Thursday 9 May 2019

...क्योंकि ये वोटर नहीं है!


डॉ.संजीव मिश्र
लोकसभा चुनाव अभियान अपने अंतिम दौर में पहुंच रहा है। इस चुनाव में जीत के लिए सभी राजनीतिक दलों ने पूरी ताकत झोंक रखी है। उनका पूरा प्रचार अभियान विकास व जनमानस से जुड़े मुद्दों के स्थान पर जाति-धर्म और व्यक्तिविशेष की कटु-कुटिल आलोचनाओं तक केंद्रित हो चुका है। देश के 90 करोड़ के आसपास मतदाता सरकार चुनने की प्रक्रिया में इन सभी परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। इन सबके बीच देश के 45 करोड़ बच्चों-किशोरों की परवाह किसी को नहीं है। किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में ये बच्चे नहीं हैं। कहीं से उनकी चिंता के स्वर उठते नहीं दिखाई देते। ऐसे में यह सवाल उठना भी अवश्यंभावी है कि कहीं बच्चे व किशोर इसलिए तो उपेक्षित नहीं हैं, क्योंकि वे वोटर नहीं हैं?
भारत को दुनिया का सबसे युवा देश कहा जाता है। जिल संसद के एक सदन लोकसभा के लिए इस समय चुनाव चल रहे हैं, उसी संसद में प्रस्तुत आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट का दावा है कि अगले वर्ष (2020) तक भारत दुनिया का सबसे युवा देश होगा। दरअसल कहानी उसके बाद भी वैसी ही रहेगी। इस समय देश में 18 वर्ष से कम आयु वालों की आबादी भी 35 प्रतिशत के आसपास है। ये लोग अभी वोटर नहीं बन सके हैं किन्तु भविष्य के वोटर तो हैं ही। इसके बावजूद ये आबादी राजनीतिक दलों के एजेंडे में नहीं है। देश के दोनों प्रमुख दलों, भाजपा व कांग्रेस ने जनता के बीच जाकर अपना चुनावी एजेंडा तय करने का दावा किया था किन्तु किसी ने यह नहीं बताया कि वे कितने बच्चों के पास गए। दोनों दलों के घोषणा व संकल्प पत्रों में बच्चे कहीं दिखाई नहीं देते। दरअसल बच्चे व किशोर भारतीय राजनीति की वरीयता में हैं ही नहीं। वे तात्कालिक मतदाता होते नहीं हैं, इसलिए राजनेता उनकी परवाह करते नहीं हैं। सामान्य रूप से शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे मामले समग्रता में घोषणा पत्रों व वायदों का हिस्सा होते हैं किन्तु बच्चों व किशोरों के लिए विशेष रूप से कोई योजना सामने नहीं लाई जाती। इस चुनाव में भी कमोवेश ऐसा ही हुआ है। किसी भी राजनीतिक दल ने बच्चों की जरूरतों व अपेक्षाओं की पड़ताल नहीं की है। पूरे चुनाव अभियान में देश-दुनिया की तमाम बातें तो हो रही हैं किन्तु किसी राजनीतिक दल ने बच्चों के लिए अपनी योजनाओं का खुलासा नहीं किया है। दरअसल बच्चे भारतीय राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन ही नहीं पा रहे हैं।
बच्चों व किशोरों की इस समस्या को लेकर एक गैरसरकारी संगठन यूथ एलायंस ने एक बाल घोषणा पत्र निकालने की पहल की थी। इसके अंतर्गत वे स्कूल-स्कूल जाकर बच्चों से मिले और उनकी समस्याएं जानने की कोशिश की। इस दौरान बच्चों की तमाम ऐसी जरूरतें व मांगें सामने आयीं जो निश्चित रूप से राजनीतिक दलों व नेताओं की वरीयता सूची में ऊपर होनी चाहिए थीं, पर ऐसा नहीं हुआ। बच्चे अपने लिए कुछ बड़ा मांग भी नहीं रहे हैं। वे बस सुरक्षा, पर्यावरण, सांस्कृतिक विरासत, शिक्षा व आधारभूत ढांचागत क्षेत्र में सुधार की मांग ही कर रहे हैं। तमाम छात्राओं ने घर से बाहर तक अपने लिए सुरक्षित वातावरण व गैरबराबरी समाप्त करने की मांग की। यह बातें पहले भी उठती रही हैं किन्तु वरीयताओं में शामिल नहीं होती हैं और इस बार भी कहीं नहीं दिख रहीं। इसी तरह बच्चे चाहते हैं कि स्कूल उनके लिए और अच्छा स्थान बने। उनके बस्तों का बोझ कम हो, वहीं वे सामाजिक हिस्सेदारी की बात भी करते नजर आ रहे हैं। बच्चे चाहते हैं कि स्कूल में कोई उनकी पिटाई न करे। ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित हो, जिसमें सभी समान हों और किसी के साथ भेदभाव न किया जाए। एक बच्चे ने कहा कि वह सप्ताह में एक दिन यातायात सुधार को देना चाहता है। ऐसी पहल हो तो बच्चे उससे जुड़ेंगे। शहर के जाम व यातायात दुरावस्था से स्कूल पहुंचने में होने वाली देरी बच्चों का बड़ा मुद्दा है, किन्तु किसी राजनीतिक दल के एजेंडे में शहरों को जाम से मुक्त कराना नहीं दिखता। बच्चे धूम्रपान व शराबमुक्त वातावरण चाहते हैं किन्तु सरकारें ऐसा नहीं चाहतीं। नशाबंदी किसी भी दल के एजेंडे में नहीं दिखती और भारी भरकम राजस्व इसका बड़ा कारण बताया जाता है। बच्चे सड़क पर सुरक्षित रहना चाहते हैं। उन्हें अपनी व अपनों की सुरक्षा की गारंटी चाहिए, जिस पर कोई ध्यान देने वाला नहीं है। ढांचागत सुधार के तहत बच्चों ने पार्क, स्वीमिंग पूल, खेल के मैदान और सकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा मांगी है। बच्चों को पर्यावरण की चिंता भी है और वे साफ सुधरा भारत चाहते हैं।
ऐसी ही तमाम छोटी-छोटी मांगों के साथ बच्चे उम्मीद लगाए बैठे हैं कि सरकारें उनकी परवाह करेंगी। इसके बावजूद पूरे चुनाव अभियान में बच्चों की इच्छाएं कहीं दिखाई नहीं पड़ रही हैं। बच्चों का इस्तेमाल नारे लगाने के लिए तो कर लिया जाता है किन्तु किसी रैली में कोई भी नेता बच्चों के स्कूलों में शैक्षिक समानता की बात करता नहीं दिखता। कोई नहीं कहता कि बच्चों की समस्याओं को सुनने के लिए पुलिस का रवैया बदलेगा। कोई उनके बस्तों के बढ़ते बोझ का मुद्दा नहीं उठाता। किसी को उनके गुम होते खेल के मैदानों और बिना पार्कों के बस रहे नए-नए मोहल्लों के नियमन की चिंता नहीं है। यह सब इसलिए भी है क्योंकि नेताओं को उनसे सीधे वोट नहीं मिलने हैं। ऐसा करते समय नेता यह भूल जा रहे हैं कि यही बच्चे कुछ वर्षों बाद उनके मतदाता होंगे और तब लोकतंत्र के प्रति उनका जुड़ाव स्थापित न हो पाने कारण आज की यही उपेक्षा ही बनेगी।

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