Saturday, 26 December 2020

...तो नाली-सड़क की चिंता कौन करेगा?

डॉ.संजीव मिश्र

बात पिछले वर्ष जुलाई माह की है। भारतीय जनता पार्टी की सांसद साध्वी प्रज्ञा ने कहा था कि वे नाली व शौचालय साफ करने के लिए सांसद नहीं बनी हैं। इसको लेकर खासी चर्चा तो हुई थी, किन्तु यह तथ्य बहुत गलत नहीं माना गया था। दरअसल ये काम स्थानीय निकायों के जिम्मे हैं और सांसदों-विधायकों के हस्तक्षेप से उन निकायों के प्रतिनिधियों के कामकाज में रुकावट आती है। साध्वी प्रज्ञा ने यह बयान भले ही दे दिया हो, किन्तु अब हर चुनाव को राष्ट्रीय चश्मे से देखा जाने लगा है। अब नगर निगम व जिला परिषद चुनावों को भी राष्ट्रीय नेतृत्व की नीतियों का परिणाम माना जाने लगा है। यह स्थितियां लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण की दृष्टि से अच्छी नहीं मानी जा सकतीं। यदि हैदराबाद से जम्मू-कश्मीर तक, स्थानीय चुनाव भी राष्ट्रीय मुद्दों वाले चुनाव हो जाएंगे तो स्थानीय समस्याओं के प्रति जवाबदेही भी घटेगी। ऐसे में यह सवाल उठना अवश्यंभावी है कि नाली-सड़क की चिंता कौन करेगा?

ग्राम पंचायत चुनाव हो या देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी लोकसभा का चुनाव हो, देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को इन चुनावों के प्रति गंभीर होना चाहिए, इसमें कोई संशय नहीं है। यहां जरूरी यह है कि स्थानीय स्तर के चुनावों में मुद्दे भी स्थानीय स्तर के होने चाहिए। जम्मू-कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति के बाद हाल ही में जिला विकास परिषदों के चुनाव कराए गए। इन चुनावों में कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी के अलावा स्थानीय दलों ने गुपकार गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा। इन चुनावों के परिणाम की खास बात यह है कि उनसे सभी लोग खुश नजर आ रहे हैं। इस खुशी के पीछे का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि स्थानीय विकास की अवधारणा सामने रखकर जिला विकास परिषदों के गठन की बात तो कही गयी किन्तु चुनाव परिणाम आने के बाद हर राजनीतिक दल इन परिणामों के राष्ट्रीय निहितार्थ तलाश रहा है। चुनाव परिणाम भी बहुत अधिक चौंकाने वाले नहीं कहे जा सकते। जम्मू व आसपास के इलाकों में भारतीय जनता पार्टी आगे रही है तो कश्मीर घाटी में गुपकार गठबंधन ने विजयध्वजा फहराई है। कश्मीर घाटी में जीतने के बाद महबूबा मुफ्ती व उमर अब्दुल्ला सहित गुपकार गठबंधऩ के सभी नेता इन चुनाव परिणामों को धारा 370 समाप्ति की अस्वीकार्यता के रूप में परिभाषित कर रहे हैं। इसके विपरीत घाटी में पहली बार तीन सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी चुनाव परिणामों को अपनी स्वीकार्यता के रूप में परिभाषित कर रही है। कांग्रेस सहित भाजपा विरोधी दलों के नेता भारतीय जनता पार्टी के घाटी में महज तीन सीटों पर सिमटने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों के विरोध में जनादेश मान रहे हैं, वहीं भाजपा के नेता समग्र जम्मू-कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों की जीत करार दे रहे हैं। इस खींचतान के परिणाम स्वरूप जिला स्तर का चुनाव राष्ट्रीय नीतियों के शोर में दब सा गया है।

स्थानीय चुनावों को राष्ट्रीय मुद्दों से जोड़कर वातावरण निर्माण की कोशिश कोई पहली बार नहीं हो रही है। पिछले कुछ वर्षों से स्थानीय चुनावों को राष्ट्रीय बनाकर प्रस्तुत करने और फिर पूरा वातावरण बदल देने की कोशिशें चल रही हैं। हाल ही में हैदराबाद के नगर निगम चुनावों को जिस तरह राष्ट्रीय रूप दिया गया, वह भी ऐसी ही कोशिशों का हिस्सा था। हैदराबाद नगर निगम चुनावों को भारतीय जनता पार्टी ने एक तरह से प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। यही कारण है कि वहां नगर निगम चुनाव के लिए चुनाव प्रचार करने भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ही नहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक को भेजा गया। वहां पार्षद की जीत को प्रधानमंत्री की नीतियों की जीत बनाकर प्रस्तुत किया गया। ऐसे में यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि यदि हैदराबाद नगर निगम का पार्षद प्रधानमंत्री की नीतियों के कारण जीत सकता है, तो कश्मीर घाटी के जिला विकास परिषद के सदस्य के रूप में भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी की हार को किस रूप में स्वीकार किया जाए।

स्थानीय चुनावों का राष्ट्रीयकरण लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण की मूल भावना के विपरीत ही है। पंचायती राज की स्थापना के पीछे विधानसभा व लोकसभा से हटकर स्थानीय विकास का नियोजन स्थानीय स्तर पर करना ही रहा है। नगर निगम व पंचायत चुनावों के मुद्दे भी इसीलिए स्थानीय ही रहने चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह पंचायतों से लेकर जिला व नगर स्तरीय निकायों के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों पर फोकस किया जाने लगा है, वह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र की स्थापना के भाव के साथ खिलवाड़ करना भी है। स्थानीय चुनावों के राष्ट्रीयकरण से ये चुनाव महंगे भी हो रहे हैं। जिस तरह अब एक सामान्य व्यक्ति विधानसभा या लोकसभा चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकता, क्योंकि इन चुनावों में प्रत्याशिता का मतलब करोड़ों रुपये खर्च के रूप में सामने आता है। उसी तरह यदि स्थानीय चुनावों में राष्ट्रीय हस्तक्षेप कम न हुआ तो ये चुनाव भी महंगे हो जाएंगे। इसके बाद स्थानीय स्तर पर नियमित सक्रिय रहने वालों के लिए ये चुनाव लड़ना खासा कठिन हो जाएगा। इस पर सबको मिलकर विचार करना होगा, वरना इतनी देर हो जाएगी कि हम स्थितियां संभाल नहीं पाएंगे।

Friday, 18 December 2020

2020 संग कलाम के सपनों की विदाई !!

