदा स्थितियों में तो दिग्गज अर्थशास्त्रियों को भी ऐसा होता नहीं दिख रहा है। दरअसल अगले चार साल में 50 खरब डालर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हमें 9 प्रतिशत वार्षिक की आर्थिक विकास दर के लक्ष्य को प्राप्त करना होगा। इधर विकास दर में लगातार गिरावट से यह लक्ष्य कठिन लग रहा है। इसके अलावा महंगाई से निपटना भी चुनौती बन गया है। देश के संक्रांति काल में असली सूर्योदय तो तभी होगा, जब हम आर्थिक क्रांति के लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होंगे।
अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त सामाजिक ताने-बाने पर भी देश का समग्र विकास निर्भर है। हम जिस कट्टरवाद की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, वह देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए भी अच्छा नहीं है। हाल ही में हमने स्वामी विवेकानंद की जयंती मनाई है। स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि उन्हें उस धर्म का प्रतिनिधि होने पर गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। उन्होंने कहा था कि हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते, बल्कि सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने भारत को एक ऐसे देश के रूप में उद्धृत किया था, जिसने सभी धर्मों व सभी देशों के सताए हुए लोगों को शरण दी और इस पर गर्व भी व्यक्त किया था। आज स्वामी विवेकानंद की वही गर्वोक्ति खतरे में है। न तो हम सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ध्यान केंद्रित कर पा रहे हैं, न ही हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकारकर मिलजुलकर साथ चलने की राह दिखा पा रहे हैं। इक्कीसवीं सदी के भारत में सामाजिक समता लाना भी एक बड़ी चुनौती बन गया है। ऐसे में संक्रांति का सूर्योदय सही मायने में तभी हो सकेगा, जब देश सद्भाव के साथ विकास यात्रा पर आगे बढ़ेगा।
संक्रांति के साथ ही भारत की उत्सवधर्मिता का बोध भी दिखने लगता है। लोहड़ी का उल्लास हो या पोंगल का वैशिष्ट्य, इनके साथ बसंत पंचमी की प्रतीक्षा इस वैविध्य का संवर्धन करती है। ऐसे में संक्रांति के साथ भव्य भारत की संकल्पना का अरुणोदय आवश्यक है। इसके लिए शिक्षण संस्थानों का वातावरण सही करना होगा, बेरोजगारी के संकट से जूझना होगा, भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदार कोशिश करनी होगी, सड़क पर बेटियों को सुरक्षित महसूस कराना होगा, राजनीतिक शुचिता सुनिश्चित करनी होगी। ऐसा न हुआ तो यह संक्रांति निश्चित ही संक्रमण में बदल जाएगी, जो देश और देशवासियों के लिए बेहद चिंताजनक होगा।

