Wednesday 27 November 2019

क्षमा करना गांधी-दीनदयालः अब सत्ता ही साध्य


डॉ. संजीव मिश्र
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी और पं.दीनदयाल उपाध्याय जी, हमें क्षमा करियेगा। आप कहते थे कि राजनीतिक दलों के लिए सत्ता साध्य नहीं, लक्ष्य प्राप्ति का साधन मात्र होनी चाहिए, किन्तु अब ऐसा नहीं रहे। आपके शिष्यों ने बार-बार साबित किया और एक बार फिर साबित कर रहे हैं कि सत्ता ही साध्य है। उत्तराखंड, कर्नाटक और हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक न सिर्फ सत्ता की दौड़ में आदर्श भुलाए जा रहे हैं, बल्कि सत्ता की होड़ में आदर्श झुठलाए भी जा रहे हैं।
देश-दुनिया में इस समय महाराष्ट्र के महाभारत की चर्चा हो रही है। यह महाभारत निश्चित रूप से सत्ता पाने की आतुरता का परिणाम बनकर सामने आया है। इससे सत्ता पाने की जिजीविषा में कुछ भी कर गुजरने की भारतीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी स्पष्ट रूप से बलवती होती दिखाई दे रही है। यह स्थिति तब है, जबकि भारतीय राजनीतिक परिदृष्टि सत्ता को कभी भी साध्य नहीं मानती रही है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वयं राजनीतिक सत्ता को साध्य के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। वे कहते थे, ‘मेरे लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं है, अपितु जीवन के हर क्षेत्र में जनता को अपनी स्थिति सुधारने में सहायता करने का एक साधन है’। गांधी ही नहीं, मूल भारतीय मनीषा सत्ता को साध्य के रूप में अस्वीकार करती रही है। इस समय देश का राजनीतिक नेतृत्व संभाल रही भारतीय जनता पार्टी के नेता भी अपनी पूरी राजनीति का आधार ही इसे मानते हैं। भाजपा के वैचारिक अधिष्ठान के प्रतिपादक माने जाने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 11 दिसंबर 1961 को पॉलिटिकल डायरी में लिखा था, ‘अच्छे दल के सदस्यों के लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं, साधन होनी चाहिए’। अब गांधी के अनुयायी हों या दीनदयाल के, सभी सत्ता को साध्य बनाने की साधना कर रहे हैं, यह स्पष्ट दिख रहा है।
इस समय महाराष्ट्र की राजनीति को लेकर उठ रहे सवाल भी सत्ता की साधना का परिणाम ही हैं। जिस तरह से सत्ता में आने के लिए राजनीतिक दल कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते, उससे निश्चित रूप से देश के समग्र राजनीतिक विमर्श को क्षति पहुंच रही है। महाराष्ट्र को ही लें, तो जिन अजीत पवार पर भाजपा कुछ दिनों पूर्व तक हमलावर थी, अब वहीं अजीत पवार भाजपा के हमराह हो चुके हैं। महाराष्ट्र