डॉ.संजीव मिश्र 

वर्ष 2020 की शुरुआत के साथ ही हमने इक्कीसवीं शताब्दी के बीसवें वर्ष की यात्रा शुरू कर दी थी। भारत में बीसवीं शताब्दी की समाप्ति से पहले से ही वर्ष 2020 बेहद चर्चा में था। दरअसल भारत रत्न डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम ने बदलते भारत के लिए वर्ष 2020 तक व्यापक बदलाव का सपना देखा था। इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बाद भी उन सपनों को विस्तार दिया गया। ऐसे में 2020 के स्वागत के साथ हमें कलाम के तमाम सपने भी याद आए। अब 2020 की विदाई की बेला आई है और साथ ही कलाम के सपने भी विदा हो रहे हैं। कोरोना संकट और शाहीनबाग से किसान आंदोलन तक की यात्रा सहेजे इस वर्ष ने अर्थव्यवस्था की चुनौतियों, देश के सर्वधर्म सद्भाव के बिखरते ताने-बाने की चिंताओं और देश की मूल समस्याओं से भटकती राजनीति को विस्तार ही दिया है। इसके परिणास्वरूप कलाम के सपने बिखर से गए हैं।

वर्ष 2020 की शुरुआत में ही देश संभावनाओं के साथ चुनौतियों की पूरी फेहरिश्त लिए खड़ा था।  पूरी दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था बनने का स्वप्न लेकर चल रहा भारत अर्थव्यवस्था की कमजोरी से जुड़े संकटों का सामना कर रहा था। बेरोजगारी ने पिछले कुछ वर्षों में कई नये पैमाने गढ़े ही थे, ऊपर से कोरोना का संकट आ गया। रोजगार के अवसर पहले ही कम हुए थे और तमाम ऐसे लोग बेरोजगार होने को विवश हुए, जो अच्छी-खासी नौकरी कर रहे थे। इन चुनौतियों के स्थायी समाधान पर चर्चा व विमर्श तो दूर की बात है, पूरे देश में धार्मिक सद्भाव के ताने-बाने में बिखराव के दृश्य आम हो गए हैं। कहीं लव जेहाद के नारे लग रहे हैं, तो कहीं धार्मिक राजनीतिक ध्रुवीकरण कर संविधान के मूल भाव को चुनौती दी जा रही है।  हमारी चर्चाएं हिन्दू-मुस्लिम केंद्रित हो चुकी हैं। कोरोना संक्रमण के दौर में कारणों की पड़ताल तक धर्म आधारित हो गयी थी।

डॉ.कलाम ने वर्ष 2020 तक भारत की जिस यात्रा का स्वप्न देखा था, उसमें हम काफी पीछे छूट चुके हैं। कलाम ने इक्कीसवीं सदी के शुरुआती बीस वर्षों में ऐसे भारत की कल्पना की थी, जिसमें गांव व शहरों के बीच की दूरियां खत्म हो जाएं। ग्रामीण भारत व शहरी भारत की सुविधाओं में तो बराबरी के प्रयास नहीं किये, गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ाया। खेती पर फोकस न होने से कृषि क्षेत्र से पलायन बढ़ा, जिससे गांव खाली से होने लगे। कलाम ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जहां कृषि, उद्योग व सेवा क्षेत्र एक साथ मिलकर काम करें। वे चाहते थे कि भारत ऐसा राष्ट्र बने, जहां सामाजिक व आर्थिक विसंगतियों के कारण किसी की पढ़ाई न रुके। 2020 के समाप्त होने तक तो हम इस परिकल्पना के आसपास भी नहीं पहुंच पाए हैं, ऐसे में चुनौतियां बढ़ गयी हैं। किसान से लेकर विद्यार्थी तक परेशान हैं और उनकी समस्याओं के समाधान का रोडमैप तक ठीक से सामने नहीं आ पाया है।

कलाम के सपनों का भारत 2020 तक ऐसा बन जाना था, जिसमें दुनिया का हर व्यक्ति रहना चाहता हो। उन्होंने ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी, जो विद्वानों, वैज्ञानिकों व अविष्कारकों की दृष्टि में सर्वश्रेष्ठ निवास स्थान बने। इसके लिए वे चाहते थे कि देश की शासन व्यवस्था जवाबदेह, पारदर्शी व भ्रष्टाचारमुक्त बने और सभी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य सुविधाएं समान रूप से उपलब्ध हों। ये सारी स्थितियां अभी तो दूरगामी ही लगती हैं। देश आपसी खींचतान से गुजर रहा है। यहां स्वास्थ्य सेवाएं आज भी अमीरों-गरीबों में बंटी हुई हैं। नेता हों या अफसर, न तो सरकारी अस्पतालों में इलाज कराना चाहते हैं, न ही अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई पहले अधिक चौड़ी हो गयी है। यह स्थिति तब है कि वर्ष 2020 के लिए अपने सपनों को साझा करते हुए उन्होंने देश को गरीबी से पूरी तरह मुक्त करने का विजन सामने रखा था। वे कहते थे कि देश के 26 करोड़ लोगों को गरीबी से मुक्त कराना, हर चेहरे पर मुस्कान लाना और देश को पूरी तरह विकसित राष्ट्र बनाना ही हम सबका लक्ष्य होना चाहिए। वे इसे सबसे बड़ी चुनौती भी मानते थे। उनका कहना था कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें साधारण मसलों को भूलकर, एक देश के रूप में सामने आकर हाथ मिलाना होगा। कलाम ने ऐसे भारत का स्वप्न देखा था, जिसके नागरिकों पर निरक्षर होने का कलंक न लगे। वे एक ऐसा राष्ट्र चाहते थे जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से पूरी तरह मुक्त हो और समाज का कोई भी व्यक्ति खुद को अलग-थलग महसूस न करे। कलाम के विजन 2020 का यह वह हिस्सा है, जो पिछले कुछ वर्षों में सर्वाधिक आहत हुआ है। साक्षरता के नाम पर हम शिक्षा के मूल तत्व से दूर हो चुके हैं। महिलाओं व बच्चों का सड़क पर निकलना दूभर हो गया है। वे असुरक्षित हैं और यह बार-बार साबित हो रहा है। समाज में जुड़ाव के धागे कमजोर पड़ चुके हैं और न सिर्फ कुछ व्यक्ति, बल्कि पूरा समाज ही अलगाव के रास्ते पर है। ऐसे में 2020 के बाद ही सही, हमें विचार करना होगा कि हम कलाम के दिखाए सपने और उस लक्ष्य से कितना पीछे रह चुके हैं। हमें मिलकर उस सपने को साकार करने के लिए कदम उठाने होंगे।


