Wednesday 15 May 2019

गालियों के शोर में नारे हुए बेचारे


डॉ. संजीव मिश्र
सोइ सयान जो परधन हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना।
कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥
गोस्वामी तुलसीदास ने इन पंक्तियों के माध्यम से कलियुग के नेतृत्व को परिभाषित किया था। वे कहते हैं, जो (जिस किसी प्रकार से भी) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचरणवान है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है। मौजूदा लोकसभा चुनाव तुलसी की इन पंक्तियों की भरपूर गवाही दे रहा है। भष्टाचार, अराजता, बड़बोलेपन जैसी स्थितियां योजनाओं व विचारों की अभिव्यक्ति पर भारी पड़ रही हैं। कुछ साल पहले तक चुनाव के दौरान नए-नवेले नारे उछाले जाते थे, किन्तु इस बार गालियों के शोर में नारे गुम हैं और अपनी बेचारगी पर आंसू बहा रहे हैं।
लोकसभा चुनाव अभियान अब समापन की ओर है। बस अंतिम चरण का मतदान बाकी है और सभी राजनीतिक दल इसे अपने पक्ष में करने के लिए प्राणपण से जुटे हैं। इस बार का पूरा चुनाव अभियान जबर्दस्त वैविध्य लिए हुए नजर आया है। भारतीय लोकतंत्र की शुचिता को समर्पित दावे करने वाले राजनीतिक दल इस पूरे चुनाव अभियान में बार-बार शुचिता को तार-तार करते नजर आए। छल-दंभ-द्वेष-पाखंड-झूठ से दूर रहने की प्रार्थना करने वाला यह देश हर कदम पर दंभी राजनीतिज्ञों के आपसी द्वेष व पाखंड जनित झूठ के छल का शिकार नजर आया। महिलाओं के अंतःवस्त्रों के रंग से लेकर मृत्यु के बाद राजनेताओं को घसीटे जाने और उन पर किये एहसानों की फेहरिश्त सामने लाने जैसे बयान भी इस चुनाव ने देखे-सुने। एक-दूसरे पर कटाक्ष तो सामान्य बात है, व्यक्तिगत प्रहार भी खुलकर सामने आए। जातियों का असली-नकली स्वरूप देश ने जाना तो देश को आगे रखने के स्थान पर स्वयं को पीछे रखने या कहें तो पिछड़ा बताने की होड़ भी दिखी। जनता असली-नकली के छलावे में फंसती दिखी। कहीं महिलाओं के खिलाफ अश्लील पर्चे बंटे तो कहीं एसी कार में बैठे सितारे डुप्लीकेट से काम चलाते दिखे। भाषणों में थप्पड़ों के प्रहार तो हुए ही, हिंसा में राजनीतिक दलों की संलिप्तता भी स्पष्ट रूप में सामने आयी।
इस चुनाव की ये कहानियां हमेशा याद की जाएंगी। इसके अलावा जिस तरह इस चुनाव में मुद्दे व मुद्दों पर आधारित नारे गायब रहे, इसकी चर्चाएं भी भविष्य में खूब होंगी। अभी हम पुराने चुनावों की चर्चा करते हैं तो तमाम नारों के साथ मुद्दे याद आते हैं। देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 में ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था, जो उनकी मृत्यु के बाद 1967 में हुए लोकसभा चुनावों में भी छाया रहा। पिछली सदी का सातवां दशक और उस दौरान हुए चुनाव मुद्दा आधारित नारों के लिए खूब याद किये जाते हैं। कांग्रेस के मुकाबले उस दौरान समाजवादी आंदोलन मुखर हो रहा था, वहीं दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा जनसंघ के रूप में पुष्पित-पल्लवित हो रही थी। समाजवादियों के लिए डॉ.राममनोहर लोहिया ने ‘सोशलिस्टों ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ नारा देकर अपनी विचारधारा प्रस्तुत की, जिसे लोगों ने सहेजा भी। राजनीतिक दलों के बीच आपसी हमले तब भी होते थे, किन्तु तब उनका तरीका सौम्य था और माध्यम नारे बनते थे। उस समय कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी था, वहीं जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था। ऐसे में जनसंघ ने ‘जली झोपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल’ नारा देकर कांग्रेस पर हमला किया, जिसके जवाब में कांग्रेस ने ‘इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं’ नारे से जनसंघ को चुनौती दी थी। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ नारे के साथ जीत पाई, तो 1977 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नारे ‘इंदिरा हटाओ देश बचाओ’ ने कांग्रेस का पत्ता साफ करने की मुहिम को सफलता दिलाई थी।
राजनीति के मौजूदा कलुषित वातावरण में एक दूसरे के खिलाफ कुछ भी बोल देने की जिद भी साफ नजर आ रही है। ऐसा नहीं है कि पहले सीधे हमले नहीं होते थे। आपातकाल में जबरन नसबंदी जैसे तमाम मुद्दे खुल कर नारों की शक्ल में जनता तक पहुंचाए गए। उस दौरान ‘जमीन गई चकंबंदी में, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मेरा मर्द गया नसबंदी में’ जैसा नारा पूरी व्यवस्था पर हमला कर रहा था, तो इंदिरा गांधी पर हमले के लिए ‘जगजीवन राम की आई आंधी, उड़ जाएंगी इंदिरा गांधी’ और ‘आकाश से नेहरू कहें पुकार, मत कर बेटी अत्याचार’ जैसे नारे लगाए गए। पिछले कुछ चुनावों में लोकतंत्र पर धनबल का प्रहार तेज हुआ है। राजनेता जनता से सीधे संवाद के स्थान पर धन खर्च कर जनता से जुड़ने की कोशिश करते हैं। धर्म, जाति व व्यक्ति विशेष पर हमले कर वातावरण बनाया जाता है। राजनीतिक दलों का पूरा फोकस जनता की भावनाओं से खेलने पर है। ऐसा करने से उन्हें विकास से जुड़ी बातों की परवाह नहीं करनी पड़ती। सत्ताधारी दल को अपने वादे याद नहीं रखने पड़ते और विपक्ष बड़े वादों से बच जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पूरे चुनावी अभियान में जनता से जुड़े मुद्दे उठ ही नहीं पाए। सत्तापक्ष व विपक्ष, दोनों ने ही महज आरोप-प्रत्यारोप में पूरा अभियान निकाल दिया है। देखना है कि जनता इसका कैसे जवाब देती है, क्योंकि यह पब्लिक है यह सब जानती है।

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