Thursday 26 December 2019

हरियाणा-महाराष्ट्र से जुड़ी है झारखंड की हार


डॉ.संजीव मिश्र
देश भर में असुरक्षित नारी शक्ति व नागरिकता संशोधन कानून को लेकर मचे हंगामे के बीच झारखंड चुनाव के नतीजे आए हैं। यहां भारतीय जनता पार्टी की हार सिर्फ रघुबर दास की हार नहीं है, बल्कि यह हार हरियाणा व महाराष्ट्र में भाजपा के चुनावी प्रदर्शन से जुड़ी हुई है। जिस तरह हरियाणा में भाजपा हारते-हारते बची, महाराष्ट्र में जीत कर भी हार गयी उससे सबक नहीं सीखा गया, जिसके परिणामस्वरूप झारखंड में स्पष्ट पराजय सामने आयी है। दरअसल राष्ट्रीय मुद्दों के साथ क्षेत्रीय क्षत्रपों पर अतिविश्वास इन तीनों राज्यों में भाजपा को महंगा पड़ा है। इन राज्यों में भाजपा ने अपनों को दूर किया और परिणाम नकारात्मक रहे।
झारखंड व छत्तीसगढ़ राज्यों का सृजन बिहार व मध्यप्रदेश से अलग कर भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने किया था। इन राज्यों के गठन के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के लिए यह अवसर भी था। इस बार के विधानसभा चुनावों में झारखंड में हेमंत सोरेन के हाथ यह अवसर बहुमत के साथ लगा है। झारखंड विधानसभा चुनावों में हेमंत सोरेन की जीत से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी की हार की चर्चा हो रही है। दरअसल भाजपा की यह हार हर स्तर पर समीक्षा का कारक बन रही है। जिस तरह पिछले दो वर्षों में देश में भाजपानीत राज्यों की संख्या घट रही है, उससे स्पष्ट है कि भाजपा के राज्य स्तरीय क्षत्रपों पर जनता भरोसा नहीं कर पा रही है। साथ ही उनके क्रियाकलाप भी भाजपा की सत्ता के कारकों व उनके मूल तौर-तरीकों से मेल नहीं खाते हैं।
वर्ष 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद जिस तरह तेजी से पूरे देश में भाजपा का विस्तार हुआ था, उससे लगने लगा था कि देश महज भगवा बयार के साथ बह रहा है। 2017 में उत्तर प्रदेश जीतने के साथ भाजपा के पक्ष में बना माहौल उस समय और मजबूत हुआ, जब 2019 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने मजबूती के साथ देश की सत्ता संभाली। इसके बाद की स्थितियां भाजपा के लिए चिंताजनक बनी हुई है। झारखंड विभानसभा चुनाव के नतीजे तो भाजपा के खिलाफ गए ही हैं, उससे पहले मध्य प्रदेश, झत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा व महाराष्ट्र में भी भाजपा को झटका लग चुका है। हरियाणा व महाराष्ट्र के चुनाव अभियान ही नहीं, परिणाम आने तक भाजपा नेतृत्व सब कुछ अपने पक्ष में मान रहा था, किन्तु वास्तविक धरातल में ऐसा संभव नहीं दिखा। हरियाणा में जनता ने भाजपा को सबक सिखाते हुए बहुमत से दूर रखा, किन्तु भाजपा ने भी सत्ता में आने के लिए भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद चौटाला के परिवार से हाथ मिलाने में देरी नहीं की। यह गठजोड़ भले ही देश के नक्शे में भाजपा का एक राज्य बढ़ा रहा हो, किन्तु शुचितापूर्ण राजनीति की छवि सहेजे भाजपा की साख पर बट्टा तो लगा ही रहा है। महाराष्ट्र में तो भाजपा सत्ता में आकर भी बाहर हो गयी। चुनाव पूर्व गठबंधन में साथ-साथ रहे भाजपा व शिवसेना चुनाव बाद मुख्यमंत्री बनने की होड़ में अलग-अलग हो गए। यहां भी भाजपा की जिद उस पर भारी पड़ी। अब झारखंड में तो भाजपा सीधे तौर पर सत्ता की लड़ाई से बाहर हो गयी है। हालात ये हैं कि मौजूदा मुख्यमंत्री चुनाव हार गए और पार्टी करो विपक्ष का नेता भी नया चुनना होगा।
इन तीनों राज्यों के राजनीतिक हालात और भाजपा के पिछड़ने के कारणों के पीछे राज्य स्तरीय क्षत्रपों के साथ जनता का अविश्वास बड़ा कारण है। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर को पूरी आजादी देने के बावजूद भाजपा वहां सरकार नहीं बचा सकी। एक बार फिर वहां खट्टर की सरकार है किन्तु दुष्यंत का साथ लेकर बनी सरकार वहां विपक्ष को ताने मारने का खूब मौका दे रही है। महाराष्ट्र में तो अपने ही साथ में नहीं रहे। शिवसेना ने अपने लिए मुख्यमंत्री का पद मानकर भाजपा से बड़प्पन दिखाने की मांग की, किन्तु ऐसा नहीं हो सका। हिन्दुत्व की एकता के पैरोकारों से बात करने पर वे खुलकर कहते हैं कि भाजपा को वहां व्यापक वैचारिक हित में शिवसेना को ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद दे देना चाहिए था। यहां भी भाजपा का फड़नवीस मोह सत्ता से दूर रहने का कारण बना। झारखंड में तो घर-घर मोदी की तर्ज पर घर-घर रघुबर का नारा भी लगा किन्तु यह नारा बेअसर हो गया। यहां भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के मुखर योद्धा माने जाने वाले सरयू राय अपनी ही पार्टी के खिलाफ खड़े हो गए। रघुबर खुद हारे और अपनों को साथ न ले पाने के कारण भाजपा को भी हरा बैठे। अकाली दल से लेकर शिवसेना, जनता दल (यूनाइटेड), आजसू व लोकजनशक्ति पार्टी जैसे पुराने साथियों के साथ बड़ा दिल न दिखा पाना भी भाजपा को महंगा पड़ रहा है। झारखंड में भाजपा ने अपने बिहार के सहयोगी दलों को भी सीटें नहीं दीं और वे सब विरोध में थे। अपनों को नाराज कर रही भाजपा ने दूसरे दलों से आने वालों के लिए दरवाजे खोल दिये। इससे वर्षों तक दरी बिछाने वाला कार्यकर्ता निराश व हताश ही नहीं, नाराज भी हुआ। अब भाजपा को इन सब कारणों पर भी विस्तार से सोचना होगा।