Friday, 4 December 2020

अविश्वास व डर तो दूर करो सरकार

डॉ.संजीव मिश्र

कभी सीएए और एनआरसी से डरे लोग एक सड़क जाम कर बैठ जाते हैं और देश का बड़ा हिस्सा उनके साथ खड़ा दिखता है। कभी अपनी खेती जाने और कृषि कार्य में संकट बढ़ जाने का डर बताते किसान दिल्ली सीमा पर सड़क जाम कर बैठ जाते हैं और फिर देश का वही हिस्सा उनके साथ खड़ा दिखता है। दोनों स्थितियों मे देश का दूसरा बड़ा हिस्सा इन आंदोलनों के विरोध में जुट जाता है। वह भी इस हद तक कि देश के युवा हों या किसान, सब उन्हें आतंकवादी तक लगने लगते हैं। जाम लगाने वाले व आंदोलन करने वालों के बीच भी कुछ ऐसे लोग पहुंच जाते हैं, जो इस डर को दहशत में तब्दील करने का अवसर दे देते हैं। यह स्थितियां देश के भीतर वैचारिक विभाजन से ऊपर मानसिक विभाजन की स्थितियां सृजित कर रही हैं। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह देश की जनता के मन में किसी भी तरह का अविश्वास न रहने दे और हर प्रकार का डर दूर करे। मौजूदा स्थितियों में भी किसानों के मन से डर निकालकर अन्नदाता के साथ विश्वास का रिश्ता कायम किया जा सकता है।

पिछले एक सप्ताह से देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर किसानों ने डेरा डाल रखा है। दिल्ली पहुंचने से पहले जो आंदोलन किसानों के समग्र विरोध का परिणाम लग रहा था, दिल्ली पहुंचते ही इस आंदोलन के साथ लोग शाहीन बाग को याद करने लगे हैं। जिस तरह शाहीन बाग में महिलाएं डेरा डालकर बैठी थीं और केंद्र सरकार विरोधी उस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे, उसी तरह किसान आंदोलन भी नजर आने लगा है। फर्क सिर्फ इतना है कि शाहीन बाग आंदोलन के दौर में केंद्र सरकार वार्ता के लिए इस हद तक उत्साहित नहीं नजर आ रही थी, जिस तरह से इस बार प्रयास हो रहे हैं। सरकार और किसानों के बीच बातचीत की पहल भले ही हुई हो किन्तु देश एक बार फिर दो हिस्सों में बंटा नजर आ रहा है। जिस तरह से शाहीनबाग में नारेबाजी के कुछ वीडियो आंदोलनकारियों को देशद्रोही साबित करने की कोशिश का सबब बने थे, उसी तरह किसान आंदोलन के दौरान एक वीडियो आंदोलनकारियों को खालिस्तानी तक साबित करने का कारण बन गया है। किसी भी आंदोलन की इस तरह की विभाजनकारी परिणति देश के लिए चिंताजनक है और इस समय वही स्थितियां साफ नजर आ रही हैं। सोशल मीडिया इसमें और तेजी से आग लगाने का काम कर रहा है।

दोनों स्थितियों में भय व अविश्वास सबसे महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। शाहीनबाग के आंदोलनकारियों के मन में अपनी नागरिकता बची रहने का भय व्याप्त था और वे इसे ही मुद्दा बनाकर आंदोलन कर रहे थे। अब किसानों को अपनी फसल के लिए उचित मूल्य न मिल पाने और बड़े उद्योगपतियों द्वारा उनका हक मारे जाने का डर सता रहा है। दोनों स्थितियों में सरकारी मशीनरी डरे लोगों का डर भगा पाने में सफल नहीं हुई और आंदोलन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गए। किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह कनाडा सरकार तक से आवाज उठाई गयी है, यह स्थिति चिंताजनक है। किसानों को लगता है कि भारत सरकार द्वारा उनके हित में बताया जा रहा कानून दरअसल उनके खिलाफ लाया गया है। उन्हें डर है कि इस कानून की आड़ में बड़े उद्योगपति किसानों का हक मार लेंगे। वे अपनी फसलों को वाजिब दाम दिलाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था समाप्त करने की संभावना से डरे हुए हैं। यह डर इस कदर है कि स्वयं प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था समाप्त नहीं होने जा रही थी, फिर भी वे विश्वास नहीं कर पा रहे हैं।

किसानों की मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीद को अपराध घोषित करे और न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर सरकारी खरीद को चालू रखा जाए। प्रधानमंत्री से लेकर कृषि मंत्री तक बार-बार न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था जारू रखने और सरकारी खरीद बंद न होने की बात कर रहे हैं। इसके बावजूद किसानों को सरकार पर विश्वास ही नहीं हो रहा है। उनका कहना है कि सरकार हाल ही में लाए कृषि सुधार कानूनों में संशोधन कर इस व्यवस्था को उन कानूनों का हिस्सा बनाएं और सरकार इस पर तैयार नहीं हो रही है। पंजाब से शुरू हुआ आंदोलन देश भर में धीरे-धीरे विस्तार ले रहा है। कोरोना के संकट से जूझ रहा देश किसान आंदोलन से उत्पन्न संकट का संत्रास भी बर्दाश्त कर रहा है। इसके पीछे अविश्वास की स्थितियां होना भी खतरनाक है। अब किसानों व सरकार के बीच अविश्वास की खाईं भरी जानी चाहिए। यदि नए कानून वास्तव में किसानों के हित में हैं तो उन्हें यह बात समझाई जानी चाहिए। साथ ही किसानों की जायज मांगों को कानून का हिस्सा बनाने जैसी पहल भी होनी चाहिए, ताकि उनका भरोसा बढ़े। डर हमेशा खतरनाक होता है और डर नहीं समाप्त हुआ तो संकट बढ़ेगा ही।

Saturday, 28 November 2020

अपना-अपना ‘लव’, अपना-अपना ‘जिहाद’

 डॉ.संजीव मिश्र

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गैरकानूनी धर्म परिवर्तन अध्यादेश लाए जाने के साथ ही ‘लव जिहाद’ को लेकर चर्चा और तेज हो गयी है। सामान्य रूप से हिन्दू संगठन पहले भी ‘लव जिहाद’ को लेकर तमाम सवाल उठाते रहते थे, किन्तु पिछले कुछ महीनों में कई राज्यों की सरकारों के बीच ‘लव जिहाद’ को लेकर कानून बनाने की होड़ सी लगी थी। कई राज्यों ने इस संबंध में घोषणाएं भी कीं और इसी बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने इस दिशा में अध्यादेश लाकर पहल भी कर दी। दरअसल ‘लव जिहाद’ का मौजूदा रूप अलग-अलग ढंग से परिभाषित हो रहा है। ‘लव जिहाद’ को सच मानने वाले हों या इसे कपोल कल्पना करार देने वाले हों, सभी का एजेंडा विचारधारा केंद्रित है। कहा जाए तो हर किसी का अपना-अपना ‘लव’ है, और विचारधारा जनित प्यार में हर कोई अपना-अपना ‘जिहाद’ यानी विचारधारा जनित युद्ध कर रहा है। इस इश्क और संघर्ष के परिणाम कुछ भी हों, पर यह पूरी प्रक्रिया भारतीय समाज में विभाजन की रेखाएं गहरी करने वाली है।

