डॉ.संजीव
मिश्र
भारतीय स्वातंत्र्य समर की स्मृतियों व नए भारत के सृजन की गाथाओं के
आलोक में मौजूदा समय अत्यधिक महत्वपूर्ण है। 2 अक्टूबर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
की 150वीं जयंती के साथ संकल्प का अवसर है, तो महात्मा गांधी द्वारा घोषित पहले
सत्याग्रही विनोबा भावे की जयंती के 125वें सोपान से जुड़े वर्षपर्यंत आयोजनों की
शुरुआत बीते 11 सितंबर को हो चुकी है। विनोबा राजनीति को लोकनीति बनाने के पक्षधर थे तो बापू जनाकांक्षाओं को सहेजे ग्राम
स्वराज लाने के हिमायती थे। बापू-विनोबा के इस वैचारिक संगम के साथ राजपथ को लोकपथ
की ओर मोड़ने का यह उपयुक्त समय है। देश-दुनिया में बापू के साथ विनोबा के विचारों
को समझाना भी राष्ट्र की बड़ी जिम्मेदारी है, जिसे नेताओं के साथ जनमानस सहित
लोकतंत्र के सभी स्तंभों को समझना होगा।
राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के साथ ही उनके वैचारिक अधिष्ठान के साथ जुड़े
लोगों तक भी निश्चित रूप से चर्चाएं होंगी। गांधी महज राजनीति के शलाका पुरुष नहीं
थे, वे अध्यात्म के चितेरे भी थे, जहां से सत्याग्रह का पथ प्रशस्त हुआ था। गांधी
रामराज्य का स्वप्न देखते थे और उनके इस स्वप्न के हमराह बने थे, विनोवा भावे। यह
संयोग ही है कि जब देश गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है, तभी विनोबा भावे की
125वीं जयंती के समारोह भी शुरू हुए हैं। गांधी की राजनीतिक विरासत भले ही पं.
जवाहर लाल नेहरू से शुरू होकर अब अन्य हाथों में चली गयी हो, किन्तु उनकी
आध्यात्मिक विरासत विनोबा भावे ने ही संभाली थी। गांधी ने ग्राम स्वराज की
परिकल्पना की, तो विनोबा ने उस पर अमल के लिए काम किया। आजादी के बाद पूरा देश
शांति के आगोश में नहीं था। महात्मा गांधी की हत्या के बाद उनकी राजनीतिक विरासत
पर तो काम शुरू हो गया था, किन्तु उनके सपनों के भारत पर काम करने वाले अनुयायी एक
तरह से दिशाहीन से हो गये थे। उस समय विनोबा भावे उम्मीद की किरण बनकर उभरे। ऐसा
स्वाभाविक भी था। दरअसल गांधी ने जब सत्याग्रह को अपने संघर्ष का शस्त्र बनाया तो
उन्होंने विनोबा को ही पहला सत्याग्रही करार दिया था। गांधी के जाने के बाद विनोबा
ने आंतरिक अनुशासन के लिए उस सत्याग्रह को शस्त्र बनाया। विनोबा का भूदान आंदोलन
एक संत का आंदोलन था। वह अधिक जमीन वालों से जमीन का एक हिस्सा मांगते थे, और लोग
खुशी-खुशी दे देते थे। विनोबा अपने गुरु महात्मा गांधी की तरह गोहत्या के खिलाफ थे
और 1979 में इसके लिए उन्होंने उपवास भी रखा था। यह वर्ष विनोबा की भावनाओं के
अनुरूप सत्याग्रह को आत्मसात करने का है।
विनोबा
ने जिस तरह महात्मा गांधी के बताए मूल्यों को आत्मसात किया, इस समय देश के सामने
उन मूल्यों की स्वीकार्यता की चुनौती भी है। 1948 में महात्मा गांधी की मृत्यु के
बाद उनके अनुयायी होने का दावा करने वाले और उनके नाम से जुड़कर राजनीति करने वाले
लोग बार-बार सत्ता में आते रहे। यही नहीं, जिन पर गांधी से वैचारिक रूप से दूर
होने के आरोप लगे, वे भी सत्ता में आए तो गांधी के सपनों से जुड़ने की बातें करते
रहे। गांधी के ग्राम स्वराज की बातें तो खूब हुईं किन्तु उनके सपनों को पूरा करने
के सार्थक प्रयास नहीं हुए। देखा जाए तो बीते 71 वर्षों में कदम-कदम पर बापू से छल
हुआ है, उनके सपनों की हत्या हुई है। उनकी परिकल्पनाओं को पलीता लगाया गया और उनकी
अवधारणाओं के साथ मजाक हुआ। बापू की मौत के बाद देश की तीन पीढ़ियां युवा हो चुकी
हैं। उन्हें बार-बार बापू के सपने याद दिलाए गए किन्तु इसी दौरान लगातार उनके सपने
रौंदे जाते रहे। बापू के सपने याद दिलाने वालों ने उनके सपनों की हत्या रोकने के
कोई कारगर प्रयास नहीं किये। आज भी यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि सरकारें तो
आती-जाती रहेंगी, किन्तु बापू कब तक छले जाते रहेंगे? महात्मा गांधी चाहते थे कि देश में सबका दर्जा
समान हो। 10 नवंबर 1946 को ‘हरिजन सेवक’ में उन्होंने लिखा, ‘हर व्यक्ति को अपने
विकास और अपने जीवन को सफल बनाने के समान अवसर मिलने चाहिए। यदि अवसर दिये जाएं तो
हर आदमी समान रूप से अपना विकास कर सकता है’। दुर्भाग्य से आजादी के सात दशक से
अधिक बीत जाने के बाद भी समान अवसरों वाली बात बेमानी ही लगती है। देश खांचों में
विभाजित सा कर दिया गया है। हम लड़ रहे हैं और लड़ाए जा रहे हैं। कोई जाति, तो कोई
धर्म के नाम पर बांट रहा है तो कोई इन दोनों से ही डरा रहा है। इन स्थितियों में
विनोबा की तरह गांधी के रास्ते पर चलकर ही राजपथ से लोकपथ की यात्रा की जा सकती
है। इस पर सत्ता से लेकर समाज तक पहल की जरूरत है। सकारात्मक पहल हुई तो सफलता
जरूर मिलेगी।
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