डॉ.संजीव
मिश्र
देश
में नयी लोकसभा के गठन के लिए मतदान प्रक्रिया समाप्त हो चुकी है। चुनाव परिणामों
के साथ ही अगले दो-तीन दिनों में सरकार का पथ प्रशस्त हो जाएगा। इसके बावजूद यह
चुनाव अपने वैशिष्ट्य के लिए याद किया जाएगा। दरअसल इस चुनाव ने किसी को भी नहीं
छोड़ा है। हर ओर लड़ाई-झगड़े, सच-झूठ के साथ विभेद-मतभेद के लिए जाना जाएगा 2019
का लोकसभा चुनाव। इस बार के चुनाव में नीति-नियंताओं ने सुरक्षा बलों तक को नहीं
छोड़ा और उन्हें आपस में लड़ा दिया। यह अलग बात है कि जिन सुरक्षा बलों को लेकर
आरोप-प्रत्यारोप के दौर चले, किसी को उनकी परवाह नहीं है।
हाल ही में सोशल मीडिया
पर वायरल एक फोटो इसकी गवाही दे रही है, जिसमें चुनावी थकान उतारने के लिए
सुरक्षाकर्मी एक-दूसरे के ऊपर लेटने को विवश हैं। खाकी
वर्दी पहने सैकड़ों सुरक्षाकर्मियों की एक ही कमरे में बंद होकर लेटने की विवशता
एक प्रतीक मात्र है। पूरे देश में चुनाव प्रक्रिया में जुटे लोग सत्ता
प्रतिष्ठानों के लिए महज संसाधन बन कर रह गए हैं। पश्चिम बंगाल में जिस तरह भाजपा
व तृणमूल कांग्रेस ने राज्य पुलिस व केंद्रीय सुरक्षा बलों पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए
हैं, उससे इन सुरक्षा बलों के मनोबल पर निश्चित रूप से प्रतिकूल असर पड़ा होगा।
सुरक्षा बलों को मिलने वाली सुविधाएं, पुलिस का तनाव कम करने के जतन भले ही किसी
राजनीतिक दल के चुनावी एजेंडे का हिस्सा नहीं थे, किन्तु उन पर दबाव बढ़ाने व हमला
करने जैसी घटनाएं पूरे चुनाव की गवाह बनीं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि
कश्मीर में चुनाव के दौरान आतंकी हिंसा से अधिक हिंसा की घटनाएं पश्चिम बंगाल में
हुईं और इसके लिए राजनीतिक दलों ने एक दूसरे पर ही प्रहार किये।
यह
चुनाव छवियों के धरातल पर जाने वाला भी रहा है। जिस तरह निष्पक्ष चुनाव की
जिम्मेदारी संभालने वाले चुनाव आयोग की छवि पर बट्टा लगा, वह भी हमेशा याद किया
जाएगा। चुनाव के बीच सजा देने में भेदभाव के आरोप तो लगे ही, चुनाव आयुक्तों के
बीच मतभेद भी मुखर होकर सामने आए। ऊटपटांग बयानों, मनगढ़ंत किस्सों व अराजक
टिप्पणियों के सामने चुनाव आयोग जिस तरह बेबस नजर आया, उससे एक बार फिर लोगों को
टीएन शेषन की याद आई। यह चुनाव जहां बौद्धिक स्तर पर राजनीतिक पतन के लिए जाना
जाएगा, वहीं उस पर नियंत्रण न लगा पाने चुनाव आयोग के लिए भी जाना जाएगा। एक तरह
से देखा जाए तो चुनाव ने आयोग की विश्वसनीयता से लेकर उसकी उपादेयता तक पर
प्रश्नचिन्ह लगाए हैं। किसी भी स्तर पर चुनाव आयोग उस पर लगे सवालों के जवाब भी
नहीं दे सका है।
चुनाव
के बाद सरकार किसी की भी बने, किन्तु पूरा चुनाव अभियान नए-पुराने समीकरणों व
विशिष्ट गुणा-गणित के लिए भी जाना जाएगा। उत्तर प्रदेश में धुर विरोधी समाजवादी
पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने अपने गिले-शिकवे मिटाकर झंडों के रंग मिलाने की
भरपूर कोशिश की। उत्तर प्रदेश का यह गठबंधन धरातल पर उतरने की उम्मीद किसी को नहीं
थी, किन्तु दो कदम तुम आगे बढ़ो-दो कदम हम पीछे चलें का भाव लाकर अखिलेश यादव व
मायावती ने इसे संभव किया। कांग्रेस ने इस गठबंधन से जुड़ने की भरपूर कोशिश की
किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। दिल्ली-पंजाब में कांग्रेस व आम आदमी पार्टी के बीच
गठबंधन की आतुरता भी इस चुनाव को याद रखेगी। जिस तरह दिल्ली जैसे राज्य में
कांग्रेस जैसी पार्टी को विधानसभा में शून्य तक पहुंचाने वाली आम आदमी पार्टी ने
कांग्रेस से ही गठबंधन के लिए पलक-पांवड़े बिछाए, लोग उसे भी नहीं भूलेंगे। चुनाव
खत्म होते-होते नए तरीके से गठबंधन के विस्तार की कोशिशों के लिए भी यह चुनाव खूब
याद किया जाएगा।
इस लोकसभा चुनाव में नारी सशक्तीकरण की बड़ी-बड़ी
बातों के बीच जिस तरह नारी शक्ति का घोषित अपमान हुआ है, वह भी नहीं भुलाया जा
सकेगा। राजनीतिक दिवालियापन इस हद तक बढ़ा कि महिलाओ के अंतःवस्त्रों के रंग तक
नेताओं ने बता दिये। किसी ने दिवंगत नेताओं पर हमले किये, तो किसी को पत्नी की चिंता
न करना याद आया। इस चुनाव ने गांधी से लेकर गोडसे तक की याद दिलाई और प्रायश्चित
के बड़े-बड़े यत्न करने के दावे भी सामने आए। राष्ट्रभक्ति की अनूठी परिभाषाओं के
लिए भी यह चुनाव जाना जाएगा। कई बार तो लगा कि समूची राष्ट्रभक्ति सिर्फ एक
विचारधारा में ही समाहित हो गयी है, वहीं कई बार बहुमत की विचारधारा देशद्रोही
बताई जाने लगी। पूरे चुनाव में मुद्दे लगभग गायब रहे। पुराने घोषणापत्रों पर अमल
का रिपोर्ट कार्ड सामने नहीं आया, तो नए वादों का फ्रेमवर्क सामने रखने की जरूरत
नहीं समझी गयी। अब जब कुछ दिनों में एक बार फिर देश की नयी लोकसभा सजेगी, नयी
सरकार सामने होगी, तो देखना होगा कि भारतीय सामाजिक सरोकारों को लेकर कितनी चिंता
सामने आती है। जनता की समस्याओं का समाधान कैसे मूर्त रूप लेगा और कैसे हर वर्ग को उसकी अपनी सरकार होने का एहसास होगा।
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