Thursday 19 December 2019

शिक्षण संस्थानों को न बनाओ धर्म का अखाड़ा

डॉ.संजीव मिश्र
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए महामना मदन मोहन मालवीय जब हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान की प्रभावी आर्थिक मदद स्वीकार कर रहे थे, तब उन्होंने नहीं सोचा होगा कि सौ साल बाद इसी विश्वविद्यालय में फिरोज खान की नियुक्ति पर बवाल होगा। अलीगढ़ मुस्लिम विद्यालय के संस्थापक सरसैयद अहमद खान व जामिया मिलिया इस्लामिया अली ब्रदर्स ने भी धर्म को आधार बनाकर इन संस्थानों में चल रहे हिंसक आंदोलनों की कल्पना नहीं की होगी। किसी भी देश व समाज के लिए सौ वर्ष सकारात्मक परिवर्तन के साक्षी बनने चाहिए, किन्तु जिस तरह इन संस्थानों को धर्म के आधार पर बांटा जा रहा है, उससे सर्वाधिक निराश इनके संस्थापक होंगे। वे कभी नहीं चाहते होंगे कि इन शिक्षण संस्थानों को धर्म का अखाड़ा बनाया जाए।
देश इस समय धर्म की आग में जल रहा है। इस आग को जलाने वाले कौन हैं, इसको लेकर तो सड़क से संसद तक चर्चा हो चुकी है, किन्तु संसद से भड़की आग सड़कों पर तेजी से फैलती जरूर नजर आ रही है। इस समय समस्या सिर्फ नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हो रहा बवाल नहीं है। असल समस्या वैचारिक धरातल पर हिन्दू बनाम मुसलमान के भाव का व्यापक जागरण है। बहुत वर्षों तक राम जन्म भूमि के मसले पर हिन्दू-मुसलमानों के बीच खाई चौड़ी करने वाले सभी पक्ष इस मसले का सुप्रीम समाधान हो जाने के बाद एक बार फिर कभी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में फिरोज खान की नियुक्ति की आड़ में तो कभी नागरिकता संशोधन कानून की आड़ में अपने एजेंडे पर काम करने ही लग जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इस बार देश के शीर्ष शिक्षण संस्थान इन विभाजनकारी तत्वों के षडयंत्र का हिस्सा बन चुके हैं। इन शिक्षण संस्थान में हिन्दू, मुस्लिम या इस्लाम जुड़े होने मात्र से वे किसी धर्म विशेष का पर्याय नहीं बनने चाहिए, किन्तु इस समय ऐसा होता ही दिख रहा है। यह स्थिति निराशाजनक है और इन संस्थानों के संस्थापकों के मूल विचार से पूर्णतया भिन्न भी है।
महामना मदन मोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय इस स्वरूप की कल्पना तक नहीं की होगी कि एक दिन चयन के पश्चात परिसर की सड़कों पर महज इसलिए किसी शिक्षक की नियुक्ति का विरोध होगा क्योंकि वह मुसलमान है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में उन्होंने न सिर्फ एनी बेसेंट का सहयोग स्वीकारा था, बल्कि हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान से दस लाख रुपये का दान भी स्वीकार किया था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सर संघ चालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) ने पढ़ाई की, तो प्रसिद्ध इतिहासकार व पुरातत्वविद अहमद हसन दानी भी यहीं से निकले। इन सबके बावजूद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दू-मुसलमान बहस के ग्वापा सर्वधर्म सद्भाव के पैरोकार महामना के स्वप्न के साथ हुआ खिलवाड़ मूलतः हिन्दू-मुसलमानों के बीच खाई बढ़ाने वाला ही साबित हुआ है।
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ यूं तो देश के कई हिस्सों में आंदोलन चल रहा है किन्तु जिस तरह जामिया मिलिया इस्लामिया व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय शैक्षिक क्षेत्र में इस आंदोलन के चेहरे बनकर उभरे हैं, यह स्थिति चिंताजनक है। जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापक अली ब्रदर्स यानी मोहम्मद अली जौहर व शौकत अली ने जिस तरह से इस संस्थान के विकास का स्वप्न देखा था, उसमें महज इस्लामपरस्ती की बात तो नहीं थी। जामिया में उग्र आंदोलन के बाद पुलिस का तौर-तरीका किसी भी रूप में सही नहीं ठहराया जा सकता, किन्तु जामिया के छात्रों द्वारा जिस तरह इस्लाम के नाम पर नारेबाजी हुई, वह भी ठीक नहीं है। अपने पूर्व छात्रों की फेहरिश्त में शाहरुख खान से लेकर वीरेंद्र सहवाग तक के नाम सहेजे जामिया को महज इस्लाम का पैरोकार साबित करने की कोशिशें दुखी करने वाली हैं। इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले सर सैयद अहमद खान ने अंग्रेजों द्वारा रियासत संभालने के लालच को ठुकराकर शिक्षा की अलख जगाई थी किन्तु अब उनके सपनों की इमारत बार-बार हिन्दू बनाम मुस्लिम विचार का केंद्र बन जाती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से जुड़े रहे लोगों में भारत रत्न डॉ. जाकिर हुसैन व खान अब्दुल गफ्फार खान के नाम लिये जाते हैं तो पद्मभूषण डॉ.अशोक सेठ व सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस आरपी सेठी भी यहीं की देन हैं। जिस विश्वविद्यालय को हिन्दू मुस्लिम एकता की पहचान बनना चाहिए, वह मुस्लिमों के नाम पर आंदोलन के लिए चर्चा में रहता है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हो या जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इन सभी के नाम में धर्म जुड़े होने मात्र से ये किसी धर्म विशेष के परिचायक नहीं हो जाते। इन पर सभी धर्मों का समान अधिकार है। ऐसे में बुद्धिजीवियों, विशेषकर छात्र-छात्राओं को उन छद्म धार्मिक ठेकेदारों से सावधान रहना चाहिए जो इन विश्वविद्यालयों के नाम में जुड़े धर्म के आधार पर उन्हें बांटने की कोशिश कर रहे हैं। इन सभी विश्वविद्यालयों की अपनी अलग राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पहचान है। धर्म के नाम पर बंटवारा हुआ तो ये अपनी मूल पहचान खो देंगे। इससे टूट जाएगा इनके संस्थापकों का सपना। जिसे बचाने की जिम्मेदारी सबसे अधिक इन विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं की है कि वे किसी के छलावे में न आएं। शिक्षा के ये धर्मस्थल बचेंगे, तभी असली विकास हो सकेगा। ऐसा न हुआ तो समाज व देश का पूरा ताना-बाना ही बिखर जाएगा। 

Thursday 12 December 2019

धर्मम् शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि

डॉ.संजीव मिश्र
भगवान बुद्ध के अनुयायी सामूहिक चेतना के जागरण व जीवन के नियमों के अनुपालन के लिए त्रिशरण मंत्र, ‘बुद्धं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि।’ का उच्चारण करते हैं। सामान्य रूप से इसका अर्थ है कि मैं बुद्ध की शरण लेता हूं, मैं धर्म की शरण लेता हूं, मैं संघ की शरण लेता हूं। बौद्ध मतावलंबी यहां बुद्ध को एक जागृत स्वरूप में स्वीकार करने के साथ धर्म को जीवन का महानियम मानते हुए संघ को सत्यान्वेषियों के समूह के रूप में ग्रहण करते हैं। हाल ही के वर्षों में भारतीय राजनीति ने इस स्वरूप को बदल ही दिया है। बौद्ध मतावलंबियों को महज दलित चिंतन तक समेट दिया गया है, वहीं धर्म व संघ को तो अलग तरीके से परिभाषित किया जा रहा है। नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर मचे घमासान के बीच धर्म व संघ को लेकर अलग ही चर्चाएं चल रही हैं और यहां भाव ‘धर्मम् शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि’ का ही नजर आ रहा है।
नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर देश में घमासान मचना स्वाभाविक ही था। यह मसला भी भारतीय जनता पार्टी के मूल वैचारिक अधिष्ठान से जुड़ा हुआ है। जिस तरह भाजपा कश्मीर धारा 370 हटाने को लेकर अपने स्थापना काल से ही स्पष्ट थी, किन्तु गठबंधन की जटिलताओं सहित उपयुक्त राजनीतिक वातावरण के अभाव में इस वादे से दूरी बनाए हुए थी, उसी तरह नागरिकता संशोधन व समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे भी भाजपा के मूल स्वभाव में स्पष्ट ही थे। भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक अधिष्ठान के प्रणेता संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दुओं की चिंता करने की बातें बार-बार कही हैं। संघ आज दुनिया भर में अलग-अलग नामों से सक्रिय है और सभी जगह हिन्दू ही संघ के मूल कॉडर का हिस्सा हैं। ऐसे में पड़ोसी देशों के हिन्दुओं की चिंता संघ की प्राथमिकताओं में शामिल है। अब जब संघ का स्वयंसेवक देश का प्रधानमंत्री है, देश में संघ की विचारधारा राजनीतिक रूप से सरकार के रूप में स्वीकार की जा चुकी है, हिन्दुओं की चिंता करते कानून बनना भी स्वाभाविक है। ऐसे में भाजपा सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन विधेयक के द्वारा पाकिस्तान सहित पड़ोसी देशों में सताए गए हिन्दुओं की चिंता जताने का विरोध निश्चित रूप से देश में हिन्दुओं के बीच भाजपा की विचारधारा का पोषक ही साबित होगा। यही कारण है कि भाजपा खुलकर इस मसले पर सामने आ रही है और भाजपा की पूरी कोशिश इस कानून के साथ स्वयं को हिन्दू हितैषी व इसका विरोध करने वालों को हिन्दू विरोधी साबित करने की है।
इस विधेयक में भले ही हिन्दुओं के साथ जैन, सिख, पारसी, ईसाई व बौद्धों को शरण देने की बात कही जा रही हो, किन्तु इस विधेयक के विरोधियों का पूरा जोर धार्मिक आधार पर है। वे लोग भाजपा पर देश को बांटने के लिए धर्म की शरण में जाने का आरोप लगा रहे हैं, जबकि भाजपा इसे वैश्विक रूप से उन लोगों के लिए जरूरी मान रही है, जिन्हें धार्मिक आधार पर सताया गया है। इस विधेयक के विरोधियों की नीयत पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए जो विरोधी रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने के पक्षधर हैं, वही इस विधेयक में हिन्दुओं व अन्य मतावलंबियों को विशेष रूप से परिभाषित कर शरण देने का विरोध कर रहे हैं। इसके लिए उनके पास मजबूत तर्क भी है। जिस तरह देश की आजादी के समय भारत ने धर्म के आधार पर नागरिकता को स्वीकार नहीं किया, वहीं पाकिस्तान की स्थापना ही मुसलमानों के लिए अलग देश के रूप में हुई थी। ऐसे में भारतीय नागरिकता के लिए धर्म को आधार बनाया जाना संविधान सम्मत नहीं माना जा रहा। ऐसे लोग ही भाजपा पर धर्म व संघ की शरण में जाने का आरोप लगा रहा है।
नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोधियों की चिंता महज यह विधेयक नहीं है। इसे वे भविष्य में समान नागरिक संहिता की तैयारियों से भी जोड़कर देख रहे हैं। जिस तरह भाजपा पहले तीन तलाक, फिर धारा 370 के खिलाफ फैसले सहेजे कानून बना चुकी है, उसके बाद भाजपा विरोधियों को ऐसे ही उन सभी मसलों पर फैसलों का डर सता रहा है, जो संघ व भाजपा के एजेंडे में रहे हैं। नागरिकता संशोधन विधेयक को तो भाजपा पहले ही पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से जोड़ने का एक कदम करार दे चुकी है। ऐसे में इस विधेयक के बाद पूरे देश में बसे अवैध घुसपैठियों की चिंता बढ़ेगी। तमाम जगह ये घुसपैठिये वोटर भी बन चुके हैं। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से पूरे देश के जुड़ने के बाद इनका मताधिकार छिनेगा। इन स्थितियों में इनके वोट पाने वाले राजनीतिक दलों की चिंता स्वाभाविक है। यह शोर-शराबा भी इसीलिए है। इस शोर-शराबे की चिंता किये बिना भाजपा अपने एजेंडे पर बढ़ रही है। इसमें कितनी और किस दिशा में सफलता मिलेगी, यह बात अभी काल के गर्भ में ही है।

