Tuesday 29 January 2019

...पर इन्हें नसीब नहीं आशियाना




डॉ. संजीव मिश्र
कानपुर। उनका नाम गुड्डी है। साठ साल की उम्र पार कर चुकी हैं। दो बेटों के ब्याह हो चुके हैं। बहुओं के साथ उनके बच्चे भी हैं। पर ये सभी रेलवे पटरी के किनारे एक कमरे की झोपड़ी में रहते हैं। रहते क्या हैं, रहने को मजबूर हैं। गुड्डी घर-घर झाड़ू-पोंछा करती है, बच्चे मजदूर हैं पर उनके पास आशियाना नहीं है। बड़ी मुश्किल से जुटाए कुछ रुपये जमा कर गुड्डी के परिवार को एक सरकारी कालोनी मिली भी तो वह वहां जाना नहीं चाहती।
यह कहानी केवल गुड्डी की नहीं, कानपुर के लाखों गरीबों की है। कानपुर देश के उन महानगरों में गिना जाता है, जहां विकास की शुरुआत हुई थी। उत्तर प्रदेश में सबसे पहले रेलवे लाइन यहीं तक आई थी, पहली बिजली कंपनी यहीं बनी थी। कभी भारत का मैनचेस्टर कहा जाने वाला यह शहर कुछ बरस पहले तक सोता नहीं था। मिलों के सायरन इस शहर को जगाए रखते थे और देश के पहले प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू ने इस शहर के मजदूरों के लिए एशिया की सबसे बड़ी कालोनी भी यहीं बनायी थी। इस स्वर्णिम अतीत के बाद आज कानपुर झोपड़पट्टियों का शहर बन गया है। लोग सड़क किनारे, रेलवे पटरियों के किनारे रहने-सोने को विवश हैं। सरकार आए दिन तमाम योजनाओं की घोषणा करती है, नयी कालोनियां बनती हैं किन्तु गरीबों व निराश्रितों के लिए ये कालोनियां बेमतलब साबित होती हैं।

हर सातवां व्यक्ति बेघर
2011 की जनगणना को आधार बनाएं तो कानपुर की आबादी 45 लाख पार थी। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों का मानना है कि इस समय जिले की आबादी पचास लाख के आसपास होगी। इसमें से शहरी आबादी 35 लाख है। कानपुर विकास प्राधिकरण व नगर निगम के आंकलन के अनुसार इनमें से लगभग पांच लाख लोग बेघर हैं या अवैध झोपड़ियों में रहने को मजबूर हैं। इस तरह कानपुर के शहरी इलाके में रहने वाला हर सातवां व्यक्ति अपनी छत को मोहताज है। वह घर लेना भी चाहता है किन्तु उसे आशियाना नसीब नहीं है। इसे सरकारी योजनाओं की विफलता ही कहेंगे कि आए दिन होने वाली घोषणाओं के बावजूद बेघरों की संख्या कम नहीं हो रही है।

घर लेने की चाह बड़ी
इन बेघरों के मन में घर लेने की चाहत बीच-बीच में हिलोरें भरती रहती है। गरीबों को घर देने के लिए केंद्र व राज्य सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों का चयन करने के लिए कानपुर विकास प्राधिकरण व नगर निगम ने पिछले दिनों कानपुर के बेघरों से आवेदन मांगे थे। इस योजना में दो लाख रुपये का एक घर बनाकर इन बेघरों को दिया जाना था। इस योजना से कनपुरिया बेघरों के सपनों को पंख लग गए थे और अपना आशियाना पाने की उनकी उम्मीद खासी बढ़ गयी थी। हालात ये थे कि कानपुर विकास प्राधिकरण के पास डेढ़ लाख और नगर निगम के पास 75 हजार लोगों ने आवेदन किया था। कानपुर विकास प्राधिकरण की उपाध्यक्ष सौम्या अग्रवाल भी मानती हैं कि इस हिसाब से आंकलन किया जाए तो लगभग दो लाख लोग तुरंत घर लेना चाहते हैं।

योजनाओं की कमी नहीं
ऐसा नहीं है कि सरकारी घोषणाओं में इन गरीबों के लिए आवासीय योजनाओं की कमी हो। पिछले 11 वर्षों में प्रदेश व केंद्र की सरकारों ने गरीबों के लिये सरकारों के हिसाब से योजनाओं का पिटारा सा खोल रखा है। मायावती के मुख्यमंत्री रहते हुए मान्यवर श्री कांशीराम जी शहरी गरीब आवास योजना का संचालन होता था, तो अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने पर लोहिया आवास पर फोकस रहा। इनके साथ केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री आवास योजनाएं तो चल ही रही हैं। इन सबके बावजूद इन बेघरों को छत नहीं मिल पा रही है।