में 70 हजार करोड़ रुपये सिंचाई घोटाले के खिलाफ आवाज उठा कर देवेंद्र फड़नवीस ने न सिर्फ अपनी ईमानदार राजनीतिक पहचान बनाई थी, बल्कि उनकी सरकार के एंटी करप्शन ब्यूरो ने हाईकोर्ट में हलफनामा दाखिलकर अजीत पवार को इस मामले में आरोपी करार दिया था। इसके बावजूद अजीत को उपमुख्यमंत्री बनाते हुए स्वयं मुख्यमंत्री की शपथ लेते समय देवेंद्र फड़नवीस कतई नहीं हिचके। ऐसा सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं हुआ है। इससे पहले हरियाणा में भाजपा ने उन दुष्यंत चौटाला को साथ में लिया, जिनके खिलाफ आरोप लगाते हुए पूरा चुनाव लड़ा गया। सत्ता की लड़ाई में आचार-व्यवहार पर परिणाम भारी पड़ने लगे हैं। भाजपा के केंद्र सहित देश के अधिकांश राज्यों में सत्ताशीन होने के कारण उस ओर अंगुलियां कुछ ज्यादा उठ रही हैं, किन्तु बाकी दल दूध के धुले हों, ऐसा नहीं है। महाराष्ट्र को ही उदाहरण मान लें, तो जिस शिवसेना को कोसते हुए कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ा, अब सत्ता के लिए सब गलबहियां करते नजर आ रहे हैं। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने जिस तरह कांग्रेस विरोध को सूत्र वाक्य बनाया था, यह सत्ता का मोह ही है कि उनकी अगली पीढ़ी उसी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने को पल-पल आतुर नजर आई। इसी तरह कांग्रेस के नेता शिवसेना की विचारधारा को हमेशा खारिज करते रहे हैं। जिस तरह शिवसेना ने हिन्दुत्व व मराठा कार्ड के साथ राजनीति की है, वह कांग्रेस के लिए समन्वय वाली भी नहीं लगती, इसके बावजूद भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस ने शिवसेना के साथ सरकार बनाने को हामी भर दी। धर्म व जाति की राजनीति से दूर रहने के दावे के बावजूद मुस्लिम लीग के साथ कांग्रेस ने केरल में सत्ता का हिस्सा बनने में भी संकोच नहीं किया।
सत्ता की साझेदारी में मूल्यों के साथ सतत समझौते भारतीय राजनीतिक विरासत में मिले हुए तो नहीं माने जा सकते, किन्तु भविष्य के लिए विरासत बनते जरूर जा रहे हैं। राजनीतिक खींचतान और सत्ता पाने की लालसा में हम कैसा इतिहास लिख रहे हैं, यह भी बेहद चिंताजनक पहलू है। इतिहास को स्वर्णिम बनाना वर्तमान का दायित्व होता है, किन्तु इस समय राजनीति का जो वर्तमान लिखा जा रहा है, उसे भविष्य में स्वर्णिम इतिहास के रूप में तो नहीं दर्ज कराया जा सकता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गांधी व दीनदयाल के अनुयायी उनके आदर्शों की धज्जियां उड़ाकर सत्ता साधने की कोशिश कर रहे हैं। यह स्थिति निश्चित रूप से समाप्त होनी चाहिए।

