Saturday 6 April 2019

इन उखड़ती सांसों की ओर भी देखो साहब!


डॉ.संजीव मिश्र

देश में लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। पाकिस्तान पर अंकुश से लेकर अलग बांग्लादेश बनाने के क्रेडिट तक की चर्चाएं हैं, पर आम आदमी की सेहत किसी के एजेंडे में नहीं है। हाल ही में हमने पूरे देश में टीबी सप्ताह मनाया और अब स्वास्थ्य सप्ताह पर फोकस कर रहे हैं, पर किसी का ध्यान फूलती सांसों पर नहीं जा रहा है। हर साल टीबी के कारण हो रही मौतें और उखड़ती सांसों की बीमारी, क्रोनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मनरी डिसीज (सीओपीडी) सहित सेहत किसी की चिंता का हिस्सा नहीं है।
  बीते 24 से 31 मार्च तक हमने पूरे देश में टीबी सप्ताह मनाया है। सात अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस होने के कारण इस समय भी कागजों पर सेहत चर्चा का हिस्सा है। पूरे देश में कार्यक्रम हो रहे हैं किन्तु चुनाव में व्यस्त ‘नेताजी’ के पास इसके लिए समय नहीं है। सेहत की पूरी चिंता डॉक्टरों के द्वारा, डॉक्टरों के लिए और डॉक्टरों तक बजट खर्च में सिमट कर रह गयी है। चलिए, वो चिंता करें न करें, हम आपको इस संकट से जोड़ने की कोशिश करते हैं। टीबी दुनिया भर में हो रही मौतों के शीर्ष दस कारणों में से एक है। दुनिया में हर साल एक करोड़ से अधिक नए टीबी मरीज सामने आते हैं और लगभग इतनी ही मौतें टीबी के कारण होती हैं। टीबी के मामले में हम पूरी दुनिया पर एक तरह से राज ही कर रहे हैं। दुनिया के कुल टीबी मरीजों में से हर पांचवां मरीज भारतीय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी लगातार भारत में बढ़ते टीबी मरीजों को लेकर चिंता जता रहा है। इसके बावजूद भारत में टीबी का इलाज आज तक गंभीरता नहीं ले सका है। देश में टीबी नियंत्रण कार्यक्रम चले, जिला स्तर तक अलग से टीबी के अस्पताल बने और विशेष चिकित्सकों तक की नियुक्ति हुई किन्तु अब तक नियंत्रण के कारगर उपाय नहीं हो सके। चुनाव के इस दौर में तमाम उपलब्धियों व असफलताओं की चर्चा के बीच किसी भी राजनीतिक दल को टीबी या ऐसी कोई बीमारी याद तक नहीं आ रही है।
टीबी वैसे तो शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकती है किन्तु श्वसन तंत्र की टीबी फेफड़े छलनी कर देती है। इस कारण श्वसन तंत्र से जुड़ी अन्य बीमारियां भी सिर चढ़कर बोलने लगती हैं। चिकित्सकों की मानें तो टीबी के मरीजों में सीओपीडी जैसी श्वसन तंत्र की अन्य बीमारियां होने की संभावनाएं तीन गुना बढ़ जाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में संचारी रोगों पर अपनी अतंर्राष्ट्रीय कार्य योजना प्रस्तुत की है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि टीबी से तमाम गंभीर श्वसन तंत्र संबंधी बीमारी होने का डर रहता है। इसमें भारत जैसे मध्य आय वर्ग की बहुलता वाले देशों को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतने की बात कही गयी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि टीबी के इलाज के बाद उन मरीजों का ठीक से ध्यान न रखना भी खतरनाक हो सकता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य ये है कि यहां किसी भी राजनीतिक दल को टीबी या श्वसन रोगों पर केंद्रित कार्ययोजना तो दूर समूची स्वास्थ्य व्यवस्था की परवाह नहीं है। सोच कर देखिये, क्या कभी किसी नेता के भाषण में आपको बढ़ते टीबी की चिंता सुनाई पड़ी है।
 टीबी के साथ पिछले कुछ वर्षों में भारत क्रोनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मनरी डिसीज (सीओपीडी) से ग्रस्त लोगों का अंतर्राष्ट्रीय केंद्र बनता जा रहा है। सीओपीडी व दमा जैसी बीमारियां भारत के लिए बोझ सी बनती जा रही हैं। इन बीमारियों में भारत दुनिया का सिरमौर बना हुआ है। दमा को ही लें तो पूरी दुनिया के 34 करोड़ दमा मरीजों में से लगभग चार करोड़ मरीज भारतीय हैं। दमा से होने वाली मौतों के मामले में तो भारत पूरी दुनिया में अव्वल है।पूरी दुनिया में दमा के कारण होने वाली मौतों में से चालीस फीसदी से अधिक लोग भारतीय होते हैं। अचानक श्वसन तंत्र अवरुद्ध हो जाने जैसी समस्याओं से जूझती बीमारी सीओपीडी के मामले में भी भारत पीछे नहीं है। मरीजों की संख्या के मामले में भारत सीओपीडी में सबसे आगे है। दुनिया भार के 25 करोड़ सीओपीडी मरीजों में से साढ़े पांच करोड़ से अधिक मरीज भारतीय हैं। यही नहीं यहां हर साल नौ लाख के आसपास सीओपीडी मरीजों की मौत हो जाती है। दुनिया में श्वसन तंत्र अवरोधन से होने वाली हर तीसरी मौत भारतीय नागरिक की होती है। इस भयावह स्थिति के बावजूद भारतीय राजनीतिक नेतृत्व को कोई परवाह नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय टीबी दिवस की तरह स्वास्थ्य दिवस भी मना लिया जाएगा, किन्तु नेताओं के मुंह से चिंता के बोल सुनने को लोग तरस जाएंगे। जिस दिन भारतीय राजनीति की प्राथमिकताओं में जाति, धर्म, आक्रमण से ऊपर बीमारियां होंगी, उस दिन देश की दशा व दिशा में बदलाव का पथ प्रशस्त होगा।

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