Thursday 9 January 2020

...अब घर-घर घुसकर मारेंगे नकाबपोश

डॉ.संजीव मिश्र
देश-दुनिया के ख्यातिलब्ध जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में विद्यार्थियों-शिक्षकों पर हुए हमले के बाद पूरा देश स्तब्ध है। आरोप-प्रत्यारोप लग रहे हैं किन्तु गुनहगार आजाद हैं। यह समय देश के लिए चिंता ही नहीं, चुनौती भरा ही है। देश के अस्पतालों में बच्चे मर रहे हैं, बेरोजगार बढ़ रहे हैं, सड़कों पर बेटियां सुरक्षित नहीं हैं और हम हिन्दुओं-मुसलमानों की लड़ाई लड़ रहे हैं। जिस तरह देश में असुरक्षा का माहौल बना है, उससे कोई अपने आपको सुरक्षित नहीं कह सकता। विश्वविद्यालय तक नकाबपोश पहुंच चुके हैं और यदि तुरंत देश नहीं जागा, तो वह दिन दूर नहीं जब ऐसे ही नकाबपोश घर-घर घुसकर मारेंगे। हमेशा की तरह हम तब जागने का ढोंग करेंगे, किन्तु तब तक देर हो चुकी होगी।
इक्कीसवीं शताब्दी वैचारिक उन्नयन के स्थान पर सोशल मीडिया के उन्नयन की शताब्दी बन गयी है। हम जेएनयू जैसे घटनाक्रमों के बाद भी ट्विटर पर फोकस केंद्रित कर देते हैं। पिटे छात्रों के बीच उनकी विचारधारा, जाति, धर्म पर जोर देते हैं। यह स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। जेएनयू में विद्यार्थियों-शिक्षकों पर हुए नियोजित हमले के बाद इसके लिए कसूरवार ठहराने की होड़ लगी है। दरअसल यहां पूरी बदलती शैक्षिक संस्कृति व कथित वैचारिक क्रांति की चर्चा करनी होगी। कट्टरता किसी भी पक्ष की हो, वह समाज के लिए हानिकारक होती है। इस समय देश ऐसी ही कट्टरता के आगोश में डूबा है। इस कारण देश में आम आदमी के मुद्दे हवा से हो गये हैं। राजस्थान में जिस तरह जिले-जिले में बच्चों की मौत हो रही है, उस पर इलाज के पुख्ता बंदोबस्त करने के स्थान पर राजनीति की जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आजादी के 70 से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी हम बच्चों को पूरी तरह उपचार उपलब्ध कराने में विफल हैं। बिगड़ी अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी व सामाजिक सुरक्षा के संकट की चिंता के स्थान पर हम धर्म को लेकर परेशान हैं। इसके लिए अनूठे तर्क भी गढ़े जा रहे हैं। दरअसल देश भक्ति का आधार भी अब बदलने सा लगा है और उसमें भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भी पीछे छूट गए हैं।
देश के सामने चल रहे संकटपूर्ण घमासान के बीच वैचारिक विरोधाभास भी बड़ी समस्या बन गया है। दक्षिण व वाम पंथ के नाम पर जेएनयू ही नहीं, देश के तमाम शिक्षण संस्थानों को प्रयोगशाला का रूप दिया जा रहा है। जेएनयू में हुए हमले के बाद उठे चिंता के ज्वार के बीच हमें पिछले कुछ दिनों से देश में शिक्षण संस्थानों के वैचारिक दुरुपयोग की चिंता भी करनी होगी। बीएचयू से लेकर एएमयू व जामिया मिलिया से लेकर जेएनयू तक ही नहीं, अब तो आईआईटी तक इस वैचारिक संग्राम की चपेट में आ चुके हैं। पिछले दिनों जिस तरह आईआईटी कानपुर में फैज अहमद फैज की नज्म को लेकर विवाद हुआ और क्रांति की पंक्तियों को धर्म से जोड़कर हंगामा मचाया गया, वह भी शिक्षण संस्थानों की शुचिता के अनुरूप नहीं कहा जाएगा। इन संस्थानों में विद्यार्थियों के बीच धार्मिक आधार पर हो रहे इस विभाजन से देश के भविष्य को लेकर भी चिंताएं उत्पन्न हो रही हैं। यह विभाजन सर्वधर्म सद्भाव व वसुधैव कुटुंबकम् की भावना के साथ पुष्पित-पल्लवित हो रहे देश के लिए किसी भी स्तर पर उपयुक्त नहीं माना जा सकता। इससे देश के बौद्धिक विकास का पथ भी प्रशस्त नहीं होगा, यह चिंता भी सभी को करनी पड़ेगी। ऐसा न हुआ तो हम उन तमाम देशों की तरह पिछड़ते जाएंगे, जिनके लिए देश से पहले अन्य विषय होते हैं।
जेएनयू में हुए हमले के बाद देश का विभाजनकारी मौन स्तब्ध कर देने वाला है। हम इस घटना को लेकर जितना चिंतित हैं, उससे अधिक यह जानने को लेकर परेशान हैं कि हमला करने वाले किस पक्ष के हैं। ये वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, अंततः वे हमलावर ही हैं। उन्हें सिर्फ अपराधियों की तरह ही स्वीकार किया जाना चाहिए। घायल भी किस वैचारिक अधिष्ठान से आते हैं, उसके स्थान पर वे विद्यार्थी व शिक्षक हैं, यह सोचा जाना चाहिए। देश के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यही है। यदि हमने इस समय इसे पंथ के भाव से देखना नहीं बंद किया तो वह दिन दूर नहीं जब जेएनयू से निकलकर ऐसे अपराधी घर-घर तक पहुंच जाएंगे। ये नकाबपोश घरों में घुसकर हमला करेंगे और तब वे न विचारधारा देखेंगे, न धर्म व जाति की चिंता करेंगे। इस समय सबको मिलकर सामने आना होगा, एकजुट पहल करनी होगी और जाति-धर्म के साथ पंथ के विभेद भी खत्म करने होंगे। ऐसा न किया तो बहुत देर हो जाएगी, सच में बहुत देर...।

Friday 3 January 2020

कलाम के सपने संग स्वागत 2020 !!



