डॉ.संजीव
मिश्र
बात
1985 की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आए दिन दल-बदल व जनप्रतिनिधियों
की खरीद फरोख्त रोकने के लिए 52वें संविधान संशोधन के रूप में दल-बदल विरोधी कानून
की पहल की। उस समय लगा कि देश में क्रांतिकारी बदलाव आएगा। अब सत्ता की शुचिता
बरकरार रहेगी। दल-बदल बिल्कुल रुक जाएंगे। कुछ वर्षों तक ऐसा हुआ भी, किन्तु
राजनीतिक दलों ने फिर से राह निकाल ली। अब थोक में दल-बदल के साथ इस्तीफे व दोबारा
चुनाव जैसे रास्ते निकाल लिये गए हैं। इस समय भी देश उसी ऊहापोह से जूझ रहा है।
सत्ता का अश्वमेध यज्ञ चल रहा है। कहीं इस्तीफों, तो कहीं दबाव की राजनीति चल रही
है और सच के पैरोकार मौन साध बैठे हैं।
भारत
हो या कोई और देश, राजनीति में सक्रिय हर व्यक्ति का मूल लक्ष्य सत्ता प्राप्ति ही
माना जाता है। ऐसे में सत्ता को साधन की जगह साध्य मानने वालों का वर्चस्व भी कायम
होता जा रहा है। महात्मा गांधी राजनीतिक सत्ता को साध्य के रूप में स्वीकार नहीं
करते थे। वे कहते थे, ‘मेरे लिए राजनीतिक सत्ता साध्य नहीं है, अपितु जीवन के हर
क्षेत्र में जनता को अपनी स्थिति सुधारने में सहायता करने का एक साधन है’। भारत के
तमाम राजनीतिक दल भी सत्ता को साध्य न मानकर सेवा का साधन मानने की बातें बीच-बीच
में कहते रहते हैं। इस समय देश का राजनीतिक नेतृत्व संभाल रही भारतीय जनता पार्टी
के नेता भी अपनी पूरी राजनीति का आधार ही इसे मानते हैं। भाजपा के वैचारिक
अधिष्ठान के प्रतिपादक माने जाने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 11 दिसंबर 1961 को
पॉलिटिकल डायरी में लिखा था, ‘अच्छे दल के सदस्यों के लिए राजनीतिक सत्ता साध्य
नहीं, साधन होनी चाहिए’। गांधी हों या दीनदयाल, उनके बताए रास्ते पर चलने का दावा
करने वाले आज सत्ता को जनसेवा का साधन बनाने के स्थान पर सत्ता की साधना में जुटे
हुए हैं। इसके लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। राजनेता चुनावी हार-जीत को अपनी
सफलता का पैमाना मानने के साथ उसमें निरंतरता के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। यह
‘कुछ भी’ देश व समाज के लिए खासा चिंताजनक साबित हो रहा है।
इस
समय तो पूरे देश में मानो सत्ता का अश्वमेध यज्ञ चल रहा है। चक्रवर्ती सम्राट के
रूप में स्थापित होने के लिए हर तरह के प्रयास हो रहे हैं। अश्वमेध का अश्व छोड़ा
जा चुका है। हां, रणभूमि का चयन जरूर तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार हो रहा है।
कभी वह कोई रेसॉर्ट होता है, तो कभी कोई कोई पांच या सात सितारा होटल। राजनीतिक
दलों में अविश्वास व समग्र भारतीय राजनीतिक परिवेश में असमंजस इस कदर बढ़ा है कि
हाल ही में केंद्र में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत के साथ ही
कांग्रेस को अपनी कर्नाटक, मध्य प्रदेश व राजस्थान सरकारों की विदाई का डर सताने
लगा था। इस डर को तमाम भाजपा नेता भी हवा दे रहे थे। इस समय चल रहा कर्नाटक का
घटनाक्रम भी इसी अविश्वास व असमंजस का परिणाम है। कर्नाटक में सत्ता संघर्ष चल ही
रहा है, बहुमत के मामले में किनारे पर खड़े अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री भी डरे
हुए से नजर आते हैं। सत्ता को साध्य बनाकर अश्वमेध यज्ञ जीतने के लिए हो रहा संधान
निश्चित रूप से भारतीय राजनीति के लिए शुभ संकेत तो नहीं माना जा सकता। सत्ता
प्राप्ति की बलवती जिजीविषा और उसके लिए कुछ भी कर गुजरने की इच्छाशक्ति ने पूरी
राजनीति के मायने ही बदल दिए हैं।
इन
स्थितियों में दल बदल कानून के औचित्य पर भी सवालिया निशान लगने लगे हैं। 1985 में
जब राजीव गांधी दल बदल कानून लाए थे, तब लगता था कि पूरी-पूरी पार्टी या उसकी बड़ी
संख्या को तोड़ना थोड़ा कठिन होगा। उस समय अन्य राजनीतिक दलों व नेताओं ने इस
कानून का समर्थन भी किया था किन्तु समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने उसी समय चेताया था
कि इस कानून से दल-बदल नहीं रुकेगा। उनका कहना था कि यह कानून छोटे-छोटे यानी
फुटकर दल-बदल को तो रोकता है किन्तु थोक में हुए दल-बदल को वैधता प्रदान करता है।
यह सच भी साबित हुए कानून बनने के कुछ सालों के भीतर ही स्पष्ट होने लगा था कि यह
कानून अपने मकसद को पाने में नाकाम साबित हो रहा है। अब तो लगने लगा है कि इस
कानून ने भारत के संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को भी हवा दी है। इस
कानून पर अमल की जिम्मेदारी सदन के अध्यक्ष की होती है और वह सत्ता पक्ष का ही
होता है। कई बार सत्ताधारी दल इसका लाभ उठाता है। अब तो इस्तीफा देकर दोबारा चुनाव
में झोंकने की स्थितियां भी पैदा की जाने लगी हैं। नेता विधानसभा चुनाव नहीं लड़ते
और फिर मुख्यमंत्री बनने के लिए किसी विधायक का इस्तीफा करा देते हैं। इसमें भी
विरोधी दल के विधायक का इस्तीफा दिलाना फैशन सा बन गया है ताकि वे सत्ता की हनक
साबित कर सकें। दल-बदल के लिए भी जरूरी संख्या न जुटा पाने पर इस्तीफा दिलाना एक
उपयुक्त तरीके के रूप में सामने आया है। ऐसे में दल-बदल कानून पर भी नए सिरे से
विचार करने की जरूरत है। अन्यथा इसी तरह सत्ता प्राप्ति के लिए तमाम प्रपंच होते
रहेंगे और लोकतंत्र रोता रहेगा।
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