Wednesday 20 November 2019

अपने तो अपने होते हैं...


डॉ.संजीव मिश्र
राजनीति के रंग निराले हैं। अपनेपन में ये रंग और निराले व अनूठे हो जाते हैं। राजनीतिक अपनापन भी राजनीति के मूल स्वरूप की तरह निराला और अनूठा है। ऐसे में यह कहना कठिन हो जाता है कि राजनीति में कब कौन अपना होगा और कब वही पराया हो जाएगा। हाल ही में पहले महाराष्ट्र, फिर झारखंड में जिस तरह केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को वर्षों से उसके साथ रहे अपनों ने चुनौती दी है, दूसरे साथी भी याद दिलाने लगे हैं कि अपने तो अपने होते हैं, बाकी सब सपने होते हैं...।
राजनीति में अपनों के पराया होने में देर नहीं लगती। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के साथ पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह वे पराये जुड़े हैं, जो कभी भाजपा को गाली देते नहीं थकते थे, उससे अपने-पराए का राजनीतिक भेद तेजी से घटा है। हाल ही में महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव साथ-साथ लड़ने के बावजूद मुख्यमंत्री पद की लालसा में भाजपा व शिवसेना की राहें अलग-अलग साफ नजर आ रही हैं। शिवसेना ने पूरा चुनाव जिस कांग्रेस व एनसीपी के खिलाफ लड़ा, आज वही कांग्रेस व एनसीपी महाराष्ट्र में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनवाने के लिए शिवसेना के साथ नजर आ रही है। अब सभी मिलकर भाजपा को कोस रहे हैं। अपने-पराए का यह खेल शिवसेना के लिए अंदरूनी तौर पर भी नया नहीं है। एक जमाना था, जब शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के सबसे नजदीकी उनके भतीजे राज ठाकरे हुआ करते थे। समय के साथ शिवसेना की कमाम बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे के हाथ में आई और राज इस कदर पराए हुए कि उन्हें अलग पार्टी बनानी पड़ी। अब राज की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना महाराष्ट्र में अपने वजूद के नवनिर्माण की लड़ाई लड़ रही है। वैसे शिवसेना का पूरा अस्तित्व ही मराठी मानुष की अवधारणा के साथ भाषा व महाराष्ट्र तक के अपनेपन में सीमित रहा है। एक समय था, जब शिवसेना को महाराष्ट्र से बाहर वाले सभी लोग पराए लगते थे और तब एक राष्ट्र और विविधता में एकता के सूत्र वाक्य की बात करने वाली भाजपा ने भी शिवसेना के इस शेष भारतवासियों के विरोध को भूलकर उसे अपना बनाया। अब जब शिवसेना ने भाजपा को पराया कर दिया है, भाजपा के नेता पूरे राजनीतिक विमर्श को ही बदल देना चाहते हैं।
महाराष्ट्र ही नहीं भाजपा को इस समय कई अन्य मोर्चों पर भी अपनों से जूझना पड़ रहा है। झारखंड में डेढ़ दशक से भाजपा की सहयोगी पार्टी रही आजसू ने भाजपा को पराया कर दिया है। इसी तरह लोक जनशक्ति पार्टी भले ही भाजपानीत गठबंधन से राष्ट्रीय स्तर पर अलग न हुई हो, झारखंड में पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतारकर भाजपा को चुनौती दी है। लोकसभा चुनाव के बाद गोवा की गोवा फारवर्ड पार्टी भी भाजपा का साथ छोड़ चुकी है। हरियाणा विधानसभा चुनावों में शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा था, जबकि शिवसेना की तरह अकाली दल भी भाजपा के पुराने अपनों में शामिल था और लोकसभा चुनाव दोनों ने मिलकर ही लड़ा था। भाजपा के अपनों का यह गुस्सा उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भी बीच-बीच में खुलकर सामने आ जाता है। ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी पहले ही भाजपा का साथ छोड़ चुकी है, अपना दल की नाराजगी की खबरें भी बीच-बीच में आती रहती हैं। ऐसे में भाजपा के सामने अपने अपनों को साथ रखने व उन्हें बचाए रहने की चुनौती भी बड़ी है। महाराष्ट्र में जिस तरह सरकार न बनने की स्थिति में बार-बार बीच का रास्ता निकालने की बातें भी सामने आती हैं, उससे स्पष्ट है कि भाजपा व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के भीतर भी अपनों को सहेज कर रखने की जरूरत तेजी से महसूस की जा रही है।
गठबंधन की राजनीति में अपने-पराए जैसी चर्चाएं तो होती ही हैं, भाजपा के भीतर अब अपने कैडर वाले अपनों को संभालने की मांग भी जोर से उठने लगी है। पिछले कुछ चुनावों में भाजपा ने जिस तरह दूसरे दलों से आए नेताओं को टिकट दिये और उनमें से बहुतेरे लोगों को चुनाव जीतने में सफलता भी मिली, उससे पार्टी का मूल कैडर खासा परेशान है। बीच-बीच में इस पर खुलकर कहा जाने लगा है कि दूसरे दलों से लाकर जीत का फार्मूला तलाशने के स्थान पर अपनों पर भरोसा किया जाना चाहिए। जिस रफ्तार से देश में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी है, दूसरे दलों से भाजपा में आने वालों की संख्या भी बढ़ी है। इन स्थितियों में भाजपा का अपना कैडर पराया सा महसूस कर रहा है। वह कैडर भी बार-बार यही याद दिला रहा है कि अपने तो अपने होते हैं, बाकी सब सपने होते हैं...।