 ‘लव जिहाद’ की परिकल्पना के साथ ही हमें इस शब्द को समझना होगा। ‘लव’ एक अंग्रेजी शब्द है, जिसका सीधा अर्थ प्यार सबको समझ में आता है, वहीं ‘जिहाद’ एक अरबी शब्द है, जिसे अलग-अलग रूप में परिभाषित किया गया है। ‘जिहाद’ का अर्थ है अल्लाह के लिए स्वार्थ व अहंकार जैसी बुराइयों से संघर्ष है। इसके आशय धार्मिक युद्ध कतई नहीं है। इसके बावजूद लगातार ‘लव जिहाद’ को प्यार की राह पर चलकर धर्मयुद्ध के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है। ‘लव जिहाद’ को खारिज करने वाले प्यार को धर्म से जोड़ने का विरोध करते हैं। वे पूरी तरह गलत भी नहीं कहे जा सकते। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देश के हर नागरिक को प्रदान किया गया है। यह अधिकार अंतर्धार्मिक विवाहों का पथ भी प्रशस्त करता है। ऐसे में ‘लव जिहाद’ को गलत ढंग से परिभाषित करना समस्या की जड़ में है। वैसे भी भारत में अंतर्धार्मिक विवाहों की संख्या बहुत कम है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक भारत में अंतर्धार्मिक विवाह महज दो फीसद हैं। इन्हें सभी हिन्दू-मुस्लिम हों, ऐसा नहीं है और जो हिन्दू-मुस्लिम अंतर्धार्मिक विवाह हों, उनमें भी सभी लड़के मुस्लिम व लड़कियां हिन्दू हों ऐसा नहीं है।

भारत में केरल से ‘लव जिहाद’ की स्वीकार्यता की शुरुआत हुई, जो बाद में कर्नाटक के रास्ते देश के अन्य हिस्सों में विस्तार पाई। ‘लव जिहाद’ को लेकर इसके विरोधियों की सभी आशंकाएं निर्मूल हों, ऐसा पूरे तौर पर नहीं कहा जा सकता। उत्तर प्रदेश में कानून बनाने की यात्रा में हाल ही में कानपुर के कुछ मामले बड़ा कारण बने हैं। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि एक ही मोहल्ले की आधा दर्जन लड़िकयों को पास के एक ही मोहल्ले के दूसरे धर्म के आधा दर्जन लड़कों से प्यार हो जाए। यदि ऐसा हुआ भी हो, तो सामाजिक विद्वेष के इस दौर में इसे स्वीकार करना कठिन होता है। कानपुर में ऐसा हुआ है, कुछ माह के भीतर हुए 14 अंतर्धार्मिक विवाहों में लड़कियां हिन्दू धर्म की थीं। यह मामला सामने आने के बाद गठित विशेष जांच टीम ने पाया कि तीन लड़कों ने नाम बदलकर हिन्दू लड़कियों से संबंध बनाए। ऐसी स्थितियां शक पैदा करती हैं और इसके लिए सामाजिक रूप से मिलकर समस्याओं के समाधान की जरूरत है। इनमें आठ लड़कियां नाबालिग भी थीं, जिनके साथ संबंध बनाना पहले से ही अपराध की श्रेणी में आता है। ये स्थितियां ही कानून बनाने का आधार बनती हैं।

वैसे ‘लव जिहाद’ के विरोधियों को समता भाव भी स्थापित करना चाहिए। उत्तर प्रदेश की सरकार इसके खिलाफ अध्यादेश ले ही आयी है और मध्य प्रदेश, हरियाणा जैसे कुछ राज्यों की सरकारें इस दिशा में तैयारी कर रही हैं। संयोग है कि इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और भाजपा के शीर्ष दो मुस्लिम नेताओं ने हिन्दू बेटियों से ब्याह किया है। अब वे इसे ‘लव जिहाद’ के रूप में स्वीकार करते हैं या नहीं, यह भी देखना होगा। भाजपा में ही इश्क और विवाह के लिए धर्म परिवर्तन के बड़े उदाहरण के रूप में धर्मेंद्र व हेमामालिनी की जोड़ी है। धर्मेंद्र पहले से विवाहित थे और हिन्दू धर्मावलंबी होने के कारण पहली पत्नी होते हुए दूसरी शादी नहीं कर सकते थे। ऐसे में हेमामालिनी से विवाह के लिए उन्होंने धर्मांतरण कर निकाह किया था। कानून के मुताबिक यह धर्मांतरण तो पूरी तरह महज विवाह के लिए ही था। ऐसी स्थितियां निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण हैं और इन पर अंकुश लगना ही चाहिए। वैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय सहित कई अदालतें विवाह के लिए धर्म परिवर्तन को गलत ठहरा चुकी हैं। इस पर अंकुश लगाने व न्यायालय के फैसलों के अनुपालन में कोई दोष नहीं निकाला जा सकता। इन सबके बीच ‘लव जिहाद’ जैसे मसलों से सामाजिक मनभेद उत्पन्न करने वालों को भी चिह्नित किया जाना चाहिए। प्यार और धर्म के नाम पर किसी को भी अपना राजनीतिक एजेंडा लागू करने का मौका भी नहीं मिलना चाहिए। इससे समाज विभाजित होता है और देश की एकता-अखंडता पर संकट के बादल छाते हैं। इसे रोकना ही होगा।

Thursday, 19 November 2020

ठेंगे पर सरकार, मनमानी हो रही जानलेवा

डॉ. संजीव मिश्र

उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहीं प्रयागराज की सांसद रीता बहुगुणा जोशी के लिए यह दीवाली अंधियारों की सौगात लाई है। उनकी इकलौती पौत्री को रोक के बावजूद चले पटाखों का शिकार होना पड़ा। छह साल की बच्ची की जान पटाखों के कारण चली गयी। कोरोना के इस दौर में प्रदूषण की भयावहता को देखते हुए दिल्ली सहित देश के कई प्रमुख शहरों में पटाखों पर पाबंदी लगी थी। सरकारी पाबंदी के अलावा कोरोना के दौर में श्वसन संबंधी समस्याओं के मद्देनजर डॉक्टर भी पटाखे न चलाने की अपील लगातार कर रहे थे। इसके बावजूद दीवाली पर धड़ल्ले से पटाखे चलाए गए। इससे हजारों लोग अत्यधिक बीमार हुए, वहीं रीता बहुगुणा जोशी की पौत्री की मौत जैसी तमाम घटनाओं ने भी हिला कर रख दिया। दरअसल यह स्थितियां जनता के अराजक मनोभावों के कारण उत्पन्न हुई हैं। लोगों ने सरकार को ठेंगे पर रखकर मनमानी करने की ठान रखी है, जिससे संकट लगातार बढ़ रहा है और जनमानस की मनमानी जानलेवा साबित हो रही है।