Wednesday 4 December 2019

...तो सही थे मधु लिमए

डॉ. संजीव मिश्र
बात 1985 की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आए दिन दल-बदल व जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त रोकने के लिए 52वें संविधान संशोधन के रूप में दल-बदल विरोधी कानून की पहल की। उस समय समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने इस कानून की यह कहकर आलोचना की थी कि इससे थोक दल-बदल बढ़ेगा। तब देश के अधिकांश राजनीतिक दलों ने दल-बदल विरोधी कानून का समर्थन किया तो लगा कि देश में क्रांतिकारी बदलाव आएगा। अब सत्ता की शुचिता बरकरार रहेगी। दल-बदल बिल्कुल रुक जाएंगे। कुछ वर्षों तक ऐसा हुआ भी, किन्तु राजनीतिक दलों ने फिर से राह निकाल ली। अब थोक में दल-बदल के साथ इस्तीफे व दोबारा चुनाव के साथ पूरी-पूरी पार्टी के ही वैचारिक परिवर्तन जैसे रास्ते निकाल लिये गए हैं। इस समय भी देश उसी ऊहापोह से जूझ रहा है। कई बार तो लगता है कि मधु लिमए ही सही थे।
1985 में दल बदल कानून लागू होने पर कुछ ऐसा संदेश दिया गया था कि पूरी-पूरी पार्टी या उसकी बड़ी संख्या को तोड़ना थोड़ा कठिन होगा। इसीलिए उस समय अन्य राजनीतिक दलों व नेताओं ने इस कानून का समर्थन भी किया था। जिस तरह से विधायक व सांसद चुनाव बाद अपनी निष्ठाएं बदल देते थे, उससे सर्वाधिक कुठाराघात जनता की भावनाओं के साथ ही होता था। दल-बदल कानून लागू होने के बाद उम्मीद थी कि यह मनमानी रुकेगी। उसी समय प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने इस कानून को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की थीं। उन्होंने उसी समय चेताया था कि इस कानून से दल-बदल नहीं रुकेगा। उनका कहना था कि यह कानून छोटे-छोटे यानी फुटकर दल-बदल को तो रोकता है किन्तु थोक में हुए दल-बदल को वैधता प्रदान करता है। अब लग रहा है कि मधु लिमये की आशंकाएं गलत नहीं थीं। कहा जाए कि उनकी चिंता सही साबित हुई है तो गलत नहीं होगा। दल-बदल कानून बनने के कुछ सालों के भीतर ही स्पष्ट होने लगा था कि यह कानून अपने मकसद को पाने में नाकाम साबित हो रहा है। अब तो लगने लगा है कि इस कानून ने भारत के संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को भी हवा दी है।
जिस तरह पिछले कुछ वर्षों में दल-बदल का स्वरूप बदला है, उससे इन विकृतियों को लेकर सामाजिक चिंताएं भी बढ़ी हैं। हाल ही में महाराष्ट्र का घटनाक्रम इसका गवाह है। महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ, उसे कानूनी रूप से भले ही दल-बदल न माना जाए किन्तु वैचारिक दल-बदल तो है ही। शिव सेना ने जिस भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनाव लड़ा, चुनाव के तुरंत बाद भाजपा से मतभिन्नता और फिल अलगाव जैसी स्थितियां उत्पन्न हो गयीं। इसी तरह कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उस शिवसेना के साथ सरकार बना ली, जिसकी आलोचना करते हुए पूरा चुनाव लड़ा। ऐसे में जनता के साथ तो यह भी विश्वासघात माना जाएगा। जनता ने शिवसेना को इसलिए वोट दिया था क्योंकि वह वैचारिक रूप से भाजपा के साथ खड़ी थी। अब भाजपा से अलग होकर शिवसेना ने उस जनादेश को चुनौती दी है। इसी तरह भाजपा ने शिवसेना के साथ चुनाव लड़ते समय चुनाव बाद भी साथ रहने का वादा किया था, जिसे नहीं निभाया गया। निश्चित रूप से अब नए सिरे से ऐसी वादाखिलाफी पर भी अंकुश लगाए जाने की जरूरत है।
थोक में दल बदल का एक और स्वरूप कर्नाटक में भी सामने आया है। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनवाने के लिए कांग्रेस व जनता दल (एस) के 17 विधायकों ने अपनी पार्टियों की बात नहीं मानी और विधानसभा से गैरहाजिर होकर अपनी पार्टियों के साथ विश्वासघात किया। अब वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गयी है और इन 17 विधायकों की सीटों पर उपचुनाव हो रहा है। इस पर होने वाला खर्च सरकार को उठाना पड़ रहा है, जो जनता की जेब से ही करों के रूप में वसूला हुआ है। इसके अलावा बिना विधानसभा चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बनने वालों के लिए सीट छोड़ने की परंपरा भी खासी प्रचलित है। इस कारण होने वाले उपचुनाव का खर्च भी जनता की जेब से ही जाता है। ऐसे में यह समय एक बार फिर दल-बदल कानून पर पुनर्विचार का है। चुनाव पूर्व गठबंधनों की स्थिति में चुनाव बाद बदलाव की अनुमति न देने सहित दोबारा चुनाव की नौबत आने पर इसका खर्च इसके जिम्मेदार विधायकों से वसूलने जैसे प्रस्तावों पर भी विचार होना चाहिए। साथ ही ऐसी नौबत पैदा करने वालों के चुनाव लड़ने पर रोक जैसे प्रावधान भी लागू किये जाने चाहिए। देश की राजनीतिक व चुनावी शुचिता के लिए यह जरूरी भी है। ऐसा न होने पर राजनीतिक क्षेत्र से नए व अच्छे लोगों का जुड़ाव भी कठिन हो जाएगा।


