Saturday 4 July 2020

पुलिस के इकबाल पर सवाल

डॉ. संजीव मिश्र
देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की पुलिस एक बार फिर शहादत की शिकार है। कानपुर देहात में पुलिस एक ऐसे कुख्यात अपराधी को पकड़ने गयी थी, जो पहले पुलिसिया लापरवाही की बदौलत बरी हो चुका था। उसका हौसला इतना बुलंद था कि पुलिस का इकबाल ढह गया। उक्त अपराधी ने आठ पुलिस वालों को मौत के घाट उतारा और फरार हो गया। दरअसल यह पहली बार नहीं हुआ है। देश भर में नेताओं व अपराधियों के साथ गठजोड़ कर पुलिस ने अपना इकबाल गंवाया है। अपराधी पहले अपराध करते हैं, फिर नेता बन जाते हैं और फिर बार-बार पुलिस को ‘औकात’ बताने जैसे दावे करते हैं। कानपुर में भी यही हुआ है और अगर अभी नहीं चेते तो आगे भी यही होता रहेगा।
कानपुर देहात में जिस विकास दुबे ने एक पीपीएस अफसर सहित आठ पुलिसकर्मियों की हत्या की है, उसने 19 साल पहले भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता कहे जाने वाले राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त संतोष शुक्ला की थाने में घुसकर हत्या कर दी थी। खास बात यह है कि इस मामले में पुलिस उसे सजा नहीं दिला पायी और वह बाइज्जत बरी हो गया। उसने एक इंटर कालेज के प्राचार्य की दिनदहाड़े हत्या की किन्तु पुलिस अंकुश नहीं लगा पायी। इस दौरान विकास ने अपने राजनीतिक इकबाल को बुलंद किया। जैसे जैसे विकास का राजनीतिक इकबाल बुलंद हुआ, पुलिस का इकबाल कुंद हो होता गया। यहां मसला सिर्फ विकास का नहीं है। आज आठ पुलिसकर्मी शहीद हुए हैं तो पुलिस सक्रिय होगी, बड़ी-बड़ी बातें होंगी, किन्तु अंततः कुछ दिनों बाद फिर अपराधी-नेता-पुलिस का त्रिकोण सामाजिक दशा-दिशा तय करने लगेगा। आम आदमी पीड़ित होगा और वह फिर किसी अपराधी में अपना नेतृत्व तलाशने लगेगा। थाने में संतोष शुक्ला की हत्या के बाद लगा था कि पुलिस सक्रिय होगी और गंभीरता से गवाहों को सहेजकर सजा दिलाई जाएगी किन्तु ऐसा न हो सका। इस बीच विकास ने अपना राजनीतिक रसूख बढ़ा लिया और उसी का दुष्परिणाम आज दुस्साहस के रूप में सामने आया है।
 पुलिस सिर्फ विकास दुबे के हाथों पिटी हो, ऐसा नहीं है। लगातार देश भर से पुलिस पर हमले की खबरें आती रहती हैं। दरअसल पुलिस में भर्ती होते ही भौकाल कायम करने की जो जिजीविषा बलवती होती है, उससे पुलिसकर्मी नेताओं की शरण में जाते हैं। पुलिस में सिपाही से लेकर अधिकारी तक अच्छी पोस्टिंग के लिए नेताओं की शरण में देखे जा सकते हैं। वहीं तमाम अपराधी भी शुरुआती दौर में नेताओं की शरण में होते हैं, फिर स्वयं को मजबूत पाकर खुद नेता बन जाते हैं। यहीं से बनता है अपराधी, नेता और पुलिस का गठजोड़ जो नेताओं के स्वार्थ सिद्धि का माध्यम बनता है, अपराधियों को हौसले बुलंद करता है और पुलिस का इकबाल कुंद करता है। दरअसल पुलिस का ज्यादातर काम इकबाल से ही चलता है। जब लोग पुलिस से डरना बंद कर देते हैं तो पुलिस पिटती है। यही कारण है कि लगातार हमने पूरे देश से पुलिस के पिटने की खबरें सुनी हैं। लॉकडाउन के समय जगह-जगह पुलिस पर हमले हो रहे थे और प्रशासनिक अमला इसे बर्दाश्त करने पर विवश था। जब-जब पुलिस पर हमला होता है, कुछ दिन तक बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, पुलिस अधिकारी बर्दाश्त न करने के दावे करते हैं। कुछ दिन बाद फिर थानों में ही अपराधियों व नेताओं के साथ षडयंत्रों की पाठशाला लगनी शुरू हो जाती है और इसका अंजाम एक बार फिर ऐसी ही घटनाओं के रूप में सामने आता है।
पुलिस पर हमले के बाद सबसे निराशाजनक बात यह होती है कि पुलिस के साथ जनता खड़ी नहीं दिखती। विकास दुबे के मामले में ही उसके गांव व आसपास के इलाकों में लोग पुलिस से ज्यादा उसके समर्थन में दिखाई देते हैं। दरअसल आम आदमी जब पुलिस के पास जाता है तो उसे इस कदर परेशान किया जाता है कि वह पुलिस की जगह अपराधी से नेता बने दबंग की शहर में जाकर अपने मामले सुलटा लेता है। हाल ही में देवरिया में जिस तरह दो महिलाओं के साथ एक थाना प्रभारी ने अभद्रता की है, वैसी घटनाएं भी पुलिस से जनता के संवाद को कमजोर करती हैं। पुलिस की छवि सिर्फ जनता का शोषण करने वाली, बिना पैसे दिये कोई काम न करने वाली ही है। यह सिर्फ छवि ही नहीं है, आम आदमी से बात करें तो लोग बार-बार इसकी पुष्टि भी करते हैं। यही कारण है कि पुलिस से लोग अपराधियों से अधिक डरते हैं, भरोसा नहीं करते। पुलिस के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती इस भरोसे को कायम कराना ही है। इसके लिए तैनाती से लेकर पूरी नौकरी में ईमानदारी को ईनाम दिलाने जैसी पहल करनी होगी। पुलिस सुधार की धूल खा रही फाइलों को दोबारा खंगालना होगा। पुलिस का इकबाल कायम  न हुआ तो समाज असुरक्षित रहेगा और यह स्थिति देश व समाज के लिए बेहद चिंताजनक होगी। अपराधियों के साथ कठोर व्यवहार करते समय जाति-धर्म से ऊपर उठकर राजनीतिक समीकरणों को भी पीछे छोड़ना होगा। ऐसा न हुआ तो स्थिति और खराब होगी।