जिस तरह देश में कोरोना पर नियंत्रण कठिन हो रहा है, भारी संख्या में लोगों की जान जा रही है, उसके लिए सिर्फ सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। सरकार लॉकडाउन की बात करती है, तो आर्थिक संकट मुंह बाए खड़ा हो जाता है। लॉकडाउन खत्म होता है तो लोग सड़कों पर इस तरह निकलते हैं, मानो बीमारी ही खत्म हो गयी हो। मास्क लगाने से लेकर दो गज दूरी बनाने तक की तमाम घोषणाओं को दरकिनार कर लोग अराजक ढंग से सड़क पर जगह-जगह भीड़ लगाए दिख जाएंगे। सरकारी रोक उसी तरह निष्प्रभावी है, जिस तरह देश के ज्यादातर हिस्सों में यातायात नियम निष्प्रभावी रहते हैं। सरकारी नियमों के अलावा समाजिक वर्जनाएं भी टूटने से समस्या हो रही है। दीवाली पर कोरोना के बावजूद जिस तरह से मनमाने ढंग से पटाखे चले और आतिशबाजी हुई, वह भारतीय संस्कृति के आचरण के अनुरूप तो कतई नहीं कही जा सकती। कुछ दशक पहले तक यदि गांव या मोहल्ले में किसी की मृत्यु हो जाती थी, तो उस गांव या मोहल्ले में दीपक प्रज्ज्वलित कर दीपावली मनाने का शगुन भर कर लिया जाता था, और पूरा मोहल्ला शोकग्रस्त वातावरण में पटाखे नहीं चलाता था। पिछले आठ महीनों से अधिक समय से देश कोरोना का दंश झेल रहा है। दिल्ली हो या देश के तमाम अन्य बड़े शहर, शायद ही कोई मोहल्ला होगा, जहां कोरोना या ऐसी ही किसी बीमारी के कारण मौतें न हुई हों। किन्तु अब लोगों को दूसरों के दुख की परवाह ही नहीं है और अपनी खुशियों के नाम पर पड़ोसी की मौत की परवाह किये बिना आतिशबाजी करने में पीछे नहीं रहते। यदि भारतीय सांस्कृतिक विरासत ही संजोई गयी होती, तो सरकारी रोक जैसी जरूरतें नहीं पड़तीं और पटाखों के कारण उत्पन्न संकट से बचा जा सकता था।

वैसे जनता सरकार की रोक भी नहीं मानना चाहती है। यही कारण है कि पटाखों पर रोक के बावजूद दिल्ली से लखनऊ तक हर जगह मनमाने ढंग से पटाखे चलाए गए। इसके परिणाम स्वरूप प्रदूषण में अनपेक्षित वृद्धि दर्ज की गयी।दीवाली की रात वायु गुणवत्ता सूचकांक सरकारी रोक संबंधी आदेशों को चिढ़ाता नजर आ रहा था। सामान्य स्थितियों में मानक के अनुरूप वायु गुणवत्ता सूचकांक पचास के आंकड़े को पार नहीं करना चाहिए। सौ के ऊपर वायु गुणवत्ता सूचकांक खतरनाक माना जाता है। इसके बावजूद जींद में दीवाली की रात वायु गुणवत्ता सूचकांक 457 पहुंच गया था। दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की हालत भी बहुत खराब रही। गाजियाबाद में वायु गुणवत्ता सूचकांक 448 तो नोएडा में 441 दर्ज किया गया। देश की राजधानी दिल्ली वाले सरकारी आदेश न मानने के लिए कितने बेताब हैं, यह बात भी दीवाली की रात साबित हुई। दिल्ली का वायु गुणवत्ता सूचकांक 435 दर्ज किया गया। यह आंकड़ा दिल्ली का औसत आंकड़ा था। दिल्ली के अंदर कुछ स्थानों पर तो वायु गुणवत्ता सूचकांक 500 तक पहुंच गया था। गुरुग्राम व फरीदाबाद भी इस मामले में पीछे नहीं रहे और दीवाली की रात हुई जमकर आतिशबाजी के चलते वहां वायु गुणवत्ता सूचकांक 425 व 414 तक पहुंच गया। यह स्थिति प्रदूषण को जानलेवा बना रही है। दिल्ली व आसपास जिस तेजी से तीसरी बार कोरोना पांव पसार रहा है, उस दृष्टि से यह प्रदूषण बेहत खतरनाक साबित होने वाला है।

ये स्थितियां बताती हैं कि आम जनमानस में सरकारों की बातें मानने की जिजीविषा ही समाप्त हो चुकी है। लोग मनमाने ढंग से हर पाबंदी को परिभाषित करते हैं। कई बार तो धार्मिक आधार पर भी पाबंदियों का समर्थन या विरोध शुरू हो जाता है। इसका कष्ट वही समझ पाता है, जिसके घर के किसी व्यक्ति की जान जाती है। अराजकता व मनमानी का परिणाम जाति, धर्म, सामाजिक ओहदा या स्थिति देखकर सामने नहीं आता। पटाखे हों या अन्य पाबंदियां, इन पर अमल जनता को ही सुनिश्चित करना होगा। ऐसा न होने पर पूरे समाज को बड़े कष्ट व संकटों के लिए तैयार रहना होगा। जिस तरह पर्यावरण की चिंता न कर हमने पूरे मौसम चक्र व वातावरण को खतरे में डाल दिया है, अब अन्य स्तरों पर अराजकता सामाजिक संकट का कारण बन रही है। इससे मुक्ति का पथ भी जनता को ही खोजना होगा।

Tuesday, 17 November 2020

...यह जनादेश वाला दल-बदल है

डॉ. संजीव मिश्र

अच्छा हुआ बिहार में मतदाताओं ने एक गठबंधन को सपष्ट बहुमत दे दिया है। ऐसा न होता तो आज सरकार बनाने से ज्यादा विधायकों को अपने पाले में करने की खींचतान चल रही होती। बिहार विधानसभा चुनाव के साथ ही मध्यप्रदेश सहित देश के कई राज्यों में उपचुनाव भी हुए हैं। इनमें मध्यप्रदेश के उपचुनावों के माध्यम से जनादेश वाले दल-बदल को मूर्त रूप मिला है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से दल-बदल कानून को ठेंगा दिखाते हुए राजनीतिक दलों ने जनादेश के साथ दल बदलने का रास्ता निकाल लिया है, यह समूचे लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। देश में जिस तरह विधायकों की सुगम आवाजाही कर सरकारें बदली गयीं, उससे 35 साल पुराना दल-बदल विरोधी कानून अप्रासंगिक हो गया है। अब नए सिरे से इसमें बदलाव की जरूरत भी है।