Wednesday 27 November 2019

क्षमा करना गांधी-दीनदयालः अब सत्ता ही साध्य


डॉ. संजीव मिश्र
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी और पं.दीनदयाल उपाध्याय जी, हमें क्षमा करियेगा। आप कहते थे कि राजनीतिक दलों के लिए सत्ता साध्य नहीं, लक्ष्य प्राप्ति का साधन मात्र होनी चाहिए, किन्तु अब ऐसा नहीं रहे। आपके शिष्यों ने बार-बार साबित किया और एक बार फिर साबित कर रहे हैं कि सत्ता ही साध्य है। उत्तराखंड, कर्नाटक और हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक न सिर्फ सत्ता की दौड़ में आदर्श भुलाए जा रहे हैं, बल्कि सत्ता की होड़ में आदर्श झुठलाए भी जा रहे हैं।
देश-दुनिया में इस समय महाराष्ट्र के महाभारत की चर्चा हो रही है। यह महाभारत निश्चित रूप से सत्ता पाने की आतुरता का परिणाम बनकर सामने आया है। इससे सत्ता पाने की जिजीविषा में कुछ भी कर गुजरने की भारतीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी स्पष्ट रूप से बलवती होती दिखाई दे रही है। यह स्थिति तब है, जबकि भारतीय राजनीतिक परिदृष्टि सत्ता को कभी भी साध्य नहीं मानती रही है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वयं राजनीतिक सत्ता को साध्य के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। वे कहते थे, ‘मेरे लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं है, अपितु जीवन के हर क्षेत्र में जनता को अपनी स्थिति सुधारने में सहायता करने का एक साधन है’। गांधी ही नहीं, मूल भारतीय मनीषा सत्ता को साध्य के रूप में अस्वीकार करती रही है। इस समय देश का राजनीतिक नेतृत्व संभाल रही भारतीय जनता पार्टी के नेता भी अपनी पूरी राजनीति का आधार ही इसे मानते हैं। भाजपा के वैचारिक अधिष्ठान के प्रतिपादक माने जाने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 11 दिसंबर 1961 को पॉलिटिकल डायरी में लिखा था, ‘अच्छे दल के सदस्यों के लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं, साधन होनी चाहिए’। अब गांधी के अनुयायी हों या दीनदयाल के, सभी सत्ता को साध्य बनाने की साधना कर रहे हैं, यह स्पष्ट दिख रहा है।
इस समय महाराष्ट्र की राजनीति को लेकर उठ रहे सवाल भी सत्ता की साधना का परिणाम ही हैं। जिस तरह से सत्ता में आने के लिए राजनीतिक दल कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते, उससे निश्चित रूप से देश के समग्र राजनीतिक विमर्श को क्षति पहुंच रही है। महाराष्ट्र को ही लें, तो जिन अजीत पवार पर भाजपा कुछ दिनों पूर्व तक हमलावर थी, अब वहीं अजीत पवार भाजपा के हमराह हो चुके हैं। महाराष्ट्र में 70 हजार करोड़ रुपये सिंचाई घोटाले के खिलाफ आवाज उठा कर देवेंद्र फड़नवीस ने न सिर्फ अपनी ईमानदार राजनीतिक पहचान बनाई थी, बल्कि उनकी सरकार के एंटी करप्शन ब्यूरो ने हाईकोर्ट में हलफनामा दाखिलकर अजीत पवार को इस मामले में आरोपी करार दिया था। इसके बावजूद अजीत को उपमुख्यमंत्री बनाते हुए स्वयं मुख्यमंत्री की शपथ लेते समय देवेंद्र फड़नवीस कतई नहीं हिचके। ऐसा सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं हुआ है। इससे पहले हरियाणा में भाजपा ने उन दुष्यंत चौटाला को साथ में लिया, जिनके खिलाफ आरोप लगाते हुए पूरा चुनाव लड़ा गया। सत्ता की लड़ाई में आचार-व्यवहार पर परिणाम भारी पड़ने लगे हैं। भाजपा के केंद्र सहित देश के अधिकांश राज्यों में सत्ताशीन होने के कारण उस ओर अंगुलियां कुछ ज्यादा उठ रही हैं, किन्तु बाकी दल दूध के धुले हों, ऐसा नहीं है। महाराष्ट्र को ही उदाहरण मान लें, तो जिस शिवसेना को कोसते हुए कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ा, अब सत्ता के लिए सब गलबहियां करते नजर आ रहे हैं। शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने जिस तरह कांग्रेस विरोध को सूत्र वाक्य बनाया था, यह सत्ता का मोह ही है कि उनकी अगली पीढ़ी उसी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने को पल-पल आतुर नजर आई। इसी तरह कांग्रेस के नेता शिवसेना की विचारधारा को हमेशा खारिज करते रहे हैं। जिस तरह शिवसेना ने हिन्दुत्व व मराठा कार्ड के साथ राजनीति की है, वह कांग्रेस के लिए समन्वय वाली भी नहीं लगती, इसके बावजूद भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस ने शिवसेना के साथ सरकार बनाने को हामी भर दी। धर्म व जाति की राजनीति से दूर रहने के दावे के बावजूद मुस्लिम लीग के साथ कांग्रेस ने केरल में सत्ता का हिस्सा बनने में भी संकोच नहीं किया।
सत्ता की साझेदारी में मूल्यों के साथ सतत समझौते भारतीय राजनीतिक विरासत में मिले हुए तो नहीं माने जा सकते, किन्तु भविष्य के लिए विरासत बनते जरूर जा रहे हैं। राजनीतिक खींचतान और सत्ता पाने की लालसा में हम कैसा इतिहास लिख रहे हैं, यह भी बेहद चिंताजनक पहलू है। इतिहास को स्वर्णिम बनाना वर्तमान का दायित्व होता है, किन्तु इस समय राजनीति का जो वर्तमान लिखा जा रहा है, उसे भविष्य में स्वर्णिम इतिहास के रूप में तो नहीं दर्ज कराया जा सकता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गांधी व दीनदयाल के अनुयायी उनके आदर्शों की धज्जियां उड़ाकर सत्ता साधने की कोशिश कर रहे हैं। यह स्थिति निश्चित रूप से समाप्त होनी चाहिए।

Wednesday 20 November 2019

अपने तो अपने होते हैं...