Thursday 14 November 2019

संघ के वैचारिक अधिष्ठान की स्वीकार्य परिणति


डॉ.संजीव मिश्र
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर निर्माण का पथ प्रशस्त होने के साथ देश में परिपक्व लोकतंत्र का संदेश तो गया ही है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व समग्र संघ परिवार के लिए यह निर्णय वैशिष्ट्य लिए हुए है। दरअसल जिस विवाद के कारण संघ को तीसरी बार प्रतिबंध तक का सामना करना पड़ा, उसी विवाद में संघ की मंशा के अनुरूप सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आना एक तरह से संघ के वैचारिक अधिष्ठान की स्वीकार्यता जैसी परिणति है।
अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए हिन्दुओं का आंदोलन भले ही सैकड़ों वर्ष पुराना हो किन्तु इस आंदोलन ने देशव्यापी रूप तब ही लिया, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व संघ परिवार से जुड़े सदस्यों ने इस आंदोलन की कमान हाथ में ली। संघ परिवार के महत्वपूर्ण संगठन विश्व हिन्दू परिषद ने खुलकर राम मंदिर आंदोलन की कमान संभाली और इस पूरे अभियान का नेतृत्व के संघ के प्रचारकों के हाथ में ही रहा। संघ के प्रचारक रहे अशोक सिंहल, आचार्य गिरिराज किशोर, ओंकार भावे व मोरोपंत पिंगले जैसे स्वयंसेवकों ने राम मंदिर आंदोलन को मजबूती प्रदान करने का काम किया। इन लोगों ने संत समाज को भी अपने साथ जोड़ा। यही कारण था कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वंस के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश सहित भाजपा नीत सरकारों को बर्खास्त करने के साथ सबसे कड़ी कार्रवाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर ही की थी। ढांचा ध्वंस के बाद संघ को तीसरी बार प्रतिबंध का सामना करना पड़ा था। इससे पहले संघ 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद 18 महीने के लिए और 1975 में आपातकाल के समय दो वर्ष के लिए प्रतिबंध का सामना कर चुका था। संघ ने तीनों बार प्रतिबंध को गलत साबित किया और इससे मुक्ति पाने में सफलता पाई। हर प्रतिबंध के बाद संघ और मजबूत होकर उभरा। 1992 में लगा प्रतिबंध महज छह माह चल सका और प्रतिबंध हटने के बाद भी संघ के स्वयंसेवकों ने भव्य राम मंदिर निर्माण का स्वप्न नहीं टूटने दिया।
वर्ष 1925 में राष्ट्रीय स्वंयंसेवक संघ की स्थापना के बाद से आज तक देश का एक हिस्सा संघ के वैचारिक अधिष्ठान का विरोधी रहा है। संघ के राष्ट्रवाद की आलोचना के साथ अल्पसंख्यकों के एक बड़े वर्ग को संघ से डराने की कोशिश भी होती रही है। संघ की विचार प्रक्रिया में जब राष्ट्र की बात होती है, तो देश का एक वर्ग उस राष्ट्रवाद से ही कन्नी काटने लगता है। ऐसे में संघ के सामने हमेशा से ही देश में सर्वस्वीकार्यता की चुनौती रही है। संघ ने इसे हर स्तर पर स्वीकार किया। जनांदोलन के साथ राजनीतिक चेतना को भी इसके लिए माध्यम बनाया गया। यही कारण है कि आज देश के प्रथम नागरिक से लेकर प्रधानमंत्री, मंत्रियों सहित कई राज्यों के मुख्यमंत्री संघ के स्वयंसेवक ही नहीं, प्रचारक भी रह चुके हैं। मंदिर आंदोलन के समय संतों के साथ वैचारिक चेतना को संयोजन करना संघ के लिए चुनौती हो सकता था, किन्तु इसे सकारात्मक सफलता दिलाने के काम अशोक संहल व आचार्य गिरिराज किशोर जैसे प्रचारकों ने किया। संत राम चंद्र परमहंस व महंत अवैद्यनाथ जैसे संतों ने तो संघ के प्रचारकों के साथ मंच साझा किया ही, कई शंकराचार्य व विविध मतावलंबी संत-महात्मा एक मंच पर जुट गए। यह संघ के वैचारिक अधिष्ठान का विस्तार ही था, कि पिछले कुछ वर्षों में सिर्फ तुष्टीकरण भारतीय राजनीति का चेहरा नहीं रहा है।
इस बार सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के साथ ही देश ने परिपक्व लोकतंत्र का एक चेहरा देखा है। यह संयोग ही है कि इस परिपक्वता में 94 वर्ष का संघ भी अग्रणी भूमिका में दिखा है। संघ परिवार के प्रमुख नेताओं ने इस बार फैसले से पहले न सिर्फ मुस्लिम पक्ष व नेताओं के साथ विमर्श की शुरुआत की, बल्कि एक सकारात्मक वातावरण निर्माण की पहल भी की। संघ के स्वयंसेवकों को शाखाओं से लेकर विभिन्न आयोजनों तक सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को हार या जीत के स्थान शांति से स्वीकार कर लेने के संदेश दिये गए। संयम बरतने के संदेशों के साथ किसी भी तरह की प्रतिक्रिया से बचने का जो वातावरण बनाया गया, उसका प्रभाव पूरे देश में देखने को भी मिला है। सर्वोच्च न्यायालय से संघ की मंशा के अनुरूप फैसला आने के बाद संघ के स्वयंसेवकों की जिम्मेदारी वैसे भी बढ़ गयी है। उन्हें देश व समाज के हर वर्ग का भरोसा और मजबूती से जीतना होगा। इसके पश्चात ही वे परम् वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्अर्थात राष्ट्र को वैभव के शिखर तक पहुंचाने में सफल हो सकेंगे।