कोई तो समझे इनका दर्द
तमाम योजनाओं और बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बावजूद बेघरों की संख्या न घटने की पड़ताल में तमाम चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। कानपुर के सीवरेज को बहाकर ले जाने वाले नाले को गंदा नाला के नाम से जाना जाता है। इसी नाले के किनारे भी हजारों लोगों की बस्ती बसी हुई है। विजय नगर चौराहे पर इसी बस्ती में रहने वाले बबलू से इस बाबत बात की तो उनका दर्द मुखर हो उठा। वे बोले, साहब हम भी कौन खुशी से यहां रहना चाहते हैं। आप हमारे बच्चों को देखिये, वे हमेशा बीमार रहते हैं। हम चाहकर भी उनकी चिंता नहीं कर पाते। पर हम जाएं तो जाएं कहां। हमारी घर वाली (पत्नी) पास के मोहल्ले में कई घरों में काम करती है और मैं सब्जी मंडी में ठेला लगाता हूं। पिछले साल हमें शहर से बाहर एक कालोनी में घर एलाट कर दिया गया था किन्तु वहां जाएं तो कैसे जाएं। बबलू के साथ खड़ी कुसुम भी बोल उठीं। वहां आसपास सब हम जैसे ही हैं, वहां काम कैसे मिलेगा। यहां घर नहीं, वहां काम नहीं, पर काम जरूरी है इसलिए हम वहां जा नहीं सकते। इन लोगों का साफ कहना था कि वे इस नरक में एक भी दिन नहीं रहना चाहते। बस उन्हें आबादी के बीच घर मिल जाए, वे चले जाएंगे।

शहर के बाहर बने आशियाने
दरअसल गरीबों को सरकार ने इकोनॉमिक वीकर सेक्शन (ईडब्ल्यूएस) के रूप में परिभाषित किया है। इनकी कालोनी जहां होती है, उसके आसपास के घरों की कीमत घट जाती है। ऐसे में इनके लिए शहर के बाहर आशियाने बनाए जाते हैं। कानपुर विकास प्राधिकरण के ही ताजा आंकड़ों को देखें तो इनके लिए मार्च 2018 तक कुल 49599 घर बनाए गए थे। इनके अलावा इस समय 1472 घर निर्माणाधीन हैं। जो घर बनाए गए हैं, वहां गरीब व बेघर जाना नहीं चाहते। दरअसल ये घर सनिगवां, दहेली सुजानपुर, गंगापुर, बिनगवां, जाजमऊ, वाजिदपुर आदि इलाकों में बनाए गए हैं। ये सभी इलाके शहर के सीमावर्ती इलाके हैं। इनमें से कुछ इलाकों में तो अभी आबादी तक नहीं है। ऐसे में जिन्हें ये घर आवंटित भी हुए हैं, वे वहां जाना नहीं चाहते। इसका परिणाम यह हुआ है कि सीमावर्ती इलाकों में बने फ्लैट्स पर न सिर्फ अवैध कब्जे हो रहे हैं, बल्कि वहां अपराधी भी काबिज हो रहे हैं। तमाम फ्लैट्स तो अपराधियों की शरणस्थली भी बन गए हैं। पनकी, रतनपुर से लेकर सनिगवां, बिनगवां और जाजमऊ, वाजिदपुर तक आए दिन अपराधियों की धरपकड़ इसका स्पष्ट प्रमाण है।