दरअसल 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आए दिन दल-बदल व जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त रोकने के लिए 52वें संविधान संशोधन के रूप में दल-बदल विरोधी कानून की पहल की थी। तब देश के अधिकांश राजनीतिक दलों ने दल-बदल विरोधी कानून का समर्थन किया तो लगा कि देश में क्रांतिकारी बदलाव आएगा। अब सत्ता की शुचिता बरकरार रहेगी। दल-बदल बिल्कुल रुक जाएंगे। 35 साल पहले दल बदल कानून लागू होने पर कुछ ऐसा संदेश दिया गया था कि पूरी-पूरी पार्टी या उसकी बड़ी संख्या को तोड़ना थोड़ा कठिन होगा। इसीलिए उस समय अन्य राजनीतिक दलों व नेताओं ने इस कानून का समर्थन भी किया था। जिस तरह से विधायक व सांसद चुनाव बाद अपनी निष्ठाएं बदल देते थे, उससे सर्वाधिक कुठाराघात जनता की भावनाओं के साथ ही होता था। दल-बदल कानून लागू होने के बाद उम्मीद थी कि यह मनमानी रुकेगी। कुछ वर्षों तक ऐसा हुआ भी, किन्तु राजनीतिक दलों ने फिर से राह निकाल ली। अब थोक में दल-बदल के साथ इस्तीफे व दोबारा चुनाव के साथ पूरी-पूरी पार्टी के ही वैचारिक परिवर्तन जैसे रास्ते निकाल लिये गए हैं। हालांकि 1985 में ही प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने इस कानून को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की थीं। उन्होंने उसी समय चेताया था कि इस कानून से दल-बदल नहीं रुकेगा। उनका कहना था कि यह कानून छोटे-छोटे यानी फुटकर दल-बदल को तो रोकता है किन्तु थोक में हुए दल-बदल को वैधता प्रदान करता है। अब लग रहा है कि मधु लिमये की आशंकाएं गलत नहीं थीं। कहा जाए कि उनकी चिंता सही साबित हुई है तो गलत नहीं होगा। दल-बदल कानून बनने के कुछ सालों के भीतर ही स्पष्ट होने लगा था कि यह कानून अपने मकसद को पाने में नाकाम साबित हो रहा है। अब तो लगने लगा है कि इस कानून ने भारत के संसदीय लोकतंत्र में कई तरह की विकृतियों को भी हवा दी है।

जिस तरह पिछले कुछ वर्षों में दल-बदल का स्वरूप बदला है, उससे इन विकृतियों को लेकर सामाजिक चिंताएं भी बढ़ी हैं। मध्यप्रदेश का समूचा घटनाक्रम इसका गवाह है। जिस तरह भाजपा का विरोध कर सत्ता में आए कांग्रेस के 22 विधायकों ने इस्तीफा देकर कमलनाथ की सरकार गिराई और फिर अब उपचुनावों में उनमें से अधिकांश भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर जीत कर फिर सत्ता का हिस्सा बन गए, इससे स्पष्ट है कि दल-बदल कानून बेमतलब साबित हो चुका है। इससे पहले थोक में दल बदल का एक और स्वरूप कर्नाटक में भी सामने आया था। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनवाने के लिए कांग्रेस व जनता दल (एस) के 17 विधायकों ने अपनी पार्टियों की बात नहीं मानी और विधानसभा से गैरहाजिर होकर अपनी पार्टियों के साथ विश्वासघात किया। बाद में वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गयी है और इन 17 विधायकों की सीटों पर उपचुनाव कराना पड़ा। कर्नाटक हो या मध्य प्रदेश, इन विधायकों के दल-बदल के कारण हुए चुनावों का खर्च सरकारों को उठाना पड़ा है, जो जनता की जेब से ही करों के रूप में वसूला हुआ है। इसके अलावा बिना विधानसभा चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बनने वालों के लिए सीट छोड़ने की परंपरा भी खासी प्रचलित है। इस कारण होने वाले उपचुनाव का खर्च भी जनता की जेब से ही जाता है।

इससे पूर्व महाराष्ट्र भी दल-बदल की अराजक स्थितियों का गवाह बना था। शिव सेना ने जिस भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनाव लड़ा, चुनाव के तुरंत बाद भाजपा से मतभिन्नता और फिर अलगाव जैसी स्थितियां उत्पन्न हो गयीं। इसी तरह कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उस शिवसेना के साथ सरकार बना ली, जिसकी आलोचना करते हुए पूरा चुनाव लड़ा। ऐसे में जनता के साथ तो यह भी विश्वासघात माना जाएगा। जनता ने शिवसेना को इसलिए वोट दिया था क्योंकि वह वैचारिक रूप से भाजपा के साथ खड़ी थी। भाजपा से अलग होकर शिवसेना ने उस जनादेश को चुनौती दी। इसी तरह भाजपा ने शिवसेना के साथ चुनाव लड़ते समय चुनाव बाद भी साथ रहने का वादा किया था, जिसे नहीं निभाया गया। निश्चित रूप से अब नए सिरे से ऐसी वादाखिलाफी पर भी अंकुश लगाए जाने की जरूरत है। यह समय एक बार फिर दल-बदल कानून पर पुनर्विचार का है। चुनाव पूर्व गठबंधनों की स्थिति में चुनाव बाद बदलाव की अनुमति न देने सहित दोबारा चुनाव की नौबत आने पर इसका खर्च इसके जिम्मेदार विधायकों से वसूलने जैसे प्रस्तावों पर भी विचार होना चाहिए। साथ ही ऐसी नौबत पैदा करने वालों के चुनाव लड़ने पर रोक जैसे प्रावधान भी लागू किये जाने चाहिए। देश की राजनीतिक व चुनावी शुचिता के लिए यह जरूरी भी है। ऐसा न होने पर राजनीतिक क्षेत्र से नए व अच्छे लोगों का जुड़ाव भी कठिन हो जाएगा। 