डॉ.संजीव मिश्र
राजनीति के रंग निराले हैं। अपनेपन में ये रंग और निराले व अनूठे हो जाते हैं। राजनीतिक अपनापन भी राजनीति के मूल स्वरूप की तरह निराला और अनूठा है। ऐसे में यह कहना कठिन हो जाता है कि राजनीति में कब कौन अपना होगा और कब वही पराया हो जाएगा। हाल ही में पहले महाराष्ट्र, फिर झारखंड में जिस तरह केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को वर्षों से उसके साथ रहे अपनों ने चुनौती दी है, दूसरे साथी भी याद दिलाने लगे हैं कि अपने तो अपने होते हैं, बाकी सब सपने होते हैं...।
राजनीति में अपनों के पराया होने में देर नहीं लगती। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के साथ पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह वे पराये जुड़े हैं, जो कभी भाजपा को गाली देते नहीं थकते थे, उससे अपने-पराए का राजनीतिक भेद तेजी से घटा है। हाल ही में महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव साथ-साथ लड़ने के बावजूद मुख्यमंत्री पद की लालसा में भाजपा व शिवसेना की राहें अलग-अलग साफ नजर आ रही हैं। शिवसेना ने पूरा चुनाव जिस कांग्रेस व एनसीपी के खिलाफ लड़ा, आज वही कांग्रेस व एनसीपी महाराष्ट्र में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनवाने के लिए शिवसेना के साथ नजर आ रही है। अब सभी मिलकर भाजपा को कोस रहे हैं। अपने-पराए का यह खेल शिवसेना के लिए अंदरूनी तौर पर भी नया नहीं है। एक जमाना था, जब शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के सबसे नजदीकी उनके भतीजे राज ठाकरे हुआ करते थे। समय के साथ शिवसेना की कमाम बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे के हाथ में आई और राज इस कदर पराए हुए कि उन्हें अलग पार्टी बनानी पड़ी। अब राज की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना महाराष्ट्र में अपने वजूद के नवनिर्माण की लड़ाई लड़ रही है। वैसे शिवसेना का पूरा अस्तित्व ही मराठी मानुष की अवधारणा के साथ भाषा व महाराष्ट्र तक के अपनेपन में सीमित रहा है। एक समय था, जब शिवसेना को महाराष्ट्र से बाहर वाले सभी लोग पराए लगते थे और तब एक राष्ट्र और विविधता में एकता के सूत्र वाक्य की बात करने वाली भाजपा ने भी शिवसेना के इस शेष भारतवासियों के विरोध को भूलकर उसे अपना बनाया। अब जब शिवसेना ने भाजपा को पराया कर दिया है, भाजपा के नेता पूरे राजनीतिक विमर्श को ही बदल देना चाहते हैं।
महाराष्ट्र ही नहीं भाजपा को इस समय कई अन्य मोर्चों पर भी अपनों से जूझना पड़ रहा है। झारखंड में डेढ़ दशक से भाजपा की सहयोगी पार्टी रही आजसू ने भाजपा को पराया कर दिया है। इसी तरह लोक जनशक्ति पार्टी भले ही भाजपानीत गठबंधन से राष्ट्रीय स्तर पर अलग न हुई हो, झारखंड में पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतारकर भाजपा को चुनौती दी है। लोकसभा चुनाव के बाद गोवा की गोवा फारवर्ड पार्टी भी भाजपा का साथ छोड़ चुकी है। हरियाणा विधानसभा चुनावों में शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा था, जबकि शिवसेना की तरह अकाली दल भी भाजपा के पुराने अपनों में शामिल था और लोकसभा चुनाव दोनों ने मिलकर ही लड़ा था। भाजपा के अपनों का यह गुस्सा उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भी बीच-बीच में खुलकर सामने आ जाता है। ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी पहले ही भाजपा का साथ छोड़ चुकी है, अपना दल की नाराजगी की खबरें भी बीच-बीच में आती रहती हैं। ऐसे में भाजपा के सामने अपने अपनों को साथ रखने व उन्हें बचाए रहने की चुनौती भी बड़ी है। महाराष्ट्र में जिस तरह सरकार न बनने की स्थिति में बार-बार बीच का रास्ता निकालने की बातें भी सामने आती हैं, उससे स्पष्ट है कि भाजपा व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के भीतर भी अपनों को सहेज कर रखने की जरूरत तेजी से महसूस की जा रही है।
गठबंधन की राजनीति में अपने-पराए जैसी चर्चाएं तो होती ही हैं, भाजपा के भीतर अब अपने कैडर वाले अपनों को संभालने की मांग भी जोर से उठने लगी है। पिछले कुछ चुनावों में भाजपा ने जिस तरह दूसरे दलों से आए नेताओं को टिकट दिये और उनमें से बहुतेरे लोगों को चुनाव जीतने में सफलता भी मिली, उससे पार्टी का मूल कैडर खासा परेशान है। बीच-बीच में इस पर खुलकर कहा जाने लगा है कि दूसरे दलों से लाकर जीत का फार्मूला तलाशने के स्थान पर अपनों पर भरोसा किया जाना चाहिए। जिस रफ्तार से देश में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी है, दूसरे दलों से भाजपा में आने वालों की संख्या भी बढ़ी है। इन स्थितियों में भाजपा का अपना कैडर पराया सा महसूस कर रहा है। वह कैडर भी बार-बार यही याद दिला रहा है कि अपने तो अपने होते हैं, बाकी सब सपने होते हैं...।

Thursday 14 November 2019

संघ के वैचारिक अधिष्ठान की स्वीकार्य परिणति


डॉ.संजीव मिश्र
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर निर्माण का पथ प्रशस्त होने के साथ देश में परिपक्व लोकतंत्र का संदेश तो गया ही है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व समग्र संघ परिवार के लिए यह निर्णय वैशिष्ट्य लिए हुए है। दरअसल जिस विवाद के कारण संघ को तीसरी बार प्रतिबंध तक का सामना करना पड़ा, उसी विवाद में संघ की मंशा के अनुरूप सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आना एक तरह से संघ के वैचारिक अधिष्ठान की स्वीकार्यता जैसी परिणति है।
अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए हिन्दुओं का आंदोलन भले ही सैकड़ों वर्ष पुराना हो किन्तु इस आंदोलन ने देशव्यापी रूप तब ही लिया, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व संघ परिवार से जुड़े सदस्यों ने इस आंदोलन की कमान हाथ में ली। संघ परिवार के महत्वपूर्ण संगठन विश्व हिन्दू परिषद ने खुलकर राम मंदिर आंदोलन की कमान संभाली और इस पूरे अभियान का नेतृत्व के संघ के प्रचारकों के हाथ में ही रहा। संघ के प्रचारक रहे अशोक सिंहल, आचार्य गिरिराज किशोर, ओंकार भावे व मोरोपंत पिंगले जैसे स्वयंसेवकों ने राम मंदिर आंदोलन को मजबूती प्रदान करने का काम किया। इन लोगों ने संत समाज को भी अपने साथ जोड़ा। यही कारण था कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वंस के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश सहित भाजपा नीत सरकारों को बर्खास्त करने के साथ सबसे कड़ी कार्रवाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर ही की थी। ढांचा ध्वंस के बाद संघ को तीसरी बार प्रतिबंध का सामना करना पड़ा था। इससे पहले संघ 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद 18 महीने के लिए और 1975 में आपातकाल के समय दो वर्ष के लिए प्रतिबंध का सामना कर चुका था। संघ ने तीनों बार प्रतिबंध को गलत साबित किया और इससे मुक्ति पाने में सफलता पाई। हर प्रतिबंध के बाद संघ और मजबूत होकर उभरा। 1992 में लगा प्रतिबंध महज छह माह चल सका और प्रतिबंध हटने के बाद भी संघ के स्वयंसेवकों ने भव्य राम मंदिर निर्माण का स्वप्न नहीं टूटने दिया।
वर्ष 1925 में राष्ट्रीय स्वंयंसेवक संघ की स्थापना के बाद से आज तक देश का एक हिस्सा संघ के वैचारिक अधिष्ठान का विरोधी रहा है। संघ के राष्ट्रवाद की आलोचना के साथ अल्पसंख्यकों के एक बड़े वर्ग को संघ से डराने की कोशिश भी होती रही है। संघ की विचार प्रक्रिया में जब राष्ट्र की बात होती है, तो देश का एक वर्ग उस राष्ट्रवाद से ही कन्नी काटने लगता है। ऐसे में संघ के सामने हमेशा से ही देश में सर्वस्वीकार्यता की चुनौती रही है। संघ ने इसे हर स्तर पर स्वीकार किया। जनांदोलन के साथ राजनीतिक चेतना को भी इसके लिए माध्यम बनाया गया। यही कारण है कि आज देश के प्रथम नागरिक से लेकर प्रधानमंत्री, मंत्रियों सहित कई राज्यों के मुख्यमंत्री संघ के स्वयंसेवक ही नहीं, प्रचारक भी रह चुके हैं। मंदिर आंदोलन के समय संतों के साथ वैचारिक चेतना को संयोजन करना संघ के लिए चुनौती हो सकता था, किन्तु इसे सकारात्मक सफलता दिलाने के काम अशोक संहल व आचार्य गिरिराज किशोर जैसे प्रचारकों ने किया। संत राम चंद्र परमहंस व महंत अवैद्यनाथ जैसे संतों ने तो संघ के प्रचारकों के साथ मंच साझा किया ही, कई शंकराचार्य व विविध मतावलंबी संत-महात्मा एक मंच पर जुट गए। यह संघ के वैचारिक अधिष्ठान का विस्तार ही था, कि पिछले कुछ वर्षों में सिर्फ तुष्टीकरण भारतीय राजनीति का चेहरा नहीं रहा है।
इस बार सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के साथ ही देश ने परिपक्व लोकतंत्र का एक चेहरा देखा है। यह संयोग ही है कि इस परिपक्वता में 94 वर्ष का संघ भी अग्रणी भूमिका में दिखा है। संघ परिवार के प्रमुख नेताओं ने इस बार फैसले से पहले न सिर्फ मुस्लिम पक्ष व नेताओं के साथ विमर्श की शुरुआत की, बल्कि एक सकारात्मक वातावरण निर्माण की पहल भी की। संघ के स्वयंसेवकों को शाखाओं से लेकर विभिन्न आयोजनों तक सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को हार या जीत के स्थान शांति से स्वीकार कर लेने के संदेश दिये गए। संयम बरतने के संदेशों के साथ किसी भी तरह की प्रतिक्रिया से बचने का जो वातावरण बनाया गया, उसका प्रभाव पूरे देश में देखने को भी मिला है। सर्वोच्च न्यायालय से संघ की मंशा के अनुरूप फैसला आने के बाद संघ के स्वयंसेवकों की जिम्मेदारी वैसे भी बढ़ गयी है। उन्हें देश व समाज के हर वर्ग का भरोसा और मजबूती से जीतना होगा। इसके पश्चात ही वे परम् वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्अर्थात राष्ट्र को वैभव के शिखर तक पहुंचाने में सफल हो सकेंगे।

