डॉ.संजीव मिश्र
बात 1984 की है। देश के पहले
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की जन्मभूमि और दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर
शास्त्री को लोकसभा पहुंचाने वाली इलाहाबाद (अब
प्रयागराज) लोकसभा सीट के लिए कांग्रेस ने सुपर स्टार
अमिताभ बच्चन को चुनाव मैदान में उतार दिया था। सामने थे, उत्तर
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा। एक राजनीतिक सितारे और फिल्मी
सितारे के बीच हुए इस ‘स्टार वार’ में बाजी मारी फिल्मी सितारे
अमिताभ बच्चन ने। इसके बाद देश की राजनीति में यह सिलसिला तेज हो चला। फिल्मी
सितारों के साथ राजनेताओं के परिवार भी तेजी से राजनीति में जगह बनाने लगे। 2019 का
लोकसभा चुनाव तो इसकी बड़ी बानगी बन गया है। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं पर
स्टार और परिवार भारी पड़ रहा है और कार्यकर्ता बेचारा बनकर दरी बिछा रहा है।
इस समय पूरे देश में लोकसभा चुनाव अपने चरम पर
है। मतदान के चार चरण पूरे हो चुके हैं और सरकार बनने की गणित पर चर्चाएं तेज हो
गयी हैं। इस बीच प्रत्याशियों की घोषणा ने राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं को
सर्वाधिक निराश किया है। देश के हर जिले में औसतन एक या दो लोकसभा क्षेत्र होते
हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के लिए लोकसभा की टिकट पाना सपने जैसा
होता है। वे राजनीतिक सक्रियता की सबसे छोटी इकाई बूथ या वार्ड से राजनीति की
शुरुआत करते हैं और वर्षों बीत जाने पर जिले की इकाई तक पहुंच पाते हैं। इसके बाद
जब वे लोकसभा या विधानसभा का टिकट चाहते हैं तो उन्हें कार्यकर्ताओं के बीच अपनी
सक्रियता के मापदंड पर नहीं, बल्कि बाहर से किसी के आ
जाने की मजबूरी पर अपनी दावेदारी छोड़नी पड़ जाती है। वे खुल कर कहते भी हैं कि
कार्यकर्ताओं के बीच उनकी सक्रियता मापदंड बने और उनसे ज्यादा योग्य व सक्रिय
कार्यकर्ता को टिकट दिया जाए, तो शायद कम खराब लगे।
वास्तव में होता इसका उलटा है। कभी किसी बड़े नेता के पुत्र, पत्नी, भाई
या साले सहित किसी परिजन को टिकट देकर कार्यकर्ताओं को उसे लड़ाने का संदेश दे
दिया जाता है, तो कभी कोई फिल्मी या टेलीविजन सितारा आकर
उनकी टिकट बांट लेता है। अब तो खेलों के सितारे भी लोकसभा पहुंचने के दावेदार होने
लगे हैं।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में
कार्यकर्ताओं पर परिवार व सितारों का जोर कुछ ज्यादा ही चल रहा है। हर राजनीतिक दल
ने खुलकर कार्यकर्ताओं पर नेताओं के परिजनों व सितारों को जमकर तरजीह दी है।
कांग्रेस में सोनिया गांधी, राहुल गांधी व अब प्रियंका
गांधी को लेकर परिवारवाद के आरोप लगते रहे हैं, किन्तु
इस चुनाव में कोई दल पीछे नहीं नजर आ रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान की
पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत, उत्तर
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पूत्र राजवीर व हिमाचल प्रदेश के
पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पुत्र अनुराग ठाकुर को टिकट दिया है, तो
कांग्रेस ने राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पुत्र वैभव व मध्य
प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के पुत्र नकुल को चुनाव मैदान में उतारा है। परिवारों
की राजनीति का शिकार पूरे देश व सभी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं। पंजाब में
बादल परिवार हो या हरियाणा का हुड्डा व
चौटाला परिवार और बिहार में रामविलास पासवान का कुनबा, परिवार
का टिकट ही इन दलों को जीत की गारंटी लगता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति देखें तो
यहां पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी बस उन्हीं पांच सीटों पर जीत सकी थी, जहां
से मुलायम सिंह यादव के परिजन चुनाव लड़े थे, और
कांग्रेस भी वही दो सीटें जीत पाई, जहां से गांधी परिवार के
सोनिया व राहुल चुनाव मैदान में थे। इस बार भी सभी दलों ने कार्यकर्ताओं पर
परिजनों को तवज्जो दी है और कार्यकर्ता बेचारा बनकर उनकी जिंदाबाद के नारे लगाने
को विवश है।
यह चुनाव तो परिवार से आगे
सितारों की भीड़ तक पहुंच गया है। देश की राजधानी दिल्ली को लें, तो
भाजपा ने पिछले चुनाव में तमाम कार्यकर्ताओं को पीछे छोड़कर पूर्वांचल के वोटों के
मद्देनजर मनोज तिवारी को टिकट दिया और फिर दिल्ली भाजपा की कमान भी सौंप दी। इस
बार इसमें विस्तार हुआ और हंस राज हंस के रूप में एक गायक और गौतम गंभीर के रूप
में एक क्रिकेट का सितारा मिल गया। इस तरह भाजपा ने दिल्ली की सात सीटों में से
तीन सीटों पर फिल्म व क्रिकेट के सितारे मैदान में उतारे तो एक सीट पूर्व
मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश को दी है। कांग्रेस ने भी यहां एक
खेल सितारे, बॉक्सर विजेंद्र सिंह को मैदान में उतारा है।
परिवार व स्टाऱडम का मिश्रण भी इस चुनाव में देखने को मिल रहा है। फिल्म स्टार
शत्रुघ्न सिन्हा कांग्रेस की टिकट पर बिहार में पटना से तो उनकी पत्नी पूनम उत्तर
प्रदेश में लखनऊ से समाजवादी पार्टी की टिकट पर मैदान में हैं। पश्चिम बंगाल में
आम आदमी के सरोकारों पर फोकस करने वाली ममता बनर्जी ने भी भाजपाई सितारे बाबुल
सुप्रियो के मुकाबले अभिनेत्री मुनमुन को मैदान में उतारा है। अब सिर्फ बॉलीवुड के
सितारे ही राजनीतिक दलों के प्रिय नहीं हो रहे हैं, बल्कि
क्षेत्रीय सिनेमा व छोटे पर्दे के सितारे भी टिकट पा रहे हैं। निरहुआ से लेकर
रविकिशन तक इसके उदाहरण हैं। ये सब अचानक चुनाव लड़ने पहुंच जाते हैं और
कार्यकर्ता फिर बेचारा बनकर रह जाता है।
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