Monday, 9 November 2020

टुकड़ा-टुकड़ा आजादी का शिकार मीडिया

डॉ. संजीव मिश्र

भारतीय मीडिया इस समय आजादी की अलग ही लड़ाई लड़ रहा है। यह लड़ाई टुकड़ों में बंटे मीडिया समूहों की आजादी की है। यह लड़ाई पालों में बंटी मीडिया की खेमेबंदी से आजादी की है। यह लड़ाई सत्ता की कठपुतली की डोर से आजाद होने की कसमसाहट की है। यह लड़ाई अलग-अलग मुद्दों पर अलग-अलग स्टैंड से जूझकर बाहर निकलने की है। टुकड़ों में बंटा भारतीय मीडिया इस समय टुकड़ा-टुकड़ा आजादी का शिकार बन गया है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की इस निरीह स्थिति का लाभ अन्य स्तंभ पूरे मन से उठा रहे हैं। स्वयं आजादी की लड़ाई लड़ रहे मीडिया ने राजनीति व अफसरशाही को अपने इस बंटवारे का पूरा लाभ उठाने की आजादी दे भी दी है।

मुंबई में बुधवार की सुबह भारतीय मीडिया के एक चर्चित चेहरे अर्नब गोस्वामी को लाद कर ले जाती मुंबई पुलिस दरअसल एक अर्नब को नहीं ले जा रही थी, वह विभाजित भारतीय मीडिया को ढो रही थी। मुंबई पुलिस को पता था कि कुछ ही पलों बाद मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अर्नब के कर्मों का आंकलन कर तदनुरूप इस कार्रवाई में सीधे या परोक्ष रूप में उसके साथ खड़ा होगा, वहीं दूसरा हिस्सा उसका विरोध कर रहा होगा। हुआ भी ऐसा ही। जैसे-जैसे सूरज चढ़ रहा था, भारतीय मीडिया व पत्रकारों का यह रूप सामने आता जा रहा था। जिस तरह से देश में राजनीतिक दल इस मसले पर बंटे नजर आ रहे थे, वैसे ही मीडिया भी अपने वैचारिक राजनीतिक अधिष्ठानों के साथ सुर-ताल मिलाकर टुकड़े-टुकड़े नजर आ रहा था। इन सबके बीच कुछ नाम थे, जो कल तक अर्नब की पूरी पत्रकारिता को खारिज करते थे, उऩ्होंने पुलिस के तरीके पर आपत्ति जरूर जताई थी।

मुंबई पुलिस ने अर्नब के साथ जो किया, उसके बाद मीडिया की आजादी को लेकर भी चर्चा शुरू हो गयी है। यह चर्चा उस समय शुरू हुई, जब आत्महत्या उत्प्रेरण के एक मामले में अर्नब को उठाया गया। सवाल ये है कि सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या मामले की गहन पड़ताल का मसला भी तो अर्नब ने पूरे मन से उठाया था। यदि सुशांत की आत्महत्या के जिम्मेदार लोगों को सजा मिलनी चाहिए, तो अर्नब को सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिए जिनके खिलाफ सुसाइड नोट मिला था। जब सत्ता के साथ समीकरण अच्छे थे, तब अर्नब को इस मामले में क्लीनचिट मिल चुकी थी। यही संकट भारतीय पत्रकारिता का मूल संकट है। सत्ता के साथ समीकरण साध कर निहित स्वार्थों की पूर्ति करने वाली पत्रकारिता ने पत्रकारों को राजनीति व अधिकारियों की कठपुतली सा बना दिया है। सत्ता, राजनीति या प्रशासन के मजबूत लोग पत्रकारों के छोटे हित साधऩे के बाद उन्हें अपने बड़े हित में प्रयोग करते हैं। मीडिया के भीतर आगे बढ़ने की आपसी होड़ का लाभ भी नौकरशाही व राजनेता उठाते हैं।

टुकड़ों में हुए इस बंटवारे के कारण ही मीडिया के भीतर सच कहने का साहस समाप्त सा हो गया है। अर्नब के साथ सही-गलत की बात तो अलग है किन्तु अर्नब से पहले पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह देश भर में पत्रकारों पर हुकूमत ने जुल्म ढाए हैं, उन पर मिलकर आवाजें उठी ही नहीं हैं। सरकारों को सही या गलत ठहराने के लिए पत्रकार जिस तरह स्वयं को एक पक्ष का हिस्सा बना लेते हैं, उसका परिणाम है कि उनसे उनकी आजादी व सवाल पूछने की ताकत तक छिन जाती है। कुछ वर्ष पहले तक नेता परेशान रहते थे कि पत्रकार उनका साक्षात्कार करें, अब स्थितियां उल्टी हो चुकी हैं। आए दिन नेताओँ, अभिनेताओं आदि के साक्षात्कार लेने के बाद स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते पत्रकार सोशल मीडिया पर अपडेट करते दिख जाएंगे। अमेरिका जैसे देश में राष्ट्रपति ट्रंप के झूठ ट्रैक किये जाते हैं, पत्रकार खुल कर उनसे सवाल पूछने का साहस करते हैं कि कितना झूठ और बोलोगे। इसके विपरीत भारत में ऐसा साहस करने वाले पत्रकार कितने हैं। अब तो राजनीतिक शिखर पुरुष प्रेस कांफ्रेंस ही नहीं करते और जब अपनी जरूरत के अनुरूप साक्षात्कार देते हैं, तो पत्रकार व उनके मीडिया समूह गौरवान्वित हो उस साक्षात्कार की मार्केटिंग करने में व्यस्त हो जाते हैं।

इन्हीं स्थितियों ने भारत में मीडिया की आजादी के मापदंड को बहुत नीचे गिरा दिया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी मीडिया की स्वतंत्रता के सूचकांक (प्रेस फ्रीडम इनडेक्स) में भारत 180 देशों की सूची में 142वें स्थान पर है। प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में हम अपने पड़ोसियों से भी पीछए हैं। भूटान जैसा देश इस सूची में 67वें स्थान पर है, तो नेपाल 112लें स्थान पर है। श्रीलंका 127वें स्थान पर रहकर हमसे अच्छी स्थिति में है ही, वहीं युद्धग्रस्त अफगानिस्तान के पत्रकार भी भारतीय पत्रकारों से अधिक आजाद हैं। इस सूची में अफगानिस्तान 122वें स्थान पर है। भारतीय मीडिया की यह छीछालेदर अभी ऐसे ही जारी रहेगी। जबतक हम अपराधी पत्रकारों के साथ खड़े होने में हिचकेंगे नहीं और पत्रकारिता करते हुए सताए गए पत्रकारों के लिए सत्ता के डर से बोलने में हिचकेंगे। यह स्थिति समाप्त होनी चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र के लिए निष्पक्ष व स्वतंत्र पत्रकारिता सर्वाधिक आवश्यक अवयव है। ऐसा न हुआ तो लोकतंत्र खतरे में पड़ेगा और तानाशाही बढ़ेगी। फिर सिर्फ मीडिया की आजादी ही नहीं देश की आजादी खतरे में आ जाएगी। सावधानी जरूरी है।


