डॉ.संजीव मिश्र
बात एक फरवरी की है। तेरह साल का अनन्य शाम को टीवी पर अपना मनपसंद
कार्टून चैनल देखना चाहता था, किन्तु पापा ने मना कर दिया। पापा चैनल बदल-बदल कर
बजट समझने की कोशिश कर रहे थे। इस पर थोड़ा गुस्साए अनन्य ने सवाल किया, पापा बजट
क्या होता है? पापा
ने बजट के बारे में समझाया तो बोला, इसमें बच्चों पर कितना खर्च होगा? इस मासूम सवाल का जवाब पापा के पास नहीं था।
उस समय तो अनन्य को झिड़क दिया गया कि तुम पढ़ाई पर फोकस करो, किन्तु यह सवाल
लगातार घुमड़ रहा है। बजट में बच्चे कहां हैं? उनकी हिस्सेदारी क्यों पिछड़ती जा रही है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब मिल ही नहीं
रहे हैं। वे सिर्फ बच्चे हैं, वोटर नहीं है, इसलिए सरकारें भी उनकी चिंता नहीं
करतीं।
बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। ऐसे में कोई भी योजना बनाते
समय भविष्य की नींव मजबूत करने की बात जरूरी है, किन्तु देश में ऐसा नहीं हो रहा
है। बच्चों के लिए बजट में किये जाने वाले प्रावधान पिछले कुछ वर्षों से लगातार कम
होते जा रहे हैं। यदि कुल बजट में बच्चों की हिस्सेदारी को आधार बनाया जाए तो वर्ष
2012-13 में बच्चों के लिए कुल बजट का 5.04 प्रतिशत आवंटित किया गया था, जौ मौजूदा
वर्ष में घटकर 3.29 प्रतिशत पहुंच गया है। वर्ष-दर वर्ष बच्चों के लिए प्रस्तावित
खर्च में कटौती आयी है। देश के बजट आवंटन के आधार पर देखा जाए तो वर्ष 2013-14 में
बच्चों के लिए कुल बजट का 4.65 प्रतिशत धन आवंटित हुआ था, जो 2014-15 में घटकर
4.20 प्रतिशत हो गया। वर्ष 2015-16 में यह और घटकर 3.23 प्रतिशत रह गया। वर्ष
2016-17 में बच्चों की बजट हिस्सेदारी में आंशिक वृद्धि हुई और उन पर कुल बजट की
3.35 प्रतिशत धनराशि खर्च करने का फैसला किया गया। इस अपर्याप्त हिस्सेदारी को
वर्ष 2017-18 में फिर घटाकर 3.30 प्रतिशत व वर्ष 2018-19 में 3.31 प्रतिशत कर दिया
गया। बजट में बच्चों की इस घटती हिस्सेदारी की बड़ी
वजह उनकी आवाज न होना माना जा रहा है। समाज के अन्य हिस्सों की आवाजें तो किसी न
किसी तरह से सरकारों तक पहुंचती हैं किन्तु बच्चों की चिंता करने वाले भी बजट में
उनकी हिस्सेदारी बढ़ाने की वकालत करते नहीं दिखते। वे वोटर भी नहीं होते, ताकि
अपनी उपेक्षा करने वाली सरकारों को वोट से जवाब दे सकें।
पिछले दो वर्षों से
देश के वित्तीय नियोजन की जिम्मेदारी एक महिला के हाथ में है। पिछले दो वर्षों से
बजट देश की पूर्णकालिक महिला वित्त मंत्री द्वारा पेश किया जा रहा है। एक महिला
होने के नाते वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन से बच्चों के लिए विशेष प्रावधानों की
उम्मीद थी। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू ये है कि ऐसा संभव न हो सका। यह स्थिति तब है, जबकि
देश के कई राज्यों में बच्चों के लिए अलग बजट जैसे प्रावधानों पर चर्चा हो रही है।
हाल ही में कर्नाटक की सरकार ने वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए अपने प्रस्तावित बजट
से अलग बच्चों के लिए विशेष बजट प्रस्तुत करने की तैयारी की है। इसके लिए विभिन्न
विभागों से बच्चों पर केंद्रित योजनाओं व कार्यक्रमों को चिह्नित करने के निर्देश
भी दिये जा चुके हैं। कर्नाटक में यदि बच्चों के लिए अलग बजट पेश किया गया तो ऐसा
करने वाला वह देश का चौथा राज्य होगा। केरल व असम में पहले से ही बच्चों के लिए
अलग बजट पेश किया जाता है। मौजूदा वित्तीय वर्ष में बिहार भी इस दिशा में पहल कर
चुका है। ऐसे में केंद्रीय स्तर पर बच्चों के लिए विशेष बजट जैसी पहल कर देश के
सभी राज्यों को सकारात्मक संदेश दिये जाने की जरूरत है। दरअसल जब बच्चों के लिए
अलग बजट की बात होती है, तो उसका आशय दो दर्जन से अधिक विभागों से जुड़ी उन लगभग
आठ दर्जन योजनाओं से है जो देश की चालीस प्रतिशत आबादी यानी बच्चों की चिंता से
जुड़ी होती हैं। इन योजनाओं में शिक्षा व स्वास्थ्य पर सर्वाधिक ध्यान देने की
जरूरत है। सरकारों के बड़े-बड़े दावों के बावजूद देश में बाल मृत्यु दर पर प्रभावी
नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। देश के एक तिहासी से अधिक बच्चे आज भी कुपोषण का
शिकार हैं। बच्चे घर से बाहर तक असुरक्षित हैं। इन सब स्थितियों के बावजूद बच्चे
सरकारों की वरीयता में नहीं हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। हमें अपनी नींव मजबूत
करनी होगी, तभी बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर सामने आ सकेगी।
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