डॉ.संजीव मिश्र
बात चालीस साल पहले की है। दिसंबर 1980 में भारतीय जनता पार्टी के
पहले राष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए पार्टी के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष अटल
बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘भारत के पश्चिमी घाट को मंडित करने वाले महासागर के
किनारे खड़े होकर मैं यह भविष्यवाणी करने का साहस करता हूं कि अंधेरा छटेगा, सूरज
निकलेगा, कमल खिलेगा।’ इस अटल भविष्यवाणी के 39 साल पूरे होते-होते कमल तो खिला
किन्तु भाजपा पूरी तरह बदल गयी। अटल बिहारी वाजपेयी से जेपी नड्डा तक आते-आते इस
बदलती भाजपा के सामने एक बार फिर बड़ी चुनौतियां नजर आ रही हैं। भाजपा को पार्टी
की विचारधारा के साथ देश के समग्र वैचारिक अधिष्ठान की रक्षा के प्रति भी सतर्क
रहना होगा।
जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक की यात्रा के बाद भारतीय जनता पार्टी
ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी समग्र पहचान बनाने के लिए भरपूर कोशिशें की हैं। भाजपा
की स्थापना के बाद लोकसभा में महज दो सदस्यों की पार्टी से शुरुआत कर भाजपा अब
लोकसभा 303 सदस्यों वाली पार्टी बनकर देश की जनता का बहुमतीय प्रतिनिधित्व कर रही
है। इस विराट स्वरूप के साथ ही भाजपा के सामने भीतर व बाहर, दोनों तरह की
चुनौतियां भी प्रस्तुत हो रही हैं। 1980 में भाजपा की स्थापना के समय अटल बिहारी
वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी को सर्वग्राह्य बनाने के लिए गांधीवादी समाजवाद के
साथ एकात्म मानववाद पर जोर दिया गया था। भाजपा के शलाका पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी
का संसद में दिया वह भाषण बेहद लोकप्रिय है, जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकारें
आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी पर ये देश रहना चाहिए। पिछले कुछ
वर्षों में भाजपा को जिस तरह देशव्यापी सफलता मिल रही है, उसके बाद भाजपा पर अटल
बिहारी वाजपेयी की इस विचार प्रक्रिया से पीछे हटने के आरोप भी लगते रहे हैं। जिस
तरह सरकारें बनाने-बिगाड़ने के खेल हुए हैं, भाजपा के भीतर भी तमाम लोगों ने इसे
मूल भाजपाई विचार प्रक्रिया का हिस्सा नहीं माना है। इस समय भाजपा के सामने पार्टी
को लेकर उत्पन्न इस द्वंद्व पर निर्णायक छाप छोड़ने की चुनौती भी है, जिसका सामना
अध्यक्ष के रूप में जेपी नड्डा को करना है।
स्थापना के बाद से अब तक की यात्रा में भारतीय जनता पार्टी ने तमाम
उतार-चढ़ाव देखे हैं। इस पूरी यात्रा में अटल-आडवाणी की जोड़ी चर्चित रही तो इस
जोड़ी में डॉ.मुरली मनोहर जोशी के जुड़ने से बनी त्रयी ने तो भाजपा कार्यकर्ताओं
को ‘भारत मां की तीन धरोहर, अटल आडवाणी मुरली मनोहर’ जैसा नारा भी दे दिया था। ये
तीनों नेता भाजपा के शुरुआती अध्यक्ष भी रहे। इन तीनों के बाद भाजपा को कुशाभाऊ
ठाकरे, बंगारू लक्ष्मण, जन कृष्णमूर्ति, वेंकैया नायडू, नितिन गडकरी और राजनाथ
सिंह जैसे अध्यक्ष भी मिले, किन्तु अटल-आडवाणी
जैसी जोड़ी या अटल-आडवाणी-मुरलीमनोहर जैसी त्रयी का निर्माण नहीं हो सका।
अटल-आडवाणी के बाद भाजपा और देश ने मोदी-शाह के रूप में जरूर एक जोरदार राजनीतिक
जोड़ी देखी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अब तक भाजपा के अध्यक्ष रहे अमित शाह
की राजनीतिक जोड़ी ने देश ही नहीं दुनिया में भाजपा को लेकर अलग छाप छोड़ी है। नए
अध्यक्ष जेपी नड्डा मोदी-शाह की इस जोड़ी की पसंद माने जाते हैं। ऐसे में नड्डा
अगले कुछ वर्षों में मोदी-शाह के साथ मिलकर त्रयी का रूप ले पाते हैं या नहीं, यह
भी निश्चित रूप से देखा जाएगा। दरअसल राजनाथ सिंह ने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में
प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का नाम आगे किया था। तब मोदी-राजनाथ की जोड़ी
चर्चा में आई थी, किन्तु अमित शाह के अध्यक्ष बनने के बाद ये जोड़ी त्रयी में न
बदल सकी।
अध्यक्ष के रूप में नड्डा के सामने भले ही दिल्ली का विघानसभा चुनाव
पहली चुनौती हो किन्तु असली चुनौती देश के समग्र राजनीतिक वातावरण में आ रहे बदलाव
से निपटना है। सीएए और एनआरसी को लेकर देश में जिस तरह के वातावरण निर्माण के
प्रयास हो रहे हैं, उसके बाद भाजपा के सामने अधिकाधिक जनता को अपने साथ जोड़ने की
चुनौती भी मुंह बाए खड़ी है। शैक्षिक संस्थानों में दक्षिणपंथ व वामपंथ के बीच
वैमनस्य की जो रेखा खिंची है, उसे दूर करने की जिम्मेदारी भी सत्ताधारी दल होने के
नाते भाजपा की ही होगी। नड्डा ने अपनी राजनीतिक यात्रा में विद्यार्थी परिषद से
लेकर युवा मोर्चा की यात्रा भी की है। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिबद्ध
स्वयंसेवक भी हैं। ऐसे में उनके सामने संघ के वैचारिक अधिष्ठान की सर्वस्वीकार्यता
स्थापित करने की चुनौती भी है। वे इन चुनौतियों पर खरे उतरे तो भाजपा ही नहीं देश
के नेतृत्व की ओर भी पथ प्रशस्त कर सकेंगे। वे इक्कीसवीं सदी की भाजपा का नेतृत्व
कर रहे हैं, इसे उन्हें साबित भी करना होगा।
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