Saturday, 31 October 2020

कोरोना प्रबंधन में तो भेदभाव न करते

डॉ.संजीव मिश्र

कोरोना को देश में आए छह महीने से ज्यादा हो गए हैं। कोरोना जैसी बीमारियों को लेकर हम कितना तैयार हैं, यह तो कोरोना की दस्तक के साथ ही अंदाजा लग गया था किन्तु इन छह महीनों में हम इलाज तो दूर प्रबंधन के लिए एक समान प्रोटोकॉल तक नहीं बना पाए। कोरोना संक्रमित होने के बाद ही इस भेदभाव का असली पता चलता है।

देश भर में कोरोना एक महामारी के रूप में सामने आया है। कोरोना संक्रमण अपने आप में भयावह है ही, इससे निपटने का तरीका और भी भयावह है। दरअसल एक देश के रूप में हम कोरोना जैसी महामारी के लिए तैयार ही नहीं थे। कोरोना आने के बाद पता चला कि आजादी के बाद से अब तक देश को स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मजबूती से तैयार ही नहीं किया गया। देश में तो कोरोना जैसी बीमारी से निपटने के लिए उपयुक्त अस्पताल ही नहीं हैं। डॉक्टर तो वैसे भी जरूरत से काफी कम हैं। अब जब कोरोना का संकट आ ही गया था तो हमें इससे सबक लेना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। कोरोना के सबक से देश के स्वास्थ्य तंत्र की सेहत सुधारने की जरूरी पहल होनी चाहिए, ताकि हम कभी भी, किसी तरह की स्वास्थ्य संबंधी आपदा से निपटने के लिए तैयार हो सकें। इसके विपरीत कोरोना से बचाव के लिए पूरा फोकस दिखावटी ज्यादा ही लग रहा है। मरीज के कोरोना संक्रमित होते ही भेदभाव शुरू हो जाता है। कुछ प्राइवेट जांच वाले तो बस मरीज को अस्पताल भेजने का ठेका ही लिए रहते हैं, जिससे अस्पतालों के दिन बहुर सकें। वहीं सरकारी अस्पतालों में इतने बेड ही नहीं हैं कि सभी का इलाज हो सके।

दरअसल कोरोना की भारत में दस्तक तमाम चुनौतियों और सच्चाइयों के खुलासे की दस्तक भी है। भारत से पहले जब चीन में कोराना का हाहाकार मचा था, तो चीन ने एक सप्ताह में 12 हजार शैय्या का अस्पताल बनाने की चुनौती को स्वीकार किया और ऐसा कर दिखाया। ऐसे में भारत के सामने ऐसी ही चुनौती सामने थी। हमने जो भी काम किये वे अपर्याप्त साबित हुए। वैसे भी एक देश के रूप में भारत स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में खासा फिसड्डी साबित हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए शोध में 195 देशों के बीच स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता व पहुंच के मामले में भारत 145वें स्थान पर है। हालात ये है कि इस मामले में हम अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश, भूटान व श्रीलंका आदि से भी पीछे हैं। आम आदमी तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने में विफलता के साथ-साथ चिकित्सकों की उपलब्धता के मामले में भी भारत का हाल बेहाल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के मुताबिक एक हजार आबादी पर औसतन एक चिकित्सक होना जरूरी है किन्तु भारत में ऐसा नहीं है। यहां पूरे देश का औसत लिया जाए तो 1,445 आबादी पर एक चिकित्सक ही उपलब्ध है। अलग-अलग राज्यों की बात करें तो हरियाणा जैसे राज्य की स्थिति बेहद खराब सामने आती है। हरियाणा में एक डॉक्टर पर 6,287 लोगों की जिम्मेदारी है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का हाल भी कुछ अच्छा नहीं है। यहां 3,692 आबादी के हिस्से एक डॉक्टर की उपलब्धता आती है। देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली तक विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर खरी नहीं उतरती और यहां एक डॉक्टर के  सहारे 1,252 लोग हैं। मिजोरम व नागालैंड में तो 20 हजार से अधिक आबादी के हिस्से एक डॉक्टर की उपलब्धता है। ऐसे में यहां इलाज कितना दुष्कर होगा, यह स्वयं ही समझा जा सकता है।

कोरोना संकट के बाद हम सबके लिए न्यूनतम स्वास्थ्य प्रोटोकाल पर फोकस करना जरूरी हो जाता है। पूरे कोरोना काल में ऐसा न हो सका। जिस तरह बिहार में विधान सभा चुनाव अभियान के दौरान रैलियों में भीड़ उमड़ रही है , उससे कोरोना प्रोटोकॉल के प्रति हमारी व हमारे नेताओं की गंभीरता साफ समझ में आ रही है। कोरोना संक्रमण के बाद भी मरीजों के साथ समान व्यवहार न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। कोरोना संक्रमण के बाद सामान्य स्थितियों में होम आइसोलेशन पर जोर दिया जा रहा है। आइसोलेशन में भी भेदभाव हो रहा है। इसमें मरीजों के आर्थिक व सामाजिक स्तर को देखकर होने वाला भेदभाव ही शामिल नहीं है, जिला व प्रदेश स्तर पर नियोजन में भी भेदभाव है। आप हरियाणा में हैं तो आइसोलेशन प्रोटोकॉल अलग है, उत्तर प्रदेश में अलग। उत्तर प्रदेश में भी कानपुर में हैं तो स्वास्थ्य विभाग के लोग आपको एक कमरे में कैद कर मेडिकल स्टोर का नाम बता देंगे, दवा लाने के लिए। सैनिटाइजेशन घर के भीतर करेंगे ही नहीं। इसके विपरीत नोएडा में कई बार आपको दवा भी देंगे और घर के भीतर हर तीसरे दिन सैनिटाइजेशन होगा।

ये स्थितियां बेहद खतरनाक हैं।  अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि सघन चिकित्सा कक्ष से लेकर एक साथ लाखों लोगों के उपचार तक के लिए हम पूरी तरह तैयार तक नहीं है, हमें कोरोना जैसी बीमारी के लिए समान प्रोटोकॉल तो बनाना ही पड़ेगा, ताकि मरीजों के बीच भेदभाव न हो। जिस तरह हमने पोलियो व स्मालपॉक्स (बड़ी माता) जैसी बीमारियों से संगठित रूप से मुकाबला किया, उसी तरह हमें कोरोना जैसी बीमारी से निपटना होगा। इसके लिए जनता, चिकित्सकों के साथ सरकारों को भी एक साथ गंभीरता दिखानी होगी। कोरोना हमें हमारी तैयारियों का आंकलन करने का अवसर भी दे रहा है, जिसके हिसाब से हमें आगे की कार्ययोजना बनानी होगी।