Wednesday 29 May 2019

कठिन चुनौती है ‘सबका विश्वास’



डॉ. संजीव मिश्र
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सत्ता में वापसी तय हो चुकी है। देश के सत्ता शीर्ष पर बैठने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक को देश से जनादेश प्राप्त हो चुका है। ऐसे में मोदी की कही हर बात के बड़े मायने निकाले जा रहे हैं। नवनिर्वाचित सांसदों की पहली बैठक में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दिग्गजों की उपस्थिति में संघ के स्वयंसेवक प्रधानमंत्री ने इस बार अपने ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे को विस्तार दिया है। अब ‘सबका विश्वास’ हासिल करने पर जोर है। इस विश्वास में देश के अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के भरोसे की बात भी शामिल है। छवि और छलावे के वातावरण में प्रधानमंत्री के सामने ‘सबका विश्वास’ हासिल करना एक बड़ी व कठिन चुनौती है। अगले कुछ दिनों में इसका फ्रेमवर्क भी सामने आ जाएगा कि वे अपने इस संकल्प पर खरे उतरने के लिए क्या रुख अख्तियार करते हैं और उनकी पार्टी व समर्थक किस तरह उन्हें ऐसा करने देते हैं।
भारतीय जनता पार्टी के लिए मुसलमानों में अपने प्रति विश्वास पैदा करना भी बड़ी चुनौती है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब भाजपा की सरकार बनी थी, तब भी भाजपा के प्रति मुसलमानों का रुख बहुत सकारात्मक नहीं था। इतना जरूर था कि अटल बिहारी वाजपेयी के उदारमना व्यक्तित्व के कारण मुसलमानों में उनकी स्वीकार्यता थी। इसके विपरीत भाजपा का मौजूदा नेतृत्व मुसलमानों को खलनायक ही लगता है। उन्हें बार-बार गुजरात याद आता है, जहां मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री के रूप में लंबे अरसे तक काम कर चुके हैं और गृह मंत्री के रूप में मौजूदा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की भूमिका पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। ऐसे में ‘सबका विश्वास’ हासिल करने की प्रधानमंत्री की पहल संगठन से लेकर भाजपा समर्थकों के स्तर तक कितनी प्रभावी होगी, यह बेहद दुरूह प्रश्न बन गया है। संगठन के स्तर पर भाजपा को सिर्फ दिखावे के मुसलमानों से मुक्ति पाकर मुसलमानों के बीच सच्ची पैठ बनानी होगी। भाजपा नेताओं के बड़बोलेपन पर भी प्रभावी नियंत्रण लगाना चुनौती भरा ही होगा।
यह तो तय है कि मौजूदा परिस्थितियों में मुसलमान भाजपा को अपना सबसे बड़ा दुश्मन जैसा ही मानते हैं। जो नहीं भी मानते हैं तो अन्य राजनीतिक दल उनका वोट पाने के लिए ऐसा वातावरण बना देते हैं। यही कारण है कि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में छह मुसलमान प्रत्याशी जीते हैं और वे वहीं जीते हैं, जहां मुस्लिम आबादी भरपूर है। यह स्थितियां ध्रुवीकरण को बढ़ावा देती हैं और परिणाम 2014 लोकसभा चुनाव जैसे हो जाते हैं, जब उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से एक भी मुसलमान सांसद लोकसभा तक नहीं पहुंच सका था। इसमें भाजपा को अपने हिस्से की चिंता ज्यादा करनी होगी। 2014 व 2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 में से एक भी सीट पर भाजपा ने मुसलमान प्रत्याशी नहीं उतारा था। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी यही स्थिति रही थी। राष्ट्रीय स्तर पर हालिया लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सात मुसलमानों को टिकट दिया, जिसमें से बस एक ही जीत सका। इन स्थितियों में ‘विश्वास’ की डोर मजबूत करने की पहल दोनों ओर से करनी पड़ेगी। ऐसा न होने पर मुसलमान सिर्फ डरने-डराने की ‘सामग्री’ बन कर रह जाएंगे।
भाजपा और मुसलमानों के रिश्ते की चर्चा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चर्चा के बिना अधूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुसलमानों के बारे में बात करते समय लोग हमेशा संघ के द्वितीय सर संघ चालक एमएस गोलवलकर की किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ का जिक्र कर उनके मुसलमान विरोधी होने का दावा करते हैं। जिस तरह देश आगे बढ़ रहा है, हमें मौजूदा संदर्भों के प्रति समावेशी होना पड़ेगा। समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं। संघ प्रमुख के पचास साल पुराने बयान तो हमें याद दिलाए जा रहे हैं, पर उसी संघ ने मुस्लिम जागरण मंच नामक संगठन बनाकर मुसलमानों के बीच पांव पसारने की पहल की है, हमें यह भी याद रखना होगा। जिस तरह भारतीय जनता पार्टी संघ परिवार का हिस्सा है, उसी तरह मुस्लिम जागरण मंच भी संघ परिवार का हिस्सा है और संघ के प्रचारक इस संगठन के माध्यम से मुसलमानों के बीच अपनी बात रखने की कोशिश कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी यदि सही अर्थों में ‘सबका विश्वास’ की अवधारणा पर अमल करना चाहते हैं, तो उन्हें वैचारिक स्तर पर भी बदलाव की कोशिशें करनी होंगी। भाजपा को यह सोचना बंद करना होगा कि उन्हें मुसलमानों के वोट नहीं मिल सकते और मुसलमानों को उनसे परहेज की राह से वापस लौटना होगा।
सरकार में रहकर ‘सबका विश्वास’ पाने के कुछ और रास्ते भी हो सकते हैं। आजादी के बाद अल्पसंख्यकों के उन्नयन के लिए अलग मंत्रालय से लेकर उनके आर्थिक विकास के लिए अलग निगम तक बनाए गए। तमाम बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुईं, किन्तु उन पर अमल नहीं हुआ। भाजपा का दावा है कि पिछले पांच साल में मदरसों के आधुनिकीकरण से लेकर मुसलमान बच्चों की शिक्षा व्यवस्था मजबूत करने तक तमाम कोशिशें की गयी हैं। अगले पांच साल के कार्यकाल में इस ओर विशेष ध्यान देना होगा। जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावी जीत के बाद के अपने भाषण में जाति प्रथा उन्मूलन के साथ गरीबी को सबसे बड़ी जाति के रूप में परिभाषित किया है, उससे भी उम्मीदें बढ़ी हैं। यदि गरीबी उन्मूलन की सकारात्मक योजनाएं मुसलमानों तक पहुंचीं, तो ‘सबका विश्वास’ पाना कठिन नहीं होगा। भरोसे की यह डोर मजबूत हुई तो पूरा देश लाभान्वित होगा, जिसमें भाजपा व मुसलमान सभी शामिल होंगे।

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