Wednesday 27 November 2019

क्षमा करना गांधी-दीनदयालः अब सत्ता ही साध्य


डॉ. संजीव मिश्र
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी और पं.दीनदयाल उपाध्याय जी, हमें क्षमा करियेगा। आप कहते थे कि राजनीतिक दलों के लिए सत्ता साध्य नहीं, लक्ष्य प्राप्ति का साधन मात्र होनी चाहिए, किन्तु अब ऐसा नहीं रहे। आपके शिष्यों ने बार-बार साबित किया और एक बार फिर साबित कर रहे हैं कि सत्ता ही साध्य है। उत्तराखंड, कर्नाटक और हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक न सिर्फ सत्ता की दौड़ में आदर्श भुलाए जा रहे हैं, बल्कि सत्ता की होड़ में आदर्श झुठलाए भी जा रहे हैं।
देश-दुनिया में इस समय महाराष्ट्र के महाभारत की चर्चा हो रही है। यह महाभारत निश्चित रूप से सत्ता पाने की आतुरता का परिणाम बनकर सामने आया है। इससे सत्ता पाने की जिजीविषा में कुछ भी कर गुजरने की भारतीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी स्पष्ट रूप से बलवती होती दिखाई दे रही है। यह स्थिति तब है, जबकि भारतीय राजनीतिक परिदृष्टि सत्ता को कभी भी साध्य नहीं मानती रही है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वयं राजनीतिक सत्ता को साध्य के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। वे कहते थे, ‘मेरे लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं है, अपितु जीवन के हर क्षेत्र में जनता को अपनी स्थिति सुधारने में सहायता करने का एक साधन है’। गांधी ही नहीं, मूल भारतीय मनीषा सत्ता को साध्य के रूप में अस्वीकार करती रही है। इस समय देश का राजनीतिक नेतृत्व संभाल रही भारतीय जनता पार्टी के नेता भी अपनी पूरी राजनीति का आधार ही इसे मानते हैं। भाजपा के वैचारिक अधिष्ठान के प्रतिपादक माने जाने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 11 दिसंबर 1961 को पॉलिटिकल डायरी में लिखा था, ‘अच्छे दल के सदस्यों के लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं, साधन होनी चाहिए’। अब गांधी के अनुयायी हों या दीनदयाल के, सभी सत्ता को साध्य बनाने की साधना कर रहे हैं, यह स्पष्ट दिख रहा है।
इस समय महाराष्ट्र की राजनीति को लेकर उठ रहे सवाल भी सत्ता की साधना का परिणाम ही हैं। जिस तरह से सत्ता में आने के लिए राजनीतिक दल कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते, उससे निश्चित रूप से देश के समग्र राजनीतिक विमर्श को क्षति पहुंच रही है। महाराष्ट्र को ही लें, तो जिन अजीत पवार पर भाजपा कुछ दिनों पूर्व तक हमलावर थी, अब वहीं अजीत पवार भाजपा के हमराह हो चुके हैं। महाराष्ट्र में 70 हजार करोड़ रुपये सिंचाई घोटाले के खिलाफ आवाज उठा कर देवेंद्र फड़नवीस ने न सिर्फ अपनी ईमानदार राजनीतिक पहचान बनाई थी, बल्कि उनकी सरकार के एंटी करप्शन ब्यूरो ने हाईकोर्ट में हलफनामा दाखिलकर अजीत पवार को इस मामले में आरोपी करार दिया था। इसके बावजूद अजीत को उपमुख्यमंत्री बनाते हुए स्वयं मुख्यमंत्री की शपथ लेते समय देवेंद्र फड़नवीस कतई नहीं हिचके। ऐसा सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं हुआ है। इससे पहले हरियाणा में भाजपा ने उन दुष्यंत चौटाला को साथ में लिया, जिनके खिलाफ आरोप लगाते हुए पूरा चुनाव लड़ा गया। सत्ता की लड़ाई में आचार-व्यवहार पर परिणाम भारी पड़ने लगे हैं। भाजपा के केंद्र सहित देश के अधिकांश राज्यों में सत्ताशीन होने के कारण उस ओर अंगुलियां कुछ ज्यादा उठ रही हैं, किन्तु बाकी दल दूध के धुले हों, ऐसा नहीं है। महाराष्ट्र को ही उदाहरण मान लें, तो जिस शिवसेना को कोसते हुए कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ा, अब सत्ता के लिए सब गलबहियां करते नजर आ रहे हैं। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने जिस तरह कांग्रेस विरोध को सूत्र वाक्य बनाया था, यह सत्ता का मोह ही है कि उनकी अगली पीढ़ी उसी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने को पल-पल आतुर नजर आई। इसी तरह कांग्रेस के नेता शिवसेना की विचारधारा को हमेशा खारिज करते रहे हैं। जिस तरह शिवसेना ने हिन्दुत्व व मराठा कार्ड के साथ राजनीति की है, वह कांग्रेस के लिए समन्वय वाली भी नहीं लगती, इसके बावजूद भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस ने शिवसेना के साथ सरकार बनाने को हामी भर दी। धर्म व जाति की राजनीति से दूर रहने के दावे के बावजूद मुस्लिम लीग के साथ कांग्रेस ने केरल में सत्ता का हिस्सा बनने में भी संकोच नहीं किया।
सत्ता की साझेदारी में मूल्यों के साथ सतत समझौते भारतीय राजनीतिक विरासत में मिले हुए तो नहीं माने जा सकते, किन्तु भविष्य के लिए विरासत बनते जरूर जा रहे हैं। राजनीतिक खींचतान और सत्ता पाने की लालसा में हम कैसा इतिहास लिख रहे हैं, यह भी बेहद चिंताजनक पहलू है। इतिहास को स्वर्णिम बनाना वर्तमान का दायित्व होता है, किन्तु इस समय राजनीति का जो वर्तमान लिखा जा रहा है, उसे भविष्य में स्वर्णिम इतिहास के रूप में तो नहीं दर्ज कराया जा सकता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गांधी व दीनदयाल के अनुयायी उनके आदर्शों की धज्जियां उड़ाकर सत्ता साधने की कोशिश कर रहे हैं। यह स्थिति निश्चित रूप से समाप्त होनी चाहिए।

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