डॉ. संजीव मिश्र
वर्ष 2020 की शुरुआत के साथ हम इक्कीसवीं शताब्दी के बीसवें वर्ष की यात्रा शुरू कर रहे हैं। भारत में बीसवीं शताब्दी की समाप्ति से पहले ही जब इक्कीसवीं शताब्दी के स्वागत की तैयारी चल रही थी, तभी वर्ष 2020 बेहद चर्चा में था। दरअसल भारत रत्न डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम ने बदलते भारत के लिए वर्ष 2020 तक व्यापक बदलाव का सपना देखा था। इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बाद भी उन सपनों को विस्तार दिया गया। ऐसे में 2020 के स्वागत के साथ हमें कलाम के सपने का स्मरण भी करना होगा। दरअसल अर्थव्यवस्था की चुनौतियों, देश के सर्वधर्म सद्भाव के बिखरते ताने-बाने की चिंताओं और देश की मूल समस्याओं से भटकती राजनीति के बीच कलाम का सपना ही हमें विकसित भारत के साथ पुनः विश्वगुरु बनने की ओर आगे बढ़ा सकता है।
बीता वर्ष 2019 देश के सामने संभावनाओं के साथ चुनौतियों की पूरी फेहरिश्त छोड़कर जा रहा है। पूरी दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बनने का स्वप्न लेकर चल रहा भारत अर्थव्यवस्था की कमजोरी से जुड़े संकटों का सामना कर रहा है। बेरोजगारी ने बीते वर्ष में कई नये पैमाने गढ़े हैं। रोजगार के अवसर कम हुए और तमाम ऐसे लोग बेरोजगार होने को विवश हुए, जो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे। इन चुनौतियों के स्थायी समाधान पर चर्चा व विमर्श तो दूर की बात है, साल जाते-जाते पूरे देश में धार्मिक सद्भाव के ताने-बाने में बिखराव के दृश्य दे गया। हमारी चर्चाएं हिन्दू-मुस्लिम केंद्रित हो गयीं। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक नेताओं को भगवा तो याद रहा, बेरोजगारी जैसी देश की मूलभूत समस्याओं व स्थापित भारतीय परंपराओं के साथ संविधान के मूल तत्व भुला दिये गए। इन स्थितियों में डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम के स्वर्णिम 2020 के स्वप्न पर विमर्श भी जरूरी हो गया है।
डॉ.कलाम ने वर्ष 2020 तक भारत की जिस यात्रा का स्वप्न देखा था, उसमें हम काफी पीछे छूट चुके हैं। कलाम ने इक्कीसवीं सदी के शुरुआती बीस वर्षों में ऐसे भारत की कल्पना की थी, जिसमें गांव व शहरों के बीच की दूरियां खत्म हो जाएं। ग्रामीण भारत व शहरी भारत की सुविधाओं में तो बराबरी के प्रयास नहीं किये, गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ाया। खेती पर फोकस न होने से कृषि क्षेत्र से पलायन बढ़ा, जिससे गांव खाली से होने लगे। कलाम ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जहां कृषि, उद्योग व सेवा क्षेत्र एक साथ मिलकर काम करें। वे चाहते थे कि भारत ऐसा राष्ट्र बने, जहां सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों के कारण किसी की पढ़ाई न रुके। 2020 के आने तक तो हम इस परिकल्पना के आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैं, ऐसे में चुनौतियां बढ़ गयी हैं। किसान से लेकर विद्यार्थी तक परेशान हैं और उनकी समस्याओं के समाधान का रोडमैप तक ठीक से सामने नहीं आ पाया है।
कलाम के सपनों का भारत 2020 तक ऐसा बन जाना था, जिसमें दुनिया का हर व्यक्ति रहना चाहता हो। उन्होंने ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी, जो विद्वानों, वैज्ञानिकों व अविष्कारकों की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ निवास स्थान बने। इसके लिए वे चाहते थे कि देश की शासन व्यवस्था जवाबदेह, पारदर्शी व भ्रष्टाचारमुक्त बने और सभी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य सुविधाएं समान रूप से उपलब्ध हों। ये सारी स्थितियां अभी तो दूरगामी ही लगती हैं। देश आपसी खींचतान से गुजर रहा है। यहां स्वास्थ्य सेवाएं आज भी अमीरों-गरीबों में बंटी हुई हैं। नेता हों या अफसर, न तो सरकारी अस्पतालों में इलाज कराना चाहते हैं, न ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई पहले अधिक चौड़ी हो गयी है। यह स्थिति तब है कि वर्ष 2020 के लिए अपने सपनों को साझा करते हुए उन्होंने देश को गरीबी से पूरी तरह मुक्त करने का विजन सामने रखा था। वे कहते थे कि देश के 26 करोड़ लोगों को गरीबी से मुक्त कराना, हर चेहरे पर मुस्कान लाना और देश को पूरी तरह विकसित राष्ट्र बनाना ही हम सबका लक्ष्य होना चाहिए। वे इसे सबसे बड़ी चुनौती भी मानते थे। उनका कहना था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें साधारण मसलों को भूलकर, एक देश के रूप में सामने आकर हाथ मिलाना होगा। कलाम ने ऐसे भारत का स्वप्न देखा था, जिसके नागरिकों पर निरक्षर होने का कलंक न लगे। वे एक ऐसा राष्ट्र चाहते थे जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से पूरी तरह मुक्त हो और समाज का कोई भी व्यक्ति खुद को अलग-थलग महसूस न करे। कलाम के विजन 2020 का यह वह हिस्सा है, जो पिछले कुछ वर्षों में सर्वाधिक आहत हुआ है। साक्षरता के नाम पर हम शिक्षा के मूल तत्व से दूर हो चुके हैं। महिलाओं व बच्चों का सड़क पर निकलना दूभर हो गया है। वे असुरक्षित हैं और यह बार-बार साबित हो रहा है। समाज में जुड़ाव के धागे कमजोर पड़ चुके हैं और न सिर्फ कुछ व्यक्ति, बल्कि पूरा समाज ही अलगाव के रास्ते पर है। ऐसे में 2020 की शुरुआत के साथ हमें विचार करना होगा कि हम कलाम के दिखाए सपने और उस लक्ष्य से कितना पीछे रह चुके हैं। हमें मिलकर उस सपने को साकार करने के लिए कदम उठाने होंगे।