Wednesday 6 November 2019

खतरे की घंटी है घटता औद्योगिक उत्पादन

डॉ.संजीव मिश्र
पिछले कुछ महीने देश में मंदी की चर्चा को लेकर रहे हैं। घटती नौकरियां हों या अंतर्राष्ट्रीय चर्चाएं, भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी सबकी चिंता का विषय रही है। भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने जब अर्थशास्त्र का नोबेल जीता, तो उनसे हुए सवालों में भारतीय अर्थव्यवस्था की मंदी सबसे ऊपर ही रही। इन सभी चर्चाओं, चिंताओं के बीच हाल ही में एक और खतरे की घंटी बजी है। दरअसल देश का औद्योगिक उत्पादन पिछले डेढ़ दशक के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। इससे न सिर्फ चिंताएं बढ़ी हैं, बल्कि भविष्य में भी अर्थव्यवस्था के सुधार व औद्योगिक उन्नयन पर सवाल खड़े होने लगे हैं।
हाल ही में देश के उद्योग मंत्रालय ने देश के आठ प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादन की स्थितियों का ब्यौरा जारी किया है। इसमें फर्टिलाइजर को छोड़कर शेष सात क्षेत्रों, कोयला, क्रूड आयल, रिफाइनरी, स्टील, सीमेंट, बिजली और प्राकृतिक ऊर्जा क्षेत्रों में उत्पादन घटा है। उद्योग मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ सितंबर माह में देश के औद्योगिक उत्पादन में 5.2 प्रतिशत गिरावट रेकार्ड की गयी है, जो पिछले चौदह वर्षों में सर्वाधिक है। इस पूरी गिरावट को अलग-अलग समझें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। कोयला उत्पाद देश के विकास की दिशा तय करता है और इस दौरान कोयले का उत्पादन 20.5 प्रतिशत गिरा है। क्रूड आयल के उत्पादन में 5.4 प्रतिशत और प्राकृतिक गैस के उत्पादन में 4.9 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गयी है। देखा जाए तो समग्र ऊर्जा क्षेत्र गिरावट की चपेट में है। रिफाइनरी उत्पादों में 6.7 प्रतिशत व बिजली उत्पादन में 3.7 प्रतिशत कमी हुई है। यही नहीं, निर्माण क्षेत्र भी औद्योगिक गिरावट का शिकार हुआ है। इसी का परिणाम है कि सीमेंट के उत्पादन में 2.1 प्रतिशत की कमी आई, वहीं स्टील का उत्पादन भी 0.3 प्रतिशत कम हुआ है। इस दौरान केवल फर्टिलाइजर का उत्पादन ही 5.4 प्रतिशत बढ़ा है। जिन आठ क्षेत्रों का विश्लेषण किया गया है, वे देश के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के औसतन 40 प्रतिशत का आधार बनते हैं। ऐसे में औद्योगिक उत्पादन में यह कमी देश की समग्र अर्थव्यवस्था के सामने छाए संकट को भी चरितार्थ करती है। हालत ये हो गए हैं कि वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में सरकारी क्षेत्र की तेल कंपनी इंडियन आयल कॉरपोरेशन के लाभ में 83 प्रतिशत की कमी सामने आई है। इसी तरह उत्पादन घटने से बिजली की मांग कम हुई और इसका असर सकल विद्युत उत्पादन पर भी पड़ा है।