सरकार की मंशा ठेंगे पर
ऐसा नहीं है कि सरकार इस समस्या को समझ नहीं रही है। इस समस्या को समझते हुए ही सरकार ने सभी आवासीय योजनाओं में गरीबों के लिए दस फीसद ईडब्ल्यूएस घर बनाने की अनिवार्यता भी लगाई है, किन्तु इस पर अमल नहीं होता है। निजी बिल्डर तो अमल करते ही नहीं हैं, सरकारी एजेंसियां भी इस पर प्रभावी कार्रवाई नहीं कर रही हैं। हाल ही में कानपुर विकास प्राधिकरण ने विशेष सिग्नेचर सिटी का सपना शहरवासियों को दिखाया और पूरा भी किया जा रहा है। इस योजना में दो से चार बेडरूम के घर तो बनाए गए किन्तु गरीबों के लिए घर का कोई प्रबंध नहीं किया गया। आवास विकास परिषद ने भी फ्लैट बनाने शुरू किये हैं किन्तु उनके फ्लैट्स में इस इस ओर नियोजन के स्तर से ही ध्यान नहीं दिया जा रहा है। केंद्र सरकार गरीबों के भवन बनाने पर सब्सिडी तक देती है। बिल्डर इसका फायदा उठाने की कोशिश में हैं। वे अपनी बड़ी योजनाओं से दूर कुछ फ्लैट बनाकर ईडब्ल्यूएस फ्लैट्स का कोटा पूरा करते हैं और सरकारी सब्सिडी भी उठा लेते हैं। इसके अलावा बिल्डर उस व्यवस्था का भी लाभ उठाते हैं, जिसमें ईडब्ल्यूएस फ्लैट न बनाने पर विकास प्राधिकरण को उसकी धनराशि देने का प्रावधान हैं। वे गरीबों के लिए घर न बनाकर उसकी लागत प्राधिकरण को दे देते हैं। प्राधिकरण उस राशि से गरीबों के घर बनाता है, पर वे इतने दूर होते हैं कि कोई वहां रहना नहीं चाहता। निजी आवास निर्माता राघवेंद्र गर्ग इस तथ्य को स्वीकार भी करते हैं। उनका कहना है कि यदि किसी एपार्टमेंट में सौ फ्लैट बनने हैं तो वहां दस फ्लैट ईडब्ल्यूएस के बनाने की शर्त होती है। बिल्डर बनाना भी चाहे तो ऐसा होते ही उस परियोजना पर सवाल खड़े हो जाते हैं। दरअसल  पचास लाख से एक करोड़ रुपये तक खर्च कर फ्लैट खरीदने वाले 90 लोग दस गरीबों के साथ रहना ही नहीं चाहते।

रास्ता निकालने की हुई पहल
इस पूरी समस्या को अधिकारी भी स्वीकार करते हैं। कानपुर विकास प्राधिकरण की उपाध्यक्ष रहीं सौम्या अग्रवाल मानती हैं कि गरीबों को आशियाना देने में उनकी बस्तियों के इर्दगिर्द उपयुक्त स्थान का अभाव बड़ी बाधा बन रहा है। इसके समाधान के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत वे गरीबों की बस्तियों के पुनर्विकास का प्रयोग करने की पहल कर रही हैं। कानपुर के जूही कलां इलाके की झुग्गी बस्ती से इसकी शुरुआत होने जा रही है। वहां झुग्गियों का एक हिस्सा तोड़कर हाई राइज बिल्डिंग (बहुमंजिला इमारत) बनाकर उसके फ्लैट्स गरीबों को दिये जाएंगे। सभी झुग्गीवासियों को उसमें शिफ्ट कर शेष झुग्गियां तोड़ दी जाएंगी। इससे साफ बचे इलाके को बेचकर या वहां व्यावसायिक व रिहायशी फ्लैट बनाकर वित्तीय समायोजन किया जाएगा। वैसे कांशीराम आवास योजना के तहत कुछ वर्ष पूर्व काकादेव इलाके में भी ऐसी ही पहल हुई थी। वहां झोपड़पट्टी तोड़कर गरीबों को पक्के घर दिये गए थे और शेष बची भूमि एक बिल्डर को दे दी गयी थी। इससे उस बहुमंजिली इमारत का खर्चा भी निकल आया था और गरीबों को पक्के घर भी नसीब हो गए थे। जूही में योजना की सफलता के बाद विकास प्राधिकरण इसे और विस्तार देने की तैयारी में है।

नयी बस्तियों तक पहुंचाएं सुविधाएं
कानपुर व लखनऊ विकास प्राधिकरणों के मुख्य अभियंता रह चुके आरपी शुक्ल भी इस समस्या को भयावह करार देते हैं। वे इसे नियोजन के स्तर पर हुई चूक का परिणाम बताते हैं। उनका कहना है कि कार्यक्षेत्र से दस से बीस किलोमीटर दूर घर होने के कारण गरीब व बेघर वहां जाना नहीं चाहते। उनकी जितनी कमाई होती है, उसका बड़ा हिस्सा काम में आने-जाने पर खर्च हो जाता है। इसके अलावा ज्यादातर अपराध शहर के बाहरी इलाकों में होते हैं, इसलिए परिवार की सुरक्षा की चिंता भी दिन भर बनी रहती है। इस समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि नयी बस्ती या कालोनी बसाने के साथ ही वहां सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त किये जाएं। साथ ही इन परिवारों के कामकाजी लोगों को सरकारी परिवहन में मुफ्त या यथासंभव रियायती यात्रा की छूट दी जाए। इसके लिए उनके विशेष कार्ड बनाए जाएं। ऐसा करने पर वे दूर से आने-जाने को भी तैयार होंगी। इसके अलावा उऩ्हें घर आवंटन के साथ ही उनके बीपीएल कार्ड व राशन कार्ड भी नये पते पर बनाकर दे दिये जाएं। उन्हें सरकारी सुविधाओं का लाभ नए पते पर मिलेगा, तो वे वहां अवश्य रहने जाएंगे।

No comments:

Post a Comment