Wednesday 6 November 2019

खतरे की घंटी है घटता औद्योगिक उत्पादन

डॉ.संजीव मिश्र
पिछले कुछ महीने देश में मंदी की चर्चा को लेकर रहे हैं। घटती नौकरियां हों या अंतर्राष्ट्रीय चर्चाएं, भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी सबकी चिंता का विषय रही है। भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने जब अर्थशास्त्र का नोबेल जीता, तो उनसे हुए सवालों में भारतीय अर्थव्यवस्था की मंदी सबसे ऊपर ही रही। इन सभी चर्चाओं, चिंताओं के बीच हाल ही में एक और खतरे की घंटी बजी है। दरअसल देश का औद्योगिक उत्पादन पिछले डेढ़ दशक के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। इससे न सिर्फ चिंताएं बढ़ी हैं, बल्कि भविष्य में भी अर्थव्यवस्था के सुधार व औद्योगिक उन्नयन पर सवाल खड़े होने लगे हैं।
हाल ही में देश के उद्योग मंत्रालय ने देश के आठ प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादन की स्थितियों का ब्यौरा जारी किया है। इसमें फर्टिलाइजर को छोड़कर शेष सात क्षेत्रों, कोयला, क्रूड आयल, रिफाइनरी, स्टील, सीमेंट, बिजली और प्राकृतिक ऊर्जा क्षेत्रों में उत्पादन घटा है। उद्योग मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ सितंबर माह में देश के औद्योगिक उत्पादन में 5.2 प्रतिशत गिरावट रेकार्ड की गयी है, जो पिछले चौदह वर्षों में सर्वाधिक है। इस पूरी गिरावट को अलग-अलग समझें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। कोयला उत्पाद देश के विकास की दिशा तय करता है और इस दौरान कोयले का उत्पादन 20.5 प्रतिशत गिरा है। क्रूड आयल के उत्पादन में 5.4 प्रतिशत और प्राकृतिक गैस के उत्पादन में 4.9 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गयी है। देखा जाए तो समग्र ऊर्जा क्षेत्र गिरावट की चपेट में है। रिफाइनरी उत्पादों में 6.7 प्रतिशत व बिजली उत्पादन में 3.7 प्रतिशत कमी हुई है। यही नहीं, निर्माण क्षेत्र भी औद्योगिक गिरावट का शिकार हुआ है। इसी का परिणाम है कि सीमेंट के उत्पादन में 2.1 प्रतिशत की कमी आई, वहीं स्टील का उत्पादन भी 0.3 प्रतिशत कम हुआ है। इस दौरान केवल फर्टिलाइजर का उत्पादन ही 5.4 प्रतिशत बढ़ा है। जिन आठ क्षेत्रों का विश्लेषण किया गया है, वे देश के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के औसतन 40 प्रतिशत का आधार बनते हैं। ऐसे में औद्योगिक उत्पादन में यह कमी देश की समग्र अर्थव्यवस्था के सामने छाए संकट को भी चरितार्थ करती है। हालत ये हो गए हैं कि वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में सरकारी क्षेत्र की तेल कंपनी इंडियन आयल कॉरपोरेशन के लाभ में 83 प्रतिशत की कमी सामने आई है। इसी तरह उत्पादन घटने से बिजली की मांग कम हुई और इसका असर सकल विद्युत उत्पादन पर भी पड़ा है।
औद्योगिक उत्पादन में गिरावट सरकार के लिए भी चुनौती देने वाली है। यह वह समय है, जब हमें नीतिगत रूप से पूरे तंत्र का आंकलन करना होगा। भारतीय अर्थशास्त्री पूरी दुनिया को दिशा देते रहे हैं। कौटिल्य से लेकर हाल ही में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार पाए अभिजीत बनर्जी तक की अर्थशास्त्रिक यात्रा हमारे लिए प्रेरणास्रोत है। इन सबसे सकारात्मक सूत्र वाक्य लेकर हमें आर्थिक नीतियों का नियोजन कुछ इस तरह करना होगा, जिससे देश की आर्थिक स्थिति मजबूत हो सके। रोजगार के अवसर सृजित हो सकें और अमीरी-गरीबी के बीच गहराती खाई पाटी जा सके। नोबेल पुरस्कार का एलान होने के बाद जिस तरह अभिजीत बनर्जी को लेकर देश के भीतर बयानबाजी हुई, वह भी दुर्भाग्यपूर्ण है। वह बयानबाजी कई दफा हमारे नेतृत्व के एक हिस्से की अपरिपक्वता भी दिखाती है। अभिजीत बनर्जी को उनकी जिन उपलब्धियों के लिए नोबेल मिला है, देश के आम आदमी, किसान व गरीब के भले के लिए उनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। नोबेल जीतने के बाद अभिजीत ने स्वयं भी भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर न सिर्फ चिंता जताई है, बल्कि समाधान के रास्ते भी सुझाए हैं। उन्होंने साफ कहा है कि इस समय ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधारने पर भी फोकस होना चाहिए। शहरी अर्थव्यवस्था में सुधार के नाम पर किसानों व ग्रामीणों के साथ आर्थिक खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए। फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य कम होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक संकट बढ़ा, जिससे मांग घटी और उसका असर समग्र अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। हमें इसे सुधारना होगा। जिस तरह सकल घरेलू उत्पाद के मामले में दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में भारत पांचवें से सातवें स्थान पर आ ही चुका था, हाल ही में विश्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष के लिए भारत की विकास दर का अनुमान घटा दिया है। पहले इस वित्तीय वर्ष में 7.5 प्रतिशत विकास दर का अनुमान विश्वबैंक द्वारा घोषित किया गया था, अब इसे घटाकर 6 प्रतिशत कर दिया गया है। ऐसे में घरेलू अर्थव्यवस्था में सुधार के माध्यम से ही इन चुनौतियों का सामना किया जा सकता है। इसके लिए समग्र पहल करनी होगी और सरकारों को कई मोर्चों पर जिद छोड़नी होगी।ऐसा हुआ तो अर्थव्यवस्था सुधरेगी और देश भी समृद्धि के नए शिखर छूने के लिए आगे बढ़ेगा।