औद्योगिक उत्पादन में गिरावट सरकार के लिए भी चुनौती देने वाली है। यह वह समय है, जब हमें नीतिगत रूप से पूरे तंत्र का आंकलन करना होगा। भारतीय अर्थशास्त्री पूरी दुनिया को दिशा देते रहे हैं। कौटिल्य से लेकर हाल ही में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार पाए अभिजीत बनर्जी तक की अर्थशास्त्रिक यात्रा हमारे लिए प्रेरणास्रोत है। इन सबसे सकारात्मक सूत्र वाक्य लेकर हमें आर्थिक नीतियों का नियोजन कुछ इस तरह करना होगा, जिससे देश की आर्थिक स्थिति मजबूत हो सके। रोजगार के अवसर सृजित हो सकें और अमीरी-गरीबी के बीच गहराती खाई पाटी जा सके। नोबेल पुरस्कार का एलान होने के बाद जिस तरह अभिजीत बनर्जी को लेकर देश के भीतर बयानबाजी हुई, वह भी दुर्भाग्यपूर्ण है। वह बयानबाजी कई दफा हमारे नेतृत्व के एक हिस्से की अपरिपक्वता भी दिखाती है। अभिजीत बनर्जी को उनकी जिन उपलब्धियों के लिए नोबेल मिला है, देश के आम आदमी, किसान व गरीब के भले के लिए उनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। नोबेल जीतने के बाद अभिजीत ने स्वयं भी भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर न सिर्फ चिंता जताई है, बल्कि समाधान के रास्ते भी सुझाए हैं। उन्होंने साफ कहा है कि इस समय ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधारने पर भी फोकस होना चाहिए। शहरी अर्थव्यवस्था में सुधार के नाम पर किसानों व ग्रामीणों के साथ आर्थिक खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए। फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य कम होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक संकट बढ़ा, जिससे मांग घटी और उसका असर समग्र अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। हमें इसे सुधारना होगा। जिस तरह सकल घरेलू उत्पाद के मामले में दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में भारत पांचवें से सातवें स्थान पर आ ही चुका था, हाल ही में विश्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष के लिए भारत की विकास दर का अनुमान घटा दिया है। पहले इस वित्तीय वर्ष में 7.5 प्रतिशत विकास दर का अनुमान विश्वबैंक द्वारा घोषित किया गया था, अब इसे घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया गया है। ऐसे में घरेलू अर्थव्यवस्था में सुधार के माध्यम से ही इन चुनौतियों का सामना किया जा सकता है। इसके लिए समग्र पहल करनी होगी और सरकारों को कई मोर्चों पर जिद छोड़नी होगी।ऐसा हुआ तो अर्थव्यवस्था सुधरेगी और देश भी समृद्धि के नए शिखर छूने के लिए आगे बढ़ेगा।