Wednesday 30 October 2019

बगदादी का जाना और यूरोपीय सांसदों का आना


डॉ. संजीव मिश्र
दीवाली के साथ ही देश-दुनिया में दो खबरें एक साथ आयीं। दुनिया में आतंक का पर्याय बना आईएसआईएस सरगना अबू बक्र अल बगदादी को अमेरिकी फौज ने मार गिराया और यूरोपीय़ यूनियन के सांसदों का एक दल कश्मीर जाकर वहां के हालातों का जायजा लेगा। सामान्य रूप से ये दोनों खबरें अलग-अलग लगती हैं, किन्तु इन दोनों की जड़ में आतंकवाद है। जिस तरह बगदादी आतंकी सरगना के रूप में दुनिया की मुसीबत बना था, उसी तरह कश्मीर को आतंक की सैरगाह बनने से बचाना इस समय भारत की चुनौती है। ऐसे में जब बगदादी की मौत से आतंक के खिलाफ वैश्विक दबाव बना है, वहीं ऐसे ही किसी वैश्विक दबाव से बचने की एक रणनीतिक कोशिश के रूप में यूरोपीय यूनियन के सांसद कश्मीर जा रहे है। बगदादी के बाद भारत की चुनौती अमेरिकी तर्ज पर देश के दुश्मन आतंकियों को उनकी पनाहगाहों से खोज कर निकालना बन गया है, वहीं कश्मीर में अमनचैन सुनिश्चित करने की चुनौती भी सरकार के सामने है।
बगदादी की मौत के बाद भारत में सीधे तौर पर इसे लेकर तमाम चर्चाएं हो रही हैं। इसके दो कारण स्पष्ट हैं। पहला यह कि भारत भी बगदादी या आईएसआईएस मॉड्यूल के आतंकवाद से पीड़ित देश है और यहां से तमाम युवाओं के आईएसआईएस से जुड़ने की जानकारियां लगातार आ रही थीं। दूसरा यह कि सरकार पर अब बगदादी की तरह ही पाकिस्तान में छिपे हाफिज सईद व मौलाना मसूद अजहर जैसे देश के दुश्मनों पर अमेरिकी फौज जैसा अभियान चलाकर उनके खात्मे का दबाव बन रहा है। भारत में महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर जैसे कई राज्यों के युवाओं के आईएसआईएस से जुड़ने की जानकारियां लगातार सामने आ रही थीं। आईएसआईएस को भारत के कट्टरपंथी लोगों को आतंक से जोड़ना भी आसान लग रहा था। ऐसे में बगदादी की मौत के बाद इस सिलसिले में कमी आएगी, यह माना जा रहा है। आईएसआईएस जिस तेजी से भारत में पांव पसारना चाह रहा था, उस पर अब निश्चित रूप से अंकुश लगेगा, क्योंकि आईएसआईएस नेतृत्व की प्राथमिकताएं अब बदलेगीं। जिस तरह अमेरिका ने बगदादी को सुरंग में दौड़ा-दौड़ा कर मौत चुनने के लिए मजबूर कर दिया, उसके बाद भारतीय नेतृत्व व भारतीय सेना पर भी अलग सा दबाव बना है। पहले दाउद इब्राहिम वर्षों से भारत को चुनौती देकर पाकिस्तान में जमा बैठा था, अब हाफिज सईद व मौलाना मसूद अजहर भी पाकिस्तान में डेरा डालकर खुलेआम भारत के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। पाकपरस्त आतंकियों के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मजबूत कदम उठा चुकी भारतीय सेना से अब पाकिस्तान में घुसकर हाफिज व मसूद जैसों को उड़ाने की उम्मीद की जा रही है। हर कोई भारतीय सेना की शौर्य गाथा से जुड़ा हुआ है, ऐसे में अब पाकिस्तान में छिपे इन आतंकियों के खिलाफ वैसी ही कार्रवाई की जरूरत महसूस हो रही है, जिस तरह पहले लादेन, फिर बगदादी के मामले में अमेरिकी सेना द्वारा की गयी है।
दरअसल ये आतंकी भारत के लिए लगातार मुसीबत बने हुए हैं। कश्मीर को आतंकवाद की पनाहगाह बनाने में ये आतंकी पाकिस्तान का मुखौटा बनकर सामने आ रहे हैं। यही कारण है कि कश्मीर से धारा 370 हटाने जैसे बेहद आंतरिक मसले को भी पाकिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय मसला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। संयुक्त राष्ट्र में तो पाकिस्तान ने यह मामाला उठाया ही, यूरोपीय यूनियन की संसद में भी कश्मीर पर चर्चा हुई। अब बगदादी की मौत की खबर के साथ ही यूरोपीय यूनियन के सांसदों का भारत आना भी महज एक संयोग ही है। यूरोपीय यूनियन के सांसदों की टीम कश्मीर जाकर वहां के हालात जानेगी। इसके बाद वैश्विक स्तर पर भारत के प्रति निश्चित रूप से स्थितियों में सकारात्मक सुधार होगा। इसके साथ ही इस दौरे पर भारत में भी थोड़े-बहुत सवाल उठ रहे हैं, जिनका जवाब सरकार को देना होगा। दरअसल कश्मीर पर कठोर फैसलों के बाद जिस तरह भारतीय विपक्षी दलों ने कश्मीर जाने की कोशिश की और जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने विपक्ष को कश्मीर का दौरा करने की अनुमति नहीं दी, उससे तो सवाल उठ ही रहे थे, अब विदेशी टीम को कश्मीर जाने की अनुमति ने ये सवाल दोबारा खड़े कर दिये हैं। विपक्षी दलों को कश्मीर दौरे पर जाने की अनुमति के लिए सुप्रीम कोर्ट तक से गुहार करनी पड़ी थी। ऐसे में अब विपक्ष द्वारा  यूरोपीय यूनियन के सांसदों को कश्मीर दौरे की अनुमति पर सवाल उठाया जाना अवश्यंभावी है। ऐसी स्थितियां सरकारों की जवाबदेही बढ़ा देती हैं। 31 अक्टूबर से कश्मीर का पूरा स्वरूप बदलने वाला है। 31 अक्टूबर से जम्मू-कश्मीर व लद्दाख अलग-अलग केंद्र शासित राज्य बन जाएंगे। ऐसे में केंद्र की जिम्मेदारी और बढ़ने वाली है। आतंक से लड़ाई के इस दौर में कश्मीर का इकबाल तभी बुलंद होगा, जब हम कश्मीर के दुश्मन आतंकी सरगनाओं को उनके आकाओं के घर में घुस कर मारेंगे। उम्मीद है हम ऐसा कर पाएंगे।

Thursday 24 October 2019

कट्टरवाद को प्रश्रय का प्रतिफल है यह हत्या


डॉ.संजीव मिश्र
हम वसुधैव कुटुम्बकम् यानी पूरे विश्व को परिवार मानने वाले देश में रहते हैं। हम गंगा-जमुनी तहजीब वाले देश में रहते हैं। हम सर्व धर्म सद्भाव ही नहीं समभाव के सूत्र पर जीने वाले देश में रहते हैं। ...और उसी देश में एक दिन अचानक दो युवा 1300 किलोमीटर दूर से आते हैं, एक व्यक्ति की हत्या करते हैं और लौट जाते हैं। हत्या भी इसलिए क्योंकि जिस व्यक्ति को मारा जाता है, उसने चार साल पहले एक बयान दिया था। यह हत्या देश की बदलती रंगत को बताती है। यह हत्या देश में कट्टरवाद को सतत प्रश्रय का प्रतिफल है। यह प्रश्रय किसी एक ओर से नहीं मिल रहा, यहां हर ओर से कट्टरवाद को येन-केन प्रकारेण प्रश्रय मिल रहा है, जिसके जवाब में कभी गौरी लंकेश तो कभी कमलेश तिवारी को जान गंवानी पड़ती है।
लखनऊ में हिन्दूवादी नेता के तौर पर पहचान बनाए कमलेश तिवारी की हत्या महज एक हत्या नहीं है। यह देश के समक्ष तमाम सवाल खड़े कर रही है। जिस तरह देश की तहजीब का ताना-बाना उधेड़ा जा रहा है, कमलेश तिवारी की हत्या जैसे घटनाक्रम बढ़ने से रोकना उतना ही कठिन हो जाएगा। दरअसल, पिछले कुछ वर्षों से देश में कट्टरवाद को विविध रूप में परिभाषित कर उसे प्रश्रय दिया गया। कमलेश तिवारी ने चार साल पहले जिस धर्म विशेष के एक महापुरुष को लेकर आपत्तिजनक बयान दिया था, उस धर्म के कुछ झंडाबरदारों ने कमलेश की हत्या पर ईनाम का एलान कर दिया था। कमलेश को तो गिरफ्तार कर रासुका लगा दी गयी, किन्तु एक हत्या की तैयारी रोकने के पुख्ता बंदोबस्त नहीं हुए। जिन लोगों ने कमलेश की हत्या पर ईनाम का एलान किया था, उन्हें चार साल बाद हुई हत्या के बाद पुलिस पकड़ रही है। दूसरे, जिस तरह धार्मिक वैमनस्य के परिणाम स्वरूप कुछ युवा अपने जीवन व करियर की परवाह किये बिना एक ऐसे व्यक्ति की हत्या को तैयार हो गए, जिसे वे जानते तक नहीं थे, यह भाव भी देश के लिए हताशापूर्ण भविष्य का द्योतक है।
धार्मिक कट्टरता का यह प्रतिफल पहली बार सामने आया हो, ऐसा भी नहीं है। दूर देश में धार्मिक ग्रन्थ जलाए जाने के खिलाफ हुए प्रदर्शनों के दौरान उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक अपर जिलाधिकारी (एडीएम) को गोली मारकर उनकी जान ले ली गयी थी। इस मामले में पुलिस अपने अफसर के हत्यारे को भी सजा नहीं दिला पाई और जिस व्यक्ति पर आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया, वह बरी हो गया। ऐसा नहीं है कि धार्मिक कट्टरता ये मामले एकपक्षीय ही हैं। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसरे, एमएम कुलबर्गी और गौरी लंकेश की हत्याएं भी धार्मिक कट्टरता का परिणाम ही हैं। जिस तरह से देश में धार्मिक कट्टरता को प्रश्रय दिया जा रहा है, उसमें ऐसी घटनाएं होना सामान्य सी बात हो गयी है। हाल ही में जिस तरह मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ी हैं, उससे इस कट्टरवाद को और बल मिला है। मॉब लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा घेर कर मार डालना भारतीय जीवन दर्शन का हिस्सा कभी नहीं रहा। पिछले कुछ वर्षों से अचानक ऐसी घटनाएं भारत का हिस्सा भी बन गयी हैं। तमाम सरकारी कोशिशों व दावों के बावजूद इन पर नियंत्रण नहीं लग पा रहा है।
भारत कट्टरता के खिलाफ संघर्ष करते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे नेताओं की शहादत का गवाह बन चुका है। 1931 के कानपुर दंगों में गणेश शंकर विद्यार्थी पूरे भरोसे के साथ दंगा रोकने की उम्मीद लेकर घुसे थे, किन्तु कुछ कट्टरवादियों ने उनकी हत्या कर दी थी। इस घटना के बाद कट्टरवादियों के खिलाफ सब एकजुट थे। इसके विपरीत इस समय चल रही घटनाओं का विश्लेषण करें तो तेरी कट्टरता, मेरी कट्टरता का भाव भी सामने आता है। गौरी लंकेश की हत्या के बाद जिस तरह देश का एक वर्ग खुलकर सामने आया था और सरकार द्वारा दिये गए सम्मान वापस करने (एवार्ड वापसी) की होड़ सी लगी थी, उससे लगा था कि देश में कट्टरवाद के खिलाफ एक मानस बन रहा है। अब कमलेश तिवारी की हत्य़ा के बाद दूसरा खेमा उन लोगों से ऐसी ही अपेक्षा कर रहा है। यहां यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि जिन लोगों ने सामूहिक रूप से गौरी लंकेश, दाभोलकर या कुलबर्गी की हत्या के खिलाफ आवाज उठाई थी, कमलेश तिवारी के हत्यारों के मामले में वे उतने मुखर नहीं दिख रहे हैं। इससे कट्टरवाद के खिलाफ खेमेबंदी भी साफ दिख रही है। इस समय देश के भीतर इस तरह की खेमेबंदी को पूरी तरह समाप्त कर हर तरह के कट्टरवाद के खिलाफ आवाज उठाए जाने की जरूरत है। ऐसा न हुआ तो हम येन-केन प्रकारेण कट्टरवाद को प्रश्रय ही देते रहेंगे और कब हत्यारे हमारे घर भीतर घुस आएंगे, हम जान भी न पाएंगे।

Wednesday 16 October 2019

हरियाणा-महाराष्ट्र में योगी के ढाई साल की दस्तक

डॉ.संजीव मिश्र
हरियाणा महाराष्ट्र का चुनावी संग्राम इस समय पूरे उभार पर है। सेनाएं मैदान में उतर चुकी हैं और हर कोई जीत के दावों के साथ सकारात्मक परिणामों की उम्मीद लगाए बैठा है। भारतीय जनता पार्टी शासित इन दोनों राज्यों में प्रदेश सरकार के पांच साल के कामकाज का आंकलन तो हो ही रहा है, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार के ढाई साल भी बीच-बीच में दस्तक दे रहे हैं। इन राज्यों में भाजपा के प्रत्याशी योगी आदित्यनाथ की सभाएं चाहते हैं और वे हर रोज औसतन चार सभाओं को संबोधित भी कर रहे हैं।
हरियाणा विधानसभा चुनाव की शुरुआत से ही वहां योगी आदित्यनाथ की मांग होने लगी थी। मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर जब करनाल विधानसभा क्षेत्र से नामांकन दाखिल करने पहुंचे तो योगी आदित्यनाथ उनके साथ थे। योगी आदित्यनाथ की भाजपा के राष्ट्रीय क्षितिज पर सक्रियता का मसला बीच-बीच में उठता ही रहता है और देश भर के चुनाव अभियान में वे भाजपा के स्टार प्रचारक भी रहते हैं किन्तु हरियाणा के साथ नाथ संप्रदाय का विशिष्ट रिश्ता उन्हें वहां से विशेष रूप से जोड़ता है। हरियाणा के हिसार में स्थित नाथ संप्रदाय की श्री सिद्धपीठ होने के कारण उनका वहां से जुड़ाव तो है ही, लोग भी उनसे सीधे जुड़ते हैं। यही कारण है कि मनोहर लाल खट्टर के नामांकन से लेकर चुनाव प्रचार के आखिरी दिन यानी 19 अक्टूबर तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हरियाणा के लोगों से नियमित संवाद करना पड़ रहा है। इस चुनाव में खट्टर के कार्यकाल की तो चर्चा होती ही है, योगी आदित्यनाथ के ढाई साल के मुख्यमंत्रित्वकाल में उत्तर प्रदेश में हुए बदलाव भी चर्चा का केंद्र बनते हैं। हर प्रत्याशी योगी आदित्यनाथ की सभाएं कराना चाहता है और भाजपा को भी बमुश्किल संयोजन करना पड़ रहा है। इसके अलावा गुड़गांव सहित हरियाणा के विभिन्न हिस्सों में उत्तर प्रदेश के मूल निवासियों की ठीक-ठाक आबादी है, जिस पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का प्रभाव उनकी मांग और बढ़ा रहा है। जनसभाओं के दौरान वे हरियाणा के साथ अपने रिश्तों की बात भी कर रहे हैं।
हरियाणा के अलावा महाराष्ट्र में भी नयी विधानसभा के गठन के लिए 21 अक्टूबर को मतदान होना है। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस के पांच साल के कार्यकाल की उपलब्धियों के साथ भाजपा हिन्दुत्व के एंबेसडर के रूप में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को प्रस्तुत कर रही है। मुंबई सहित पूरे महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की प्रचुर आबादी होने के कारण वहां भी योगी आदित्यनाथ की सभाओं की मांग भाजपा प्रत्याशी लगातार कर रहे हैं। योगी आदित्यनाथ महाराष्ट्र में हिन्दुत्व के साथ विकास के एजेंडे पर भी चर्चा कर रहे हैं। ऐसे में महाराष्ट्र में योगी की हर सभा देवेंद्र फड़नवीस के पांच साल के शासन के साथ उत्तर प्रदेश के ढाई साल के योगी शासन की गवाह भी बनती है। उत्तर प्रदेश में हुए बदलाव वहां रहने वाले उत्तर भारतीयों को प्रेरित कर रहे हैं और योगी सहित भाजपा के नेता उत्तर भारतीयों के बीच जाकर चर्चा भी इसी विषय के इर्दगिर्द कर रहे हैं। दरअसल महाराष्ट्र में समग्र रूप से उत्तर भारतीयों की संख्या तो पर्याप्त है ही, उनमें भी पूर्वी उत्तर प्रदेश उससे जुड़े बिहार के लोग सर्वाधिक रहते हैं। इन लोगों के बीच योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता जबर्दस्त है। साथ ही ये लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश से जुड़े होने के कारण मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से सीधा जुड़ाव महसूस करते हैं और योगी सरकार के पिछले ढाई साल के कार्यकाल से भी जुड़ते हैं।
हरियाणा महाराष्ट्र के साथ उत्तर प्रदेश की 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव भी 21 अक्टूबर को ही प्रस्तावित है। उत्तर प्रदेश का उपचुनाव भी भाजपा के लिए चुनौती भरा है। हाल ही में हमीरपुर सदर विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जीत हासिल कर भाजपा के हौसले बुलंद हैं। ऐसे में भाजपा सभी सीटें जीतने की रणनीति बनाकर मैदान में है। यहां भी सभी सीटों पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मांग भाजपा के प्रत्याशी कर रहे हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश के साथ हरियाणा महाराष्ट्र में योगी आदित्यनाथ का प्रवास चुनौती भरा तो है किन्तु इसे अमल में लाया जा रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इन राज्यों में 10 अक्टूबर से 19 अक्टूबर तक रोज औसतन चार जनसभाएं नियोजित की गयी हैं। इनका प्रभाव तो चुनाव परिणामों के बाद सामने आएगा, किन्तु इतना तय है कि उत्तर प्रदेश सरकार के बीते ढाई साल निश्चित रूप से हरियाणा महाराष्ट्र सरकारों के पांच साल के साथ युति के रूप में काम करेंगे। भाजपा की कोशिश इस युति को प्रभावी बनाने की है और संभवतः यही कारण है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के साथ हरियाणा महाराष्ट्र में भी पसीना बहा रहे हैं।